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स्मृति शेष:राहत इंदौरी- ‘अब ना मैं हूं ना बाक़ी हैं ज़माने मेरे/फिर भी मशहूर हैं शहरों में फ़साने मेरे’

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ज़ाहिद ख़ान

राहत इंदौरी बेहद आन-बान और शान वाले शायर थे। पूरे तीन दशक तक मुशायरों में उनकी बादशाहत क़ायम रही। एक दौर था, जब उनका नाम ही मुशायरों की कामयाबी की ज़मानत होता था। लोग उनका नाम सुनकर ही मुशायरे में खिंचे चले आते थे। सामेईन के बीच ऐसी शोहरत और मोहब्बत बहुत कम शायरों को हासिल होती है।

वे जब मंच पर अपना कलाम सुनाने के लिए खड़े होते, तो श्रोताओं का इंतज़ार ख़त्म हो जाता और उनमें एक नया जोश, नया जज़्बा पैदा हो जाता। राहत इंदौरी की सिर्फ़ शायरी ही नहीं, उनके कहने का अंदाज़ भी निराला था। सच बात तो यह है कि ज़्यादातर सामेईन उनकी शायरी के साथ-साथ, उसे बयां करने की अदायगी के दीवाने थे।

एक-एक लफ़्ज़ पर वह जिस तरह से ज़ोर देकर, कभी आहिस्ता तो कभी बुलंद आवाज़ में पूरी अदाकारी के साथ अपने अशआर पढ़ते, तो हज़ारों की भीड़ सम्मोहित हो जाती। मुशायरे का मैदान या पूरा हॉल ‘मुकर्रर इरशाद-मुकर्रर इरशाद’ (फ़िर से कहिए) की आवाज़ों से गूंज उठता। वे वाक़ई महफ़िल लूट लेने वाले शायर थे।

ऐसे शायर दुनिया में एक मुद्दत के बाद आते हैं। राहत इंदौरी शुरुआत में मुशायरों के अंदर अपनी शायरी तरन्नुम में पढ़ा करते थे, लेकिन बाद में वे तहत में पढ़ने लगे। आगे चलकर उन्होंने अपना ख़ुद का एक अलग स्टाइल बना लिया। एक नया लहज़ा ईजाद किया, जो लोगों को ख़ूब पसंद आया। उनके शे’र पढ़ने-सुनाने की शैली मक़बूल हो गई।

राहत इंदौरी ने ज़्यादातर ग़ज़ल ही लिखीं और वे भी छोटी बहर की। लेकिन उनकी इन ग़ज़लों का मौज़ूअ और लफ़्ज़ों का जादू दोनों ही सामेईन पर गहरा असर करता था। सादा और आमफ़हम ज़बान में वे सब कुछ कह जाते थे, जिसके लिए कई शायर अरबी-फ़ारसी के कठिन अल्फ़ाज़ और बड़ी बहर का इस्तेमाल करते हैं। यही वजह है कि उनके शे’र अवाम में कहावतों और मुहावरों की तरह दोहराए जाते थे। उनका एक नहीं, ऐसे कई मक़बूल शे’र हैं, जो बच्चे-बच्चे की ज़बान पर हैं।

‘एक ही नदी के हैं ये दो किनारे दोस्तो/दोस्ताना मौत से…ज़िंदगी से यारी रखो।’, ‘अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए/कितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गए।’,‘हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे/कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते।’, ‘दोस्ती जब किसी से की जाए/दुश्मनों की भी राय ली जाए।’


राहत इंदौरी अपनी ज़िंदगी में हमेशा इस क़ौल के क़ायल रहे, ‘शे’र उसी को कहिए जो दिल से निकले और दिल तक पहुंचे।’ वाक़ई, उनके शे’र और तमाम अशआर दिल से निकलते थे और बहुत जल्द ही सभी के दिलों में अपनी जगह बना लेते थे। वह मिज़ाज से एहतिजाज और बग़ावत के शायर हैं। उन्होंने रोमानी शायरी बहुत कम की है लेकिन जितनी भी लिखी, उसकी रंग-ओ-बू औरों से जुदा है।

भाषा की रवानगी और खिलंदड़पन उसमें ख़ूब नज़र आता है। शायरी में भाषा और बोलियों को किस तरह से बरता जाता है, कोई यह हुनर उनसे सीखे। ‘उसकी कत्थई आंख़ों में हैं जंतर-मंतर सब/चाक़ू-वाक़ू, छुरियां-वुरियां, ख़ंजर-वंजर सब/जिस दिन से तुम रूठीं मुझ से/रूठे-रूठे हैं, चादर-वादर, तकिया-वकिया, बिस्तर-विस्तर सब।’ तिस पर उनके सुनाने का मस्ताना अंदाज़ सामेईन पर और भी जादू कर जाता था।

आम शायरों में जो इशारों में बात करने का हुनर होता है, वह राहत इंदौरी में बिलकुल नहीं था। शायरी में वे अपनी बात बे-ख़ौफ़ और बेबाक तरीक़े से रखते थे। सिस्टम की गड़बड़ियों को सामने लाने और हुकूमत से सीधे-सीधे टकराने का माद्दा उनमें था। यदि अवाम में हम राहत इंदौरी की मक़बूलियत की वजह तलाशें, तो उसमें उनके उन शे’रों का बड़ा योगदान है, जो सत्ता या सिस्टम के ख़िलाफ़ लिखे गए हैं। जिनमें सिस्टम की नाकामियों और नकारेपन पर गहरी चोट है। मज़लूम, बेबस अवाम राहत इंदौरी के इस तरह के शे’र सुनती, तो उन्हें लगता कि यह उन्हीं के जज़्बात की तर्जुमानी है।

जो बात वे नहीं कह पा रहे हैं, कोई तो है जो उनको अपनी आवाज़ दे रहा है। हुकूमत, सरमाएदारों और फ़िरक़ा-परस्त ताक़तों को चैलेंज कर रहा है। इस मामले में उनका शजरा (वंश) पाकिस्तान के अवामी शायर हबीब जालिब से मिलता था। हमारे मुल्क में आज जिस तरह के हालात हैं, उसमें उनके कई शे’र प्रासंगिक हो गए हैं। जबकि यह शे’र आज से कई बरस पहले लिखे गए थे।

ख़ास तौर पर सीएए और एनआरसी कानून के ख़िलाफ़ मुल्क में जो तहरीक चली, उसमें राहत इंदौरी की यह ग़ज़ल तो जैसे एक नारा बन गई। ‘लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में/यहां पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है/जो साहिबे मसनद हैं, कल नहीं होंगे/किरायेदार हैं कोई ज़ाती मकान थोड़ी है/सभी का ख़ून है शामिल यहां की मिट्टी में/किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है।’ कुछ ऐसे ही तेवर इन शे’रों के हैं, ‘वो गर्दन नापता है, नाप ले/मगर ज़ालिम से डर जाने का नहीं।’, ‘सारा दिन जेल की दीवार उठाते रहिए/ऐसी आज़ादी की हर शख़्स रिहाई मांगे।’

अपने मुल्क की गंगा-जमुनी तहज़ीब और सतरंगी विरासत से राहत इंदौरी को हद दर्जे की मोहब्बत थी। लिहाज़ा जब भी कभी इस पर ज़रा सी भी आंच आती, उनका दर्द और ग़ुस्सा उनकी शायरी में झलक जाता था। उनके पाठक और श्रोता भी उनसे इसी तरह के कलाम की उम्मीद करते थे। राहत इंदौरी को मालूम होता था कि वे क्या लिख रहे हैं और इसका अवाम पर क्या असर होगा! हुकूमत और सियासतदां इस पर क्या रद्देअमल करेंगे! कई बार उनका लहज़ा इतना तल्ख़ हो जाया करता था कि राहत इंदौरी के मुख़ालिफ़ीन, ज़हर उगलने लगते थे।

उनके ख़िलाफ़ तरह-तरह के इल्ज़ाम लगाते थे। लेकिन अपनी आलोचनाओं की उन्होंने कभी परवाह नहीं की। उन्होंने वही लिखा, जो उनके दिल को भाता था। मुख़ालिफ़ीन के विरोध और आलोचनाओं की वजह से राहत इंदौरी ने अपना स्टैंड नहीं बदला। वे मुशायरों के एंग्री यंग मैन थे। जिनकी हर अदा, उनके दीवानों को पसंद थी। राहत इंदौरी की ग़ज़लों में ऐसे कई शे’र हैं, जो जितने लिखते वक़्त सामयिक थे, उतने ही आज मौज़ूअ हैं। और आगे भी उनकी प्रासंगकिता बनी रहेगी।

‘जिन चिरागों से तआस्सुब का धुआं उठता है/उन चिरागों को बुझा दो, तो उजाले हों।’ या फिर जब वे यह कहते हैं कि ‘अपने हाकिम की फ़क़ीरी पर तरस आता है/जो ग़रीबों से पसीने की कमाई मांगे।’ तो पूरा हॉल तालियों से गूंज उठता था। कई मर्तबा वे बतकही के अंदाज़ में बड़ी मानीख़ेज़ बातें कह जाते थे, ‘आप हिंदू, मैं मुसलमान, ये ईसाई, वो सिख़/यार छोड़ो ये सियासत है, चलो इश्क़ करें।’, ‘सरहद पर तनाव है क्या ?/ज़रा पता तो करो चुनाव है क्या ?’

मुल्क में उर्दू का क्या मुस्तक़बिल है और उर्दू की कैसे हिफ़ाज़त की जाए ? इस सवाल पर उनकी स्पष्ट राय थी, जिससे शायद ही कोई नाइत्तेफ़ाक़ी ज़ताए, ‘उर्दू हमारी मुल्क की आबोहवा में घुली हुई है। यह हमारी सरज़मीं से पैदा हुई। कई स्थानीय बोलियों से मिलकर बनी है। लिहाज़ा जब तक यह बोलियां ज़िंदा रहेंगी, उर्दू भी ज़िंदा रहेगी।

हमें किसी सरकारी इदारे और हुकूमत से यह तवक़्क़ो नहीं करना चाहिए कि वह उर्दू को बचाएगी। उर्दू की हिफ़ाज़त और उसे फ़रोग़ देने का ज़िम्मा हर उर्दू वाले का है। अपने बच्चों को उर्दू पढ़ाएं, बर्ताव में लाएं, कोर्स में शामिल करें और उसे ज़्यादा से ज़्यादा रोज़गार से जोड़ें। यदि किसी ज़बान को पढ़ने वाले ही नहीं होंगे, तो वह ज़बान कैसे बचेगी।’ सिर्फ़ अकेले उर्दू ही नहीं, उनकी यह बात मुल्क की हर ज़बान और बोली के लिए फिट बैठती है।

उर्दू अदब की ख़िदमत के लिए राहत इंदौरी को अनेक ए’ज़ाज़ और अवार्डों से नवाज़ा गया। अलबत्ता, हुकूमतों ने उन्हें कभी इस क़ाबिल नहीं समझा। देश के अनेक बड़े सम्मान, जो उनसे कई दर्जे जूनियर और नाक़ाबिल लोगों को अभी तक मिल चुके है, उनसे दूर ही रहे।

लाखों दिलों को राहत पहुंचाने वाला, उनमें नई उम्मीदें और यक़ीन जगाने वाला यह हर-दिल-अज़ीज़ शायर 11 अगस्त, 2020 को अपने तमाम चाहने वालों को ना भुलाए जाने वाला गहरा सदमा, दर्द-ओ-ग़म देकर हमेशा के लिए जुदा हो गया। राहत इंदौरी आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, मगर उनके चर्चे हमेशा रहेंगे। ‘अब ना मैं हूं ना बाक़ी हैं ज़माने मेरे/फिर भी मशहूर हैं शहरों में फ़साने मेरे।’

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