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लघुकथा ….कुंभ 

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             – विवेक मेहता 

      मैं अपने परिचित डॉक्टर के पास बैठा था। वह एक मरीज को देख रहे थे। मरीज अपनी समस्या बता रहा था तो उन्होंने पूछा-“आपको यह सब कष्ट क्यों है? क्या आप मानते हैं की यह कर्मों का फल है? 

      मरीज बोला- “हां, अपने कर्मों का फल ही होगा।”

      “तो फिर आप अपने पाप काटने कुंभ में क्यों डुबकी नहीं लगा आते। सब पाप धुल जाएंगे,कष्ट मिट जाएंगे। आपको हमारे पास आने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी।” 

       दुखियारा मरीज क्या बोलता! बात करते-करते गंभीरता से उन्होंने उसका परिक्षण किया। दवा लिखी। मरीज चला गया। उसके जाने के बाद मैंने पूछा- “क्या बात है,आज बड़े तल्ख हो।”

       वे बोले- “कुएं में भांग गिरी है। हम भेड़ चाल में चल रहे हैं। जीरो की खोज की थी तो अभी भी उसकी महानता का ढिंढोरा पीट हैं। मगर हम जा कहां रहे हैं मालूम नहीं ?” 

       मैंने फिर पूछा- “हुआ क्या है?” 

       वे बताने लगे – “मेरे दोस्त की पत्नी का फोन आया। फोन पर बताया कि दोस्त बाथरूम में गिर गए। मेरी घुटनों और कमर की दशा तो तुम जानते ही हो। एक बार आकर उन्हें देख जाओ। 

       मैं उनके घर गया। दोस्त की हालत देखी। मैंने कहा- लड़के को फोन किया ? किसी को दिखाया? 

      उनकी पत्नी बोली- लड़का बोल रहा है कुंभ का अंतिम चरण चल रहा है। मुश्किल से टिकट और दूसरी बुकिंग हुई है। उसे वहां जाना है। 

      मैंने चेकअप किया। स्थिति अच्छी नहीं थी। मोबाइल सीटी स्कैन वैन को उनके घर भिजवाया। रिपोर्ट में सिर हेमरेज आया। ऑपरेशन जरूरी था। मैंने उनके लड़के को सूचित किया। 

      लड़का बोला- अंकल में तो अभी कुंभ के लिए बोर्ड कर रहा हूं। आप देख लीजिए ना। 144 साल के बाद ऐसा मौका आया है। मेरी जिंदगी में तो फिर आने से रहा! 

        मैंने मन ही मन सोचा- बाप चला गया तो वह भी फिर नहीं आने वाला है। वहां जाकर बाबाओं के चरणों में पड़कर उपदेश सुनेंगे की मां-बाप से बढ़कर कोई भगवान नहीं और हकीकत में…”

       मैं क्या बोलता! सिर पर चढ़ कर जो नशा बोले वह तो खराब ही होता है। वह अफीम का हो या फिर…. का।

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