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 पहेली अनसुलझी?

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शशिकांत गुप्ते

भूदान प्रणेता गांधीजी के अनुयायी, अठाराह भाषाओं के ज्ञाता आचार्य विनोबा भावेजी ने कहा है कि,बहुत से लोगों में स्वार्थवश दूसरों द्वारा किए गए श्रम से अर्जित उपलब्धियों को भुनाने की आदत होती है।
विनोबाजी ने उदाहरण देतें हुए समझाया है कि, किसी कूप खनन के लिए निन्यानवे कुदाल चलाने वाला जब अपनी थकान मिटाने के लिए थोड़ा विश्राम करता है,उसी दौरान कोई व्यक्ति सौवी कुदाल चलाता है और जमीन से पानी का स्त्राव होने लगता है। तो श्रेय सौवी कुदाल चलाने को मिल जाता है।
वर्तमान में ऐसा ही दृश्य देखने को मिल रहा है। स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका अदा करने वाले अंसख्य देशभक्त रहें हैं। इनमें से कइयों ने अपनी शहादत दी है।
फिरंगियों से निरंतर लगभग दो सौ वर्षों तक सँघर्ष करने के बाद अपना देश स्वतंत्र हुआ।
आज हम स्वतंत्रता का पिचहत्तर वर्ष मना रहें हैं।
यकायक इस कहावत का स्मरण हुआ पूत कपूत तो क्यों धन संचय, पूत सपूत तो क्यों धन संचय
इस कहावत का स्मरण होने का कारण है कि, भौतिकवाद में लिप्त बहुत से पूत अपनी पुश्तेनी जायजाद को विक्रय कर प्राप्त धन को अपने ऐशो-आराम के लिए व्यय करतें हैं। मतलब ही,
अपने पुरखों द्वारा अथक श्रम के बाद अर्जित चल-अचल संपत्तियों को विक्रय कर विलासितापूर्ण जीवन यापन करतें हैं। ऐसा आचरण करते हुए जब वे अहंकार में कहतें हैं,हमारे पुरखों ने मेरे लिए क्या किया? सुनकर आश्चर्य होता है। इसतरह के आचरण करने वालों को ही कपूत कहतें हैं।
जो सपूत होतें हैं,वे अपने पुरखों द्वारा अर्जित सम्पत्तियों को ना सिर्फ सहेज कर रखतें हैं बल्कि सम्पत्तियों की बढाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहतें हैं।
बहुत से सपूत स्वावलम्बी होतें हैं। स्वतः ही अथक परिश्रम कर स्वयं तो अपने पैरों पर खड़े होतें ही है, साथ ही परिवार और समाज के लोगों की हर सम्भव सहायता करने के लिए तत्पर रहतें हैं।
बच्चों को संस्कार अपने परिवार के बुजुर्गों और अपने जनक एवं जननी से प्राप्त होतें हैं।
संस्कारवान बच्चे सदा अपने पुरखों के प्रति कृतज्ञता ही प्रकट करतें हैं।
कपूत अपने पुरखों के प्रति कृतघ्नता का संकुचित भाव ही रखतें हैं।
बहुत से बच्चे दुर्भाग्य से जन्म लेतें ही अनाथ हो जातें हैं लेकिन ऐसे बच्चों में भी कुछ बच्चें संस्कारवान बनते हैं।
संस्कार को आत्मसात करने की प्रवृत्ति होनी चाहिए। जरूरी नहीं है कि,संस्कारवान पालकों के बच्चें संस्कारवान ही हो।
प्राथमिक पाठशाला में ही पढ़ाया जाता है, सदा सच बोलना चाहिए और माता पिता की सेवा करनी चाहिए।
इस सबक को व्यवहारिकजामा कितने बच्चें पहना पाते हैं यह मनोविज्ञान में पारंगत लोगों के लिए खोज का विषय है।
बहुत सी सामाजिक, सांकृतिक संस्थाएं संस्कार और संस्कृति की शिक्षा देने का दावा करती है।
इन्ही संस्थाओं में पले-बढ़े लोग भी एकदम विपरीत आचरण करते हुए देखें जातें हैं।
ऐसा क्यों होता है यह अनुत्तरित प्रश्न है?

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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