मैं घास हूँ*
मैं घास हूँ
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा
बम फेंक दो चाहे विश्वविद्यालय पर
बना दो होस्टल को मलबे का ढेर
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर
मेरा क्या करोगे
मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊँगा
बंगे को ढेर कर दो
संगरूर मिटा डालो
धूल में मिला दो लुधियाना ज़िला
मेरी हरियाली अपना काम करेगी…
दो साल… दस साल बाद
सवारियाँ फिर किसी कंडक्टर से पूछेंगी
यह कौन-सी जगह है
मुझे बरनाला उतार देना
जहाँ हरे घास का जंगल है
मैं घास हूँ, मैं अपना काम करूँगा
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा ।
अवतार सिंह पाश
देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता
यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो?
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रहीं हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?
यदि हाँ
तो मुझे तुम से
कुछ नहीं कहना है।
देश कागज पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियां, पर्वत, शहर, गांव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है।
इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
कागज पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और जमीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।
जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अंधा है
जो शासन
चल रहा हो बंदूक की नली से
हत्यारों का धंधा है
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे
अब एक क्षण भी
तुम्हें नहीं सहना है।
याद रखो
एक बच्चे की हत्या
एक औरत की मौत
एक आदमी का
गोलियों से चिथड़ा तन
किसी शासन का ही नहीं
सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन।
ऐसा खून बहकर
धरती में जज्ब नहीं होता
आकाश में फहराते झंडों को
काला करता है।
जिस धरती पर
फौजी बूटों के निशान हों
और उन पर
लाशें गिर रही हों
वह धरती
यदि तुम्हारे खून में
आग बन कर नहीं दौड़ती
तो समझ लो
तुम बंजर हो गये हो-
तुम्हें यहां सांस लेने तक का नहीं है अधिकार
तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार।
आखिरी बात
बिल्कुल साफ
किसी हत्यारे को
कभी मत करो माफ
चाहे हो वह तुम्हारा यार
धर्म का ठेकेदार,
चाहे लोकतंत्र का
स्वनामधन्य पहरेदार।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
सामान्यता की शर्त
जिस गन्दे रास्ते से हम रोज़ गुज़रते हैं
वह फिर गन्दा लगना बन्द हो जाता है।
रोज़ाना हम कुछ अजीबोग़रीब चीज़ें देखते हैं
और फिर हमारी आँखों के लिए वे अजीबोग़रीब नहीं रह जाती।
हम इतने समझौते देखते हैं आसपास
कि समझौतों से हमारी नफ़रत ख़त्म हो जाती है।
इसीतरह,ठीक इसी तरह हम मक्का़री,कायरता,क्रूरता, बर्बरता,उन्माद और फासिज़्म के भी आदी होते चले जाते हैं।
सबसे कठिन है एक सामान्य आदमी होना।
सामान्यता के लिए ज़रूरी है कि सारी असामान्य चीज़ें
हमें असामान्य लगें
क्रूरता, बर्बरता, उन्माद और फासिज़्म हमें हरदम क्रूरता, बर्बरता,उन्माद और फासिज़्म ही लगे
यह बहुत ज़रूरी है
और इसके लिए हमें लगातार
बहुत कुछ करना होता है
जो इनदिनों ग़ैरज़रूरी मान लिया गया है।
कात्यायनी
मैं अक्सर सोचता हूँ कि
अन्याय आखिर शुरू कबसे हुआ होगा?
क्या ये तब शुरू हुआ होगा
जब मारा होगा किसी सिंग वाले जानवर ने बगैर सिंग वाले जानवर को
या फिर ये शुरू हुआ होगा
जानवरों का शिकार और शिकारी में बंट जाने के बाद
क्या ये तब शुरू हुआ होगा
जब मनुष्यों ने खाए होंगे पशु पक्षियों के हिस्से के फल
या फिर ये शुरू हुआ होगा तब
जब खाना शुरू किया होगा उसने पशु-पक्षियों को ही
क्या ये तब शुरू हुआ होगा
जब मनुष्यों ने अपना घर बनाने के लिए किया होगा गुफाओं पर अतिक्रमण
या फिर शुरू हुआ होगा तब
जब उसने घर बनाने के लिए काटे होंगे पेड़
क्या ये तब शुरू हुआ होगा
जब मनुष्यों ने बांटे होंगे स्त्री पुरुष के काम
या फिर शुरू हुआ होगा तब
जब उसने खुद को शासक और शासित में बांटा
क्या ये तब शुरू हुआ होगा
जब जनता को अपना शासक चुनने का मौका मिला
या फिर शुरू हुआ होगा तब
जब शासक अपनी जनता चुनने लगा
क्या ये तब शुरू हुआ होगा
जब मनुष्यों ने न्याय का अधिकार शासक को दिया
या फिर शुरू हुआ होगा तब
जब शासक ने नियुक्त किया अपना एक न्यायाधीश
क्या ये तब शुरू हुआ होगा
जब बच्चे का भाग्य उसके जन्म लेने से ही तय कर दिया गया
या फिर शुरू हुआ होगा तब
जब उसने खुद को ऊंच नीच में बांटा
क्या ये तब शुरू हुआ होगा
जब न्याय की देवी जस्टीशिया ने बांधी होगी अपनी आंखों पर पट्टी
या फिर शुरू हुआ होगा तब
जब उसने ली होगी अपने हाथ में तलवार
क्या ये तब शुरू हुआ होगा
जब न्याय व्यवस्था विरोधियों के साथ अन्याय के लिए बनाई गई होगी
या फिर शुरू हुआ होगा तब
जब न्यायाधीश बिकने शुरू हुए होंगे
क्या ये तब शुरू हुआ होगा
जब मुजरिम की पैरवी करने वाले वकील आए होंगे
या फिर शुरू हुआ होगा तब
जब मुजरिम और मुलजिम के वकील आपस में मिल गए होंगे
मैं अक्सर सोचता हूँ कि
अन्याय आखिर शुरू कबसे हुआ होगा
शायद यह शुरू हुआ होगा दुनिया के बनने के ठीक बाद से ही
लेकिन वर्तमान काल है अन्याय का स्वर्णकाल।
डॉ अबरार मुल्तानी
दोस्तो ग़ज़ल आपकी नज़्र
ये कैसी कहानी कहे जा रहे हैं
मुसल्सल को फ़ानी कहे जा रहे हैं
जिसे देखकर मौत भी ख़ौफ़ खाये
उसे ज़िन्दगानी कहे जा रहे हैं
लगातार बुलबुल है बेहद परेशाँ
मगर रुत सुहानी कहे जा रहे हैं
जिसे शर्म क्या है पता ही नहीं है
उसे खानदानी कहे जा रहे हैं
उन्हें कौन समझाये जो दर्दो-ग़म को
खुदा की निशानी कहे जा रहे हैं
सुबूत उसके होने का कुछ भी नहीं है
वो फिर भी जवानी कहे जा रहे हैं
हरिक चीज़ धरती पे पैदा हुई है
तो क्यों आसमानी कहे जा रहे हैं
Kavi Mahendra Mihonvi
इस बार दंगा बहुत बड़ा था
खूब हुई थी
ख़ून की बारिश
अगले साल अच्छी होगी
फसल
मतदान की
गोरख पाण्डेय
सफल नागरिक
दुनिया में जब घटती होती हैं रोज़-रोज़
तमाम चीज़ें – मसलन मँहगाई,भूख, भ्रष्टाचार, ग़रीबी,तरह-तरह के अन्याय,
अत्याचार, लूट, युद्ध
और नरसंहार,
तो हम दोनों हाथ फैलाकर कहते हैं,
‘हम भला और क्या कर सकते हैं
कुछ सवाल उठाने
और कुछ शिकायतें दर्ज़
करते रहने के अलावा !’
इस तरह हम धीरे-धीरे
चीज़ों के बद से बदतर
होते जाने को देखने
और इन्तज़ार करने के
आदी हो जाते हैं।
इसतरह क्रूरता हमारे भीतर
प्रवेश करती है और फिर
अपना एक मज़बूत घर बनाती है।
इस तरह हम
सबसे अधिक क्रूर लोगों के शासन में जीने लायक
एक दुनिया बनाते हैं
और सफल और शान्तिप्रिय, नागरिक बन जाते हैं
और हममें से कुछ लोग
बड़े कवि बन जाते हैं।
कात्यायनी
मैं जिंदा हूँ
क्यों भाई कातिल
तुम तो हमारे मोहल्ले के हो न
याद आता है, देखा है तुम्हें पहले
मिले हैं वहीं-कहीं
नमस्ते किया है तुमने-हमने
हम -तुम खैरियत पूछते रहे हैं एकदूसरे की
चलो तुम ही ने की हमारी हत्या, अच्छा किया
जान- पहचानवाले करें तो बेहतर
जन्नत मिलती है,स्वर्ग प्राप्त होता है
अब तो हम मर चुके हैं न, फाइनली
श्योर? देख लेना, उलट-पुलट कर ठीक से
जान-ऊन बच न गई हो
ऐसा हो जाता है कभी-कभी
जरा देख लो, कहीं हमारी आँखें न खुली हों
हो सके तो बंद कर देना वरना कोई बात नहीं
सबकुछ तो देख लिया, अब और क्या देखना बाकी रह गया है
भैया, अब तो तुम खुश हो न
इस खुशी में भी पार्टी-शार्टी कर लेना
जाम भरते,खाली होते रहना चाहिए
यही तो जीवन है
अच्छा- अच्छा आजकल तुम बहुत व्यस्त हो ?
हाँ-हाँ हम भूल गये थे
हमीं तो अकेले नहीं थे न इस धरती पर
सॉरी भाई भूल गए थे यह साधारण सी बात
ठीक है-ठीक है,यह काम निबटा लो पहले इत्मीनान से
सुनो, अपने सपने में तो आने दिया करोगे न
हम मुस्कुराएँ तो मुस्कुराने दिया करोगे न
देखो, हम हाथ आगे बढ़ाएँ तो अपना हाथ पीछे मत खींच लेना
वह शरीर ,वह मुस्कान
एक मर चुके आदमी की नहीं होगी
नींद बढ़िया से लेना
जवान हो, पूरे आठ घंटे सोया करना
नींद की गोली बिल्कुल मत लेना
बहुत नुकसान करती हैं
या चलो खा ही लेना
कब तक जागते रहोगे
दु:स्वप्नों से डरते रहोगे
चैन से सोना
सपने में चीखना मत
छप्पन इंची बनना
नहीं तो एक उपाय है-
एमपी-एम एल ए बन जाना
डट के फूलमालाएँ पहनना
फिर मंत्री बन जाना
वहीं मत रुकना
आगे, और आगे कदम बढ़ाना
समुद्र आ जाए तो भी मत रुकना
उस पर पुल बनवा लेना
लंका विजय कर लेना
इधर राम,उधर तुम
और क्या बताऊँ क्या करना
अरे याद आया मैं तो मर चुका हूँ न
फिर यार ऐसा क्यों लगता है कि जिंदा हूँ
ये क्या हो गया है मुझे
क्या और क्यों?
विष्णु नागर
मैं नास्तिक हूँ
लोग मेरे विचारों के कारण
ऐसा अनुमान लगाते हैं कि
मैं एक नास्तिक हूँ
जबकि मैं
खुद को एक इंसान कहता हूँ
आधा अधूरा इंसान
कभी मुझे भी यकीन था
उस खुदा पर
जिसने ये कायनात बनाई
जो समय समय पर
नबियों की फौज को
धरती पर भेजता है
जो आसमान से बयानबाजी करता है
फिर भी हमेशा छुपा रहता है
कभी मुझे भी भरोसा था
खुदा की उस जात पर
जिसने सात आसमानों को
छह दिनों में पैदा किया
जिसने धरती को
चादर की तरह बिछा दिया
और फिर
इस सूनी धरती की गोद मे
एक मर्द और एक औरत को
पैदा किया
कभी मैं भी मानता था
कब्र के अजाब को
आख़िरत के हिसाब को
जब तक मैं
इन सभी बातों को मानता था
तब तक मैं
मुसलमान था
इससे ज्यादा
मेरी कोई पहचान ही नही थी
और इस पहचान से ज्यादा
मुझे कोई दरकार भी नही थी
फिर कुछ ऐसा हुआ कि
सब कुछ बदलने लगा
क्योंकि मैं
सवाल करने लगा
हालांकि मेरे सवालों की शुरुआत तो
बहुत पहले ही हो चुकी थी
लेकिन तब मेरे सवाल
मेरी बचकाना बातें साबित कर दी जाती थी
लेकिन जैसे जैसे मैं थोड़ा बड़ा हुआ
मेरे सवाल मुझसे भी बड़े हो गए
मैंने पूछना शुरू किया की
जब वो खुदा कहता है कि हो जा
तो एक झटके में
वो हो जाता है
जो वो चाहता है
तब क्यों कोई भूखे सोता है
क्यों कोई मासूम गरीबी में जीता है
क्यों कोई आत्महत्या करता है
क्यों रेप होते है
क्यों एक्सीडेंट होते हैं
किसान क्यों मरता है
कोई किसी का शोषण क्यों करता है
इतना अन्याय अत्याचार और भ्रस्टाचार क्यों है
इतना दुख दमन दर्द आंसू और बेबसी क्यों है
ये आतंकवाद क्यों है ये जातिवाद क्यों है
वो क्यों इस भयंकर अराजकता को
खत्म नही करता
वो क्यों
इस अंतहीन व्यथा को दूर नही करता
वो क्यों नही मिटा देता
उन दुर्भावनाओं को
जो इंसानियत का
सर्वनाश करने पर उतारू हैं
इंसान और इंसान के बीच खींची
सदियों पुरानी खौफनाक लकीरों को
वो क्यों नही
हमेशा के लिए हटा देता
उसे बस इतना ही तो कहना है कि
खत्म हो जा
तब
ये सारे दुख
उत्पीड़न गरीबी और लाचारी
एक झटके में खत्म हो जाएंगे.
वो ऐसा क्यों नही चाहता कि
दुनिया बेहतर हो जाये
वो ऐसा क्यों नही चाहता कि
दुनिया सुखी हो जाये
मेरे सवालों के निष्कर्ष में
मुझे तीन नतीजे मिले
जो उसकी पोल खोलने के लिए काफी थे
उसे यह सब देखकर मजा आता है
या उसमे इन्हें दूर करने की ताकत नही
या फिर वह है ही नही
पहले निष्कर्ष के प्रतिउत्तर में
मैं इस नतीजे पर पहुंचा
की अगर उसे
किसी के आंसुओं से
खुसी मिलती है
तब वह
इंसानियत का सबसे बड़ा
शत्रु साबित होता है
अगर उसमे हालात को
बदलने की ताकत नही
तब वह
सर्वशक्तिमान नही हो सकता
फिर ऐसे किसी
कमजोर या कामचोर खुदा की
इबादत करना
बेवकूफी के सिवा और क्या है ?
तीसरा निष्कर्ष
बड़ा ही चौंकाने वाला था
कि वह है ही नही
अगर वह है ही नही तब
उसके नाम पर
धर्म का इतना बड़ा आडंबर क्यों
ये मंदिर ये मस्जिद चर्च आश्रम किसलिए ?
नामज और पूजा किसलिए
हज और तीर्थयात्राएं क्यों
कुर्बानी और बलि क्यों
लाखों करोड़ों की तादात में
वो धर्म गुरु किसलिए
जो एक झूठे ईश्वर के नाम पर
आलीशान जिंदगी जी रहे हैं
जो झूठे खुदाओं के नाम पर
अय्याशियां कर रहे हैं
करोड़ो निठल्ले मौलाना और साधु
समाज को क्या दे रहे हैं कुछ भी तो नही
धर्म के नाम पर परजीवियों की ये जमात
भूखे नंगे समाज को दीमक की तरह
खोखला जरूर कर रही हैं
कहाँ है वो खुदा
कहाँ है वो ईश्वर
ये सारे सवाल मुझे हैरान करते रहे
मेरी ये स्वाभाविक वेदनाएं
मुझे परेशान करती रही
शायद मेरी इन्ही कुंठाओं के कारण
लोगों ने मुझे
नास्तिक कहना शुरू कर दिया था
हालांकि तब तक
मैं नास्तिकता की परिभाषा भी
नही जानता था.
मेरे सवाल जैसे जैसे जवान हुए
आसमानी किताब पर खड़ी
14 सौ साल पुरानी इमारत
मेरे सामने खंडहर में तब्दील हो गई
मेरे लिए इस खंडहर में
अब कुछ भी बचा न था
मैं निकल पड़ा उन दूसरे ठिकानों की ओर
जहां मुझे मेरे सवालों का जवाब मिल पाते
बहुत खोजा बहुत ढूंढा
लेकिन मेरे सवाल अधूरे ही रहे
दूसरे मजहबों की
आसमानी किताबों में भी
मुझे वही षड्यंत्र नजर आया
जो मैंने इधर देखा था
इसलिए इन सब को इकट्ठा कर
मैंने रद्दी में फेंक दिया.
मैं इंसान बनने की प्रक्रिया में
आगे की ओर बढ़ा ही था कि
लोगों ने मुझे
नास्तिक कहना शुरू कर दिया
जो लोग पहले मजाक में
मुझे नास्तिक कहते थे
वे अब खुले तौर पर
मुझे नास्तिक कहने लगे
काफी समय तक
मैं इस बात में
अंतर नही कर पाया था कि
इस तरह नास्तिक कह कर
लोग मुझे गाली दे रहे हैं
या फिर
ये कोई विशेष उपाधि है ?
मुझे नास्तिक होना पसंद नही था
क्योंकि मुझे एक इंसान बनना था
मैं एक इंसान बनने की प्रक्रिया में था
नास्तिक नही.
मैं हर उस बात का
विरोध करने लगा
जो मानवता के खिलाफ
एक साजिश थीं
धर्म जाती सम्प्रदाय धर्मग्रंथ
और इन पर आधारित परंपराएं
और मान्यताएं इन सब का षड्यंत्र
मैं समझ चुका था.
अगर ये सभी चीजें
मानवता के पक्ष में होती
तो हालात इतने बुरे न होते
इसलिए मुझे खुद पर यकीन था कि
मैं सही था
मैं इस नतीजे पर पहुंच चुका था कि
कही कोई ईशर खुदा भगवान नही है
अगर एक प्रतिशत वह है भी
तो हमे उसकी जरूरत भी नही है
अगर किसी को
उसकी जरूरत है भी
तो उसे एक दायरे से
बाहर नही होना चाहिए
अगर ईश्वर को मानने से
शांति मिलती है
तो उसी ईश्वर के नाम पर
इतनी अशांति क्यों
अगर आपके मन की चारदीवारी में ही
आपका ईश्वर कैद रहे तो
इससे मानवता को कोई नुकसान नही
मन से निकाल कर
आप उसे अपने घर की चारदिवारी में भी
सीमित कर दें तो भी
इंसानियत महफूज रहेगी
लेकिन
जब आपका गॉड
इसका ईश्वर उसका खुदा
मन की चेतनाओं से
आज़ाद हो कर
घर की बॉण्डरी से
बाहर निकल जाता है
तब वह
इंसानियत के खिलाफ
औजार बन जाता है
या बना दिया जाता है
ऐसे में
मानवता क्षीण हो जाती है और
धर्म तांडव करने लगता है
क्योंकि तब यह
शोषकों का हथियार बन जाता है
या बना दिया जाता है
उसके नाम पर
परजीवी पनपने लगते हैं
जो समाज की संवेदनाओं को
खत्म कर देते हैं
उसे भावहीन और खोखला बना देते है
ऐसा समाज समाज नही रहता
वो धर्म के संक्रमण से ग्रसित हो जाता है
और ये संक्रमण इंसानियत के लिए
कैंसर से ज्यादा घातक साबित होता है.
ऐसे समाज मे
धर्म के नाम पर
बाजार खड़े हो जाते है
ईश्वर और अल्लाह की
विचित्र दुकानें
सजने लगती हैं
मजहब के नाम पर
व्यापार होने लगता है
फिर उसी के नाम पर सरेआम
इंसानियत का
बलात्कार होने लगता है
ईश्वर के नाम पर
गिरोह पनपने लगते है
धर्म और मजहब का ये कुसंस्कार
फसाद की संस्कृति में
तब्दील हो जाता हैं
ईश्वर के नाम पर
लूट के तरीके ईजाद होते है
कपट की कुप्रथा शुरू होती है
और मानव की संस्कृति
विकृतियों में बदल जाती हैं
ऐसा समाज जितना धार्मिक होता है
उतना ही हिंसक भी हो जाता है
क्योंकि सभी मजहबों को
दूसरे मजहबों से
खतरा उतपन्न हो जाता है
इसीलिए मुझे उस ईश्वर से बैर है
जिसके नाम पर शोषण का ये खेल
खेला जाता है
मैं नही मानता उस खुदा को
जो हिंसा की वकालत करता है
मैं नही मानता उस ईश्वर को
जिसके धर्म की रक्षा के लिए
इंसान को इंसान के लहू की
जरूरत पड़ती है
इसलिए
मैंने दुनिया के
तमाम धर्म
और उनके सारे खुदाओ का
बहिष्कार कर दिया
शायद इसीलिए मैं
एक घोसित नास्तिक
समझ लिया गया
हालांकि मुझे अब भी ये नही पता था कि
नास्तिक होना मेरी उपलब्धि है या
ये मेरे लिए दूसरों की दी हुई गाली है
क्योंकि मैं एक इंसान बनने चला था
लेकिन न जाने कब
मैं नास्तिक बना दिया गया
आखिरकार
मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि
अगर सच को सच कहना नास्तिकता है
तो मुझे गर्व है कि मैं नास्तिक हूँ
अगर झूठ घृणा और पाखण्डों को
तबाह करने की सोच रखना
नास्तिकता है
तो मुझे अपने नास्तिक होने पर फख्र है
अगर दुनिया को
बेहतर बनाने का ख्वाब देखना
नास्तिकता है
तो मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं
नास्तिक हूँ
अगर संवेदनाओं के अथाह समुद्र में
गोता लगाने वाले को नास्तिक कहते हैं
तो मुझे खुशी है कि मैं नास्तिक हूँ
अगर नास्तिक होने से
दुनिया बदल सकती है
तो मैं घोषणा करता हूँ कि
मैं एक नास्तिक हूँ
अगर नास्तिक होने से
समाज की वर्षों पुरानी विसमताये
मिट सकती हैं तो
मैं चिल्ला चिल्ला कर कहता हूं कि
मैं नास्तिक हूँ
मैं नास्तिक हूँ
मैं नास्तिक हूँ
शकील प्रेम
भेड़िया
शेर जंगल का राजा है
भेड़िया क़ानून-मंत्री
ताक़तवर और कमज़ोर के बीच
दंगल है
जगह-जगह बिखरे पड़े हैं
खून के छींटे
और हड्डियां
जंगल में मंगल है।
*गोरख पाण्डेय”