अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

आरएसएस प्रमुख भागवत;  मोदी सरकार की प्रोपगंडा मशीन से निकली खरपतवार का महिमा गान

Share

बादल सरोज 

हर दशहरे को नागपुर में दिये जाने वाले आरएसएस प्रमुख के व्याख्यान में इस बार कहने को काफी कुछ था। एशियाई खेलों में खिलाड़ियों द्वारा जीते गए पदकों की गिनती थी, जी-20 के आयोजन में यजमानी से छक कर गए दुनिया भर के मेहमानों की डकारें थीं, वैज्ञानिकों के शास्त्र और तंत्र ज्ञान का बखान था, रामलला के मंदिर प्रवेश की तारीख का एक बार पुनः एलान था, संविधान के किसी पन्ने पर उनके चित्र के होने के चलते इस काम की संवैधानिकता का आख्यान था, शताब्दियों की संकट परम्परा और भौतिक आध्यात्मिक प्रगति के उलझावों का निदान था, जिनसे और जिनकी विचार परम्परा से उनके कुनबे का दूर दूर का भी रिश्ता नहीं है ऐसी अनेक विभूतियों की जयंतियों का गुणगान था। अपने किये धरे की तोहमत दूसरों पर थोपने की आजमाई हुई शैली में मत, सम्प्रदायों के वैमनस्य और टकरावों, भारत में समाज की सामूहिकता छिन्न भिन्न करने के आरोप का टोकरा कुछ बाहरी और कुछ अंदरूनी शक्तियों के सर पर रखने का रुदन था। मोदी सरकार की प्रोपगंडा मशीन से निकली खरपतवार का महिमा गान था।  

पहले के संघ प्रमुख सामान्यतः साल में सिर्फ एक बार दशहरे के दिन बोला करते थे-भागवत ऐसे संघ प्रमुख हैं जो औसतन हर दिन में दो बार बोलते हैं, इसलिए इस भाषण में पहले कहे जा चुके का भी दोहराव था।

दिलचस्प यह था कि दशहरा भाषण में उन्होंने हिन्दोस्तान की जिजीविषा और महानता को रेखांकित करने के लिए सप्रू कश्मीरी पंडित के पोते मुहम्मद इकबाल मसऊदी-जिन्हें दुनिया अल्लामा इकबाल के नाम से जानती है-की मशहूर ग़ज़ल का शेर “कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी / सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमां हमारा” भी पढ़ा। गौरतलब है कि ये वही अल्लामा इकबाल हैं जिनकी लोकप्रिय गीतिका “लब पे आती है दुआ” स्कूल में गाये जाने के चलते अभी 11 महीने पहले, योगी सरकार ने बरेली के एक स्कूल की दो शिक्षिकाओं पर आपराधिक मुकद्दमे दर्ज कर दिए थे।

बहरहाल, इस संबोधन का असली प्रबोधन, वास्तविक सार उसके अंतिम वाक्य में था।  शाखा में सुनाई जाने वाली किसी कविता की पंक्ति के साथ अपने भाषण का अंत करते हुए उन्होंने कहा था; “…प्रश्न बहुत से उत्तर एक !!”  और यही उत्तर था जिस पर उनका पूरा भाषण केन्द्रित था।  देश और धरा की सारी समस्याओं का कारण उन्होंने ढूंढ कर बताया कि सारे झंझटों की जड़ वे जागे हुए लोग हैं, जो खुद तो जाग्रत हैं ही दूसरों को भी जगाने की धुन में लगे रहते हैं। उन्होंने कहा कि “यह वे शक्तियां हैं जो किसी न किसी विचारधारा का आवरण ओढ़ लिया करती हैं, किसी मनलुभावन घोषणा अथवा लक्ष्य के लिए कार्यरत होने का छद्म रचती हैं, उनके वास्तविक उद्देश्य कुछ और ही होते हैं।“

वे यहीं तक नहीं रुके, अपनी बात को और साफ़ करते हुए उन्होंने फरमाया कि ये वे लोग हैं जो “अपने आपको सांस्कृतिक मार्क्सवादी या ‘वोक’ यानी जाग्रत और सचेत कहते हैं…..विश्व की सभी सुव्यवस्था, मांगल्य, संस्कार तथा संयम से उनका विरोध है। मुट्ठी भर लोगों का नियंत्रण सम्पूर्ण मानव जाति पर हो इसलिए अराजकता व स्वैराचरण का पुरस्कार, प्रचार व प्रसार  वे करते हैं।“

उन्होंने इन ‘वोक’ लोगों की कार्यशैली को भी ढूंढ ढूंढ कर बताया कि “माध्यमों तथा अकादमियों को हाथ में लेकर देशों की शिक्षा, संस्कार, राजनीति व सामाजिक वातावरण को भ्रम व भ्रष्टता का शिकार बनाना उनकी कार्यशैली है। ऐसे वातावरण में असत्य, विपर्यस्त्त तथा अतिरंजित वृत्त के द्वारा भय, भ्रम तथा द्वेष आसानी से फैलता है। आपसी झगड़ों में उलझकर असमंजस व दुर्बलता में फंसा व टूटा  समाज, अनायास ही इन सर्वत्र अपनी ही अधिसत्ता चाहने वाली ताकतों का भक्ष्य बना रहता है।“ यह गरिष्ठ  हिंदी उन्ही की है।  

इसी रौ में उन्होंने क्रान्ति -भगत सिंह ने जिसे इन्कलाब कहा था -को भी अपने तरीके से परिभाषित किया कि “अपनी परम्परा में इस प्रकार किसी राष्ट्र की जनता में अनास्था, दिग्भ्रम व परस्पर द्वेष उत्पन्न करने वाली कार्यप्रणाली को विप्लव कहा जाता है।“ भागवत के इस कथन का फौरी निशाना स्पष्ट है, हालांकि उसके लिए चुने गए सूत्रीकरण मौलिक नहीं है, मार्क्सवादियों सहित सामाजिक सुधार और जागरण में लगे लोगों, समूहों के बारे में संघ के अंतर्राष्ट्रीय दक्षिणपंथी कुटुम्बी यह बात न जाने कब से कह रहे हैं। फिलहाल उन पर चर्चा की बजाय  ‘वोक’ के भावार्थ जाग्रत और सजग लोग-लोगों को निशाने पर लेने के पीछे के इनके दूरगामी इरादों पर नजर डालना प्रासंगिक होगा।  

दुनिया और भारत में जाग्रत होने और जाग्रत करने का एक एतिहासिक परिप्रेक्ष्य है, उसका युगांतरकारी योगदान है। यह मानव सभ्यता का टर्निंग पॉइंट है। वैश्विक पैमाने पर इसकी शुरुआत कोई तीन शताब्दी पहले हुई । यूरोप में 17वी शताब्दी में तकनीक और विज्ञान के तब तक के विकास को आगे जारी रखने के लिए उस समय के अंधविश्वास, पोंगापंथ और उसके स्रोत जड़ धार्मिक ग्रंथों में लिखे और धर्माधीशों-यहां चर्च, पोप और पादरी -द्वारा थोपी गयी अवैज्ञानिक मान्यताओं पर हमला जरूरी था। इसका एक ही रास्ता था  और वह यह था कि दुनिया को सत्य माना जाये, उसमें घटने वाली घटनाओं के लिए किसी न किसी प्राकृतिक नियम को कारण माना जाए तथा उनके बारे में जानने और विश्लेषण करने के लिए, अनुभव और प्रमाण को आधार बनाया जाए। इसे प्रबोधन काल या ज्ञानोदय का युग या एज ऑफ़ एलाटंनमेंट कहा गया।  

उस समय के हालात को जानकर इसका महत्व ज्यादा सही तरीके से समझा जा सकता है। यह जिस काल में आंदोलन की तरह उभरा उस समय की प्रभावी समझदारी थी कि “मनुष्य एवं ब्रह्माण्ड के बारे में सत्य का केवल ‘उद्घाटन’ हो सकता है इसलिए उसे केवल पवित्र पुस्तकों के जरिए ही जाना जा सकता है।” यह भी कि “जहाँ ज्ञान का प्रकाश आलोकित नहीं होता वहां विश्वास की ज्योति से रास्ता सूझता है।”  इसलिए लिखे के विरुद्ध, आस्था और (अंध)श्रद्धा के खिलाफ जाना दंडनीय अपराध है।  ब्रूनो, कोपरनिकस, गैलीलियो से लेकर महिला गणितज्ञ हिपेशिया तक के साथ हुए बर्ताव इसके उदाहरण हैं।  

ज्ञानोदय ने इस नजरिए को खारिज कर दिया और दावा किया कि मनुष्य ब्रह्मांड के रहस्यों को पूरी तरह समझ सकता है। उसने कहा कि प्रकृति के बारे में हमें कथित पवित्र पुस्तकों के माध्यम से नहीं बल्कि प्रयोगों एवं परीक्षाओं के माध्यम से बात करनी चाहिए। तब के सामंती ढांचे में नई तकनीक का उपयोग कर ज्यादा उत्पादन करना सीख चुके लोहारों, बढ़इयों, जुलाहों और परिवर्तनकामी चेतना से लैस कुछ विचारकों ने इस अभियान का आगाज़ करते हुए कहा कि “व्यक्ति स्वतंत्र पैदा हुआ है इसलिए व्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए। सब मनुष्य एक समान उत्पन्न होते हैं उनमें जो विषमता पाई जाती है इसका कारण केवल यह है कि सबको शिक्षा एवं उन्नति का अवसर समान नहीं मिलता।इसी तरह अर्थव्यवस्था भी महज सीमित और बाधित व्यापार से ऊपर उठकर मुक्त अर्थव्यवस्था की ओर जानी चाहिए।”

इस समझदारी ने जबरदस्त क्रांतिकारी भूमिका निबाही। विज्ञान की नई नई खोजों के बंद दरवाजे खोले, औद्योगिक क्रान्ति की आधार शिला रखी।  

भारत में यह थोड़े देर से आया मगर आया। बीज रूप में यह मध्ययुग में भी रहा। जैसे बुद्ध ने सामन्तवाद की शुरुआत में ही उसकी नींव हिलाने वाली बातें कीं–पुरोहितवाद जनित जड़ता को तोड़ा। यह संयोग नहीं है कि भारत के ज्यादातर वैज्ञानिक अनुसंधान, आविष्कार और गणित, अंतरिक्ष विज्ञान, धातुकर्म, स्थापत्य आदि उसी कालखण्ड में हुए जब बुद्ध का “सवाल उठाओ, सवाल उठाने से ही समाधान निकलेंगे”  का तबके हिसाब से बेहद क्रांतिकारी दर्शन समाज पर वर्चस्व बनाये हुए था।

चार्वाक और लोकायत भी इसी बीच हुए जिन्हें अध्यात्मवाद के आधुनिक कुलाधिपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन अपने समय की वैज्ञानिक खोजों से कहीं ज्यादा आगे बढ़ा हुआ दर्शन मानते हैं। इनके साथ यहां भी वही हुआ जो बाद में यूरोप में हुआ था; चार्वाक ग्रंथों और परिवार सहित जला दिए गए, लोकायत के ग्रन्थ ढूंढ ढूंढ कर नष्ट किये गए, बौद्ध विहार और मठ पृथ्वी के इस हिस्से से गायब ही कर दिए गये। एक बौद्ध भिक्खु का सर काट कर लाने पर सौ स्वर्ण मुद्राएं देने की राजाज्ञाएं तक जारी कर दी गयीं। इसे दोबारा गति पकड़ने में कई सदियां लग गयीं।  

19वीं सदी में सामाजिक सुधार आंदोलन चले। समाज सुधार आंदोलनों ने ज्ञानोदय के मानवतावादी विचारों से प्रेरणा ली और धर्म तथा रीति-रिवाजों को मानव विवेक के सिद्धांतों के अनुरूप ढालते की कोशिश की। पारंपरिक रीति-रिवाजों और उन्हें जारी रखने वाले पुरोहितवाद की आलोचनात्मक परीक्षा की और उन कुरीतियों को बदलने की लड़ाई लड़ी जो समानता और सहिष्णुता के बुनियादी, सिद्धांतों के खिलाफ थी। इनका सामाजिक असर और उससे बने दबाव का ही नतीजा है भारत आ संविधान और सेक्युलर डेमोक्रेसी।  यह दबाब यहां तक पहुंचा कि वैज्ञानिक चेतना से खुद को लैस करना और बाकियों में भी वैज्ञानिक रुझान विकसित करना संविधान में नागरिकों के बुनियादी कर्तव्यों में जोड़ दिया गया।  

कुल मिलाकर यह कि इससे आधुनिक विश्व, बाद में आधुनिक भारत के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ, वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति ने औद्योगीकरण के नए युग का आधार तैयार किया। निरंकुश राजतंत्र पर चोट से लोकतंत्र उभरा। लोकप्रिय सरकारों की स्थापना, चिंतकों के द्वारा प्रतिपादित व्यक्ति स्वातंत्र्य की बात ने इसकी निर्माण की राह आसान की। आरए एस हमेशा से इस सबके विरुद्ध रहा है।

आरएसएस प्रमुख का विजयादशमी का भाषण असल में इस सबको उलटने का आव्हान है। सवाल उठाने वाले और अंधश्रद्धा और अंधविश्वास से मुक्त समाज को “सब कुछ पवित्र किताबों, अपौरुषेय वेदों और पुराणों में पहले से लिखा है” वाले तथा मनुस्मृति जैसी स्मृतियों और संहिताओं में लिखे के अनुसार चलने वाले  बंद और कुंठित समाज में बदलने के प्रण का सार्वजनिक एलान है। धर्म के क्षेत्र में पहले से ही यह परियोजना अमल में लाई जा रही है।

हाल के दौर में कुरीतियों के सुधार की बात करने वाले धार्मिक व्यक्तियों को भी किनारे लगा दिया। विवेकानंद को आसाराम, हिंदू को सनातनी और गांधी को गोडसे से प्रतिस्थापित किया जाना इसी की मिसाल हैं। आधुनिक चेतना और नवजागरण के बाकी माध्यमों को अपनी संगति में ढालने के षड्यंत्र जारी थे । शिक्षा में बदलाव, विश्वविद्यालयों पर हमलों, विचारोत्तेजक किताबों और बुद्धिजीवियों को निशाना बनाकर उन्हें जेल में डालने से लेकर मार डालने तक के काम अभी धीमे धीमे तेज हो रही तीव्रता से हो रहे थे, संघ प्रमुख का भाषण उन पर नयी यलगार की घोषणा करता है। बर्बरता के नए चरण का शंख फूंकता है।

ठीक यही वजह है कि 2023 के संघ प्रमुख मोहन भागवत के भाषण को कहे गए के बीच अनकहे के साथ सुनने की जरूरत है, पंक्तियों के बीच लिखे को बांचने और उसमे निहित इरादों को आंकने की आवश्यकता है। वे अच्छी तरह जानते हैं कि लोग इस एजेंडे की असलियत को समझकर इसके प्रतिकार में उतर सकते हैं, इसलिए वे इसे मिथ्या राष्ट्रीय गौरव की चाशनी में लपेट कर, खोखले राष्ट्रवाद के सांचे में ढालकर परोसना चाहते हैं।

वे भी जानते हैं कि ऐसा करना आसान नहीं है, कि भारतीय समाज में समानता, लोकतंत्र, सहिष्णुता और बदलाव की चाहत उसके स्वभाव का हिस्सा बन चुकी हैं- वे जिद के साथ उभरेंगी। उन्हें और तेजी से उभरना होगा क्योंकि ख़तरा वास्तविक है और दांव पर सिर्फ आज, या संविधान या सौ दो सौ साल की कमाई नहीं है, पांच हजार वर्ष का सारा सकारात्मक हासिल है। उनकी तर्ज पर इस ओर भी प्रश्न बहुत से उत्तर एक हैं और वह उत्तर है अँधेरे के खिलाफ रोशनी अनेक !!

(बादल सरोज लोकजतन के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।) 

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें