चंद्रमौलि चंद्रकांत
शैलेन्द्र चौहान, 68 वर्ष पार कर चुके हैं। (जन्म : 8 फरवरी 1954) यह बेहद सामान्य सूचना हो सकती है उनके लिए जो शैलेन्द्र जी से आत्मीय नहीं हैं। बहुत से लोग उन्हें बहुत नापसंद भी करते हैं उनके लिए भी यह कोई महत्त्व की बात नहीं। पर जो लोग एक बार शैलेन्द्र चौहान के संपर्क में बिना छल छद्म के प्रविष्ट हो गए वे इस अतिसंवेदनशील व्यक्ति के अनन्य रहे आये। यूँ शैलेन्द्र जी पेशे से इंजीनियर हैं लेकिन मन और आत्मा से एक संवेदनशील साहित्यकार। व्यक्ति के तौर पर भी वह अनूठे हैं सचाई की बारीक़ परतों में प्रवेश कर वस्तुगत यथार्थ को समझने के लिए सतत प्रयत्नशील। सच को सच कहना उनकी आदत है स्वभाव है। साहित्यकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता विनीता शर्मा कहती हैं ‘शैलेन्द्र चौहान की रचनाओं और व्यक्तित्व में ऐसा बहुत कुछ है जो साहित्यकारों को आसानी से हजम नहीं होता। उनकी रचनाएँ सदैव जनसंघर्ष के प्रति उद्देश्यपरक मित्रता का सम्बन्ध रखती हैं। वे भावात्मक न होकर विश्लेष्णात्मक होती हैं। वहां नारेबाजी नहीं होती और वे छद्म व पाखण्ड से कोसों दूर होती हैं।
शैलेन्द्र की रचनाएँ और भाषा उलझने वाली न होकर सहज होती है व उनकी रचनाओं में सघन व्यंजना होती है। उपमाएं, प्रतीक और बिम्ब शैलेन्द्र के यहाँ जादू न होकर वस्तु जगत के अनुरूप ही आते हैं। उनका अतिरिक्त आग्रह वहां नहीं होता। दूसरी ओर सत्ता सहयोग की ध्वनियाँ वहां कतई मौजूद नहीं होती। शैलेन्द्र एक खांटी ईमानदार कवि -आलोचक हैं। न वे गलत स्थितियों से समझौता करते हैं न दबाव में ही आते हैं। आज के कवि – लेखक जहाँ छपने के लिए, चर्चा के लिए, सम्मान पुरस्कार पाने के लिए जमीन-आसमान के कुलाबे मिलाने में लगे रहते हैं वहीँ शैलेन्द्र किसी ऐसे अनैतिक उपक्रम में अपनी ऊर्जा नष्ट नहीं करते। उनकी समझ एकदम साफ़ है कि यह सब महज एक अतृप्त कामना का खेल है उन्हें इसमें नहीं फंसना है। वह व्यवस्था के नचाये नहीं नाचते बल्कि उससे आवश्यकतानुसार सीधी मुठभेड़ करते हैं जबकि अन्य लोग इन स्थितियों से कतराते हैं और समझौते का रास्ता अपनाते हैं। इसीलिए संपादक, प्रकाशक, मीडिया, व्यवस्था, इनमें से शैलेन्द्र किसी के प्रिय नहीं हैं। उनसे सर्वाधिक दुखी उनके समकालीन रचनाकार तो रहते ही हैं आश्चर्य यह कि नामवर जी जैसे स्वनामधन्य आलोचक तक उनसे दुखी रहते थे जिन्होंने अपने गढ़ और मठ बना रखे थे।’ शैलेन्द्र चौहान इनके बीच में अकेले दिखते हैं पर वह कभी अकेले नहीं होते। सामाजिक प्रतिबद्धता उन्हें सदैव जन सामान्य के करीब रखती है और जन सामान्य को उनके करीब। वह मुंह देखकर बातें नहीं करते बल्कि मूल्यों और आदर्शों से सम्पृक्त होकर बतियाते है। फिर चाहे भला लगे या बुरा। इसके पीछे न कोई दुर्भावना होती है न काइंयाँपन जो अन्य अनेकों व्यक्तियों में अक्सर मिलता है। जो अगर आपकी प्रशंसा करेंगे तो उसका ध्वन्यार्थ अलग होगा असल अर्थ अलग। लेकिन शैलेन्द्र जी ऐसे तीर नहीं साधते। उनकी रचनात्मकता भी कुछ ऐसी ही है।
(भडास4मीडिया) समीक्षक सूरज पालीवाल उनकी कविता पुस्तक ‘ईश्वर की चौखट पर’ की समीक्षा में कहते हैं- “ढेरों कविताओं के इस दौर में , ढेरों कवियों की इस जमात में किसी भी कवि के लिये पहचान बना पाना कठिन है लेकिन शैलेंद्र चौहान अपनी पहचान बना पाये हैं क्योंकि उनकी कविता प्रचलित मानदंडों के विरोध में खड़ी हैं। मैं मानकर चलता हूं कि किसी की नकल करके कोई बड़ा नहीं बनता बड़ा बनता है अपने अनुभवों और जीवन संघर्षों को अपनी तरह से रूपायित करके। शैलेंद्र चौहान ने अपनी कविताओं में यही किया है फिर उनकी कविता क्यों नहीं बड़ी बनेगी । ‘ईश्वर की चौखट पर ‘ मैं यही कहना चाहता हूं लेकिन प्रार्थना के स्वर में नहीं।” अब यह अलग बात है कि लोग जानबूझ कर इस तथ्य को न स्वीकार करें। वैसे भी शैलेन्द्र जी इन बातों की चिंता ही कब करते हैं। वह मित्रों के आत्मीय सुझाव सहजता से स्वीकारते हैं। अपनी आलोचना को बरदास्त करने का उनमें गजब का धैर्य है। वह आलोचना का कतई बुरा नहीं मानते बल्कि मुस्कराते रहते हैं। यह बात विरल है। कवि-कथाकार अभिज्ञात कहते हैं – “शैलेन्द्र का होना मनुष्य समाज व दुनिया की बेहतरी के बारे में सोचते व्यक्ति का होना है। मुझे कई बार यह लगता है कि बेहतर सोचने वाले दुनिया के लिए उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं जितने की बेहतरी के बारे में सोचने वाले। बेहतर सोचने में किसी व्यक्ति का अपना बहुत बड़ा योगदान मुझे नहीं लगता क्योंकि वह प्रारब्ध स्थिति है लेकिन बेहतरी के बारे में सोचना अर्जित है। बहुत से प्रलोभन आड़े आते हैं बेहतरी के बारे में सोचते हुए जिनसे किनारा करना पड़ता है।
शैलेन्द्र जी की कुछेक कविता संग्रहों की समीक्षा मैंने की है और यह महसूस किया है कि उनकी कविताओं में एक खास तरह की सादगी है जो उनके अपने व्यक्तित्त्व का भी हिस्सा है और दूसरी चीज़ यह कि उनके कथ्य में खरापन अधिक है जो उनकी कलात्मकता को भी कई बार कमतर करता चलता है। सच कहूं तो मुझे यह अपनी ओर अधिक आकृष्ट करता है। जीवन मूल्य और कला मूल्य की मुठभेड़ में जीवन मूल्य की जीत जाना मुझे अधिक आश्वस्तकारी लगता है।” (क्मशः-2009, शैलेन्द्र चौहान विशेषांक) परिवेश सम्मान-2007 की घोषणा करते समय सुप्रसिद्ध आलोचक मूलचंद गौतम कहते हैं – “शैलेंद्र चौहान को कविता विरासत के बजाय आत्मान्वेषण और आत्मभिव्यक्ति के संघर्ष के दौरान मिली है। निरन्तर सजग होते आत्मबोध ने उनकी रचनाशीलता को प्रखरता और सोद्देश्यता से संपन्न किया है। इसी कारण कविता उनके लिए संपूर्ण सामाजिकता और दायित्व की तलाश है। विचार, विवेक और बोध उनकी कविता के अतिरिक्त गुण हैं। जब कविता और कला आधुनिकता की होड़ में निरन्तर अमूर्त होती जा रही हो, ऐसे में शैलेंद्र चौहान समाज के हाशिए पर पड़े लोगों के दु:ख तकलीफों को, उनके चेहरों पर पढ़ने की कोशिश करते हैं।”
शैलेन्द्र जी के तीन कविता संग्रह आये हैं। पहला संग्रह सन 1983 में ‘नौ रुपये बीस पैसे के लिए’ परिमल प्रकाशन इलाहबाद से आया था। इस संग्रह की कविताएं उनकी शुरूआती दौर की कविताएं हैं लेकिन यह देखकर आश्चर्य होता है कि इनमें एक सहज परिपक्वता और प्रौढ़ता मौजूद है जो कवि शैलेन्द्र को अन्य कवियों से अलगाती है। उनका दूसरा कविता संग्रह ‘श्वेतपत्र’ लगभग दो दशकों के बाद 2002 में संघमित्रा प्रकाशन, विदिशा से प्रकाशित हुआ।
2004 में ‘ईश्वर की चौखट पर’ नाम से तीसरा संग्रह छपा। इसके बाद अब तक उनका नया संग्रह नहीं आया है यद्दपि वह लगातार कविताएं लिख रहे हैं। तभी आलोचक सूरज पालीपाल कहते हैं कि ‘शैलेन्द्र जी को हर वर्ष कैलेंडर छापने की आवश्यकता नहीं होती।’ उन्होंने महज कविताएं ही नहीं लिखी बल्कि कहानियां, व्यंग्य और सार्थक साहित्यिक टिप्पणियां भी लिखीं। उनका एक कहानी संग्रह शारदा सदन प्रकाशन से 1996 में प्रकाशित हुआ था 2010 में उनका बेहद रुचिकर कथा रिपोर्ताज आया था ‘पाँव जमीन पर’ जिसके बारे में सुप्रसिद्ध कथाकार उदय प्रकाश कहते हैं- ‘शैलेंद्र के लिए लोकजीवन किसी सेमिनार या किताब के जरिये सीखा गया शब्द नहीं है। लोकधर्मिता अपने बचपन के साथ उसकी शिराओं में बहने वाली एक अदृश्य नदी का नाम है। ऐसा बचपन जिसमें चॉकलेट और मल्टीप्लेक्स नहीं हैं, वीडियोगेम्स, मोबाइल्स और साइबर कैफे नहीं हैं, टाई, जूते, रंगीन बैग, टिफिन और स्कूल बसेज़ नहीं हैं।
वहाँ एक प्रायमरी पाठशाला है, कच्ची-पक्की पहली कक्षा है, जिसमें एक चकित-सा बेहद संवेदनशील बच्चा है, जो अपनी काठ की पट्टी को घोंटना और चमकाना सीख गया है, जो बर्रू से वर्णमाला लिखना सीख रहा है। घर के ओसार या स्कूल के आसपास किसी पेड़ के नीचे सबसे अलग बैठा हुआ ब्लेड से कलम की नोक छील रहा है। जितनी अच्छी कलम की नोक होगी, अक्षर और शब्द उतने ही सुंदर बनेंगे।’ आलोचना के क्षेत्र में तो उनकी प्रतिभा का लोहा सुप्रसिद्ध आलोचक नामवर जी भी मानते रहे।
हाल ही में काव्यालोचना पर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘कविता का जनपक्ष’ आई है। जो एक गंभीर विज्ञानसम्मत विश्लेषण है कविता आलोचना का। एक और महत्वपूर्ण पक्ष है शैलेन्द्र चौहान की रचनात्मकता का वह है उनका संपादन कौशल। ‘धरती’ नामक लघुपत्रिका एक गंभीर प्रयास है वैचारिक साहित्य की प्रस्तुति का। पिछले दिनों मीडिया पर एक महत्त्वपूर्ण गंभीर अंक निकला था ‘धरती’ का। हाल ही में ‘वैज्ञानिक चेतना और भारतीय समाज’ विषय केंद्रित एक समृद्ध अंक आया है जो विचारशील पाठकों के लिए बहुत उपयोगी है और चर्चा में है।
पत्रकारिता से तो शैलेन्द्र जी का अभिन्न रिश्ता है। जब भी अवसर मिलता है वह समाचार पत्रों के लिए लिखते है बल्कि इन दिनों तो नियमित ही लिख रहे हैं। इस सबके बावजूद वह न अपने कामों की चर्चा करते है, न ही किसी अन्य से इसकी अपेक्षा करते हैं। ऐसी बहुमुखी प्रतिभा के धनी शैलेन्द्र चौहान को अड़सठ वर्ष का होने पर अनेकशः शुभकामनाएं। यह अत्यंत प्रसन्नतादायक है। हम उनके शतायु होने की कामना करते हैं ताकि हिंदी साहित्य संसार को वह और समृद्ध कर सकें।
संपर्क: मानविकी संकाय, राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, वारंगल-506001 (तेलंगाना)