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स्मृति शेष :सांस्कृतिक कार्यों के ज़रिएदेश की आजादी में योगदान देना चाहते थे बलराज साहनी

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ज़ाहिद ख़ान

अपनी लाजवाब अदाकारी और समाजी—सियासी सरोकारों के लिए जाने—पहचाने जाने वाले बलराज साहनी सांस्कृतिक कार्यों के ज़रिए ही देश की आजादी में अपना योगदान देना चाहते थे। देश में नवजागरण के लिए एक अंग बनना चाहते थे। यही वजह है कि अपनी नौजवानी के ही दिनों में बलराज साहनी ने कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक संगठन ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘भारतीय जन नाट्य संघ’ (इप्टा) दोनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना शुरू कर दिया था।

उन्होंने इप्टा में अवैतनिक पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप मेंं कार्य किया। इस जन संगठन में बलराज साहनी की इब्तिदा ड्रामे के डायरेक्शन से ही हुई। ख़्वाजा अहमद अब्बास ने जब अपने नाटक ‘ज़ुबैदा’ के डायरेक्शन की ज़िम्मेदारी इप्टा में नये-नये आए बलराज साहनी को सौंपी, तो सभी को एक दम तअज्जुब हुआ। अब्बास ने पहली ही नज़र में उनकी क़ाबिलियत को पहचान लिया था। बहरहाल, बलराज साहनी ने भी उन्हें निराश नहीं किया। नाटक बेहद कामयाब हुआ। ‘ज़ुबैदा’ की कामयाबी के साथ वे इप्टा के अहमतरीन मेंबर हो गए। ‘ज़ुबैदा’ में डायरेक्शन के साथ-साथ बलराज साहनी ने उसमें अदाकारी भी की। इस ड्रामे में जो रोल उन्होंने किया, उसे पहले चेतन आनंद निभाने वाले थे, लेकिन ऐन वक़्त पर उनकी तबीयत ख़राब होने की वजह से मजबूरी में उन्हें यह रोल करना पड़ा। बलराज साहनी के अलावा इस ड्रामे में देव आनंद, भीष्म साहनी, अजरा मुमताज़, रशीद ख़ान और ख़्वाजा अहमद अब्बास ने भी भूमिका निभाई थी।

यह वह दौर था, जब इप्टा से देश भर के बड़े-बड़े कलाकार, लेखक, निर्देशक और संस्कृतिकर्मी आदि जुड़े हुए थे। इप्टा आंदोलन पूरे भारत में फैल चुका था। राजनीतिक-सामाजिक प्रतिबद्धता से परिपूर्ण इस नाट्य आंदोलन का एक ही मक़सद था, मुल्क की आज़ादी। बलराज साहनी ने अपने-आप को जैसे पूरी तरह से इसके लिए झोंक दिया। एक समय ऐसा भी आया, जब बलराज साहनी इप्टा में नेतृत्वकारी भूमिका में आए। इप्टा मुंबई ब्रांच के महासचिव की ज़िम्मेदारी उन्हें मिली। इस ज़िम्मेदारी को उन्होंने पूरी ग़ंभीरता से निभाया। बलराज साहनी ने नये-नये लोगों को इप्टा और उसकी विचारधारा से जोड़ा। लोक शाइर अण्णा भाऊ साठे, पवाड़ा गायक गावनकर और अमर शेख़ आदि उन्हीं की ख़ोज थे। बलराज साहनी ने ना सिर्फ़ इन सब की प्रतिभा पहचानी, बल्कि उन्हें इप्टा में एक नया मंच भी प्रदान किया। वैचारिक तौर पर उन्हें प्रशिक्षित किया।

बलराज साहनी ने इप्टा में अभिनय-निर्देशन के साथ-साथ ‘जादू की कुर्सी’, ‘क्या यह सच है बापू ?’ जैसे ड्रामे भी लिखे। ‘जादू की कुर्सी’ राजनीतिक व्यंग्य था, जिसमें आज़ाद भारत की पहली सरकार की नीतियों का मज़ाक़ उड़ाया गया था। नाटक, उम्मीद से कहीं ज़्यादा कामयाब हुआ। अलबत्ता बाद में बलराज साहनी को अपने इस नाटक के लिए अफ़सोस भी हुआ। अपनी किताब ‘बलराज साहनी पर बलराज साहनी : एक आत्मकथा’ में उन्होंने यह बात खुले दिल से तस्लीम की है,‘‘मैं विचार से भी बहुत शर्मिंदा महसूस करता हूं कि मुझ जैसे मामूली आदमी ने नेहरू जैसे महान विद्वान का मज़ाक उड़ाने की ज़ुर्रत की थी !’’

अपनी सियासी सरगर्मियों और वामपंथी विचारधारा के चलते बलराज साहनी को कई मर्तबा जेल जाना पड़ा। लेकिन उन्होंने अपनी विचारधारा से कोई समझौता नहीं किया। हालांकि वे कम्युनिस्ट पार्टी के कार्डधारक मेंबर नहीं थे, लेकिन पीसी जोशी की नजर में बलराज साहनी अपनी ज़िंदगी के आख़िर तक ‘‘एक अपरिभाषित किस्म के’’ कम्युनिस्ट बने रहे।

इप्टा ने जब अपनी पहली फ़िल्म ‘धरती के लाल’ बनाने का फ़ैसला किया, तो बलराज साहनी को उसमें मुख्य भूमिका के लिए चुना गया। इस फ़िल्म में मुख्य भूमिका निभाने के साथ-साथ उन्होंने सहायक निर्देशक की ज़िम्मेदारी भी संभाली। ‘धरती के लाल’, साल 1943 में बंगाल के अंदर पड़े भयंकर अकाल के पस—मंज़र पर थी। ख़्वाजा अहमद अब्बास द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म में बलराज साहनी ने किसान की भूमिका निभाई। जीनियस डायरेक्टर बिमल रॉय की ‘दो बीघा ज़मीन’, बलराज साहनी की एक और मील का पत्थर फ़िल्म थी। ‘धरती के लाल’ में ‘निरंजन’ और ‘दो बीघा जमीन’ फ़िल्म में ‘शंभु महतो’ के किरदार में उन्होंने जैसे अपनी पूरी जान ही फूंक दी थी। दोनों ही फ़िल्मों में किसानों की समस्याओं, उनके शोषण और उत्पीड़न के सवालों को बड़े ही संवेदनशीलता और ईमानदारी से उठाया गया था।

ये फ़िल्में हमारे ग्रामीण समाज की ज्वलंत तस्वीरें हैं। इन फ़िल्मों में शानदार अदाकारी के बावजूद बलराज साहनी को भले ही कोई पुरस्कार नहीं मिला, लेकिन ‘दो बीघा ज़मीन’ को साल 1954 में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पहला फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार के अलावा पहले राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से भी नवाज़ा गया। ‘धरती के लाल’, ‘दो बीघा ज़मीन’ हो या फिर ‘गरम हवा’ बलराज साहनी अपनी इन फ़िल्मों में इसलिए कमाल कर सके कि उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता इन किरदारों के जानिब थी। वे दिल से इनके साथ जुड़ गए थे। इस हद तक कि कोलकाता की सड़कों पर उन्होंने ख़ुद हाथ रिक्शा चलाया।

आज़ादी के बाद एक वक़्त ऐसा भी आया, जब इप्टा की गतिविधियों में कुछ शिथिलता आई। वैचारिक मतभेद गहराए। ऐसे माहौल में बलराज साहनी थोड़े अरसे तक इप्टा से दूर रहे, मगर नाटक से उन्होंने नाता नहीं तोड़ा। अपने कुछ दोस्तों के साथ बलराज साहनी ने एक अव्यावसायिक ड्रामा ग्रुप ‘जुहू आर्ट थियेटर’ बनाया। इस ड्रामा ग्रुप से उन्होंने कुछ नाटक किए, लेकिन जैसे ही इप्टा के पुनर्गठन की तैयारियां शुरू हुईं, वे इस काम में सबसे पेश-पेश थे।

बलराज साहनी का पहला प्यार नाटक था। नाटक को वे सामाजिक बदलाव का एक बड़ा साधन मानते थे। परिवार की आर्थिक परेशानियों के चलते उन्होंने फ़िल्मों में अभिनय करना शुरू किया। वे फ़िल्मों में भी कामयाब साबित हुए। अपने पच्चीस साल के फ़िल्मी करियर में बलराज साहनी ने एक सौ पच्चीस से ज़्यादा फ़िल्मों में अदाकारी की। जिसमें ‘धरती के लाल’, ‘दो बीघा ज़मीन’, ‘काबुलीवाला’, ‘गरम हवा’, ‘गरम कोट’, ‘सीमा’, ‘हलचल’, ‘हक़ीक़त’, ‘अनुराधा’, ‘हीरा मोती’ और ‘सोने की चिड़िया’ ऐसी फ़िल्में हैं, जिनमें उनकी अदाकारी भुलाई नहीं जा सकती।

तरक़्क़ीपसंद तहरीक से जुड़े कलाकार-लेखक-निर्देशकों ने जब भी कोई फ़िल्म बनाई, उनकी पहली पसंद बलराज साहनी ही होते थे। ख़्वाजा अहमद अब्बास निर्देशित फ़िल्म ‘धरती के लाल’ और ‘परदेसी’, राजिंदर सिंह बेदी-‘गरम कोट’, चेतन आनंद-‘हक़ीक़त’, ज़िया सरहदी-‘हम लोग’ और एम. एस. सथ्यु की फ़िल्म ‘गरम हवा’ के नायक बलराज साहनी थे। उन्होंने भी अपनी अदाकारी से निर्देशकों को निराश नहीं किया। कमोबेश यह सारी की सारी फ़िल्में यथार्थवादी सिनेमा का बेहतरीन नमूना हैं। स्वाभाविक तौर पर यथार्थवादी अभिनय इन फ़िल्मों की मांग था, जिस पर बलराज साहनी पूरी तरह से खरे उतरे।

ख़ुद बलराज साहनी का अपने इस यथार्थवादी अभिनय के बारे में ख़याल था,‘‘कला और साहित्य में यथार्थवाद की शिक्षा मुझे कॉलेज में अंग्रेज़ी साहित्य के अध्ययन से मिली थी। मैंने उसके इतिहास का अध्ययन करते हुए यह बात जानी थी कि यूरोप में यथार्थवाद से पहले के युग की कला में लंबाई-चौड़ाई तो होती थी, पर गहराई नहीं होती थी, जो कला का तीसरा आयाम है। ‘रेनेसान्स’ कला में तीसरा आयाम लाया था। यथार्थवाद की विशेषता है कि वह कला में तीसरा आयाम लाता है। मैंने अपने स्टेज और फ़िल्म के अभिनय में यही तीसरा आयाम लाने का प्रयास किया है। कलाकार के लिए यह सबसे मुश्किल रास्ता है और इसी में सृजन का असली आनंद अनुभव किया जा सकता है।’’

बलराज साहनी की अदाकारी पर अलग-अलग लोगों ने खुलकर अपना नज़रिया ज़ाहिर किया है। उनके छोटे भाई साहित्यकार भीष्म साहनी की नज़र में,‘‘बलराज की कामयाबी का राज था कि वे किसी किरदार को निभाते वक़्त अपना दिल ही नहीं, आत्मा भी झोंक देते थे।………वे अपनी पहचान को किरदार में घुला देते थे। यह इस वजह से होता था, क्योंकि वे किरदार से गहरे स्तर पर जुड़ जाते थे। बलराज कहते थे कि एक्टिंग सिर्फ़ कला नहीं है, यह एक विज्ञान भी है।’’

अपने एक लेख ‘जन कलाकार बलराज साहनी’ में कमोबेश यही बात ख़्वाजा अहमद अब्बास अलग तरह से दोहराते हैं, ‘‘बलराज साहनी द्वारा अभिनीत किरदार अगर प्रसिद्ध हुए, तो इसलिए कि उनका अभिनय कौशल मानव व्यवहार के सहानुभूतिपूर्ण प्रेक्षण और यथार्थवाद के लिए गहरे लगाव, ब्यौरों के प्रति तथा चरित्र व व्यक्तित्व एक-एक रग-रेशे के प्रति आश्चर्यजनक ईमानदारी से भरा था।’’ भीष्म साहनी और ख़्वाजा अहमद अब्बास की इन बातों से शायद ही कोई नाइत्तेफ़ाक़ी ज़ाहिर करे। ‘धरती के लाल’ और ‘दो बीघा ज़मीन’ फ़िल्म में किसान का किरदार निभाने के लिए उन्होंने काफ़ी मेहनत की थी। ‘धरती के लाल’ में अकाल पीड़ित किसान की व्यथा उनके शरीर और चेहरे पर दिखाई दे, इसके लिए उन्होंने फ़िल्म के पूरी शूटिंग के दौरान एक वक़्त का खाना खाया। ‘दो बीघा ज़मीन’ में रिक्शा खींचने वाले के किरदार में स्वाभाविकता लाने के लिए वे रिक्शा खींचने वाले कामगारों की बस्ती में रहे और उनके तौर-तरीक़े सीखे। यहां तक की ‘काबुलीवाला’ फ़िल्म में पठान के किरदार को ज़िंदा करने के वास्ते उन्होंने उनका बोलचाल और रबाब बजाना सीखा। इप्टा के नाटक ‘आख़िरी शमा’ में मिर्ज़ा ग़ालिब के किरदार में रंग भरने के लिए उन्होंने अपने दोस्तों से देहली की उर्दू बोलने का लहज़ा और मुशायरा शैली में शायरी पढ़ने का सलीक़ा सीखा।

बलराज साहनी की अदाकारी की अज़्मत को बयां करते हुए ख़्वाजा अहमद अब्बास ने उनके बारे में ‘जन कलाकार बलराज साहनी’ लेख में पूरी अक़ीदत के साथ लिखा हैं,‘‘अगर भारत में कोई ऐसा कलाकार हुआ है, जो ‘जन कलाकार’ का ख़िताब का हक़दार है, तो वह बलराज साहनी ही हैं। उन्होंने अपनी ज़िंदगी के बेहतरीन साल, भारतीय रंगमंच तथा सिनेमा को घनघोर व्यापारिकता के दमघोंटू शिकंजे से बचाने के लिए और आम जन के जीवन के साथ उनके मूल, जीवनदायी रिश्ते फिर से क़ायम करने के लिए समर्पित किए थे।

बलराज साहनी कोई यथार्थ से कटे बुद्धिजीवी तथा कलाकार नहीं थे। आम आदमी से उनका गहरा परिचय (जिसका पता उनके द्वारा अभिनीत पात्रों से चलता है), स्वतंत्रता के लिए तथा सामाजिक न्याय के लिए जनता के संघर्षों में उनकी हिस्सेदारी से निकला था।” बलराज साहनी पंजाबी ज़बान के बड़े लेखक-नाटककार गुरशरण सिंह के थियेटर ग्रुप ‘पंजाबी कला केन्द्र’ के साथ पंजाब के दूर-दराज़ के गांवों तक गए। इस ग्रुप के ज़रिए उन्होंने अवामी थियेटर को जनता तक पहुंचाया। लोगों में जनचेतना फैलाई। सिनेमा, साहित्य और थियेटर में एक साथ काम करते हुए भी बलराज साहनी सामाजिक, राजनीतिक गतिविधियों के लिए समय निकाल लेते थे। सूखा और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं में देशवासियों की मदद के लिए वे हमेशा आगे-आगे रहते थे।

बंटवारे के दौरान हुए साम्प्रदायिक दंगों में उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ साम्प्रदायिकता विरोधी मुहिम का संचालन किया। महाराष्ट्र के भिवंडी में जब साम्प्रदायिक दंगा हुआ, तो वे अपनी जान की परवाह किए बिना दंगाग्रस्त इलाके गए। उन्होंने वहां हिंदू-मुस्लिम दोनों क़ौमों के बीच शांति और सद्भावना क़ायम करने का अहमतरीन काम किया। समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता में उनका गहरा यकीन था और इन मूल्यों को स्थापित करने के लिए उन्होंने ज़मीनी स्तर पर काम किया।

बलराज साहनी एक सच्चे कलाकार थे और अपने देशवासियों से बेहद प्यार करते थे। अपने चर्चित लेख ‘आज के साहित्यकारों से अपील’ में उन्होंने देशवासियों के लिए पैग़ाम देते हुए लिखा है, ‘‘हमारा देश अनेक क़ौमियतों का सांझा परिवार है। वह तभी उन्नति कर सकता है, अगर हर एक क़ौम अपनी जगह संगठित और सचेत हो, और अपनी जगह भरपूर मेहनत और उद्यम करे। जैसे हर क़ौम, वैसे ही हर व्यक्ति समान अधिकार रखने वाला हो-आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक। भारतीय एकता और उन्नति का संकल्प लोकवाद और समाजवाद के आधार पर ही किया जा सकता है, न कि बड़ी मछली छोटी मछली को हड़प करने का अधिकार दे कर।’’

सिनेमा, साहित्य और थियेटर के क्षेत्र में बलराज साहनी के महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें कई सम्मान और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। भारत सरकार के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक ‘पद्मश्री’ के अलावा उनकी किताब ‘मेरा रूसी सफ़रनामा’ के लिए उन्हें सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से नवाज़ा गया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पहले महासचिव पीसी जोशी, बलराज साहनी के अज़ीज़ दोस्त थे। तक़रीबन चार दशक तक उनका और बलराज साहनी का लंबा साथ रहा। बलराज साहनी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर पीसी जोशी ने एक शानदार लेख ‘बलराज साहनी : एक समर्पित और सर्जनात्मक जीवन’ लिखा है। बलराज साहनी की अज़ीम-ओ-शान शख़्सियत और वे जनता के बीच क्यों मक़बूल थे ?, इस पर जोशी की बेलाग राय है,‘‘बलराज साहनी का जीवन और कृतित्व एक उद्देश्यपूर्ण और ख़ूबसूरती से जी गई, बेहतरीन ज़िंदगी की कहानी है।

जैसे-जैसे समय बीतता गया, उस शख़्स के समर्पित तरीक़े से अंजाम दिए गए कामों का गौरवशाली रिकॉर्ड ऊंचा से ऊंचा होता गया और उनमें से हरेक काम को उसने अपनी सर्जनात्मकता से ज़रूर कुछ समृद्ध बनाया। उन्होंने लेखन और सांस्कृतिक क्षेत्र में जो भी कार्य किया, वह आम जनता की समझ में आने वाला था। इसीलिए उनका रचनात्मक कार्य जनता के बीच बेहद लोकप्रिय हुआ।’’

(ज़ाहिद ख़ान रंगकर्मी और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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