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दिक्काल : Space-Time 

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                    डॉ. विकास मानव 

अल्बर्ट आइन्सटीन ने सन् 1905 में अपने सापेक्षता के विशेष सिद्धान्त से चिरसम्मत भौतिक विज्ञान के संसार में धमाका कर दिया और चिरसम्मत भौतिक विज्ञान के संसार को लगभग अस्त-व्यस्त कर दिया। यह समझ की एक दशा से दूसरी दशा को जाने के समान था। 

     चिरसम्मत भौतिक विज्ञान में ‘आकाश’ (दिक्) और ‘काल’ निरपेक्ष थे परन्तु विशेष सिद्धान्त के अनुसार उन्हें आज की शब्दावली के अनुसार किसी न किसी प्रकार से चतुर्विम दिक्काल सांतत्यक (Continuum) में एक-दूसरे से जुड़े हुए पाया गया।

      इस दिक्‌काल सांतत्यक का विस्तार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तक और इसके पश्चात् सापेक्षता के सामान्य सिद्धान्त (जिसका प्रतिपादन सन् 1915 में हुआ) के अनुसार इसे सीधा या अनुदैर्ध्य नहीं बल्कि वक्र माना जाता है और यह यूक्लिडियन ज्यामिति के नियमों के अनुसार कार्य नहीं करता।

     विशेष सिद्धान्त की परिकल्पनायें अथवा आधार तत्व निम्नलिखित थे :

      इस सिद्धान्त के दो आधार तत्वों में से पहला उल्लेख करता है~

    (1) भौतिक विज्ञान के सभी यथार्थ समीकरण (अर्थात् केवल न्यूटन का प्रथम नियम ही नहीं बल्कि प्रकृति के सभी नियम) एक ही गणितीय रूप धारण करते हैं जो समस्त जड़त्वीय (Inertial) संदर्भ फ्रेमों के सापेक्ष होता है। दूसरे शब्दों में, पूर्णतया एक जड़त्वीय फ्रेम के अंतर्गत किये गये किसी भी प्रयोग से किसी अन्य जड़त्वीय फ्रेम के सापेक्ष इसकी गति का पता नहीं चल सकता।

     (2) दूसरा आधार तत्व यह था कि ब्रह्माण्ड में एक ‘निश्चर’ (Invariant) गति ‘c’ विद्यमान है, जो परिमित है, जिसकी सीमा इस अर्थ में लाँघी नहीं जा सकती कि कोई भी वस्तु जिसका संचलन किसी ‘जड़त्वीय’ फ्रेम के सापेक्ष इस गति से होता है उसका संचलन किसी अन्य के सापेक्ष उसी गति से होता है। अभी तक यह निश्चर गति (Invariant Speed) केवल विद्युत् चुम्बकीय विकिरण से प्राप्त की गई है और इसे असतर्कतावश प्रकाश की गति कह दिया जाता है।

इन आधार तत्वों की गणितीय ढंग से तथा उसके बाद प्रयोगात्मक प्रेक्षण के माध्यम से व्याख्या करने पर कतिपय चौंकाने वाले निष्कर्ष सिद्ध हुए हैं। पहला यह कि चलती घड़ियों के सम्बन्ध में गुणनखण्ड √1 v²/c² के द्वारा जिसमें घड़ी की गति ‘V’ थी, प्रेक्षणकर्ता के विरामस्थ सन्दर्भ फ्रेम में घड़ियाँ अपेक्षाकृत रूप से धीमी चलती पाई गईं।

      इसी प्रकार, इसी गुणनखण्ड के द्वारा प्रेक्षणकर्ता के विरामस्थ सन्दर्भ फ्रेम में किसी उपकरण की लम्बाई अपेक्षाकृत रूप से कम पाई गई। सन् 1915 के सिद्धान्त ने यह भी प्रदर्शित किया कि गतिमान पिंड का द्रव्यमान भी सन्दर्भ फ्रेम जिससे सम्बन्धित मापन किये जा रहे थे अथवा प्रेक्षक के विरामस्थ सन्दर्भ फ्रेम के सम्बन्ध में भिन्न हो जाते थे।

      इस प्रकार दोनों सापेक्षतावादी सिद्धान्तों के निष्कर्ष थे कि काल, (संचलन की दिशा में लम्बाई) और द्रव्यमान -ये सभी प्रेक्षक के सन्दर्भ फ्रेम से सम्बन्धित उनकी गति पर निर्भर हैं।

     सापेक्षता के सिद्धान्त का दूसरा निष्कर्ष यह था कि ‘ऊर्जा’ और ‘पदार्थ’ अंतरा-रूपांतरणीय अथवा विनिमेय हैं और गणितीय व्यंजक E = mc² के द्वारा एक-दूसरे से जुड़े हैं। इस व्यंजक में ‘E’ ‘ऊर्जा’ का, ‘m’ पदार्थ के द्रव्यमान का और ‘c’ प्रकाश की निश्चर गति (Invariant Speed) (विद्युत्-चुम्बकीय विकिरण) का प्रतीक है।

      सापेक्षता और इसके निष्कर्षों को सिद्ध करने के लिए किये गये प्रयोगों पर गहन शोध करने की मेरी इच्छा नहीं है क्योंकि अब वे न केवल वैज्ञानिक समुदाय बल्कि हर व्यक्ति के लिए सुविख्यात हैं। मैंने अब तक दिक्‌काल के विषय में तथा सापेक्षता के सिद्धान्तों के आधार पर निष्कर्ष निकालकर ऊर्जा-पदार्थ द्वित्व के विषय में जो भी विचार व्यक्त किये हैं, मुझे दृढ़ विश्वास है कि उनसे वैज्ञानिक समुदाय सहमत होगा।

अब मैं सापेक्षता के सिद्धान्तों की स्थापित व्याख्याओं से विषयांतर करने और यह व्याख्या करने का साहस कर रहा हूँ कि लॉरेंज के सिद्धान्त के अनुसार उपकरण की लम्बाई में पाये गये संकुचन का वास्तविक कारण उस मापन यंत्र के दिक्स्थान (आकाश) का विस्तार था, जिसकी सहायता से प्रेक्षक विरामस्थ संदर्भ फ्रेम से मापन कर रहा था।

      ‘काल’ के विस्फार कारक और इस दिव्स्थान (आकाश) (Space) के विस्तार कारकऔरवह कारक भी जिससे उपकरण को प्रदान की जा रही गति के कारण ‘द्रव्यमान’ बढ़ जाता है, वही होंगे जो कि सापेक्षता के सिद्धान्तों में वर्णित हैं।

      यदि हम इस ब्रह्माण्ड को एक प्रकाश की किरण के सन्दर्भ फ्रेम से देख सकें, जो निश्चर वेग ‘c’ पर चल रही हो (जो कि ब्रह्माण्ड में ज्ञात एकमात्र अचर है, तो सभी अन्य सन्दर्भ फ्रेम इस निश्चर वेग से कम गतियों पर चलते हुए प्रतीत होंगे।

      प्रत्येक संदर्भ फ्रेम में उसका अपना दिक्काल विद्यमान प्रतीत होगा, जो सन्दर्भ फ्रेम की गति पर निर्भर होगा। परन्तु स्वयं गति को एक सापेक्षकारक मानना होगा क्योंकि यह उस सन्दर्भ फ्रेम पर निर्भर करती है जिससे इसका मापन किया जाता है। उस सन्दर्भ फ्रेम जिसमें प्रकाश विद्यमान है किन्तु गतिमान नहीं है, से किये गये मापन यह प्रदर्शित करेंगे कि प्रकाश की गति ‘शून्य’ है। 

  इससे क्या अर्थ निकलता है? मुझे इसके बाद के पृष्ठों में इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट करने की आशा है, क्योंकि अभी वैज्ञानिक समुदाय का मत है कि निश्चर वेग ‘c’ कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता। परन्तु कोई प्रेक्षक जो निश्चर वेग ‘c’ पर द्रव्यमानरहित होगा वह प्रकाश को स्थिर और सर्वव्यापी पायेगा।

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