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लघु कहानी : सच और झूठ का झगड़ा

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सोनी (पूजा)

अवार लोग सुनाते हैं। युग-युगों से सच और झूठ एक-दूसरे के साथ-साथ चल रहे हैं। युग-युगों से उनके बीच यह बहस चल रही है कि उनमें से किसकी अधिक ज़रूरत है, कौन अधिक उपयोगी और शक्तिशाली है।

        झूठ कहता है कि मैं, और सच कहता है कि मैं। इस बहस का कभी अन्त नहीं होता। एक दिन उन्होंने दुनिया में जाकर लोगों से पूछने का फै़सला किया। झूठ तंग और टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डियों पर आगे-आगे भाग चला, वह हर सेंध में झाँकता, हर सूराख में सूँघा-साँघी करता और हर गली में मुड़ता।

      मगर सच गर्व से गर्दन ऊँची उठाये सिर्फ़ सीधे, चौड़े रास्तों पर ही जाता। झूठ लगातार हँसता था, पर सच सोच में डूबा हुआ और उदास-उदास था।

उन दोनों ने बहुत-से रास्ते, नगर और गाँव तय किये, वे बादशाहों, कवियों, खानों, न्यायाधीशों, व्यापारियों, ज्योतिषियों और साधारण लोगों के पास भी गये।

      जहाँ झूठ पहुँचता, वहाँ लोग इतमीनान और आज़ादी महसूस करते। वे हँसते हुए एक-दूसरे की आँखों में देखते, यद्यपि इसी वक़्त एक-दूसरे को धोखा देते होते और उन्हें यह भी मालूम होता कि वे ऐसा कर रहे हैं। मगर फिर भी वे बेफ़िक्र और मस्त थे तथा उन्हें एक-दूसरे को धोखा देते और झूठ बोलते हुए ज़रा भी शर्म नहीं आती थी।

        _जब सच सामने आया, तो लोग उदास हो गये, उन्हें एक-दूसरे से नज़रें मिलाते हुए झेंप होने लगी, उनकी नज़रें झुक गयीं। लोगों ने (सच के नाम पर) खंजर निकाल लिये, पीड़ित पीड़कों के विरुद्ध उठ खड़े हुए, गाहक व्यापारियों पर, साधारण लोग खानों (जागीरदारों) पर और ख़ान शाहों पर झपटे, पति ने पत्नी और उसके प्रेमी की हत्या कर डाली। ख़ून बहने लगा।_

    इसलिए अधिकतर लोगों ने झूठ से कहा :

     “तुम हमें छोड़कर न जाओ! तुम हमारे सबसे अच्छे दोस्त हो। तुम्हारे साथ जीना बड़ा सीधा-सादा और आसान मामला है! और सच, तुम तो हमारे लिए सिर्फ़ परेशानी ही लाते हो। तुम्हारे आने पर हमें सोचना पड़ता है, हर चीज़ को दिल से महसूस करना, घुलना और संघर्ष करना होता है।

           तुम्हारी वजह से क्या कम जवान योद्धा, कवि और सूरमा मर चुके हैं?”

      अब बोलो, “झूठ ने सच से कहा, “ देख लिया न कि मेरी अधिक आवश्यकता है और मैं ही अधिक उपयोगी हूँ। कितने घरों का हमने चक्कर लगाया है और सभी जगह तुम्हारा नहीं, मेरा स्वागत हुआ है।”

“हाँ, हम बहुत-सी आबाद जगहों पर तो हो आये। आओ, अब चोटियों पर चलें! चलकर निर्मल जल के ठण्डे चश्मों, ऊँचे चरागाहों में खिलने वाले फूलों, सदा चमकने वाली बेदाग़ सफ़ेद बर्फ़ से पूछे।

      “शिखरों पर हज़ारों बरसों का जीवन है। वहाँ नायकों, वीरों, कवियों, बुद्धिमानों और सन्त-साधुओं के अमर और न्यायपूर्ण कृत्य, उनके विचार, गीत और अनुदेश जीवित रहते हैं। चोटियों पर वह रहता है जो अमर है और पृथ्वी की तुच्छ चिन्ताओं से मुक्त है।”

“नहीं, वहाँ नहीं जाऊँगा,” झूठ ने जवाब दिया।

“तो तुम क्या ऊँचाई से डरते हो? सिर्फ कौवे ही निचाई पर घोंसले बनाते हैं। उक़ाब तो सबसे ऊँचे पहाड़ों के ऊपर उड़ान भरते हैं।

        क्या तुम उक़ाब के बजाय कौवा होना ज्यादा बेहतर समझते हो? हाँ, मुझे मालूम है कि तुम डरते हो। तुम तो हो ही बुज़दिल! तुम तो शादी की मेज़ पर जहाँ शराब की नदी बहती होती है, बहसना पसन्द करते हो, मगर बाहर अहाते में जाते हुए डरते हो, जहाँ जामों की नहीं, खंजरों की खनक होती है।”

”नहीं, मैं तुम्हारी ऊँचाइयों से नहीं डरता। मगर में वहाँ करूँगा ही क्या, क्योंकि वहाँ तो लोग ही नहीं हैं। मेरा तो वहीं बोल-बाला है, जहाँ लोग रहते हैं।

       मैं तो उन्हीं पर राज करता हूँ। वे सब मेरी प्रजा हैं। कुछ साहसी ही मेरा विरोध करने की हिम्मत करते हैं और तुम्हारे पथ पर, सच्चाई के पथ पर चलते हैं। मगर ऐसे लोग तो इने-गिने हैं।”

“हां, इने-गिने हैं। मगर इसीलिए इन लोगों को युग-नायक माना जाता है और कवि अपने सर्वश्रेष्ठ गीतों में उनका स्तुति-गान करते हैं।”

      (चेतना विकास मिशन)

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