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अटकलें, अनिश्चितता, दहशत का वो दौर…3 दिन में पाकिस्तानी से भारतीय एक शहर

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जब हम 14 अगस्त को उठे तो यह एक अलग ही सुबह थी। खुशनुमा सुबह। मन में सबसे पहले यही बात आई कि अब तो बस एक दिन और। फिर हम ब्रितानी हुकूमत से आजाद होंगे। हम एक स्वतंत्र देश के नागरिक होंगे। यहां तक कि अगर किस्मत हमें पाकिस्तान की तरफ भी धकेलती तब भी तो हम एक आजाद देश की हवा में सांस ले सकते। मुझे इस हकीकत का पूरा भान था कि यह दिन दशकों तक चले राजनीतिक आंदोलन, स्वतंत्रता संग्राम का नतीजा है। और अब हम आजादी से सिर्फ एक रात दूर हैं। मैं बहुत खुश था। बहुत रोमांचित था। लेकिन एक चिंता थी जो हर पल दिल-दिमाग में कौंध रही थी- हम बॉर्डर के किस साइड में होंगे। हिंदुस्तान की ओर या पाकिस्तान की ओर। अगर कृष्णानगर विभाजन के बाद हमेशा के लिए पूर्वी पाकिस्तान के हिस्से में चला गया तो? तब हमारा भविष्य क्या होगा? ऐसे तमाम सवाल उमड़-घुमड़ रहे थे।

आधी रात में मैं रेडियो की एक दुकान के सामने खड़ा था। वहां बहुत भीड़ थी। हम सभी वहां खड़े थे। हम सबने नेहरू का भाषण सुना। आज बहुत मशहूर हो चुके वे शब्द- ट्रिस्ट विद डेस्टिनी को सुना। और तबतक मुझे पता चल चुका था कि सत्ता बदल चुकी है। हम स्वतंत्र तो हो चुके हैं लेकिन अब संभवतः एक नए देश पाकिस्तान के नागरिक होंगे। पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा होंगे। कोई भी इसे लेकर खुश नहीं था। भीड़ में मुस्लिमों की भी अच्छी-खासी तादाद थी लेकिन वे भी इससे खुश नहीं दिख रहे थे। कोई पटाखा नहीं छोड़ा गया। कोई जश्न नहीं मना।

अगली सुबह हम एक स्वतंत्र पाकिस्तान में जगे। टाउन हॉल ग्राउंड्स में पाकिस्तानी झंडा फहराया जाना था और मुझे पता था कि मुझे वहां जाना पड़ेगा क्योंकि मैं अक्सर कांग्रेस के सीनियर नेताओं के साथ उनके दफ्तर में देखा जाता था और मुझे ‘कांग्रेसी टाइप’ समझा जाता था। मैं नहीं चाहता था कि मुझे ‘दुश्मन’ कैंप के हिस्से के तौर पर देखा जाए क्योंकि अब हम पाकिस्तान के थे। इसलिए मैं वहां गया। ग्राउंड पर मैंने देखा कि कांग्रेस अध्यक्ष ने झंडा फहराया। उनके पीछे डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट नसीरुद्दीन थे, एसपी थे, पूर्वी पाकिस्तान के नए-नए प्रमोट किए गए डीआईजी थे। इसके अलावा उनके साथ शमशुद दोहा थे जो एक साल पहले कलकत्ता दंगों में अपनी भूमिका के लिए कुख्यात थे। मुस्लिम लीग के विधायक भी वहां मौजूद थे। झंडा फहराया गया। कांग्रेस नेता ने नए देश के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई। हम सबने ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ और ‘कायदे आजम जिंदाबाद’ के नारे लगाए। फिर समारोह खत्म हो गया।

Tarun Kumar Roy

तरुण कुमार रॉय अब कोलकाता में रहते हैं
कृष्णानगर किसी भूतिया शहर जैसे दिख रहा था। इससे पहले तक कृष्णानगर का माहौल उदार था। सड़कों पर महिलाओं समूहों में या फिर अकेले भी दिखना आम दृश्य होते थे। लेकिन इस दिन सड़कों पर एक भी महिला नहीं थी। हमने भी आपस में फुसफुसाते हुए बातचीत की। हम पाकिस्तान का हिस्सा बनकर खुश नहीं थे। हमारे लिए पूरा दिन बहुत मनहूस था। स्कूल, कॉलेज, दफ्तर, इजलास सब बंद थे। सिनेमा हॉल बंद थे। फील्ड में कोई फुटबॉल खेलते नहीं दिख रहा था। पूरा शहर बेसब्री से रेडक्लिफ रिपोर्ट के सार्वजनिक किए जाने का इंतजार कर रहा है। हम हताशा महसूस कर रहे थे। हम मुस्लिमों के दिल में हमारे लिए दुश्मनी की भावना को लेकर चिंतित थे। हम अफसरों और प्रशासन को लेकर दहशत में थे। हम इस्लामाबाद के अपने नए शासकों से आतंकित थे। घर पर हमने अपने मां-बाप को फिक्र में डूबे देखा कि नई जगह पर नई जिंदगी कैसे शुरू की जाए।

अगर कृष्णानगर पूर्वी पाकिस्तान का स्थायी हिस्सा बना तो हर घर में कुछ बड़े बदलाव होंगे और मैं जानता था कि मेरे माता-पिता इसे लेकर चिंतित थे। 16 अगस्त भी उसी तरह गुजरा। लेकिन हमने कलकत्ता से आई कुछ खबरों को पढ़ा जो हमें ताकत देने वाली थीं। 14 अगस्त को कलकत्ता में हिंदू-मुस्लिम सौहार्द की कुछ कहानियां थीं। हर समुदाय के छोटे-छोटे जुलूस निकल रहे जो एक दूसरे के यहां तक पहुंच रहे थे। एक दूसरे को माला पहनाए जा रहे थे, मिठाइयां खिलाई जा रही थीं और सांप्रदायिक सौहार्द के एक नए युग की उम्मीदें बंध रही थीं। कोई ऐसा होने की कल्पना तक नहीं कर सकता था। और ये बस आम लोग थे। राजनीतिक नेताओं की परवाह किए बगैर लोग जैसे कलकत्ता के सीने को वर्षों से छलनी कर रहे हिंदू-मुस्लिम दंगों के दाग को धो रहे थे। निश्चित तौर पर इन सबके पीछे गांधीजी का बड़ा प्रभाव था।

खैर…अटकलों, अफवाहों, अनिश्चितता, उधेड़बुन के बीच एक और दिन गुजरा। स्कूल, कॉलेज और दफ्तर खुल चुके थे लेकिन सामान्य तरीके से काम नहीं हो रहा था। हमें लगा कि कृष्णानगर के भविष्य पर तत्काल फैसला हो जाएगा। 18 अगस्त की आधी रात को हमने पटाखों की आवाज सुनी। शंख भी बज रहे थे। शुरुआत में हमें लगा कि कहीं दंगे तो नहीं भड़क गए हैं। हम डर और कन्फ्यूजन से सुन्न जैसे हो गए। लेकिन तभी हमने सुना कि गांधीजी का नाम लेकर नारा लग रहा है। कांग्रेस नेताओं की शान में नारे लग रहे हैं। हमने देखा कि लोग हंसते-मुस्कुराते हुए सड़कों पर आ रहे हैं। तब जाकर हमें अहसास हुआ कि कृष्णानगर भारत का ही हिस्सा बना रहेगा। सभी पाकिस्तानी झंडे उतार दिए गए। जिन लोगों ने पाकिस्तानी झंडे लगाए थे, उन्हीं लोगों ने उन्हें उतारा। डीएम नसीरुद्दीन ने नए मैजिस्ट्रेट को जिम्मेदारी सौंप दी जो हिंदू थे और वह अपने नए कार्यक्षेत्र कुश्तिया के लिए रवाना हो गए जो अब पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा था। जय हिंद के नारों के साथ हर कोई एक दूसरे का अभिवादन कर रहा था। क्या अजनबी, क्या दोस्त, हर कोई अपना सा लग रहा था। आधी रात बीत चुकी थी लेकिन सड़कें लोगों से ठसाठस भरी हुई थीं। कृष्णानगर के भारत में बने रहने की खबर से हर कोई जश्न में डूबा था। भावनाओं के समंदर में गोता लगा रहा था।

(तरुण कुमार रॉय का जन्म 1929 में हुआ था। अब वह कोलकाता में रहते हैं। उनकी कहानी वीणा वेणुगोपाल की किताब ‘इंडिपेंडेस डे : अ पीपल्स हिस्ट्री’ से ली गई है।)

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