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गुरु~पर्व : गुरूनानक की उदासियाँ

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सुधा सिंह

      _भारत की सनातन शाश्वत सांस्कृतिक- आध्यात्मिक-धार्मिक-सामाजिक  परंपरा भूमि पुरातन काल से ही  एक से एक अद्भुत, अनोखे , अनूठे, अमूल्य  रत्न देती रही है । पौराणिक आख्यानों को यदि विचार वीथि से बाहर भी किया  जाए तो भी उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार  यह सत्य है।_

         बुद्ध, महावीर, मक्खलि गोशाल से लगाकर लकुलीश, शंकराचार्य, मण्डन, रामानुज,  चैतन्य, सूर, तुलसी, कबीर, आंडाल, मीरा, गोरखनाथ, नानक, रैदास, दादू, गिनाते जाइये …कोई अंत नहीं…. ।

        इनमे से किसे किससे मिलाया जाए …. सभी अपने आप में विलक्षण, अपने आप में एक संस्था … एक से बढ़कर एक।

   _आज कार्तिक पूर्णिमा को गुरु नानक जी के प्राकट्योत्सव के  पुण्य अवसर पर उनकी उदासियों  का  एक छोटा सा विवरण :_

        गुरु नानक,  एक ऐसा नाम जिसे परिचय की कोई आवश्यकता नहीं …नाम स्वयं में ही एक इतिहास है, एक क्रांति है, एक विचार है, एक दर्शन है, एक भाषा है, एक संस्कार है, एक यात्रा है, एक पन्थ है, एक धर्म है, एक समाज है, एक संस्कृति है और सर्वोपरि एक संस्था है।

    परंतु गुरु जी के जीवन की एक और बहुत बड़ी उपलब्धि है ………उनकी उदासियाँ।  

          गुरुनानक अपने समय के विलक्षण  यायावर थे । तत्कालीन  बेहद. अशांत,  क्रूर और  खतरनाक राजनैतिक, सैनिक और सामाजिक परिस्थितियों  में गुरु जी ने  बहुत लम्बी लम्बी कई यात्राए कीं परंतु  गुरु नानक के जीवन का यह पक्ष बहुत कम लोगों तक ही सीमित है । कम ही लोगों को पता होगा  कि गुरु नानक ने  जीवन के लगभग 28 वर्ष  यात्रा में व्यतीत किये और लगभग पूरे मध्य एशिया और भारत में लगभग 60000 किमी पद  यात्रा की …..!

रावी नदी के किनारे तलवंडी गांव में 1469 ई की कार्तिक पूर्णिमा को गुरु नानक का जन्म एक खत्री परिवार में हुआ था । उनके बचपन और जीवन की घटनाओं के बारे में शायद ही कुछ ऐसा हो जो अज्ञात हो । बचपन से ही प्रखर बुद्धि और साधु प्रकृति के नानक जीवन के व्यावहारिक पक्ष के प्रति सदा उदासीन रहते थे और प्रायः एकांत चिंतन करते रहते थे।

      कम आयु में ही इनके कई शिष्य बन गए थे जिनमें इनकी बहन व गांव का जमीदार भी शामिल  थे । बचपन से ही उनको दिव्य बालक समझा जाता था । पण्डित हरदयाल( कहीं कहीं गोपाल नाम भी मिलता है ) और मौलाना कुतुबुद्दीन उनके गुरु थे जिनको उन्होंने पहले ही दिन कक्षा में निरुत्तर कर दिया और वे इनके प्रति सम्मान का भाव रखने लगे।

        तत्कालीन सामाजिक परंपरा अनुसार कम वय में विवाह हो गया । 32 व 36 वर्ष की आयु में क्रमशः दो पुत्र श्रीचंद और लखमीचन्द का जन्म हुआ। 

        और ……फिर परिवार को ससुर के आश्रय में छोड़ अपने चार शिष्यों लहना, मर्दाना, बाला और रामदास के साथ निकल पड़ते हैं गुरु नानक अपनी उदासियों पर । गुरु जी की इन यात्राओं को पंजाबी में उदासी भी कहा जाता है । ये उदासियाँ तत्कालीन समय में ही बेहद  प्रसिद्ध और चर्चित हो गयी थीं । यहां तक कि  उदासी नामक एक सम्प्रदाय या पंथ भी अस्तित्त्व में  था।  

         विद्वानों  के अनुसार गुरु नानक ने कुल 5 उदासियाँ या यात्राएं की थीं जिनमें उन्होंने लंका से लेकर असम तक और बगदाद,समरकन्द, मक्का से लेकर महाराष्ट्र, गोआ, कर्नाटक, मैसूर  तक सारा का सारा क्षेत्र घुमा और अपने विचारों से जन सामान्य और समाज को प्रभावित किया। 

*पहली उदासी :*

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     अमृतसर के चाँगा  माँगा जंगलों से प्रारंभ करके लाहौर , दिल्ली, आगरा, मथुरा, कानपुर, लखनऊ, अयोध्या,प्रयाग, बनारस पटना,  गया आदि होते हुए इम्फाल, असम, ढाका आदि तक गए । वहां से वापसी में दूसरा रास्ता पकड़ा और बिहार से जबलपुर, भोपाल, सागर , चित्रकूट, भरतपुर, धौलपुर, कैथल आदि होते हुए पांच वर्ष के बाद वापस पहुंचे।

        इनकी यात्रा का तरीका बेहद सीधा सादा था । मरदाना का रबाब बजता और गुरु भजन करते  पैदल गांव गांव घूमते, भिक्षाटन करना और लोगों को सद मार्ग की ओर प्रेरित करना । लोगों के बीच घूमते हुए गुरुबानी गाना ।  यही वह उदासी थी जिसमें उन्होंने मरदाना के कहने पर अयोध्या की यात्रा की थी जिसका प्रमाण हाल ही में माननीय उच्चतम न्यायालय के राम मंदिर निर्णय में लिया गया है। 

*दूसरी उदासी :*

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      पहली उदासी से लौट कर कुछ समय गुरु नानक ने सुल्तानपुर लोधी में बिताया और उसके बाद निकले दूसरी उदासी पर । यह यात्रा इस बार पश्चिम भारत से होकर दक्षिण की ओर  चली । सिरसा, भटिंडा, होते हुए अजमेर, नागौर,जोधपुर, चित्तौड़, होते हुए गुजरात पहुंचे। बांसवाड़ा,अहमदाबाद, सूरत, मालवा भूमि, अमरावती,उज्जैन, अकोला, बीदर, हैदराबाद, गोआ, त्रिचुरापल्ली, कोचीन,मैसूर, कांची, पुदुचेरी, रामेश्वरम, त्रिंकोमाली होते हुए लंका पहुंचे।

       वहां से पुणे, मुंबई, बड़ौदा, जूनागढ़, द्वारका, सोमनाथ, मुल्तान होते हुए वापस सुल्तानपुर लोधी पहुंचे । तरीका इस बार भी वही था …. गांव गांव पैदल घूमना,  लोगों को उपदेश देना, शिष्य बनाना और आगे बढ़ जाना।

*तीसरी उदासी :*

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      इसमें गुरु जी ने पहाड़ी क्षेत्र की यात्रा की।

      करतारपुर से कांगड़ा, कुल्लू, मंडी, शिमला, रोपड़, देहरादून, मसूरी, बद्रीनाथ, गंगोत्री, नैनीताल, श्रीनगर, गोरखपुर, सीतामढ़ी, लेह, लद्दाख, मानसरोवर, ताशकंद, किश्तवाड़, वैष्णोदेवी, जम्मू, रियासी होते हुए वापस करतारपुर पहुँचे।

*चौथी उदासी :*

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      इसका मार्ग पश्चिम एशिया की ओर तय हुआ । उनके शिष्य मरदाना इस्लाम को मानने वाले थे । इस्लाम के अनुसार हज अल्लाह की प्राप्ति के लिए अनिवार्य होता है । इसलिए मरदाना की इच्छा पूरी करने के लिए वे सिंध, थट्टा, देवल, करांची होते हुए जद्दा, मक्का, मदीना पहुंचे।

      यहीं मक्का में मुसाफिरखाने में ही वह विश्व प्रसिद्ध घटना हुई थी जिसमें जियान नामक सेवादार ने उनको काबा की ओर पैर करके लेटने से मना किया और उन्होंने कहा कि  वह जिस तरफ खुदा का घर न हो, उस दिशा में उनके पैर घुमा दे । यहां से दश्मिक, बगदाद होते हुए येरुशलम गए और वहां से तेहरान,समरकंद काबुल, कंधार पेशावर होते हुए वापस करतारपुर पहुंचे।

        कुछ विद्वानों का मानना है कि वे पांचवी उदासी पर भी निकले थे पर यह प्रायः विवादाग्रस्त विषय है । अतः इस पर कोई टिप्पणी नहीं। 

     प्रायः भक्ति आंदोलन के निर्गुण पंथी कबीर के विचारों के अनुरूप एक निर्गुण ईश्वर में उनकी अटूट आस्था थी और वे लोगों को एक ईश्वर की भक्ति करने और कर्म कांडों और ऊपरी आडम्बरों से दूर रहने का उपदेश देते थे। उनके लिए गरीबों, वंचितों की सहायता सबसे बड़ी पूजा थी और वही वे करते थे।

       अपने आरंभिक जीवनकाल में सांसारिक बन्धनों के प्रति  वैराग्य भाव रखने वाले गुरु नानक में समय के साथ परिवर्तन आया और अपनी अंतिम उदासी के बाद वे परिवार के साथ रहने लगे । करतारपुर नामक नगर बसाया और 1539 ई में अपनी मृत्यु पर्यन्त यहीं सपरिवार रहे। 

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