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आरएसएस के सौ साल: .भारत के संविधान के साथ आरएसएस का रिश्ता काफ़ी जटिल

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आज़ादी के बाद से अब तक अलग-अलग मौक़ों पर संघ ने इन तीनों अहम मुद्दों पर अपने विचार कई बार बदले हैं.भारत के संविधान के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का रिश्ता काफ़ी जटिल रहा है.

‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ नाम की मशहूर किताब में संघ के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर लिखते हैं, “हमारा संविधान भी पश्चिमी देशों के विभिन्न संविधानों के विभिन्न अनुच्छेदों का एक बोझिल और विषम संयोजन मात्र है. इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे हमारा अपना कहा जा सके. क्या इसके मार्गदर्शक सिद्धांतों में एक भी ऐसा संदर्भ है कि हमारा राष्ट्रीय मिशन क्या है और जीवन में हमारा मुख्य उद्देश्य क्या है? नहीं!”

कई इतिहासकारों ने इस बात का ज़िक्र किया है कि भारत को आज़ादी मिलने से एक दिन पहले 14 अगस्त 1947 को आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइज़र’ ने लिखा कि “भाग्य के बूते सत्ता में आए लोग भले ही तिरंगा हमारे हाथों में थमा दें, लेकिन हिंदू इसका कभी सम्मान नहीं करेंगे और इसे अपनाएंगे नहीं.”

“तीन शब्द अपने आप में एक बुराई है और तीन रंगों वाला झंडा निश्चित रूप से बहुत बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पैदा करेगा और देश के लिए हानिकारक है.”

राजेंद्र प्रसाद, नेहरू, पटेल, मौलाना आज़ाद और बाबा साहेब आंबेडकर
,साल 2001 में कांग्रेस की एक रैली में बॉम्बे में लगा एक पोस्टर

एजी नूरानी एक जाने-माने वकील और राजनीतिक टिप्पणीकार थे जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट और बॉम्बे हाई कोर्ट में काम किया. अपनी किताब ‘द आरएसएस: ए मेनेस टू इंडिया’ में वे लिखते हैं कि ‘संघ’ भारतीय संविधान को अस्वीकार करता है.

वे लिखते हैं, “इसने (संघ ने) 1 जनवरी 1993 को अपना ‘श्वेत पत्र’ प्रकाशित किया, जिसमें संविधान को ‘हिंदू विरोधी’ बताया गया और देश में वह किस तरह की राजनीति स्थापित करना चाहता है इसकी रूपरेखा बताई गई. इसके मुखपृष्ठ पर दो सवाल पूछे गए- ‘भारत की अखंडता, भाईचारे और सांप्रदायिक सौहार्द को नष्ट करने वाला कौन है?’ और ‘भुखमरी, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और अधर्म किसने फैलाया है?’ इसका जवाब श्वेत पत्र में ‘वर्तमान इंडियन संविधान’ शीर्षक के तहत दिया गया है.”

ये श्वेतपत्र 6 दिसंबर 1992 को हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस के कुछ ही दिन बाद छपा था.एजी नूरानी लिखते हैं कि इस श्वेत पत्र के हिंदी शीर्षक में ‘इंडियन’ शब्द का इस्तेमाल एक मक़सद से किया गया. वे लिखते हैं, “इसका मतलब यह है कि यह हिंदू (या भारतीय) संविधान नहीं बल्कि इंडियन संविधान है.”

नूरानी ने दर्ज किया है कि श्वेत पत्र की प्रस्तावना में स्वामी हीरानंद ने लिखा, “वर्तमान संविधान देश की संस्कृति, चरित्र, परिस्थितियों आदि के विपरीत है. यह विदेशोन्मुखी है’ और ‘वर्तमान संविधान को निरस्त करने के बाद ही हमें अपनी आर्थिक नीति, न्यायिक और प्रशासनिक ढांचे और अन्य राष्ट्रीय संस्थाओं के बारे में नए सिरे से सोचना होगा.”अपनी किताब में नूरानी लिखते हैं कि जनवरी 1993 में आरएसएस के प्रमुख रहे राजेंद्र सिंह ने लिखा कि संविधान में बदलाव की ज़रूरत है और भविष्य में इस देश के लोकाचार और प्रतिभा के अनुकूल संविधान अपनाया जाना चाहिए.24 जनवरी 1993 को आंध्र प्रदेश के अनंतपुर में तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने भी संविधान पर नए सिरे से विचार करने की मांग दोहराई थी.

संविधान बदलने की कोशिश?

नरेंद्र मोदी
बीजेपी ने साल 2024 के चुनावों में 400 से ज़्यादा लोकसभा सीट लाने का दावा किया था

साल 2024 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं के बयानों के बीच ये कहा जाने लगा कि भाजपा अगर ‘अबकी बार 400 पार’ के नारे को हक़ीक़त में बदलती है तो वह संविधान को बदल देगी.

भाजपा ने कई बार स्पष्टीकरण दिया कि ऐसा करने का उसका कोई इरादा नहीं है लेकिन ऐसे उदाहरण मौजूद हैं जब पार्टी ने संविधान में बड़े बुनियादी बदलाव की कोशिश की.वरिष्ठ पत्रकार और लेखक नीलांजन मुखोपाध्याय ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बड़े नामों पर ‘द आरएसएस: आइकन्स ऑफ़ द इंडियन राइट’ नाम की किताब लिखी है.

वे कहते हैं, “जब अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते एनडीए सरकार बनी तो उन्होंने सबसे पहला काम यह किया कि संविधान की समीक्षा के लिए एक समिति गठित की. भारी हंगामे की वजह से उन्हें समिति बनाने की वजह को बदलना पड़ा और कहना पड़ा कि यह समिति संविधान की पूरी समीक्षा न करके, ये देखेगी कि अब तक संविधान ने कैसे काम किया है.”

मुखोपाध्याय के मुताबिक़, वाजपेयी सरकार में संविधान की समीक्षा करने के लिए समिति इसलिए बनाई गई थी क्योंकि संघ और बीजेपी का ये मानना था कि मौजूदा संविधान की जगह एक नया संविधान होना चाहिए.साल 2014 में प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल की शुरुआत संविधान को भारत की एकमात्र पवित्र पुस्तक और संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहकर की.

‘संघ संविधान को पहले से मानता है’

वाजपेयी, आडवाणी, जसवंत सिंह, प्रमोद महाजन
,अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री रहते संविधान की समीक्षा के लिए समिति बनाई थी

पिछले कुछ सालों में संविधान को लेकर संघ ने अपना रुख़ साफ़ करने की कोशिश की है.साल 2018 में दिल्ली के विज्ञान भवन में संघ के मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा, “ये संविधान हमारे लोगों ने तैयार किया और ये संविधान हमारे देश का कंसेंसस (आम राय) है इसलिए संविधान के अनुशासन का पालन करना सबका कर्त्तव्य है. संघ इसको पहले से ही मानता है…हम स्वतंत्र भारत के सब प्रतीकों का और संविधान की भावना का पूर्ण सम्मान करके चलते हैं.”

बद्री नारायण एक सामाजिक इतिहासकार और सांस्कृतिक मानवविज्ञानी हैं. वे फ़िलहाल गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान में प्रोफ़ेसर के तौर पर कार्यरत हैं.वे कहते हैं, “संघ ने कई बार रुख़ साफ़ किया है कि वो संविधान को पूरी तरह से मानते हैं, संविधान के साथ हैं और संविधान के मूल्यों में विश्वास करते हैं. मुद्दा खड़ा करने वाले लोग कोई भी मुद्दा खड़ा कर लेते हैं और हर चीज़ में राजनीति ढूंढ लेते हैं.”

“अगर आप संघ के बयान देखें- मोहन भागवत या उनके पहले बालासाहब देवरस ने जो कहा है, तो ये दिखता है कि संघ एक लोकतांत्रिक राज्य और संविधान में विश्वास रखता है.”प्रोफ़ेसर बद्री नारायण के मुताबिक़, संविधान के साथ संघ का संवाद गहरा है और संविधान को लेकर पिछले दो दशकों में संघ ने जो रुख़ दिखाया है वो संविधान के पक्ष में ही है और इसमें कोई विरोधाभास नहीं है.

मनुस्मृति और संविधान

राहुल गांधी
,कांग्रेस नेता राहुल गांधी लंबे समय से संविधान पर ख़तरे की बात कर रहे हैं और आमतौर पर अपनी सभाओं में संविधान की एक कॉपी लेकर जाते हैं

दिसंबर 2024 में जब भारत की संसद संविधान को अपनाने के 75 साल पूरे होने का जश्न मना रही थी उस वक़्त कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने संविधान और मनुस्मृति के मसले पर सावरकर के लेखों का हवाला देते हुए बीजेपी पर निशाना साधा.

अपने दाहिने हाथ में संविधान और बाएँ हाथ में मनुस्मृति की प्रति लेकर राहुल गांधी ने कहा कि सावरकर ने अपने लेखन में साफ़तौर पर कहा है कि हमारे संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं है और संविधान को मनुस्मृति से बदल दिया जाना चाहिए. इस बयान पर संसद सत्र में कई दिन हंगामा हुआ.

कांग्रेस समेत कई विपक्षी राजनीतिक दल मनुस्मृति और संविधान के मुद्दे पर लगातार आरएसएस को घेरते रहे हैं.प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ा चुके हैं और आरएसएस और हिन्दू राष्ट्रवाद के विषयों पर कई किताबों के लेखक हैं.

वे कहते हैं, “26 नवम्बर 1949 को भारत की संविधान सभा ने भारत का संविधान पास किया. चार दिन बाद संघ से जुड़े लोगों ने एडिटोरियल लिखा जिसमें कहा कि इस संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं है.”

प्रोफ़ेसर इस्लाम के मुताबिक़ संविधान की आलोचना करते हुए संघ ने ये सवाल भी उठाया था कि क्या मनुस्मृति में ऐसा कुछ नहीं मिला जिसे इस्तेमाल किया जा सके.वे कहते हैं, “इससे पहले सावरकर ये बोल चुके थे कि मनुस्मृति वह धर्मग्रंथ है जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सबसे अधिक पूजनीय है और मनुस्मृति हिन्दू क़ानून है.”

गोलवलकर की बंच ऑफ़ थॉट्स का हवाला देते हुए प्रोफ़ेसर इस्लाम कहते हैं, “भारत के संविधान का इतना मज़ाक मुस्लिम लीग ने भी नहीं उड़ाया जितना गोलवलकर ने उड़ाया.”प्रोफे़सर शम्सुल इस्लाम कहते है, “आरएसएस की सोच संविधान के प्रति जो पहले थी, वही अब भी है. और वे सही वक़्त का इंतज़ार कर रहे हैं.”

सीएएस के ख़िलाफ़ प्रदर्शन
,साल 2019-20 में देश के कई इलाक़ों में सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शन हुए थे

नीलांजन मुखोपाध्याय प्रोफ़ेसर इस्लाम की बात से सहमत हैं.

पिछले कुछ सालों में संविधान में हुए बड़े बदलावों की बात करते हुए मुखोपाध्याय कहते हैं, “सीएए के तहत नागरिकता को धार्मिक पहचान से जोड़ दिया गया है. ये उन लोगों के लिए है जो बाहर से आकर भारत में बस गए हैं लेकिन इन लोगों में से मुसलमानों को बाहर रखा गया है.”

मुखोपाध्याय का कहना है कि मौजूदा सरकार ने संविधान के मूल ढांचे पर बहस शुरू कर दी है, वो मूल ढांचा जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने 1973 में आदेश दिया था कि इसे बदला नहीं जा सकता.

वे कहते हैं, “उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और पूर्व कानून मंत्री किरेन रिजिजू तर्क दे रहे हैं कि ‘संविधान का मूल ढांचा’ नाम की कोई चीज़ नहीं है, सब कुछ बदला जा सकता है. वे कह रहे हैं कि विधायिका सर्वोच्च है इसलिए संविधान में कुछ भी बदलने के लिए आपको बस संसदीय बहुमत की ज़रूरत है.”

भारत के झंडे पर आरएसएस का बदलता रुख़

जवाहर लाल नेहरू
,30 जुलाई 1947 को संविधान सभा को भारतीय तिरंगा झंडा दिखाते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू

आज आरएसएस सार्वजनिक तौर पर तिरंगे झंडे को फहराता है. तिरंगे को आरएसएस के कार्यक्रमों और परेडों में अक्सर देखा जा सकता है, संघ कहता है कि वो राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करता है.

लेकिन आज़ादी के पहले और बाद के कई दशकों तक तिरंगे को लेकर संघ के रुख़ पर कई सवालिया निशान लगे.

आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर भारत के तिरंगे झंडे के आलोचक थे. अपनी किताब “बंच ऑफ़ थॉट्स” में उन्होंने लिखा कि तिरंगा “हमारे राष्ट्रीय इतिहास और विरासत पर आधारित किसी राष्ट्रीय दृष्टि या सत्य से प्रेरित नहीं था.”

गोलवलकर का कहना था कि तिरंगे को अपनाने के बाद इसे विभिन्न समुदायों की एकता के रूप में व्याख्यायित किया गया- भगवा रंग हिंदू का, हरा रंग मुस्लिम का और सफेद रंग अन्य सभी समुदायों का.

उन्होंने लिखा, “गैर-हिंदू समुदायों में से मुसलमान का नाम विशेष रूप से इसलिए लिया गया क्योंकि उन प्रमुख नेताओं के मन में मुसलमान ही प्रमुख था और उसका नाम लिए बिना वे नहीं सोचते थे कि हमारी राष्ट्रीयता पूरी हो सकती है! जब कुछ लोगों ने बताया कि इसमें सांप्रदायिक दृष्टिकोण की बू आती है तो एक नया स्पष्टीकरण सामने आया कि भगवा बलिदान का प्रतीक है, सफेद पवित्रता का और हरा शांति का प्रतीक है.”

लेखक और पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, “जब सन 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज की बात कही गई तो ये फ़ैसला लिया गया कि 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाएगा और तिरंगा झंडा फहराया जायेगा. आरएसएस ने उस दिन भी तिरंगे की जगह भगवा झंडा फहराया था.”

धीरेंद्र झा एक जाने-माने लेखक हैं जिन्होंने आरएसएस पर गहन शोध किया है. हाल ही में संघ के दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर पर उनकी किताब प्रकाशित हुई है. इससे पहले वो नाथूराम गोडसे और हिंदुत्व के विषयों पर भी किताबें लिख चुके हैं.

झा कहते हैं कि डॉक्टर हेडगेवार ने 21 जनवरी 1930 को लिखी चिट्ठी में संघ की शाखाओं में तिरंगे को नहीं बल्कि भगवा झंडे को फहराने की ही बात कही थी.

संघ इन आरोपों का खंडन करता रहा है, वैसे भी 1930 में तिरंगा झंडे को राष्ट्रध्वज का दर्जा हासिल नहीं था.

साल 2018 में संघ के मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा, “डॉ. हेडगेवार के जीवन का एकमात्र मिशन राष्ट्र का गौरव और स्वतंत्रता प्राप्त करना था. तो संघ का कोई और लक्ष्य कैसे हो सकता है? और स्वाभाविक रूप से स्वयंसेवकों के मन में हमारी स्वतंत्रता के सभी प्रतीकों के प्रति अत्यधिक श्रद्धा और समर्पण है. संघ इसके अलावा कुछ और सोच ही नहीं सकता.”

उस वक़्त तिरंगा कांग्रेस का झंडा था, राष्ट्रध्वज नहीं’

आरएसएस के स्वयंसेवक संघ के झंडे के साथ
आरएसएस के स्वयंसेवक संघ के झंडे के साथ

रामबहादुर राय एक जाने-माने पत्रकार रहे हैं और फ़िलहाल इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष हैं. उन्होंने भारत के संविधान और आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक बालासाहब देवरस पर किताबें लिखी हैं.

संघ के साल 1930 में तिरंगा न फहराने की बात पर वे कहते हैं, “मेरा ये मानना है कि तिरंगा नहीं फहराया होगा. आप इसको मनोविज्ञान के हिसाब से देखिए. तिरंगा उस समय आज़ादी का प्रतिनिधित्व नहीं करता था. तिरंगा उस समय कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करता था.”

राय कहते हैं, “ये सही है कि कांग्रेस उस समय राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम की मुख्यधारा का प्रतिनिधि मंच था. आरएसएस भी स्वाधीनता के लक्ष्य से प्रेरित था. लेकिन आरएसएस का कांग्रेस से अस्तित्व अलग था. और आरएसएस के अस्तित्व का चिन्ह भगवा है. तो डॉ हेडगेवार ने जो पत्र लिखा उसमें मेरी समझ से दो बातें हैं कि स्वाधीनता के आंदोलन में हम शामिल हैं परन्तु हमारा अस्तित्व अलग है, इसलिए हमको अपना झंडा फहराना चाहिए.”

संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर अपनी किताब ‘आरएसएस: 21वीं सदी के लिए रोडमैप’ में लिखते हैं, “हमारा राष्ट्रीय ध्वज, जिसे हिंदी में ‘तिरंगा’ कहा जाता है, हम सभी को प्रिय है. 15 अगस्त 1947 को भारत के स्वतंत्र होने के दिन और 26 जनवरी 1950 को जिस दिन भारत एक गणतंत्र बना नागपुर में आरएसएस मुख्यालय में तिरंगा फहराया गया था.”

सन 1963 का गणतंत्र दिवस समारोह
इमेज कैप्शन,सन 1963 का गणतंत्र दिवस समारोह

आंबेकर इस बात का भी ज़िक्र करते हैं कि 1963 में गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेते वक़्त स्वयंसेवकों ने तिरंगा झंडा ही उठाया था.

संघ से जुड़े लोग भी इस बात का हवाला अक्सर देते हैं कि 1962 में चीन से हुई लड़ाई के बाद 1963 के गणतंत्र दिवस की परेड में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संघ को ख़ास तौर से बुलाया.

धीरेन्द्र झा कहते हैं कि “संघ के लोगों के हाथ में तिरंगा पहली बार 1963 के गणतंत्र दिवस परेड में दिखा” लेकिन ऐसा नहीं था कि इस परेड में सिर्फ़ संघ को ही बुलाया गया था. वे कहते हैं कि इस परेड में सारे ट्रेड यूनियनों, स्कूलों, कॉलेजों को न्यौता दिया गया था.

झा कहते हैं, “इस परेड को लोगों की परेड के रूप में सोचा गया था क्योंकि 1962 का युद्ध ख़त्म ही हुआ था और फ़ौजें सरहद पर ही थीं. भारतीय मज़दूर संघ, ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस और इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस जैसे संगठनों को न्यौता दिया गया था. उसमें ये (संघ के लोग) वर्दी पहनकर शामिल हुए क्योंकि इन्हें वैधता की ज़रूरत थी, गाँधी हत्याकांड के बाद इन्हें ग़ैर-क़ानूनी ठहरा दिया गया था.”

झा कहते हैं कि संघ के लोगों के हाथ में उस वक़्त तिरंगा दिखा क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ये साफ़ कर दिया था कि कोई भी अपना झंडा या बैनर नहीं लाएगा और सबके हाथ में सिर्फ़ तिरंगा होगा.

धीरेन्द्र झा के मुताबिक़, “यहाँ भी संघ बाद में झूठ फैलाने लगा कि आरएसएस को नेहरू जी ने न्यौता दिया था.”

वे कहते हैं, “संघ का तिरंगे के साथ सहज रिश्ता नहीं रहा है. बहुत बाद में आकर जब संघ को समझ आने लगा कि तिरंगा, संविधान और गाँधी तो इस देश की आत्मा हैं तब से ये तिरंगे के प्रति श्रद्धा का दिखावा करने लगे.”

संघ पर आज़ादी के बाद भी भारत का झंडा न फहराने का आरोप

संघ ने 26 जनवरी 2002 को अपने मुख्यालय पर पहली बार तिरंगा फहराया था
,संघ ने 26 जनवरी 2002 को अपने मुख्यालय पर पहली बार तिरंगा फहराया था (सांकेतिक तस्वीर)

संघ की एक आलोचना ये भी रही थी कि संघ अपने मुख्यालय पर भारत का झंडा नहीं फहराता. साल 1950 के बाद संघ ने 26 जनवरी 2002 को अपने मुख्यालय पर पहली बार तिरंगा फहराया था.

इसके जवाब में आरएसएस के समर्थक और नेता कहते हैं कि संघ ने 2002 तक राष्ट्रीय ध्वज इसलिए नहीं फहराया क्योंकि 2002 तक निजी नागरिकों को राष्ट्रीय ध्वज फहराने की इजाज़त नहीं थी.

लेकिन इस तर्क के जवाब में कहा जाता है कि 2002 तक भी जो फ्लैग कोड के नियम लागू थे वो किसी भी भारतीय व्यक्ति या संस्था को गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस और गांधी जयंती पर झंडा फहराने से नहीं रोकते थे.

नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं कि 1950, 60 और 70 के दशकों में भी निजी कंपनियां तक 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन भारत के झंडे को फहराती थीं. “फ्लैग कोड का मक़सद सिर्फ़ ये था कि राष्ट्रीय ध्वज के साथ खिलवाड़ न हो.”

आंबेकर लिखते हैं, “कई संगठनों और सरकारी विभागों की तरह ही आरएसएस का भी अपना झंडा है- भगवा झंडा या भगवा ध्वज. भगवा झंडा सदियों से भारत के सांस्कृतिक डीएनए का प्रतिनिधित्व करता रहा है. 2004 में ध्वज संहिता के नियमों के उदारीकरण के बाद से संघ मुख्यालय में तिरंगा नियमित रूप से उच्चतम मानकों के साथ फहराया जाता रहा है, गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर देश के सभी हिस्सों में तिरंगा फहराया जाता है; इन त्योहारों पर भगवा ध्वज भी फहराया जाता है.”

प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम कहते हैं कि जिन दिनों तिरंगा भारत का राष्ट्रीय ध्वज बना तो संघ ने कहा कि ये मनहूस झंडा है. वे कहते हैं, “जो भी भारत के लोकतंत्र के प्रतीक थे, संघ ने उनका सम्मान नहीं किया क्योंकि उनके मुताबिक़ ये प्रतीक हिन्दू राष्ट्र के नहीं थे.”

जाति व्यवस्था, जातिगत जनगणना और संघ

गोलवलकर
माधव सदाशिव गोलवलकर ने ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ नामक किताब लिखी है, जो अक्सर चर्चा में रहती है

संघ के शुरुआती दौर में संघ के नेता वर्ण व्यवस्था को हिंदू समाज का अभिन्न अंग मानते थे.

‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ में गोलवलकर लिखते हैं, “हमारे समाज की एक और ख़ासियत वर्ण-व्यवस्था थी. लेकिन आज इसे ‘जातिवाद’ कहकर इसका मज़ाक़ उड़ाया जा रहा है. हमारे लोगों को वर्ण-व्यवस्था का नाम लेना ही अपमानजनक लगता है. वे अक्सर इसमें निहित सामाजिक व्यवस्था को सामाजिक भेदभाव समझ लेते हैं.”

गोलवलकर का कहना था कि वर्ण व्यवस्था के पतनशील और विकृत स्वरूप को देखकर कुछ लोग ये प्रचार करते रहे कि “यह वर्ण-व्यवस्था ही थी जो इन शताब्दियों में हमारे पतन का कारण बनी.”

साथ ही, गोलवलकर का ये भी कहना था कि जातियां भारत में प्राचीन काल से थीं और ऐसी कोई मिसाल नहीं मिलती कि जातियों की वजह से समाज की एकता खंडित हुई हो या उसकी प्रगति में कोई बाधा आई हो.

नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं कि गोलवलकर की मौत के बाद जब बालासाहब देवरस सरसंघचालक बने तो उन्होंने आरएसएस का विस्तार करने और अन्य जातियों के लोगों तक पहुँचने की ज़रूरत के बारे में बात की.

मुखोपाध्याय कहते हैं, “सामाजिक समरसता एक ऐसा शब्द है जिसे हम अब सुनते हैं. देवरस ने पहली बार 1974 में समरसता की ज़रूरत के बारे में बात की थी लेकिन आरएसएस ने निचली जाति के लोगों के लिए अपनी बंद दरवाज़े की नीति जारी रखी और 1980 के दशक के अंत में ही उन्होंने दरवाज़े खोलने शुरू किए और दूसरी जातियों के लोगों को आकर्षित करना शुरू किया.”

नीलांजन मुखोपाध्याय 9 नवम्बर 1989 को अयोध्या में हुए राम मंदिर शिलान्यास की याद दिलाते हुए कहते हैं कि ये शिलान्यास करने वाले शख़्स विश्व हिन्दू परिषद के अनुसूचित जाति के नेता कामेश्वर चौपाल थे जो राम मंदिर ट्रस्ट से सदस्य थे और जिनका इस साल फरवरी में निधन हो गया.

वे कहते हैं, “कामेश्वर चौपाल ने 1989 के बाद कुछ साल बीजेपी में भी बिताए और उसके बाद वे आरएसएस से वापस राम मंदिर ट्रस्ट में चले गए.”

मुखोपाध्याय कहते हैं, “यह बहुत ही अजीब तरह की बात है. वे जानते हैं कि उन्हें लोगों तक पहुँचना है लेकिन वे एक निश्चित बिंदु से आगे नहीं पहुँच सकते. मैं नहीं जानता कि वे इस दुविधा से कब तक जूझते रहेंगे, लेकिन यह अभी मौजूद है.”

साल 2018 में इस विषय पर बोलते हुए सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा, “पचास के दशक के संघ में आपको ब्राह्मण ही नज़र आते थे. आज के संघ में क्योंकि आप पूछते हो, थोड़ा-बहुत मैं देखता हूँ तो मेरे ध्यान में आता है कि प्रांत और प्रांत के ऊपर क्षेत्र स्तर पर सभी जातियों के कार्यकर्ता आते हैं. अखिल भारतीय स्तर पर भी अब एक ही जाति नहीं रही. यह बढ़ता जाएगा और सम्पूर्ण हिन्दू समाज का संगठन, जिसमें काम करने वालों में सभी जाति वर्गों का समावेश है, ऐसी कार्यकारिणी आपको उस समय दिखने लगेगी. मैंने कहा कि यात्रा लम्बी है लेकिन हम उस ओर आगे बढ़ रहे हैं, ये महत्व की बात है.”

जाति व्यवस्था पर बदलता रुख़

जनसंघ के नेता
,साल 1977 में आरएसएस की एक रैली में जनसंघ के नेता लालकृष्ण आडवाणी, मदनलाल खुराना, विजय कुमार मल्होत्रा और अन्य (सांकेतिक तस्वीर)

जहां एक तरफ संघ ने हिन्दू समुदाय में एकता की ज़रूरत पर ज़ोर दिया, वहीं दूसरी तरफ उसने दलितों और पिछड़ी जातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए कई कार्यक्रम शुरू किए.

सामाजिक समरसता वेदिका और वनवासी कल्याण आश्रम जैसी संस्थाओं के ज़रिए आरएसएस जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों को ख़त्म करने के लिए कई कार्यक्रम चलाता है.

ये संस्थाएँ दूरदराज़ के गांवों में रहने वाले दलितों, पिछड़ी जातियों और जनजातियों के लोगों को शिक्षित करने का काम करती हैं और हाशिए पर पड़े समुदायों को मुख्यधारा में लाने की कोशिश करती हैं.

लेकिन संघ के आलोचक कहते हैं कि दलित और पिछड़ी जातियों के लिए संघ जो भी करता है उसका मक़सद सिर्फ़ उन समुदायों को संघ के प्रति वफ़ादार रखना है.

नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, “संघ जानता है कि जातियों के बीच हिंदू एकीकरण के लिए जातिगत पहचान के आधार पर भेदभाव को ख़त्म करना ज़रूरी है. वो ये भी जानता है कि अगर जातिगत भेदभाव जारी रहता है तो संघ आगे नहीं बढ़ सकता. लेकिन संघ जाति व्यवस्था में भी विश्वास करता है. इसका नेतृत्व मुख्यतः उच्च जाति के हाथों में रहा है. हाल के वर्षों में ही दूसरी जातियों से कुछ लोग आए हैं, लेकिन अब भी आरएसएस मुख्य रूप से उच्च जाति का संगठन है.”

‘संघ को एक नए लेंस से देखने की ज़रूरत’

साल 1995 में संघ की सालाना बैठक में मौजूद स्वयंसेवक
साल 1995 में दिल्ली में संघ की सालाना बैठक में मौजूद स्वयंसेवक

प्रोफ़ेसर बद्री नारायण कहते हैं कि जब कोई संस्था उभरती है तो उसका न्यूक्लिअस (केंद्र) जाति पर ही आधारित होता है.

वे कहते हैं, “किसी भी संस्था की शुरुआत सामाजिक नेटवर्क से होती है. लेकिन धीरे-धीरे जब संस्था आगे बढ़ती है तो वो अन्य लोगों को शामिल करती है. जो भी संस्था अन्य लोगों को शामिल नहीं करेगी, वो आगे बढ़ ही नहीं पाएगी, और संघ इतनी बड़ी एक संस्था बन चुकी है जो बिना लोगों को शामिल किए बढ़ नहीं सकती है. ये अविश्वसनीय है कि बिना और लोगों को शामिल किए इतनी बड़ी संस्था बन जाए.”

प्रोफ़ेसर बद्री नारायण कहते हैं कि पिछले कुछ समय में उन्होंने जब संघ के प्रचारकों के प्रोफाइलों को देखा और उनका अध्ययन किया तो ये समझ आया कि “बड़ी संख्या में ओबीसी और दलित संघ में आगे बढ़ रहे हैं और आगे के पदों पर जा रहे हैं.”

वे कहते हैं, “प्रांत प्रचारक से लेकर और कई पदों पर वे आगे बढ़ रहे है. संघ लगातार नए समय को अपना लेता है और उसी के आधार पर उसमें नए परिवर्तन आते रहते हैं. लेकिन बहुत से लोग अभी भी पुराने लेंस से देख रहे हैं. पुराने लेंस में एक ख़ास तरह की वामपंथी अवधारणा है कि संघ ऐसा है, संघ वैसा है लेकिन अगर पास से संघ को देखें तो बहुत बदलाव आया है. उसके लिए हमें एक नया लेंस बनाना होगा जिससे संघ को समझा जा सके. आप संघ को बाहर से देख रहे हैं और दूसरों की बनाई अवधारणा से देख रहे हैं.”

संघ से जुड़े सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों का उदाहरण देते हुए प्रोफ़ेसर बद्री नारायण कहते हैं, “वहां पढ़ने वालों में दलित और ओबीसी समुदायों के बहुत सारे बच्चे आ रहे हैं और वहां से शिक्षा लेकर आगे बढ़ रहे हैं. उनमें से कई प्रचारक भी बनते हैं, कई नौकरियों में जाते हैं.”

“तो संघ एक ऐसे संगठन के रूप में विकसित हुआ है जो सशक्त बनाता है. संघ के स्कूलों ने हर तरह के समुदायों को शामिल करने में काफ़ी काम किया है. और शामिल करने की ये प्रक्रिया नीचे से शुरू हुई और ऊपर तक बढ़ती जा रही है.”

अरविंद मोहन एक वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं. उन्होंने ‘जाति और चुनाव’ नाम से एक किताब लिखी है.

वे कहते हैं, “संघ जब भी जाति के सवाल पर कोई हलचल देखता है तो कुछ बोलना शुरू कर देता है. लेकिन रज्जू भैया को छोड़कर आज तक संघ के अंदर ब्राह्मण के अलावा दूसरी जाति का भी नेता नहीं आया–दलितों, पिछड़ों और औरतों को तो छोड़ दीजिए लेकिन हर बार संघ दलितों का सवाल और आदिवासियों के पैर धोना और इस तरह की बात भी उठाता है.”

अरविंद मोहन के मुताबिक़, जातिवाद और छुआछूत को लेकर समाज की सोच बदले या दलितों को अधिकार मिलें, “ऐसी कोई कोशिश संघ की तरफ से अभी तक दिखाई नहीं दी है भले ही अब संघ अपना सौवां साल मना रहा है.”

वे कहते हैं, “अगर कोई कोशिश होती भी है तो वो इतनी ही होती है कि किसी दलित के घर खाना खा लिया, किसी आदिवासी के पैर धो दिए, उसके अलावा कुछ नहीं. सत्ता की साझेदारी में भी दलित कहीं दिखाई नहीं देते हैं. और संघ के अपने संगठनात्मक ढांचे में भी दलित कहीं नहीं दिखाई देते हैं.”

जातिगत जनगणना और आरक्षण को लेकर संघ में असमंजस?

जातिगत जनगणना
,बिहार में साल 2023 में जातिगत जनगणना कराई गई थी और कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल देशभर में ऐसी गणना की मांग करते हैं

जातिगत जनगणना और आरक्षण के मुद्दों को लेकर संघ एक असमंजस की स्थिति में नज़र आता है क्योंकि माना जाता है कि संघ के उच्च जाति के समर्थकों की एक बड़ी संख्या आरक्षण के ख़िलाफ़ है.

दिसंबर 2023 में विदर्भ क्षेत्र के आरएसएस सहसंघचालक श्रीधर गाडगे ने कहा कि जाति आधारित जनगणना नहीं होनी चाहिए क्योंकि ऐसी जनगणना एक बेमानी काम साबित होगा जिससे सिर्फ़ कुछ लोगों का ही फ़ायदा होगा.

इस बयान के साथ ही एक राजनीतिक घमासान शुरू हो गया और दो ही दिन बाद आरएसएस ने साफ़ किया कि वो जातिगत जनगणना के ख़िलाफ़ नहीं है.

एक बयान में आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रभारी सुनील आंबेकर ने कहा, “हाल ही में जाति जनगणना को लेकर फिर से चर्चा शुरू हो गई है. हमारा मानना है कि इसका इस्तेमाल समाज की समग्र प्रगति के लिए किया जाना चाहिए और ऐसा करते समय सभी पक्षों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सामाजिक सद्भाव और अखंडता में कोई बाधा न आए.”

आंबेकर ने साथ ही ये भी कहा कि “आरएसएस लगातार भेदभाव रहित, समरसता और सामाजिक न्याय पर आधारित हिंदू समाज बनाने के लक्ष्य के साथ काम कर रहा है. यह सच है कि ऐतिहासिक कारणों से समाज के कई वर्ग आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ गए. कई सरकारों ने समय-समय पर उनके विकास और सशक्तीकरण के लिए प्रावधान किए हैं. आरएसएस उनका पूरा समर्थन करता है.”

साल 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले आरएसएस उस वक़्त विवाद में आ गया था जब संघ के सरसंघचालक मोहन भगवत ने आरक्षण की नीति की समीक्षा करने की ज़रूरत की बात कही थी.

भागवत ने तब कहा था कि पूरे देश के हित के बारे में वास्तव में चिंतित और सामाजिक समानता के लिए प्रतिबद्ध लोगों की एक समिति बनाई जानी चाहिए और यह तय करना चाहिए कि किस श्रेणी को आरक्षण की ज़रूरत है और कितने समय के लिए.

बाद में आरएसएस ने ये स्पष्ट किया कि भागवत ने यह बात इस संदर्भ में कही थी कि आरक्षण का लाभ समाज के हर वंचित वर्ग तक पहुंचे लेकिन आरजेडी नेता लालू यादव ने भागवत के बयान का हवाला देकर संघ और बीजेपी पर आरक्षण ख़त्म करने की साज़िश रचने का इलज़ाम लगाया.

बिहार चुनाव में बीजेपी को जो हार झेलनी पड़ी उसकी एक अहम वजह आरक्षण के मुद्दे पर भागवत के बयान को माना गया.

इस प्रकरण के बाद से संघ ने लगातार ये साफ़ करने की कोशिश की वो आरक्षण के ख़िलाफ़ नहीं है.

सितम्बर 2023 में मोहन भागवत ने कहा, “जब तक जातिगत भेदभाव रहेगा, आरक्षण रहेगा और लोगों को दो सौ सालों तक उन लोगों के लिए तकलीफ़ें सहने के लिए तैयार रहना चाहिए जिन्होंने दो हज़ार सालों तक तकलीफ़ें सही हैं.”

सितंबर 2024 में संघ ने जाति आधारित जनगणना पर अपनी स्थिति एक बार फिर साफ़ की जब संघ के प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने कहा, “पिछड़े समुदायों या जातियों के लिए कल्याणकारी गतिविधियों के लिए सरकार को आंकड़ों की ज़रूरत होती है लेकिन ऐसे आंकड़े सिर्फ़ उन समुदायों की भलाई के कामों के लिए इकठ्ठा किए जाना चाहिए और उन्हें चुनाव प्रचार के लिए राजनीतिक उपकरण की तरह इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए.”

जातिगत जनगणना के मुद्दे पर संघ के बयानों पर अरविंद मोहन कहते हैं, “समाज में अगर जातिगत जनगणना के सवाल पर हलचल है तो उस हलचल को पचा लेने के लिए कुछ न कुछ तो कहना ही होगा नहीं तो आप टूट जायेंगे, गिर जाएंगे या झुक जाएंगे.”

वे कहते हैं कि “संघ का चरित्र यह दिखाता है कि जब भी कोई मुश्किल आये तो झुक कर उसे गुज़र जाने दिया जाए और बाद में अपने मूल एजेंडा पर चलते रहा जाए.”

आरक्षण के ख़िलाफ़ प्रदर्शन
,साल 1990 में आरक्षण के मुद्दे पर देशभर में उग्र प्रदर्शन हुए थे और संघ भी इस विरोध में शामिल हुआ था

1990 के दशक में जब पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने वाले मंडल कमीशन के ख़िलाफ़ देशभर में उग्र प्रदर्शन हुए तो संघ भी इस विरोध में शामिल था.

आरक्षण के मुद्दे पर संघ और बीजेपी का विरोध तब भी देखा गया जब मंडल कमीशन के वक़्त भारतीय जनता पार्टी ने वीपी सिंह के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार से समर्थन वापस ले लिया.

मंडल आयोग के विरोध के वक़्त संघ के रवैये का हवाला देते हुए अरविंद मोहन कहते हैं, “बीजेपी का मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में ओबीसी बेस था. कुछ सुशील मोदी जैसे नेता थे जिनको लगा कि अगर वो समाज में हो रहे बदलाव के अनुसार नहीं चलेंगे तो ख़त्म हो जाएँगे तो इस दबाव के चलते बीजेपी बदली, नहीं तो बीजेपी तो खुलेआम उस समय तक आरक्षण का विरोध कर रही थी, संघ विरोध कर रहा था.”

प्रोफ़ेसर बद्री नारायण के मुताबिक़ जाति को एक आइडेंटिटी टूल (पहचान का उपकरण) बनाकर ही राजनीति में उसका इस्तेमाल होता है.

वे कहते हैं, “जब भी आप जाति को विकास के लिए इस्तेमाल करना चाहेंगे, तब भी वो आइडेंटिटी टूल में बदलेगी ही. इससे बचना मुश्किल है. तो जैसे ही जातिगत जनगणना की बात करेंगे तो जाति वहां आनी है और जाति एक आइडेंटिटी पॉलिटिक्स (पहचान से जुड़ी राजनीति) के रूप में आनी है. और आइडेंटिटी पॉलिटिक्स हाशिए पर रह रहे समुदायों के लिए एक समय तक तो सशक्त करती है लेकिन एक समय के बाद वो उस सशक्तीकरण को रोकती है.”

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