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कहानी : अजर-अमर चादरिया

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 डॉ. प्रिया

  _आत्मा के स्वरूप, स्वभाव और अनुभूति की व्याख्या करते हुए ऋषि दीर्घतमा ने बताया- विश्व के संपूर्ण प्राणियों में व्याप्त चेतना ही आत्मा है। वह अति गूढ निर्गम तत्व है इसलिए लोग प्रत्यक्ष नहीं देख पाते। स्पष्टतः चित्तवृत्तियां गतिशील जान पडती हैं इसलिए मन या चित्त को ही आत्मा होने का भ्रम होता है, वस्तुतः चित्त आत्मा नहीं है। आत्मा तो परम प्रकाश तत्व है।_

      एकमात्र चिंतन ही वह उपाय है, जिसके द्वारा चेतना की, आत्मा की, अनुभूति और प्राप्ति संभव है। विद्वजन उसी अक्षय, अविनाशी, अजर-अमर आत्मा का चिंतन करते हैं। लौकिक जीवन से वे उतना ही संबंध रखते हैं जितना आत्मा के आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक है अन्यथा आत्मा के गुणों और कौतुक का चिंतन ही उनका स्वभाव होता है और उसी में असीम तृप्ति भी है।

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       ऋषि दीर्घतमा के शिष्यों में उस दिन विलक्षण खामोशी थी। इतिहास, भूगोल, जीव-विज्ञान, रसायन विज्ञान के पाठ्यक्रम तो भलिभांति समझ में आ जाते थे, किंतु “आत्म-विद्या” का विषय ही इतना गूढ और रहस्यपूर्ण है कि ऋषि दीर्घतमा के बहुत प्रयत्न और विश्लेषण करने के बावजूद भी उनके शिष्य (विद्यार्थी) समझ न पाए।

      आत्मा का विषय प्रत्येक विद्यार्थी (शिष्य) का निजी विषय था, इसलिए उसकी सर्वोपरि आवश्यकता भी थी। जब वह कक्षा आती थी तो उनकी गंभीरता भी बढ जाती और तन्मयता भी किंतु आज भी आत्मा के चेतन स्वरूप का बोध विद्यार्थियों को नहीं ही हो पाया था।

      मध्यान्ह के पूर्व ही एकाएक विद्यालय बन्द की शंखध्वनि कर दी गई। विद्यार्थियों के हृदय “मैं क्या हूं, कहां से आया हूं, क्यों आया हूं?” इन प्रश्नों को जानने के लिए पहले से ही बैचेन थे। गुरु द्वारा अकस्मात विद्यालय बन्द कर दिये जाने की घोषणा से वे और बेचैन हो गये। सब विद्यार्थी एक-एक कर अपने पर्णकुटीरों में चले गए। मध्यान्ह की हलचल उस दिन किसी ने नहीं सुनी। सम्मपूर्ण आश्रम उस दिन विधवा की-सी शांति में डूबा हुआ था।

       सूर्य का रथ थोडा पश्चिम की ओर झुका और घंटा पुनः बजा। विद्यार्थी एकत्रित हुए, किसी के हाथ में न तो लेखनी थी न भोज पत्र। कोई घोषणा भी न थी, छात्र एकत्रित हो गए तो ऋषि दीर्घतमा एक ओर चल पडे, चुपचाप विद्यार्थियों ने भी उनका अनुगमन किया। एक ही पंक्ति में अनुशासन बद्ध गुरु का पीछा करते हुए चल रहे थे।

      गांगेय के श्मशान-घाट पर दल रुक गया (विद्यार्थी एवं ऋषि दीर्घतमा)। घाट की सीढियों के सहारे एक शव अटका हुआ था। ऋषि उसके समीप पहुंच गए एवं सब विद्यार्थी सीढियों पर पंक्तिबद्ध बैठ गए।

      ऋषि दीर्घतमा ने पाठ शुरू किया। शव के एक-एक अंग की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा- इन दोनों हाथों की तुलना अपने हाथों से करो, वैसी ही बनावट, मांसल उङ्गलियों से युक्त किंतु ये हाथ न हिलते हैं, न डुलते हैं आंखें हैं पर वह देखती नहीं, कान हैं पर सुनते नहीं। जिस मुख ने सैकडों सुस्वादुयुक्त पदार्थों को चखा, मुख आज भी वही है पर अब यह खा भी नहीं सकता, नाक सांस नहीं ले रही।

       हृदय स्थान पर होने वाली धक-धक भी बंद है। यह सारा शरीर ज्यों का त्यों है पर इसके लिए रूप, रस, गंध, आकाश, सूर्य, चंद्रमा, प्रकाश, वर्षा, अग्नि आदि संपूर्ण वस्तुएं अस्तित्वविहीन हैं।

       इस शरीर को क्रियाशील बनाने वाली शक्ति इससे ऐसे ही अलग हो गई जैसे अंगारे से उष्मा और जल से शीतलता। जब तक वह शक्ति थी तब तक यही शव क्रियाशील बना हुआ था, शक्ति न होने पर वही आज मुर्दा है। चींटी-चिडियां, हाथी, व्हेल, गाय, बैल, गरुड, कौवा, गीध आदि से लेकर मनुष्य तक इन सबमें एक ऐसी चेतनता है।

        किसी की शक्ति कम है, किसी की अधिक। वृत्तियां और संस्कार भी अलग-अलग हैं, किंतु देखने, सुनने काम करने, इच्छाओं की पूर्ति में संलग्न रहने, प्रेम प्रदर्शित करने, काम व्यक्त करने, आहार, निद्रा, भय, मैथुन की प्रवृत्ति सब में एक जैसी है। सभी में यह शक्ति एक गुण रूप वाली मिलेगी। यह शक्ति प्रत्येक प्राणी में सन्नहित है, समायी हुई है, इसलिए इसे आत्मा कहते हैं।

       यह आत्मा ही प्रकाश, शक्ति अथवा चेतनता के रूप में विभिन्न शरीरों में व्याप्त है, यद्यपि उसका शरीर से कोई संबंध नहीं। वह अजर-अमर, अविनाशी और सतत् चेतनायुक्त है पर स्थूल पदार्थ के साथ संगम हो जाने के कारण ऐसा भासता है कि वह जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त होता है। सुख-दुःख का कारण यही विभ्रांति ही है।

      चेतना विशुद्ध तत्व है। चित्त उसका एक गुण है। इच्छाएं, वासनाएं यह चित्त है, प्रवृत्तियां हैं, किंतु आत्मा नहीं, इसलिए जो लोग शारीरिक प्रवृत्तियों काम, भोग, सौंदर्य सुख को ही जीवन मान लेते हैं वे अपने जीवन धारण के उद‌्देश्य से भटक जाते हैं। चेतना का जन्म यद्यपि आनंद, परम आनंद, असीम-असीम आनंद की प्राप्ति के लिए ही हुआ है तथापि यह चित्तवृत्तियां उसे क्षणिक सुखों में आकर्षित कर पथ भ्रष्ट करती हैं, मनुष्य इसी सांसारिक काम-क्रीडा में व्यस्त बना रहता है, तब तक चेतना अवधि समाप्त हो जाती है और वह इस संसार से सुख, प्रारब्ध और संस्कारों का बोझ लिए हुए विदा हो जाता है।

      चित्त की मलीनता के कारण ही वह अविनाशी तत्व, आत्मा इस संसार में बार-बार जन्म लेने को विवश होता है और परमानंद से वंचित हो जाता हे। सुखों में भ्रम पैदा करने वाला यह चित्त ही आत्मा का (चेतना) का बंधन है।

        “आत्मज्ञान के बिना किसी भी काल में किसी को भी मुक्ति नहीं मिलती” ऋषि दीर्घतमा इस विषय को आगे बढाते हुए अपनी वक्तृता जारी किए हुए थे। तभी एक छात्र ने पूछा- “गुरुदेव! यह आत्मा जब इतना सूक्ष्म, गूढ और रहस्यपूर्ण है तो उसे पाया कैसे जा सकता है? कैसे इन चित्तवृत्तियों के दांव से छुटकारा पाया जा सकता है।”

      यह पूछकर छात्र बैठ गया। फिर ऋषि दीर्घतमा ने शंका का समाधान करते हुए बताया- “मैं शरीर हूं” जब तक जीव यह मानता रहेगा, तब तक करोड उपाय करने पर भी शाश्वत सुख-शांति, जो आत्मा का लक्ष्य है, नहीं उपलब्ध हो सकती। हम शरीर नहीं हैं, शरीर में तो हम बैठे हैं, वाहन बनाए हैं, घुसे हैं फिर भी हम अपने को शरीर मानकर सारा व्यवहार करते हैं पहले इस धारणा को बंद करना चाहिए और निश्चय करना चाहिए कि मैं शरीर नहीं, इंद्रिय, मन और  बुद्धि आदि अंतःकरण चतुष्टय से परे असंग शुद्ध आत्मा हूं।

       कुछ दिन इसका निरंतर चिंतन करने से अपनी आत्मिक धारणा पुष्ट हो जाती है और आत्म कल्याण का मार्ग दिखाई देने लगता है।

       ऋषि दीर्घतमा गंभीर विवेचन में उतर गए। सूर्यदेव अस्ताचल की ओर बढ चले किंतु आत्मा का विषय ही इतना आनंदप्रद था कि सम्मपूर्ण छात्र निश्चल भाव से तन्मय की मुद्रा में बैठे रहे। न उनकी जिज्ञासा तृप्त होती थी, उठने की किसी को इच्छा ही न थी। आश्चर्य और कौतुहल से सभी ध्यानपूर्वक  गुरुदेव (ऋषि दीर्घतमा) की व्याख्या सुनने में निमग्न थे। ऋषि दीर्घतमा ने आगे बताया-

     आत्मा स्वयं ज्ञान-स्वरूप है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि ज्ञान की प्राप्ति के लिए परिश्रम और प्रयत्न करना ही छोड दिया जाए। बात यहां पर यह है कि जब आत्मा स्वयं ज्ञान स्वरूप है तो उसे प्राप्त कैसे किया जाए? इसका सीधा सा उत्तर यही है कि उसे अपने अंदर खोजने की आवश्यकता है। उसे अपने अंदर खोजने के लिए तप और त्याग का श्रम और परिश्रम करना पडेगा। जो स्वयं ज्ञान रूप है, उसे अपने आप में ढूंढने के लिए  न तो जंगलों में भटकने की आवश्यकता है न जीवन को कठोर और शुष्क बनाने की।

      अपने आप में अहंकार का जो भाव है केवल उसे मिटा देने की आवश्यकता है। क्योंकि यह श्रम भी आत्मा की तरह अनादि और अनंत है इसलिए अपने शक्ति स्वरूप, ज्ञान स्वरूप चेतनता की धारणा को पुष्ट बनाने के लिए गहन चिंतन की आवश्यकता पडती है।

       आत्मा की प्राप्ति के लिए जितने भी साधन और उपासनाएं बताई गई हैं वह केवल इसी बात को परिपुष्ट करने के लिए हैं कि- “तुम शरीर नहीं, मन और इंद्रियां भी नहीं हो इनसे परे अनंत शक्तिस्वरूप आत्मा हो, आत्मा बंधन रहित है। अपनी इच्छा संकल्प बल से कहीं भी विचरण कर सकती है। प्रकाश खेल खेलता है। न उसका कोई बंधु है न बांधव, पुत्र न कलत्र, सब विविध रूप आत्माएं ही अपनी चित्तवृत्तियों के कारण भाई, पिता, ऐसा भासते है।

       इस बंधन से छुटकारा राग, द्वेष, ममता छोडकर, केवल कर्त्तव्य पालन का ध्यान रखता हुआ जो व्यक्ति आत्मा में ही रमण करता है, आत्मा का ही चिंतन करता है, आत्मा के गुणों के अनुरूप आचरण करता है अंत में वह सांसारिक सुख, ऐश्वर्य और भोगों को भोगते हुए भी आत्मा को प्राप्त कर लेता है, परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। मन, प्राण व प्रकृति के परिवेश से प्रकट में पृथक-पृथक प्रतीत होने पर भी हम आप सब वस्तुतः एक ही आत्मा की अभिव्यक्तियां हैं।

       इसे यों भी कहा जा सकता है कि आत्मा ही विभिन्न रूपों में व्यक्त होकर उन्मुक्त चेतना-परमात्मा में परिणत होना चाहती है। जो इस तत्व रूप को खोजते हैं वह तो अपना लक्ष्य पा जाते हैं और जो अपने चित्त की अहंवृत्तियों में ही भूलते-भटकते रहते हैं वे सुख स्वरूप होने पर भी दुःख भुगतते हैं, बंधन मुक्त होने पर भी बंधनों में पडे रहते हैं।

      जीवन अवस्था में जो यह कहा करता था कि यह मेरा धन है, मेरा घर है, मैं खाता हूं, मैं पंडित हूं, मैं ज्ञानी हूं, मेरा सौंदर्य सबसे बढकर है, आज वही बोलने वाला कहीं खो गया है यद्यपि शरीर ज्यों का त्यों विद्यमान है। मन और अहंकार से अपने को भिन्न समझने में ही आत्मा का सारा रहस्य छिपा हुआ है। चिंतन के इस सिद्धांत से इसी सिद्धांत की पुष्टि होती है।

       यह आत्मा, मन और अहंकार से अलग रहकर अपना काम किया करती हे। मन और अहंकार वस्तुतः जागृति अवस्था के कारण हैं जबकि आत्मा शाश्वत और अनादि हे, विद्वजन इसीलिए निरंतर आत्मा का चिंतन करते और अंत में सुखपूर्वक उसी भाव में अंतर्निहित होकर परमात्मा की शरण में चले जाते है़।

सूर्य लगभग ढल चुकने को था। संध्या का समय हो चुका था। जब यह ध्यान कर उन्होंने अपना पाठ समाप्त किया तो विद्यार्थीयों का भी ध्यान टूटा। उन्होंने अनुभव किया कि कुछ समय के लिए वे सब ऐसे लोक में, चिंतन की गहन स्थिति में पहुंच गए थे जो आत्मा का यथार्थ लक्ष्य है, सबको अपना पाठ समझ लेने का संतोष था।

      ऋषि के पदों का अनुसरण करते हुए सभी विद्यार्थी गुरुकुल लोट आए और अपने-अपने संध्या पूजन में लग गए

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