वर्ण-जातिवादी और ब्राह्मणवाद को निशाना बनाने के चलते उन्होंने खुद को सवर्णों के आंखों की किरकिरी बना लिया। वह और आगे बढ़ीं, जिन्हें नक्सल-माओवादी कहा जा रहा था, उनके बीच चली गईं और उनके न्याय के लिए संघर्ष से पूरी दुनिया को परिचित कराया। मुसलमानों-कश्मीरियों के साथ खड़े होने के बाद तो वह देश के सारे वर्चस्वशाली समूहों और राजसत्ता की नजर में पूरी की पूरी देशद्रोही बन गईं।अग्रवाल जी ने पीछे की ओर यात्रा की। वामपंथ से शुरू कर दक्षिणपंथ की वैचारिकी को खुराक देने तक चले गए। अरुंधति ने अग्रगामी यात्रा की ‘राष्ट्रीय नायिका’ से देशद्रोही की यात्रा तक। अग्रवाल जी को साहित्य अकादमी मिला। अरुंधति को यूएपीए।
डॉ. सिद्धार्थ
किसी देश की स्टेट पॉवर को ठीक-ठीक पता होता है कि कौन उसके काम का है और कौन उसके लिए चुनौती है। किसके पुरस्कृत करना है और किसको दंडित करना है। इसी आधार पर सत्ता किसी को पुरस्कृत करती है किसी को दंडित करती है। अभी 15 जून को फासीवादी हिंदू राजसत्ता का पूरी तरह स्तंभ बन चुने साहित्य अकादमी ने पुरुषोत्तम अग्रवाल को 2021 के साहित्य अकादमी भाषा सम्मान से पुरस्कृत करने का निर्णय लिया, जिसमें सम्मान के साथ उन्हें 1,00,000 रूपया नगद प्रदान किया जाएगा। साहित्य अकादमी किसी तरह स्वायत्त है, पूरी तरह सरकारी नियंत्रण में नहीं है, अगर किसी को भ्रम हो तो तथ्यों को देखकर उस भ्रम को दूर कर ले।
दूसरी तरफ इसी राजसत्ता के दिल्ली में प्रतिनिधि उपराज्यपाल विनय कुमार सक्सेना ने 14 जून को अरुंधति राय पर यूएपीए के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति दी। हम सभी जानते हैं कि यूएपीए उस पर लगाया जाता है, जिसे राजसत्ता देश की एकता-अखंडता को चुनौती मानती है। एक तरह का द्रेशद्रोही। कोई वजह तो जरूर होगी, जहां पुरुषोत्तम अग्रवाल सत्ता को अपने लाडले की तरह दिखे और अरुंधति देशद्रोही की तरह।
कोई कह सकता है कि यह पुरस्कार उनके साहित्यिक-भाषाई अकादमिक काम पर मिला है। लेकिन यहां यह रेखांकित कर लेना चाहिए कि पुरुषोत्तम अग्रवाल उन लोगों में नहीं हैं, जो चुपचाप साहित्य या भाषा पर काम करते हैं, वे मुखर तरीके से वैचारिक-राजनीतिक पोजीशन रखते हैं और सत्ता उनके वैचारिक-राजनीतिक अवस्थिति से अपरिचित है या अवस्थिति के अन्तर्वस्तु से परिचित नहीं है, ऐसा सोचना और कहना नादानी होगी।
आजकल वे भारत के लिबरल लोगों की मुखर आवाजों में से एक हो चुके हैं। आइए देखते हैं कि पुरुषोत्तम अग्रवाल और अरुंधति राय में क्या बुनियादी फर्क है, जिसके चलते जिस सत्ता ने अग्रवाल को साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा, उसी सत्ता ने अरुंधति को यूएपीए से नवाजा। हालांकि पुरुषोत्तम अग्रवाल को कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार में भी देश की एक महत्वपूर्ण संस्थान यूपीएससी का चेयरमैन बनाकर एक बड़े पद से 2006 में नवाजा गया था। इसके बावजूद की उन्होंने मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह द्वारा शिक्षा संस्थाओं में 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण लागू करने का खुलकर विरोध किया था। खुल्लखुल्ला आरक्षण का विरोध करने वाले आदमी को यूपीएससी का चेयरमैन बनाकर कांग्रेस क्या करना चाहती थी, वो तो कांग्रेसी ही बता सकते हैं। लेकिन एक मुखर आरक्षण विरोधी ने यूपीएससी के चेयरमैन के रूप में आरक्षण प्राप्त तबकों के अभ्यर्थियों के हितों को किस-किस तरह से नुकसान पहुंचाया होगा, यह तो जांच होने पर ही पता चल सकता है।
आइए देखते हैं कि भारत के व्यापक जन के दुखों-सुखों, न्याय-अन्याय और हित-अनहित से जुड़े सवालों पर पुरुषोत्तम अग्रवाल और अरुंधति रॉय की क्या पोजिशन रही है। हम सभी सहमत होंगे कि सबसे ज्वलंत बुनियादी सवालों पर चुप्पी भी एक राय और पक्ष होती हैं। लेकिन उन सवालों के सबसे पहले लेते हैं,जिस पर दोनों ने अपनी अवस्थिति रखी। सबसे पहले बहुजनों ( दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों ) से जुड़े मामलों में दोनों की अवस्थिति देखते हैं। जैसा कि ऊपर जिक्र कर चुका हूं, पुरूषोत्त अग्रवाल ने खुलेआम सार्वजनिक तौर पर आरक्षण का विरोध किया था। ऐसा नहीं है कि उन्हें इस विरोध का कोई पछतावा है। उन्होंने लल्लन टॉप के सौरभ द्विवेदी को हाल में दिए अपने चर्चित साक्षात्कार में डींग हांकते हुए कहा कि मैंने अर्जुन सिंह द्वारा ओबीसी को शिक्षा संस्थाओं में 27 प्रतिशत आरक्षण देने का विरोध किया था। उनके स्वर और देह भाषा से साफ झलक रहा था कि जैसे ऐसा करके उन्होंने कोई महान कार्य किया हो।
वैचारिक तौर पर भी पुरुषोत्तम अग्रवाल वर्ण-जाति के दर्शन की पुरजोर पैरवी करने कई बार सामने आए। हाल में कुछ एक साल पहले जब तुलसीदास और उनके रामचरित मानस के वर्ण-जातिवादी और ब्राह्मणवादी दोहों-चौपाइयों पर बहस खड़ी हुई, तो पुरुषोत्तम अग्रवाल तुलसी और उनके रामचरित मानस को डिफेंड करने सामने आ खड़े हुए। उन्होंने कहा, ”रामचरितमानस की महिमा साहित्य से आगे की है। हम भले इसे साहित्य कहते रहें, लेकिन जनमानस में यह धार्मिक ग्रंथ का रूप ले चुका है। राम किसी नायक की तरह पूरे जनमानस में हैं।” (BBC) तुलसी की चर्चा के संदर्भ में उन्होंने कहा कि तुलसीदास पर बोलने के लिए हमें कुरान भी बोलना पड़ेगा।
जिस तुलसीदास को मुक्तिबोध समतावादी निर्गुण भक्ति आंदोलन के खिलाफ प्रतिक्रांति का वाहक मानते हैं, उस तुलसीदास और रामचरित मानस की महानता और सर्वश्रेष्ठता के गुणगान को यदि कोई पुरुषोत्तम अग्रवाल के मुंह से सुनना चाहे तो यूटूब पर अग्रवाल जी के कई सारे प्रवचन मौजूद हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल कभी भी वर्ण-जाति व्यवस्था और उसके दर्शन, विचारधारा और उसके पोषित करने वाले ग्रंथों और व्यक्तित्वों को निशाने पर नहीं लेते हैं। वे हिंदू राष्ट्रवादियों की इस या उस बात की आलोचना तो करते हैं, उनकी कुछ कार्रवाईयों की निंदा भी करते हैं, लेकिन कभी भी उनके दर्शन, वैचारिकी और उसकी भारत में जड़ों की न तो तलाश करते हैं, न ही उस पर चोट करते हैं। इस मामले में अग्रवाल जी इतने अवसरवादी हैं कि वे कबीर और तुलसी को एक साथ महान ठहराते हैं। कबीर पर तथाकथित महान किताब लिखने बाद उतनी ही महान किताब तुलसी पर लिखने की उन्होंने घोषणा भी कर रखी है। कबीर और तुलसी की समान भाव से उनकी प्रशंसा सुनकर लगता है कि उनके पास एक दिमाग बाईं ओर है तो दूसरा दाईं तरफ। बाएं-दाएं हाथ की तरह।
दूसरी तरफ अरुंधति रॉय हिंदू राष्ट्रवाद की जड़ें भारतीय वर्ण-जाति व्यवस्था में देखती है। इस संदर्भ में वे लिखती हैं कि “ हिंदू राष्ट्रवाद और हिंदू श्रेष्ठता की सनक की बुनियाद में वर्णाश्रम धर्म का सिद्धांत, जाति व्यवस्था है, जिसे जाति विरोधी परंपरा में ब्राह्मणवाद कहा जाता है।” वे वर्ण-जाति को भारत की मूल बीमारी के रूप में देखती हैं। वे साफ शब्दों में कहती हैं, “आज भी जाति भारतीय समाज के करीब-करीब हरेक पहलू को चलाने वाला इंजन भी है और उसूल भी। ”वह ब्राह्मणवाद और कार्पोरेट गठजोड़ को आज के भारत के संकट के मूल में मानती हैं। दलितों,आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों के पक्ष में खड़ी होती हैं। डॉ. आंबेडकर को भारत का एक बड़ा नायक मानती हैं। डॉक्टर और संत (‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट: द एनोटेटेड क्रिटिकल एडिशन’ भूमिका) लिखकर उन्होंने आंबेडकरवादी विश्वदृष्टि और विचारों की खुलकर पैरवी की। जाति के विनाश की पुरजोर वकालत करती हैं। वर्ण-व्यवस्था का दार्शनिक-वैचारिक स्तर पर समर्थन करने के कारण गांधी की भी आलोचना करती हैं। हर उस किताब और व्यक्ति की आलोचना करती हैं, जो वर्ण-जाति व्यवस्था का समर्थन या पैरवी करता है। वर्ण-जाति व्यवस्था (ब्राह्मणवाद) की तीखी आलोचना के चलते अरुंधति वर्ण-जातिवादियों के सबसे अधिक निशाने पर रही हैं।
यहां एक बात स्पष्ट कर लें, आरएसएस-भाजपा का मुस्लिम विरोध और उनके खिलाफ हिंसा, इनका भले ही सबसे ऊपरी सतह पर दिखने वाला तत्व हो, लेकिन इसकी आड़ में वह मुख्यत: सवर्ण (वर्ण-जातिवादी सामंतवाद) और कार्पोरेट हितों की रक्षा करता है। बहुजन और वर्गीय एकता को तोड़ने के लिए मुसलमानों के प्रति घृणा का इस्तेमाल करता है। अग्रवाल जी न तो कभी सवर्ण-कार्पोरेट गठजोड़ को चिन्हित करते हैं, न ही उसकी कोई चर्चा करते हैं। आलोचना करना तो दूर की बात है। टिपिकल लिबरल की तरह कुछ सतही टिप्पणियां करके किनारा कर लेते हैं।
पुरुषोत्तम अग्रवाल और अरुंधति रॉय के बीच का बुनियादी अंतर सिर्फ वर्तनमान फासीवादी हिंदू सरकार तक सीमित नहीं है। जहां अरुंधति भारत के बहुसंख्य जन के साथ होने वाले अन्याय को एक संरचनागत-व्यस्थागत अन्याय के रूप में देखती हैं, उसकी अलोचना करती हैं, वहीं अग्रवाल जी इस या उस नीति की थोड़ी-बहुत आलोचना तक अपने को सीमित रखते हैं। इसका उदाहरण कांग्रेस सरकार के 10 सालों के शासन के दौरान के दोनों के व्यवहार से देख सकते हैं।
मनमोहन सिंह और चिदंबरम की जोड़ी ने जब यह घोषित किया कि नक्सली-माओवादी देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं, तो अरुंधति ने उसी बीच ‘वाकिंग विद द कॉमरेड’ लिखकर बताया कि जिन्हें देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताया जा रहा है, वे कोई और लोग नहीं है, बल्कि उसमें बहुसंख्य आदिवासी हैं। जो अपने जल,जंगल और जमीन के साथ अपनी संस्कृति और अस्तित्व को बचाने के लिए लड़ रहे हैं। यह किताब उन्होंने घर बैठकर नहीं लिखी, बल्कि संघर्षरत क्षेत्रों में जाकर, उनके बीच रहकर लिखी। उस समय अग्रवाल जी क्या कर रहे थे। अग्रवाल जी ने सिर्फ कांग्रेस के नेतृत्ववाली सरकार की एक बात के लिए तीखी आलोचना की थी। वह यह कि उसने ओबीसी को शिक्षा संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण दे दिया। साफ है अग्रवाल जी ने वंचितों को उनका वाजिब हक देने की आलोचना की यानी बहुसंख्य जन के खिलाफ खड़े हुए।
कांग्रेस की सरकार में भी अरुंधति भारतीय राजसत्ता के नजर में संदिग्ध थीं। जिस एफआईआर के आधार उनपर यूएपीए का मुकदमा चलाने का वर्तमान सरकार ने अनुमति दी है, वह 2012 में कांग्रेस के दौर में दर्ज हुआ था। अरुंधति उस शासन में भी मुकदमा झेल रही थीं और अग्रवाल जी को यूपीएससी का चेयरमैन बनाकर पुरस्कृत किया गया था।
सबसे बड़ी बात जब पूरा देश मुसलमानों-कश्मीरियों और आतंकवाद के नाम पर मुस्लिम युवाओं की हत्या और अफजल गुरु जैसे निर्दोष लोगों की फांसी पर चुप्पी साधे था। उस समय हर तरह का खतरा मोल लेते हुए अरुंधति कश्मीरियों और मुसलमानों के साथ खड़ी हुईं, निर्भय होकर। वह अटल बिहारी वाजपेयी के शासन काल में 6 मार्च, 2002 की दोपहर से 7 मार्च, 2002 की दोपहर तक दिल्ली की तिहाड़ जेल में रहीं और उन्होंने जुर्माना अदा किया। सुप्रीमकोर्ट की अवमानना के मामले में। उन्होंने इस फैसले को अपने खिलाफ अवमानना कार्यवाही के प्रति अदालत के रवैये के बारे में अपनी धारणा पर अड़े रहने की कीमत के रूप में स्वीकार किया। अग्रवाल जी खुद को मुसलमानों के मामले में ज्यादा से ज्यादा हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई आपस में हैं भाई-भाई तक सीमित रखते हैं। कभी कोई निर्णायक पोजीशन नहीं लेते।
अग्रवाल जी की पूरी जीवन-यात्रा एक कैरियरिस्ट अवसरवादी की जीवन-यात्रा लगती है। वे जेएनयू के अकादमिक जगत में तब आए जब वामपंथ की तूती बोलती थी। प्रवेश और नियुक्ति-पदोन्नति में वामपंथ ही निर्णायक होता था, तब वे वामपंथी बने रहे। नामवर सिंह के पटु शिष्य। जेएनयू में प्रवेश, नियुक्ति और पदोन्नति सब प्राप्त किए। फिर कांग्रेसी हो गए। वहां यूपीएससी के चेयरपर्सन बने। अब फासीवादी हिंदू सरकार में साहित्य अकादमी पा गए। आमतौर पर कैरियरिस्टों की यही यात्रा होती है। ऐसे कैरियरिस्टों के कई सारे ऐसे उदाहरण हैं।
दूसरी तरफ अरुंधति आफत-पर-आफत मोल लेती रहीं। ‘गॉड ऑफ स्माल थिंग्स पर’ बुकर पुरस्कार प्राप्त करते ही वह करीब पूरे देश की चहेती बन गईं थी। राष्ट्रीय आइकॉन की तरह। राष्ट्रीय आइकॉन का यह रूतबा उन्हें बांध न सका, वह उसके जाल में नहीं फंसी। उन्होंने अपने रूतबे का इस्तेमाल व्यापक भारतीय जन के साथ होने वाले अन्यायों का विरोध करने के लिए शुरू किया। वह नर्मदा आंदोलन में हिस्सेदारी कर ‘ग्रेट कॉमन गुड’ लिखकर विकास के पूंजीवादी कार्पोरेट मॉडल का विरोध करने लगीं। वह विकासवादियों के निशाने पर आ गईं। वह यहीं नहीं रूकीं, उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के परमाणु बम के विरोध में लिखा, जब देश का बड़ा हिस्सा तालियां बजा रहा था। राष्ट्रवाद के ज्वार का शिकार था। फिर वह राष्ट्रवादियों के निशाने पर आ गईं।
वर्ण-जातिवादी और ब्राह्मणवाद को निशाना बनाने के चलते उन्होंने खुद को सवर्णों के आंखों की किरकिरी बना लिया। वह और आगे बढ़ीं, जिन्हें नक्सल-माओवादी कहा जा रहा था, उनके बीच चली गईं और उनके न्याय के लिए संघर्ष से पूरी दुनिया को परिचित कराया। मुसलमानों-कश्मीरियों के साथ खड़े होने के बाद तो वह देश के सारे वर्चस्वशाली समूहों और राजसत्ता की नजर में पूरी की पूरी देशद्रोही बन गईं।अग्रवाल जी ने पीछे की ओर यात्रा की। वामपंथ से शुरू कर दक्षिणपंथ की वैचारिकी को खुराक देने तक चले गए। अरुंधति ने अग्रगामी यात्रा की ‘राष्ट्रीय नायिका’ से देशद्रोही की यात्रा तक। अग्रवाल जी को साहित्य अकादमी मिला। अरुंधति को यूएपीए।