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लघुकथा – न्याय की देवी और धूल 

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                                   विवेक मेहता 

          जहांगीरी घंटे और पंच परमेश्वर वाली न्याय की आभा धुंधली पड़ने लगी थी। मुकदमे ही मुकदमे निपटाते-निपटाते न्याय की देवी पर गर्दिश की परते जमने लगी थी। उसकी आंखों पर चाहे काली पट्टी हो पर कान तेज थे देवी के। उसके हाथ में थमी तलवार दो धारी थी। यह अलग बात है कि तलवार  की धार की तीक्ष्णता कम-ज्यादा थी। इसका असर तराजू पर लोगों को दिखता।

       न्याय की देवी तेज कानों से सामने वाले की औकात आंकतीं और जब जरूरत महसूस करती तो जादूगरी दक्षता के अनुसार वार करती। अन्यथा सोई रहती। बंधी काली पट्टी के कारण किसी को मालूम भी नहीं पड़ता।

        एक बार अनहोनी हो गई। अनजाने में, या गलती से, या मजबूरी में, या आत्मा की आवाज के कारण, जो भी कहना चाहे कह लें- उससे सामर्थ्य पर तीखा वार हो गया। दसों दिशाएं न्याय की देवी की जय-जयकार से गुंज उठीं। गूंज इतनी तेज थी कि सारी धूल छंट गई। देवी का रूप निखार आया। उसकी आभा, दमक चारों ओर फैल गई। देवी को भी ख्यात होने का हथियार मिल गया। आत्म विभोर हो अब वह सामर्थ्यवान लोगों के झगड़ों को रोज निपटाती थी। गरीब -गुरबों के मुकदमा पर उसका ध्यान भी नहीं जाता। उनके मुकदमों पर धूल की परत जमने लगी। 

   आखिर धूल थी। कहीं से उड़ेंगी तो कहीं तो जमेगी ना!

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