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कहानी : देह भंग

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        ~ दिव्या गुप्ता, दिल्ली 

“ऐ मिस्टर……..यहाँ काम करने आये हो या तम्बाकू फाँकने।”

एक कड़कती हुई आवाज़ उसके कानों के पर्दों को चीरती हुई अन्दर दूर तक फैल गयी। वह थोड़ा विचलित हुआ। आवाज़ जानी पहचानी थी फिर भी उसकी बाईं हथेली पर रगड़ खा रहा अँगूठा एकाएक रुक गया। तम्बाकू वाला हाथ उसने पीछे कर लिया और कुछ उछलता हुआ-सा बक्सा छोड़कर खड़ा हो गया। उसकी नज़रें सामने खड़े हुए व्यक्ति से टकरायीं। उसे मौन खड़ा देखकर सामने खड़ा व्यक्ति जैसे खीझ उठा।

“मैं तुमसे क्या पूछ रहा हूँ?”

उसका स्वर पहले की अपेक्षा अधिक तीखा था।

“साब…तबीयत थोड़ा उचाट हो रही थी…सोचा तम्बाकू खा लूँ, चुस्ती आ जायेगी।” उत्तर देने की मजबूरी में जैसे वह गिड़गिड़ाने लगा जिसका ख़ासा असर उस व्यक्ति पर पड़ा, जो वस्तुतः उसका सुपरवाइज़र था, यानी इमिजियेट बॉस। फिर भी किशन पर उसने अपनी नज़रें ढीली नहीं कीं। जाते-जाते वह चेतावनी दे गया।

“ठीक है….ठीक है, लेकिन काम लंच से पहले ख़त्म हो जाये, वरना बड़े साहब के सामने पेशी के लिए तैयार रहना।”

सुपरवाइज़र के चले जाने के बाद उसे लगा कि उसका मन पहले से ज़्यादा उचाट हो गया है। तम्बाकू खाने की योजना उसने रद्द कर दी। रूमाल के एक कोने में उसकी गाँठ बनाने के बाद वह पुनः उसी पुराने, गन्दे और काले हो आये लकड़ी के बक्से पर बैठ गया। रूमाल उसने डांगरी की जेब में घुसेड़ लिया। बैठे-बैठे उसने सामने वर्कशॉप में दूर तक दृष्टि दौड़ाई। लम्बा चौड़ा वर्कशॉप, धुँधलायी हुई रोशनी, जगह-जगह जाले, सुपरवाइज़रों की चीख़, मशीनों के चलने और उन पर काम करने वालों की आपसी बातचीत का शोर—वह जब भी वर्कशॉप को इस तरह देखता, उदास हो जाता। गर्मी के मौसम में ये सब उसके लिए एकदम असहनीय हो उठता है। छह महीने से अधिक हो गये उसे यहाँ काम करते हुए, फिर भी यहाँ के माहौल में वह अपने को खपा नहीं पाया। एक अजनबीयत उसे बराबर सालती है।

ड्यूटी के आठ घण्टों में उसका जी बार-बार उचटता है। कहीं दूर, किसी अदृश्य लोक की ओर भाग जाने को उसका मन व्याकुल हो उठता है। उसके जी का उचटना, उसका व्याकुलता से भर जाना, उसे कभी बीड़ी, कभी तम्बाकू की चाह से भर देता है। तम्बाकू खाना और बीड़ी पीना उसने फ़ैक्ट्री की इसी नौकरी के दौरान सीखा है।

वो जब कभी तम्बाकू मल रहा होता या बीड़ी के कश ले रहा होता कि तभी उसके कानों में कोई कड़कती हुई आवाज़ टकराती, तब वह ऊपर से नीचे तक हिल उठता, विषाद और वेदना से भर जाता। ऐसी स्थिति में उसकी तम्बाकू खाने या बीड़ी पीने की चाह कभी तो बिल्कुल समाप्त हो जाती तो कभी तीव्र हो उठती। कड़कने वाला कड़क कर चला जाता लेकिन वह….? इस पक्ष को जानते हुए भी कि इस कड़क-हड़काई के पीछे कहीं उसकी भलाई का भाव भी छिपा हुआ है, वह व्यथित हो जाता। सोच की गहरी झीलों में डूबते हुए वह गुज़रे हुए दिनों की ओर जा निकलता। स्मृतियों की धारा उसे अपने साथ बहा ले जाती, यह धारा वर्तमान के प्रति उसे विद्रोही बना देती। लेकिन ऐस्बेस्टस शीट की ऊँची आग टपकाती छत के नीचे लकड़ी के बक्से पर उपजा विद्रोह उसे यह अहसास भी करा देता कि वह विद्रोह सिर्फ सोच सकता है, कर नहीं सकता। यह एहसास उसे और ज़्यादा कटु बना देता। वह दूर दूर तक छिटक जाता। बीता हुआ कल उसे अधिक मज़बूती से अपने आलिंगन में जकड़ लेता।

आज वह जो कुछ है, जहाँ है, कल्पना पट पर उसकी धुँधली छवि भी कभी नहीं उभरी। नीचे की ओर सोचने का उसे कभी अवसर ही नहीं मिला। वह सोचता था तो केवल ऊपर की ओर। बचपन के पाँव युवावस्था की देहरी तक पहुँच गये लेकिन उसने पढ़ाई के अतिरिक्त अन्य किसी ओर ध्यान नही नहीं दिया कभी। पिता ने भी एक बार नहीं कई बार चेताया था, “बेटा किशन, तुम्हें केवल पढ़ाई के बारे में सोचना है, बस किसी और तरफ ध्यान नहीं देना कभी, मैं तो हूँ सब कुछ सोचने के लिए।”

उसे पिता की बातें जब भी याद आती हैं, उनका चेहरा उसकी दृष्टि में घूम-घूम जाता है। विशाल देश के एक कर्मठ मेहनती फैक्ट्री कारीगर का चेहरा। उसकी व्यथा उग्र हो आती। भीतर कही तेज़ बारिश होती, वह नम हो जाता।

सुकून से भरा हुआ था, उसके घर का माहौल। तब भले उसने महसूस न किया हो परन्तु आज वह कर सकता है कि जिस तरह ट्रेन लोहे की पटरियों पर दौड़ती चली जाती है, निर्बाध, निर्विध्न, उसी तरह उसका घर-परिवार आगे की तरफ बढ़ता चला जा रहा था, पिता का व्यक्तित्व इंजन की तरह था, ताप भरा। बाधाएँ….उन्हें भले आभास हुआ हो इनका, परन्तु उसे तब कभी कोई रुकावट अनुभव नहीं हुई। लेकिन आज….आज उसे लगता है कि उसके जीवन में केवल बाधाएँ है। पहली तारीख़ को हर माह उसके हाथ में जब पगार आती है, तब वह प्रसन्न नहीं होता, मुरझा जाता है। चिन्ताओं से भर उठता है। काग़ज़ पर बार-बार वह हिसाब लिखता है, बार- बार काटता है। जब वह मन माफिक़ हिसाब नहीं बिठा पाता तो सौ रुपये अपने जेब ख़र्च के निकालकर बाकी पगार माँ के हाथ में रख देता है। यह सोचते हुए कि जैसे चाहे निपटाये।

उसे पहली पगार का दिन अच्छी तरह याद है। बसन्त पंचमी का दिन था, परन्तु घर में आषाढ़ का सा सन्नाटा था। साइकिल एक किनारे खड़ीकर जब उसने जेब से पगार का पतला सा पैकेट निकालकर माँ की हथेली पर रखा था, माँ फूट फूटकर रो पड़ी थी। वह स्वयं बेहाल हुआ जा रहा था, सारा घर रो रहा था। ख़ुशी का दिन विलाप के दिन में बदला हुआ था। माँ ने आँचल के एक कोने में पगार की गाँठ बाँध तो ली थी लेकिन उसे जैसे वह खोलना भूल गयी थी।

स्मृतियों का क्रम टूटता नहीं है, चलता जाता है। पढ़ाई में वह आरम्भ से ही तेज़ था। प्रत्येक क्लास अच्छे नम्बरों से पास करना जैसे उसकी आदत सी बन गयी थी। बीते हुए दिनों में वह कभी उदास हुआ है तो तब, जब उसने देखा कि खीर बनने पर माँ उसका कटोरा पूरा भर देती है जबकि संजय, सुनीता और विनीता के कटोरे आधे ही रह जाते। माँ का यह भेदभाव उसे बराबर अखरता था, उसने विरोध भी किया था। माँ को समझाया भी कई बार था, लेकिन माँ अपनी सी करती थी। वह कर भी क्या….अचानक खट-खट की तेज़ आवाज़ उसके सोचने की श्रंखला को तोड़फोड़ देती है। ‘पावर सॉ’ की यह हरकत उसे अच्छी नहीं लगी। पावर सॉ को एक गन्दी गाली उसने दी। “तेरी तो माँ का…”

पावर सॉ अभी भी शोर मचा रहा था। लोहे की बार काट देने के बाद वह अब बेस को रगड़ रहा था। “अब क्या करें…..” वह कोई फ़ैसला करता कि तभी कोई चीख़ा।

“अबे ब्लेड टूट जायेगा, सुइच तो ऑफ़ कर…….”

उसने तुरन्त लाल बटन दबा दिया। पावर सॉ की खड़खड़ाहट बन्द हो गयी। लेकिन तभी उसे एक दूसरी आवाज़ दबोच लेती है।

“यह कहाँ खोये रहते हो, क्या कविता अविता करने लगे हो…….”?

स्वर में व्यंग्य नहीं सहानुभूति है, छोटा होने के कारण अधिकतर लोग उससे हमदर्दी रखते हैं। उसकी परिस्थिति के कारण भी। वह कुछ संकोच से नज़रें उठाता है। सामने फैक्ट्री की खाकी वर्दी में वर्मा जी को खड़े देखता है। उनके एक हाथ में ग्रीस से मैला हुआ जूट है तथा दूसरे हाथ में स्पैनर, फैक्ट्री के दक्ष खरादियों में उनकी गणना होती है। वह उन्हें अंकल कहता है। सिर्फ़ अंकल। उसका संकोच बढ़ जाता है।

“बेटा ध्यान से काम किया करो।” कहते हुए वर्मा जी आगे चले जाते हैं। उसकी दृष्टि वर्मा जी का पीछा करते हुए वर्कशॉप में दूर तक घूम आती है। लेथ मशीनों की चार कतारें एकदम किनारे हैं, फिर मिलिंग मशीनें हैं, उसके बाद ग्राइंडिंग की मशीनंे, फिटर्स की फिटिंग्स बेंचों के बाद लोहा काटने वाली उसकी पावर सॉ है एकदम कोने में। वह दूर तक लोहे की छीलन, कूलेण्ट के बहाव और जूट के साफ गन्दे टुकड़ों को बिखरा देखता है। मशीनों पर झुके हुए लोग उसे भारी बोझ से दबे हुए महसूस होते हैं। सहसा उसे महसूस होता है कि जैसे वह किसी यातना शिविर में आ फँसा है। जहाँ न पीने का साफ पानी है और न क़ायदे के टायलेट।

“अरे भई किशन, खड़े खड़े क्या कर रहे हो?” झुँझलाहट और आवेश में लिपटे शब्द उसे चौंकाते नहीं, बेचैन करते हैं, उसकी तन्द्रा भंग हो जाती है। वह झट पावर सॉ पर झुक जाता है। कटा हुआ टुकड़ा वह अलग रखता है। आइरन राड पर फैले हुए समान अन्तर वाले चिन्हों को सरसरी दृष्टि से नापने के उपरान्त वह अपने से कहता है।

“स्साली….पूरी रॉड लंच से पहले ही काट देनी है।” अचानक उसमें फुर्ती आ जाती है। तुरन्त वह राड का अगला निशान ब्लेड के नीचे रखता है। फिर मशीन से चिपका हरा बटन आन कर देता है। मशीन खचच….खच्च….के साथ रॉड पर रगड़ खाने लगती है।

“लंच होने में अभी डेढ़ घण्टा बाकी है।” कोई किसी से कहता है। किशन अपने आप समय जान जाता है। समय जान लेने के बाद वह पावर सॉ की गतिविधियों पर दृष्टि जमाने की कोशिश करता है। लेकिन दृष्टि ज़्यादा देर तक वहाँ टिकी नहीं रह पाती क्योंकि अतीत एक बार फिर उसे घेरने में लग जाता है। किसी कमज़ोर शय की तरह वह उसके घेरे में आ जाता है। पावर सॉ के किनारे वर्षों से पड़े चीकट हो आये बक्से पर होकर भी वह वहाँ नही रहता।

“पिता ने, माँ ने उसे लेकर कैसे कैसे सपने बुन रखे थे। कालोनी वाले भी कहा करते थे, “किशन बड़ा होकर जरूर बड़ा आदमी बनेगा।” उसने खुद भी अपने को लेकर कितने सतरंगी वृत्त बनाये थे, जिनकी परिधि बार-बार टूटती थी। कार, बंगला, नौकर, इन सबको वह अपने लिए निश्चित मानकर चल रहा था। हाँ, पिता ने स्वप्न अवश्य देखे परन्तु भविष्य की ऐसी छवियाँ कभी नहीं दिखायीं। उसके नाम के साथ उन्होंने डाक्टर या इंजीनियर शब्द कभी नहीं जोड़ा। यह आशा उन्होंने मन में कहीं अवश्य संजो रखी थी कि किशन बड़ा होकर सुनीता और विनीता के हाथ पीले करने में उनकी ज़रूर मदद करेगा। संजय को एक दुकान खुलवाने के सिलसिले में भी उन्होंने ऐसी ही आशा कर रखी थी। लेकिन आज….तीन उदास चेहरे उसकी आँखों में धँसते चले जाते हैं। पिता का चेहरा इनके पीछे उनके साथ माँ, ग्रहण लगे चाँद जैसा उसका मुख।

ड्यूटी के मामले में पिता कितने मुस्तैद थे। देर शायद ही उन्हें कभी हुई हो। साइरन की तीखी आवाज से बँधी फ़ैक्ट्री मज़दूरों की जिन्दगी यों भी समय की मुस्तैदी की आदी हो जाती है। कार्ड पंचिंग में कुछ मिनटों की देरी का मतलब पगार में कटौती फिर भी पिता की बात ही अलग थी। छुट्टी के बदले पैसा वह लगभग प्रत्येक वर्ष लेते थे। उसने कई लोगों से सुना था कि उनकी गिनती ईमानदार और मेहनती वर्कर्स में होती है। कालोनी के अंकल, आण्टी या उनके बच्चों से जब कभी वह पे-रिवीज़न, बोनस या महँगाई भत्ते में बढ़ोत्तरी की बातें सुनता तो गदगद हो जाता। चुपके से माँ और बहनों को बताता। सबके चेहरों पर पूरे चाँद की आभा उतर आती। उसे अपना रास्ता अधिक आसान प्रतीत होने लगता।

तभी पावर सॉ की “खट खट…” उसे बताती है कि उसकी वास्तविकता केवल इतनी है कि वह पिता की फ़ैक्ट्री की एक ब्रांच में एक साधारण सी नौकरी कर रहा है। वह खीझ से भर जाता है। उसे पिता के शब्द याद आते हैं।

“बेटा किशन, रास्ता उतना सीधा नहीं है, जितना तुम सोच रहे हो। उन्होंने उसे सुझाव दिया था, इण्टर करने के बाद किसी पॉलीटेक्निक से डिप्लोमा कर लो, मेरी फैक्ट्री में अच्छी नौकरी लग जायेगी।”

उसने पिता के सुझाव को ठुकराते हुए कहा था वह डाक्टर बनेगा या इन्जीनियर।

पिता उसे देखते रह गये थे। उन्होंने समझाया था. आगे चलकर फैक्ट्री में पे-स्केल्स बढ़ जायेंगे। फिर प्रमोशन पाकर इंजीनियर तो बन ही जाओगे। फिर भी वह पिता से सहमत नहीं हो पाया था।

“नहीं बापू, मैं तुम्हारी फैक्ट्री में काम नहीं करूँगा, किसी फैक्ट्री में काम नहीं करूँगा। मुझे चिढ़ है उस घुटन और शोर भरे वातावरण से। मैं साइरन का गुलाम नहीं बन सकता।”

उसकी सोच की तरह था उसका धारा प्रवाह बोलना, जिसे साइरन की तेज़ सीटी छिन्न भिन्न करती है। वह एकदम से हड़बड़ा सा जाता है और इस हड़बड़ाहट में सहसा लाल बटन दबा देता है।

“खच्च…..फिर खटखट….की आवाज़ होती है, ब्लेड दो टुकड़ों में बँट जाता है। पावर सॉ के टूटे हुए ब्लेड को वह देखता है तो उसे अपनी ग़लती का अहसास होता है। फ्रेम को बिना स्टैण्ड पर टिकाये स्विच ऑफ़ कर देने की ग़लती का एहसास। ग़लती के प्रति उसके भीतर लापरवाही का एक भाव तिर आता है। वह बहुत धीमे कदमों से हाथ धोने जाता है। बग़ल की दीवार पर नेशनल सेफ़्टी कौंसिल के चेतावनी पोस्टर पर लगी कील में टँगे लंच बाक्स को वह उठाता है और बाहर लॉन की तरफ जाने का इरादा करता है। कैण्टीन में शोर बहुत होगा सोचकर वह वहाँ जाने से बचता है। लान में किसी पेड़ तले अकेले बैठकर खाना उसे अच्छा लगता है। वह ऐसा ही करता है। ऐसे में स्मृतियों का काम आसान हो जाता है। वह पुनः उसे आ घेरती हैं।

उस दिन हाईस्कूल का रिज़ल्ट आने वाला था। बापू ड्यूटी जाते हुए चेता गये थे। “देखो किशन, रिज़ल्ट आने पर मुझे फ़ोन ज़रूर कर देना, मैं जल्दी चला आऊँगा।”

तुम चले गए थे बापू—हमें क्या पता था कि यह तुम्हारा जाना कभी न लौटकर आने में बदल जायेगा। वह दिन किशन की आँखों में भर आता है। फर्स्ट डिवीज़न पास होने की ख़ुशी से लबरेज़ जब वह घर लौटा था तो पाया था, सन्नाटा, उदासी और चीखों का अम्बार। बापू का फैक्ट्री में काम करते हुए एक्सीडेण्ट हो गया था। वह भागता हुआ अस्पताल गया था, वहाँ पायी थी उसने बापू की क्षत-विक्षप्त लाश। फ़ैक्ट्री का ब्यालर फट गया था। खौलते पानी और लोहे के टुकड़ों का एक साथ आक्रमण हुआ था उन पर।

सोचते सोचते वह भावुक हो उठता है। भावनाओं के आवेग में वह अपना सिर दोनों हाथों से पकड़ लेता है।

“बोलो बापू—तुम्हें और तुम्हारे परिवार को क्या मिला। तुम्हारी मेहनत, लगन, निष्ठा और बलिदान का क्या पुरस्कार आया हमारे हाथ।

चन्द हज़ार रूपये और मुझे तुम्हारी फैक्ट्री में दूसरी ब्रांच में लोहा काटने की नौकरी।

साइरन की चिर परिचित आवाज़ एक बार फिर उसकी सोच में हस्तक्षेप करती है। लंच ब्रेक ख़त्म हो गया था। सर को पकड़े हाथों को वह मुँह पर फेरता है। उसकी उँगलियाँ गीली हो आती हैं। किसी बीमार की तरह ज़मीन पर हाथ टेककर वह उठता है। बहुत धीमे-धीमे भारी क़दमों से वह वर्कशॉप में दाखिल होते हुए अपनी मशीन की तरफ़ चला जाता है।

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