लोकसभा चुनावों से पहले महाराष्ट्र में शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में हुए विभाजन ने भारतीय जनता पार्टी की स्थिति मजबूत कर दी थी। शिवसेना और एनसीपी के गुटों के भाजपा के साथ आने से जहां वर्तमान महायुति सरकार की स्थिति मजबूत हो गयी थी वहीं राजनीतिक रूप से उद्धव ठाकरे और शरद पवार के लिए सबसे बड़ा झटका यह था कि उनकी अपनी पार्टी का असल नाम और चुनाव चिह्न उनके हाथ से चला गया था। इसके अलावा जिस तरह अशोक चव्हाण, बाबा सिद्दीकी, गोविंदा, मिलिंद देवड़ा और संजय निरूपम ने चुनावों से पहले कांग्रेस का साथ छोड़ा उससे पार्टी का भविष्य खतरे में नजर आ रहा था। साथ ही जिस तरह कांग्रेस-शिवसेना यूबीटी और एनसीपी शरद चंद्र पवार के गठबंधन महाविकास अघाड़ी यानि एमवीए में सीटों के बंटवारे के दौरान तनातनी देखी जा रही थी उससे भी इसके चुनावी प्रदर्शन को लेकर तमाम तरह की आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं। लेकिन लोकसभा चुनाव परिणाम दर्शा रहे हैं कि एमवीए ने चमत्कार कर दिया है। परिणाम यह भी दर्शा रहे हैं कि जनता ने इस बात का फैसला कर दिया है कि असली शिवसेना और असली एनसीपी कौन-सी है।
शरद पवार फिर चाणक्य साबित हुए
सवाल उठता है कि यह सब आखिर हुआ कैसे? जवाब यह है कि इस प्रदर्शन का असली श्रेय वरिष्ठ नेता शरद पवार को जाता है। उन्होंने सबसे पहले वामदलों समेत राज्य की सभी छोटी पार्टियों और संगठनों को एकजुट कर अपनी ताकत बढ़ाई और वोटों का बंटवारा रोका। इसके अलावा शरद पवार ने बिना थके प्रचार किया और इस बात को मतदाताओं के मन में बिठाने में सफल रहे कि यदि भाजपा फिर से आ गयी तो संविधान और आरक्षण को खत्म कर देगी। जब सीटों के बंटवारे पर एमवीए के घटक दल आपस में भिड़े हुए थे तब भी शरद पवार ने ही बीच बचाव करके सबके बीच सहमति बनवायी। प्रचार के मध्य में ही लगने लगा था कि शरद पवार ने भाजपा को आक्रामक की बजाय रक्षात्मक मुद्रा अपनाने पर मजबूर कर दिया है।
किसानों की समस्याएं
इसके अलावा महाराष्ट्र के विभिन्न भागों में सूखे की समस्या ने सत्तारुढ़ गठबंधन की चुनौती बढ़ा दी। किसानों की नाराजगी महायुति की हार का एक प्रमुख कारण है। एमवीए ने इस बात को मुद्दा बनाया कि कृषि लागत बढ़ रही है लेकिन किसानों को राहत नहीं मिल रही है। किसानों पर बढ़ता कर्ज और इंडिया गठबंधन की ओर से किया गया कर्ज माफी का वादा महाराष्ट्र में भी काम कर गया। महाराष्ट्र देश में सर्वाधिक प्याज का उत्पादन करता है और प्याज से होने वाली आय ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार है। लेकिन हाल ही में जिस तरह भारत सरकार ने प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध लगाया था उससे किसानों को काफी नुकसान हुआ। चुनावों के दौरान शुरुआत में देखा गया था कि प्याज उत्पादक अधिकतर गांवों में सत्तारुढ़ गठबंधन के उम्मीदवारों को घुसने नहीं दिया जा रहा था। यहां तक कि मोदी सरकार की कृषि और किसान कल्याण संबंधी योजनाओं को भी लोग नाकाफी मान रहे थे। इसके अलावा कृषि उपकरणों तथा अन्य वस्तुओं पर जीएसटी की दर ज्यादा होने का नुकसान भी सत्तारुढ़ गठबंधन को उठाना पड़ा है।
मराठा आरक्षण आंदोलन
महाराष्ट्र में हाल ही में प्रदेशव्यापी मराठा आरक्षण आंदोलन देखने को मिला था। कई जगह इसके चलते हिंसा भी हुई थी। मराठाओं की मांग थी कि उन्हें ओबीसी में शामिल कर आरक्षण दिया जाये। महाराष्ट्र की सभी पार्टियों ने इसका खुलकर समर्थन किया था। भाजपा पर आरोप लगे थे कि वह इस मामले में टालमटोल का रवैया अपना रही है। इससे मराठाओं के बीच पार्टी को लेकर नाराजगी उभरने की खबरें आईं।
भाजपा के बड़े वादे
भाजपा ने इस साल की शुरुआत में राम मंदिर का निर्माण और सीएए के नियम बनाने जैसे बड़े वादे पूरे कर दिये। राम मंदिर बनने की खुशी में देश के अन्य भागों की तरह महाराष्ट्र में भी चारों ओर उत्सव हुए लेकिन यह लहर जल्द ही खत्म भी हो गयी। कहा जा सकता है कि जनवरी में जिस तरह का माहौल था वह अप्रैल-मई आते-आते पूरी तरह खत्म हो गया और स्थानीय तथा अन्य मुद्दे चुनावों पर हावी हो गये। साथ ही लोगों ने सीएए और यूसीसी को आधार नहीं मानते हुए भी मतदान किया जोकि भाजपा के खिलाफ चला गया।
दलों में विभाजन
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और शिवसेना में जिस तरह विभाजन हुआ उससे महाराष्ट्र की सियासत पर बड़ा असर पड़ा। बाला साहेब ठाकरे द्वारा बनाई गयी शिवसेना को एकनाथ शिंदे ले गये और शरद पवार द्वारा गठित राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को अजित पवार ले गये। मामला चुनाव आयोग और उच्चतम न्यायालय तक गया लेकिन ज्यादातर जनप्रतिनिधि और पार्टी के पदाधिकारी चूंकि शिंदे और अजित पवार के साथ थे इसलिए शिवसेना शिंदे की हो गयी और एनसीपी अजित पवार की हो गयी। इससे आहत उद्धव ठाकरे और शरद पवार जनता की अदालत में गये और अपने साथ धोखा करने वालों को सबक सिखाने का आग्रह किया। जनता ने दोनों नेताओं की बात सुन कर फैसला सुना दिया। शरद पवार के पास नया चुनाव चिह्न होने के बावजूद वह आठ सीटें जीतने में सफल रहे तो वहीं दूसरी ओर चिर-परिचित घड़ी चुनाव चिह्न साथ होने के बावजूद अजित पवार मात्र एक सीट जीत पाये। यही हाल एकनाथ शिंदे की शिवसेना का भी रहा। जहां उद्धव ठाकरे की शिवसेना को 9 सीटें मिलीं वहीं शिंदे की शिवसेना मात्र 7 सीटों पर ही विजयी रही। शिंदे हालांकि अपने गढ़ ठाणे और कल्याण में अपनी ताकत दिखाने में सफल रहे।
कांग्रेस का उभार
महाराष्ट्र में कांग्रेस का इतना बड़ा उभार वाकई आश्चर्यजनक है। महाराष्ट्र में जिस तरह कांग्रेस पार्टी लगातार चुनाव हार रही थी और उसके नेता उसे छोड़ कर जा रहे थे, ऐसे में कांग्रेस का फिर से राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बनना उसके भविष्य के लिए अच्छा संकेत है। महाराष्ट्र में कांग्रेस के नेताओं ने एकजुटता के साथ चुनाव प्रचार किया। इसके अलावा, कई वरिष्ठ नेताओं के बेटे-बेटियों को मैदान में उतारा गया तो अब तक घर बैठे वरिष्ठ नेता भी सक्रिय हो गये। राहुल गांधी ने अपनी भारत जोड़ो यात्रा और भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान महाराष्ट्र का काफी दौरा किया था जिसका चुनावों पर प्रभाव पड़ा। राहुल गांधी ने महाराष्ट्र में सघन चुनाव प्रचार भी किया। कांग्रेस के घोषणापत्र में किये गये वादों को जिस तरह विदर्भ और उत्तर महाराष्ट्र क्षेत्र की जनता ने समर्थन दिया है वह दर्शाता है कि लोग तत्काल प्रभाव से राहत चाहते हैं। इसके अलावा मुस्लिम मतदाताओं ने एकजुटता के साथ कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया है जिससे पार्टी अच्छा प्रदर्शन कर पाई है।
वीबीए का पतन
प्रकाश अंबेडकर के नेतृत्व वाली वंचित बहुजन अघाडी (वीबीए) ने एमवीए के साथ गठबंधन के लिए कई दौर की बातचीत के बाद आखिरकार अलग रास्ता अख्तियार कर लिया था। 2019 में इस पार्टी का प्रदर्शन अच्छा रहा था और यह कई जगह कांग्रेस की हार कारण बनी थी। लेकिन 2024 में इस पार्टी को जनता का समर्थन नहीं मिला, यहां तक कि अपने क्षेत्र में प्रकाश अंबेडकर भी चुनाव हार गये। वीबीए ना तो कांग्रेस का नुकसान कर पाई ना ही दलित राजनीति के केंद्र वाला राजनीतिक दल बन पाई।
बहरहाल, महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव परिणाम का साइड इफेक्ट सत्तारुढ़ गठबंधन के बीच दिखने लगा है। भाजपा की हार के कारणों की जिम्मेदारी लेते हुए देवेंद्र फडणवीस ने इस्तीफा देने की पेशकश की है। हालांकि भाजपा और आरएसएस के लोगों ने उन्हें मना लिया है। दूसरी ओर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अजित पवार गुट के कई विधायकों के शरद पवार के साथ जाने की चर्चा जोर पकड़ रही है। उधर, एकनाथ शिंदे की शिवसेना के भीतर भी असंतोष की संभावना व्यक्त की जा रही है। चूंकि इस साल अक्टूबर में महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव होने हैं इसलिए देखना होगा कि राज्य की राजनीतिक परिस्थितियां क्या नई करवट लेती हैं।