1992 में जब टीवी से आए एक नए-नवेले हीरो शाहरुख़ ख़ान की फ़िल्म ‘दीवाना’ आई, तो लगा एक होनहार सितारे ने दिलों पर दस्तक दी है. बेपरवाह, तेवर से बाग़ी राजा (शाहरुख़) ने ‘दीवाना’ में ही एंट्री नहीं ली थी बल्कि सीधे लोगों के दिलों में एंट्री ले ली थी.
लेकिन उस हीरो ने सही मायनों में बॉक्स ऑफ़िस पर तहलका मचाया 1993 में जब शाहरुख़ की ‘बाज़ीगर’ और ‘डर’ एक-के-बाद एक रिलीज़ हुई.आज भले शाहरुख़ को किंग ऑफ़ रोमांस कहा जाता है लेकिन कामयाबी की पहली सीढ़ियाँ शाहरुख़ ने रोमांस के ज़रिए नहीं, बल्कि एंटी-हीरो बनकर चढ़ी हैं.एंटी-हीरो के रूप में 1993 में शुरु हुआ ‘बाज़ीगर’ का ये काफ़िला 2023 में रिलीज हुई ‘जवान’ तक पहुँच चुका है.
ग्लोबल रोमांटिक हीरो
वरिष्ठ फ़िल्म पत्रकार नम्रता जोशी कहती हैं, ”बाज़ीगर’ और ‘डर’ में शाहरुख़ का एंटी-हीरो वाला इमोशन एक लड़की के प्रति उनके प्रेम से प्रेरित था. लेकिन बाद में उन्होंने इस नेगेटिव इमेज को छोड़ते हुए कूल, ग्लोबल, शहरी रोमाटिंक हीरो का चेहरा अपना लिया.”
”पिछले कुछ सालों में उन्होंने जब ख़ुद को री-इन्वेंट करने की कोशिश की तो उनकी फ़िल्में चलना बंद हो गईं. 2023 में हम कह सकते हैं कि ‘पठान’ और ‘जवान’ के ज़रिए वो ख़ुद को नए सिरे से ढाल पाए हैं. हिंदी सिनेमा के लिए ये बात नई है कि जिन हालत में हम रह रहे हैं, वहाँ शाहरुख़ जवान जैसी फ़िल्म में सत्ता को खुली चुनौती देते हैं.”
”इस तरह का सत्ता विरोधी रुख़ अपनाना काबिले-ग़ौर है. ‘बाज़ीगर’ में एक प्रेमिका के लिए एंटी-हीरो बनना उसके बाद ‘जवान’ में पूरी सत्ता और तंत्र के ख़िलाफ़ एंटी हीरो बनना, इन दोनों में बुनियादी फ़र्क है, और यही शाहरुख़ के सफ़र को दिखाता है.”
अब्बास-मस्तान की फ़िल्म ‘बाज़ीगर’ 30 साल पहले 13 नंवबर 1993 को आई थी. शायद किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि एक नया हीरो जिसने चंद सीरियल और एक-दो फ़िल्में ही की हैं, वो एक ऐसे क़ातिल का रोल करेगा जो बिना किसी ख़ास ग्लानि के क़त्ल-पर-क़त्ल करता है और उसके चेहरे पर शिकन तक नहीं आती.
फ़िल्म ‘बाज़ीगर’ की शुरुआत में शाहरुख़ और शिल्पा शेट्टी के बीच दो रोमांटिक गाने आते हैं. फिर दोनों कोर्ट मैरिज करने जाते हैं और अचानक शाहरुख़ शिल्पा शेट्टी को बहुत ही बेरहमी से एक ऊँची इमारत से नीचे फ़ेंक देते हैं जिसे अंग्रेज़ी में कोल्ड ब्लडेड मर्डर कहते हैं.
रोमांस के बीच ये सीन इतने झटके से आता है कि फ़िल्म देख रहे दर्शक लभभग भौंचक्के से रह गए थे. उस वक़्त के लिए ये काफ़ी शॉकिंग और लीक से हटकर था.उस दौर में सलमान ख़ान जहाँ ‘मैंने प्यार किया’ में प्यार के लिए हर इम्तहान से गुज़र जाते हैं और आमिर जहाँ ‘क़यामत से क़यामत’ तक में प्यार के लिए मर मिटते हैं, वहाँ अजय शर्मा उर्फ़ विकी मल्होत्रा (शाहरुख़) ने बाज़ीगर के रोल से बॉलीवुड हीरो की छवि तोड़कर रख दी थी.
स्टीरियोटाइप तोड़ने की कोशिश
फ़िल्म इतिहासकार अमृत गंगर कहते हैं, ”यूँ तो शाहरुख़ ने लीक से हटकर मणि कौल की फ़िल्म ‘अहमक’ से शुरुआत की थी और उन्होंने ‘माया मेम साहब’ जैसी फ़िल्म भी की. ‘सर्कस’ जैसा सीरियल किया. ‘बाज़ीगर’ बहुत बड़ी कॉमर्शियल हिट हुई और एंटी-हीरो वाले रोल में उन्हें स्थापित किया.”
”मैं इसे शाहरुख़ खान की एक्टिंग काबिलियत की तौर पर देखता हूँ, ये उनकी रेंज को दिखाता है. साथ ही, ये बॉलीवुड कास्टिंग में दिखने वाले स्टीरियोटाइप को तोड़ने की शाहरुख़ की काबिलियत को भी दर्शाता है. ‘डर’ में भी यश चोपड़ा ने उन्हें नेटेगिव रोल दिया जो हीरो के लिए तब टैबू माना जाता था.”’बाज़ीगर’ का किरदार इतना डार्क था कि कई बड़े हीरो ने इस रोल को करने से मना कर दिया था. इंडस्ड्री में नए होने के बावजूद शाहरुख़ वो हीरो थे जिन्होंने ये दांव खेलने की हिम्मत दिखाई.
‘बाज़ीगर’ के क़रीब एक महीने बाद 24 दिसंबर 1993 को आई यश चोपड़ा की ‘डर’ जिसमें शाहरुख़ ख़ान एक ऐसे लड़के के किरदार में थे जो मानसिक रूप से अस्थिर है, उसका एकतरफ़ा प्यार उसे जुनून की उस हद तक ले जाता है जहाँ वो अपने लिए और जिससे वो प्यार करता है उसके लिए भी ख़तरा बन जाता है. आज के शब्दों मे कहें तो ‘डर’ का राहुल एक स्टॉकर था.’डर’ में जो रोल शाहरुख़ ने किया वो यश चोपड़ा ने पहले ऋषि कपूर को दिया था. अपनी आत्मकथा ‘खुल्लम खुल्ला’ में ऋषि कपूर लिखते हैं, ”जब यश चोपड़ा ने मुझे रोल दिया तो मैंने उनसे कहा कि मैं विलेन के रोल के साथ न्याय नहीं कर सकता.”
मैंने अभी आपके साथ चांदनी की है (जो रोमांटिक फ़िल्म थी). मैंने फ़िल्म ‘खोज’ में नेगेटिव रोल किया था और वो फ्लॉप हुई. आप शाहरुख़ को ले सकते हैं, मैंने उसके साथ काम किया है और वो काबिल और स्मार्ट लड़का है. फिर वो फिल्म आमिर ख़ान और अजय देवगन के पास चली गई. दोनों ने नहीं की, आख़िरकर शाहरुख़ ने वो रोल किया.”
‘बाज़ीगर’ का विकी हो या ‘डर’ का राहुल, दोनों ही किरदारों में शाहरुख़ जो काम करते हैं, उससे सामान्य रूप से आपमें एक तरह की घृणा का भाव पैदा होना चाहिए लेकिन दोनों फ़िल्मों की यही विरोधाभासी बात थी उसमें दर्शक फ़िल्म के हीरो (सनी देओल) या दूसरे किरदारों के पाले में नहीं, बल्कि शाहरुख़ की साइड में नज़र आते हैं.इसका क्रेडिट आप स्क्रीनप्ले लेखक या निर्देशक को दे सकते हैं लेकिन लोगों ने तो पर्दे पर दिखने वाले शाहरुख़ को ही याद रखा.
बदलाव का दशक
अमृत गंगर कहते हैं, ”1990 का दशक बदलाव का दशक था और लोग शाहरुख़ की पर्सनेलिटी से ख़ुद को जोड़ पा रहे थे. शाहरुख़ के ये नेगेटिव रोल प्रेम और इरोटिका के इमोशन में मिले हुए थे.”
”इन भूमिकाओं में एक तरह का पागलपन था, कुछ ऐसा जिसकी युवाओं को तलाश थी. मसलन, ‘डर’ में एक ऐसे इमोशन को दिखाया गया था जो हिंदी फ़िल्मों में देखने को नहीं मिलता था. स्क्रीन पर शाहरुख़ का वो बॉयइश चार्म एक तरह का रहस्य बन गया था.”
याद कीजिए ‘डर’ का वो सीन जब गुमसुम-सा रहने वाला राहुल (शाहरुख़) फोन पर अपनी माँ से बातें करता है जो कब की गुज़र चुकी है, छुरी से अपने सीने पर किरण लिखवाता है, या फिर वो सीन जब जूही चावला का मंगेतर सनी देओल बहरुपिए बने शाहरुख़ को देख लेता है और शाहरुख़ के पीछे भागता है. लभगभ तीन मिनट का वो चेज़ जब चलता है तो ये जानते हुए भी शाहरुख़ का किरादर ग़लत है, बहुत सारे दर्शक उन्हीं की साइड होते हैं.
हालाँकि इस किरदार को टॉक्सिक कहकर कई लोगों ने फ़िल्म की आलोचना भी की लेकिन डर हो या बाज़ीगर दोनों में शाहरुख़ ने एंटी हीरो का किरदार कर अपने लिए एक इबारत तैयार की , ख़ास तौर तब जबकि एक के बाद सब हीरो इन भूमिकाओं को मना कर चुके थे.
शाहरुख़ ख़ान बने किंग ख़ान
‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएँगे’, ‘दिल तो पागल है’, ‘कुछ कुछ होता है’ ये सारी फ़िल्में तो बाद में आई और शाहरुख़ को किंग ख़ान बनाया. लेकिन किंग ख़ान बनने की राह में एंटी हीरो वाले शाहरुख़ के किरदारों ने ही शाहरुख़ ख़ान के लिए सफलता की ज़मीन तैयार की. और लोगों को एक ऐसे एक्टर से भी रूबरू करवाया जो रिस्क लेने का माद्दा रखता था. फिर वो ‘अंजाम’ हो, ‘माया मेमसाब’ हो या फिर ‘ओ डार्लिंग ये है इंडिया’ हो.
ऐसा नहीं था सुपरस्टारडम की इस राह में सिर्फ़ फूल ही फूल थे, शुरु में कुछ फ़िल्में फ्लॉप भी हुईं, फ़िल्मों में सुपरस्टार की छवि से हटकर किदरारों में न ढलने के लिए कई लोगों ने आलोचना भी की, इस बीच बॉक्स ऑफ़िस पर सारे रिकॉर्ड भी तोड़े, फिर हीरो से ज़ीरो भी बने जब लोगों ने कहा कि शाहरुख़ के दिन अब ख़त्म हुए.
कई सालों तक शाहरुख़ सिनेमा के पर्दें पर दिखे ही नहीं, पर टीवी पर विमल इयालची का विज्ञापन करते हुए ज़रूर नज़र आए. इस बीच उनके बयानों पर राजनीतिक बवाल भी हुआ, उनके बेटे को जेल भी हुई. पर शाहरुख़ एकदम खामोश रहे.
2023 में शाहरुख़ ने ‘पठान’ और फिर ‘जवान’ से अपनी शैली में जबाव दिया. ये कहते हुए अपने डायलॉग से ख़ामोशी तोड़ी कि ‘बेटे को हाथ लगाने से पहले बाप से बात कर’. जवान के इस डायलॉग का सबने अपना-अपना राजनीतिक और सामाजिक मतलब निकाला.
‘बाज़ीगर’ और ‘डर’ की तरह ‘जवान’ का आज़ाद राठौर भी एक किस्म का एंटी-हीरो ही है पर वो 90 के एंटी-हीरो से अलग है. आज़ाद राठौर समाज में फैले भ्रष्टाचार को एक विजीलांटे ग्रुप के ज़रिए चुनौती देता है, वो क़ानून हाथ में लेता है, शासन के नियम-कायदे उसके लिए मायने नहीं रखते. लेकिन ये एंटी-हीरो ‘बाज़ीगर’ के विकी या डर के राहुल की तरह लोगों की जान लेता नहीं बल्कि लोगों की जान बचाता है.
हालांकि नम्रता जोशी की अपनी शिकायत की भी है, ”जवान सफल रही है लेकिन मुझे नहीं लगता कि बतौर फ़िल्म ये मेरे लिए काम करती है. ये पुरुष प्रधान फ़िल्म है जहाँ शाहरुख़ कोशिश ज़रूर करते हैं कि महिलाओं को भी जगह मिले. इसकी बजाए मैं शाहरुख़ को ‘चक दे इंडिया’ जैसी फ़िल्म में ज़्यादा पसंद करूँगी जहाँ महिलाओं की टीम को जीत तक ले जाते हैं. जवान में जेंडर समानता को दिखाने की कोशिश की गई है पर मुझे नहीं लगता ये कारगर रही.”
‘बाज़ीगर’ की मेकिंग
बात बाज़ीगर से शुरू हुई थी तो वहीं पर ख़त्म करते हैं. फ़िल्म की शूटिंग दिसंबर 1992 में शुरू हुई थी लेकिन उसके बाद बॉम्बे दंगों की आग में झुलस गया और कई महीनों के बाद इसकी शूटिंग दोबारा शुरु हो पाई. फ़िल्म के लिए श्रीदेवी, माधुरी से लेकर कई अभिनेत्रियों से बात हुई. लेकिन श्रीदेवी दोनों बहनों यानी काजोल और शिल्पा का रोल करना चाहती थीं, लेकिन निर्देशकों को लगा कि शाहरुख़ के हाथों श्रीदेवी जैसी बड़ी हीरोइन का क़त्ल शायद दर्शकों को रास न आए.
फ़िल्म में दलीप ताहिल ने मदन चोपड़ा का रोल किया था जिससे बदला लेने के लिए शाहरुख़ ख़ान अजय से विकी यानी बाज़ीगर बनते हैं. हाल में ‘द अनट्रिडगर्ड’ नाम के एक पॉडकास्ट में दलीप ताहिल ने कहा था, ”मैं लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट पर था. एक लड़की मेरे पास आई और बोली कि आपने ‘बाज़ीगर’ में शाहरुख़ खान को इतना क्यों पीटा. आख़िर क्यों. वो लड़की शाहरुख़-मय हो चुकी थी.”
‘बाज़ीगर’ और ‘डर’ के क़ातिल वाले और एंटी-हीरो किरदार को भी कुछ हद तक मानवीय बना पाना ही शाहरुख़ का हासिल था. इस बीच शाहरुख़ राज बनकर भी आए, इंडिया टीम के कोच कबीर ख़ान भी बने, ‘स्वदेश’ लौटने वाले मोहन भी, ‘पहेली’ में गाँव के किशनलाल भी, ‘यस बॉस’ में चांद तारे तोड़ कर लाने की हसरत रखने वाले राहुल भी थे , ‘हे राम’ के अमजद अली ख़ान भी और ज़ीरो के बऊआ सिंह भी.असल ज़िंदगी और पर्दे की ज़िंदगी के बीच इन्हीं किरदारों में किसी ने शाहरुख़ में अपना हीरो ढूँढा है, किसी ने विलेन और किसी ने एंटी-हीरो.