अग्नि आलोक
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….तो आप सब भी जाँच करिए , आँख बंद करके नहीं आँख खुली रखकर

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Mukul Anand की वाल से 

सबसे पहले तो मेरे लिए ‘मानस’ धार्मिक ग्रंथ नही है। मैं साहित्यिक कृति के तौर पर देखता हूँ। और जिनके लिए धार्मिक कृति के तौर पर स्थापित है तो इस संदर्भ में मेरा टेक बस इतना है कि पहले स्पष्ट करें कि क्या ये वेद , उपनिषद, गीता के जैसा धार्मिक ग्रंथ है या शिव पुराण, विष्णु पुराण, हनुमान चालीसा जैसा है या फिर किस जैसा?? उसके बाद ही विमर्श हो तो बेहतर होगा। बहुत विचित्र विडम्बना है कि हम सब हर बात को dichotmy की तरह देखना पसन्द करते हैं पर चीजें ऐसी होती नही है। कम से कम continuum में देखें और उस हिसाब से निर्णय लें कि ‘मानस’ जिस वर्ग में रखा जा रहा है उसमें परिवर्तन कि कितनी गुंजाइश हैं । फिर आज के समय के हिसाब से उसमें से जितना लेने लायक है उसे ले लिया जाए और जितना त्यागने लायक है उसे त्याग दिया जाए। 

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जिस भी कृति का मूल्यांकन हो तो मूल्यांकन के दौरान अगर उसमें लिखे टेक्स्ट को ही आधार माना जाए और बाकि तथ्यों को छोड़ दिया जाए तो वो सारगर्भित तो नहीं ही मानी जाएगी। ठीक यही बात ‘मानस’ पे भी लागू है । उसे पढ़ने और आलोचना करने में जो लेखक के ‘कालखण्ड’ जैसे महत्वपूर्ण बिन्दु को दरकिनार कर रहे हैं वो कम से कम सुदीर्घ आलोचना तो नही कर पाएंगे। ऐसा करना आज के समय में समाजशास्त्र और सामाजिक मनोविज्ञान को ख़ारिज करने जैसा ही है क्योंकि आज जो लोग उस ‘समय’ को इंगित नही कर रहे हैं वो मनुष्य के ‘डेवलपमेंटल स्टेज’ और उस समय के समाज और संस्कृति के बीच के संबंध को नकार रहे हैं। मनुष्य के चेतना के विकासक्रम को भी नकारा जा रहा है। और ये बहुत हास्यास्पद बात है। कोई भी व्यक्ति अपने समय से आगे का तो सोच सकता है परन्तु हर बिंदु पर एक बैलेंस के साथ हर आयाम पे सोच ले और उसे वर्णित कर दे ऐसा संभव नही है। और तिस पर भी एक भक्त के भाव से लिखे कृति में।

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मैं भौगोलिक तौर पे मैथिल( मिथिलांचल) क्षेत्र का निवासी हूँ। संयोग से ब्राह्मण भी हूँ । इसी कारण से एक ऑनलाइन वेबिनार जैसे किसी कार्यक्रम का लिंक सहज ही उपलब्ध हो गया था जिसका विषय मोटे तौर पर ये था कि आज के समय मे हमारे धर्मग्रंथ कि उपयोगिता और प्रासंगिकता कितनी है? और जो बातें आज के समय के लिए अब प्रासंगिक नही है उस टेक्स्ट में क्या संसोधन हो सकता है? इस विषय पे मिथिला के प्रसिद्ध विद्वतजन सब बहुत सारगर्भित और सुदीर्घ बातचीत किए थे। यहां तक कि ‘वेद’ के संदर्भ में भी ये बात कही गई कि इसमें संसोधन हो सकता है । संसोधन स्वीकार्य है। तो ‘मानस’ में भी हो सकता है।  पर आजकल किसे समाधान करना है? किसे ढूंढ़ना है ऐसे विद्वानों को जो आजकल के धर्म के झंडबरदारों को तार्किक और हिन्दू परंपरा के हिसाब से भी ‘परिवतर्न संभव है’ इसे बतला सके। जिन्हें ये बातचीत सुनना हो वो बतायेंगे तो उनके लिए ढूंढ लिया जाएगा। 

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किसी भी तथ्य को संपूर्ण अपना लेना और संपूर्ण ख़ारिज कर देना बहुत आसान है पर विवेचना के आधार पे ये तय करना कि अच्छा इसमें से अमुख चीज तो सही है इसे लिया जा सकता है और अमुख चीज सही नही है तो इसे छोड़ा जा सकता है ये श्रमसाध्य तो है पर तुलनात्मक रूप से बेहतर समाज के लिए एक बेहतर उपाय भी है। एक दिलचस्प बात याद आ रही है। मेरे एक करीबी मित्र हैं और वो जेएनयू से अकादमिक शिक्षा ग्रहण किए हैं और राजनीतिक तौर पे फार लेफ्ट के आसपास के व्यक्ति हैं जिसे वो खुद स्वीकार करते हैं। एक दिन ‘धर्म’ विषय पे बातचीत हो रही थी तो मैंने उन्हें एक श्लोक सुनाया जो ये था

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । 

धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥

मैंने अर्थ बताया तो उसने कहा क्या बात है। धर्म को कर्म के सेंस में कितनी अच्छी बात कही गई है। अगर धर्म का ऐसा स्वभाव हो तो मुझे पसन्द है ये। फिर जब मैंने बताया कि ये उस पुस्तक का हिस्सा है जिसे हम और तुम दोनों ही नापसन्द करते हैं। नाम बताने पे वो अचंभित हो गया। क्या आप जानते हैं कहाँ का श्लोक है? ठीक यही सब अपने समाज में अभी हो रहा है।

जब तक व्यक्ति अपने कम्फर्ट जोन, मेन्टल फ्रेम, मेन्टल फिक्स्डनेस के आधार पे फैसले लेते रहेंगे तब तक समाधान के रास्ते तक पहुँचना कठिन ही होगा। अब तो मुझे जहाँ से कुछ सीखने लायक जितना मिलता है उतना ग्रहण करता हूँ और बाकि का छोड़ देता हूँ। 

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शिक्षा का विरोधाभास यही है कि जैसे ही व्यक्ति जागरूक होने लगता है, वह उस समाज की जाँच करना शुरू कर देता है जिसमें उसे शिक्षित किया जा रहा है।

जेम्स बाल्डविन. 

तो आप सब भी जाँच करिए , आँख बंद करके नहीं आँख खुली रखकर।

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