पुष्पा गुप्ता
सूरज तब रोज़ की तरह काला उगा था. घर से निकाल डी टी सी की बस में बैठा वह आदमी अस्पताल जा रहा था वहाँ भर्ती अपने बच्चे के पास |
पूरी रात जागी थी पत्नी वहाँ, अब पारी उसकी थी | गंतव्य से आधी दूरी तय करने तक पढ़ चुका था लगभग पूरा अखबार, बुंदेलखंड में कुपोषण से बच्चों की मौतों, उजाड़े गए आदिवासियों के देशद्रोही बन जाने, संसद के सामने तबाह तमिल किसानों के नग्न प्रदर्शन, कश्मीर उपचुनाव में 6 प्रतिशत मतदान, छात्रों पर लाठीचार्ज और आंसूगैस छोड़े जाने, सड़कों पर अखलाक और पहलू खान को ढूंढती रक्तपिपासु भीड़ और अंबानी-अडानी के देश की तरक्की में योगदान से जुड़ी कई खबरें कि अचानक बस रुकी और किसी भीड़ के पीछे भागती पुलिस घुसी भीतर और मुसाफिरों को पीटने लगी |
बदहवास भागा वह आदमी और घुस गया पास ही ऊंचाई पर खड़े उस भव्य प्रासाद में जो संस्कृति और चिंतन का केंद्र था और वहाँ उससमय कला और विचार के सामने खड़ी मुश्किलों पर गंभीर विचार-विमर्श चल रहा था|
बदहवास घुसा भीतर वह मामूली आदमी और बोला चीखकर , “अब देश एक ऐसे मुकाम पर आ गया है , जहां क्रांति के अलावा कोई और रास्ता नहीं रह गया है |”
डिस्टर्ब हो गया सारा माहौल, सब भरभंड हो गया | मोटे चश्मे वाला बुजुर्ग संस्कृति-चिंतक बोला, ” कला में यूं राजनीति को सीधे लाना ही तो सारे विनाश की जड़ है |”
“कला और विचारों की दुनिया में यूं नारेबाजी? हम प्रगतिशीलों का यह रोग कब छूटेगा?”–लगातार आत्मभर्त्सना करते रहने वाला वामपंथी लेखक भुनभुनाया | फिर भी लेकिन एजेंडा बदल गया और क्रांति पर होने लगा विचार, आने लगे नाना उदगार | एक बूढ़ा समन्वयवादी मार्क्सवादी बोला,”क्रांति की आंधी?
पर मार्क्स तो दूर, कहाँ है कोई अंबेडकर,लोहिया,जे पी या गांधी ?”
एक सत्तर के दशक में लाल क्रांति के सपने देख चुका पुराना अतिवामपंथी और अब संशयवादी हो चुका कवि बोला,”अजी, हम यह सब करके देख चुके हैं, यहीं, इसीजगह, मंडीहाउस से कनाटप्लेस तक |”
मार्क्सवादी से ब्राह्मणवादी हो चुका एक आलोचक मुंह फुलकर बोला व्यंग्य से, “कुछ लोग तो लगातार कर ही रहे हैं क्रांति और संतुष्ट भी हैं
अपनी उपलब्धियों से |”
एक युवा क्रांतिकारी शोध-छात्र बगल में बैठी अपनी प्रेमिका से फुसफुसाया, “क्रांति की आग बस्तर से लगातार बढ़ रही है राजधानी की ओर, हमें यहाँ कला और दर्शन में क्रांति के प्रश्न पर विमर्श कर
उसकी मदद करनी है |”
एक कहानीकार चीखा,”कैसे होगी क्रांति? यहाँ कहाँ है ऐसी पार्टी? कम्युनिस्ट नाकारे हैं, कुछ कर ही नहीं रहे हैं !”
एक दूसरा बोला उसे काटते हुए,”अजी, यह पूरा देश हिंजड़ा है साला, ये क्या क्रांति करेगा ! इसे ठीक करेगा तानाशाही का डंडा!”
प्राचीन साहित्य के बूढ़े मर्मज्ञ ने मर्मर ध्वनि की,”क्रांति नहीं है हमारी संस्कृति और हमारी परंपरा, यहाँ सबकुछ बदलता है शांति से,शनैः-शनैः |”
फिर सत्तर के दशक का दूसरा बूढ़ा युवा क्रांतिकारी कवि जिसका मिजाज़
इनदिनों कुछ शांतिवादी, कुछ सूफियाना हो गया था, बोला आह भरकर,”कैसे होगी क्रांति , क्रांति करने वाली शक्तियाँ नदारद हैं! फिलहाल तो हमें फासिस्टों से अपने को और कला को बचाना है| काश, आज गांधी होते! चलो राजघाट चलें !”
हिन्दी विभाग का एक मोटा-तुंदियल विभागाध्यक्ष ,जो युवावस्था में वामपंथी राजनीति कर चुका था, फटे गले से चिल्लाया ,”क्रांति का ठेका लिए हुए क्रांतिकारी तो कनफ्यूज हैं | अब तो शायद तभी कुछ होगा , जब लोकतन्त्र पूरी तरह समाप्त हो जाए |”
मार्क्सवादी से उत्तर-आधुनिक हो चुका कवि-कथाकार, जो विवादित हुआ था प्राक-आधुनिक के हाथों सम्मानित होकर, बोला बुद्ध की तरह,” क्रांति किस वर्ग या वर्ण के पक्ष में? क्या हम उस वर्ग या वर्ण के लोग हैं? और क्रांति यदि हो भी जाए तो क्या गारंटी है कि अतीत की क्रांतियों की तरह विफलता, विचलन,विघटन नहीं होगी उसकी नियति? अतः हे सज्जनो,क्रांति उत्पीड़ित मनुष्यता का शाश्वत स्वप्न है | उसे वही बने रहने दो | यदि करने की कोशिश करोगे तो उत्पीड़ितों का वह स्वप्न भी छिन जाएगा |”
इस तरह सबने क्रांति न हो पाने के कारण बताए और तमाम दोषों और दोषियों की शिनाख्त की, अपने को पूरीतरह दोषों और जिम्मेदारियों से बरी करते हुए |
एक रिटायर्ड क्रांतिकारी और वर्तमान एकेदेमीशियन बोला,” साला हमको तो कुछ समझे में नहीं आ रहा है !”
और भी ढेरों बातें हुईं , जैसे कि लाल की जगह लाल-नीली या सतरंगी क्रांति करने की गर्दनतोड़ मौलिक बातें….और फिर इस अनौपचारिक चर्चा को रोककर फिर से मूल एजेंडा पर विमर्श होने लगा |
बाहर निकला वह आदमी. ऊंचाई पर स्थापित उस आतंककारी भव्यता वाली अट्टालिका से और सीढ़ियाँ उतरते हुए उसने पाया कि संस्कृति और चिंतन का वह गरिमामय केंद्र कुत्तों के गू की ढेरी पर खड़ा था