कात्यायनी
अपनी सामाजिक सुरक्षाओं के साथ
वह उदास थे और
व्यवस्था के आसपास
भिनभिना रहे थे
बासी जलेबी पर मक्खियों की तरह,
हालांकि थोड़े शर्मिन्दा भी थे
तहज़ीबयाफ़्ता और हस्सास शहरी होने के नाते.
बहरहाल, कम से कम
नफ़ीस और कलात्मक ढंग से,
और इत्मीनान से,
उदास होने के लिए
उनके पास सामाजिक सुरक्षा तो थी
हालाँकि वह नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क, नीदरलैंड्स
या फ्रांस वगैरा मुल्क़ों जितनी नहीं थी
लेकिन बचा-खुचा इन्तज़ाम उन्होंने
ज़ाती तौर पर कर रखा था.
मुल्क के सियासी और समाजी हालात को
वह अपनी उदासी की छवि में
ढालकर देखते थे
और फिर तराशकर कविताओं में रखते थे.
उनकी उदासी की जड़ें उनकी ज़िन्दगी में थीं
मगर कविता में वह कुछ इस शक़्ल में आती थी
कि लोग उसे सामाजिक या राजनीतिक कारणों से
या सांस्कृतिक संकट से पैदा हुई,
या कई बार तो एक ऐतिहासिक उदासी
समझ बैठते थे.
वैसे आम तौर पर वह इंसाफ़, इंसानियत और
प्यार वगैरा के बारे में
बेहद ख़ूबसूरत बातें करते थे
और दिलक़श कविताएँ लिखते थे.
व्यवस्था के बारे में वह
अक्सर कुछ इसतरह सोचते थे
जैसे बोरियत भरे लम्बे सफ़र में
मीठे की तलब महसूस हो बेइख़्तियार
और कहीं छोटे से कस्बे में रुककर
बासी जलेबियां खानी पड़ जाये.
(अब मैं हैरान-ओ-परेशान हूं कि उनकी
बात आते ही ये बासी जलेबियां
दिमाग़ में इस क़दर क्यूं चढ़ गयीं
कि इस कविता में दो बार अपनी हाज़िरी
दर्ज करा गयीं)
बाक़ी फ़ासिज़्म से या नवउदारवाद से
उन्हें कोई ख़ास शिक़ायत हो,
ऐसा लगता तो नहीं था
लेकिन थोड़ी एकेडमिक दिलचस्पी
ज़रूर थी
इतना ज़रूर था कि वह फ़ासिस्टों से
थोड़ा मानवीय और लोकतांत्रिक होने की
और नवउदारवाद से थोड़ा कल्याणकारी होने की
उम्मीद रखते थे.
और हां,
उनको थोड़े अफ़सोस के साथ कभी-कभार
क़रीबी दोस्तों के बीच
यह कहते हुए ज़रूर सुना गया था कि
ये भाजपा वाले इतने जाहिल क्यों होते हैं
और थोड़ी खिन्नता वह इस बात पर भी
जाहिर करते थे कि ये ब्राह्मण, भूमिहार,
ठाकुर वगैरा वक़्त के साथ
उस हद तक माडर्न और समझदार नहीं हुए
जितना हो जाना चाहिए था.
अगर हो गये होते तो आजकल
ब्राह्मणवाद वगैरा की जितनी बातें
होती रहती हैं,
उतनी नहीं होतीं.