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कहानी : पिता/पति की मौत 

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      ~> प्रखर अरोड़ा 

मौत जिसकी होनी है, उसकी होती है. वह ऑप्शन नहीं देती.

   मौत जैसे होनी है, वैसे होती है. पैटर्न चेंज नहीं होता.

    मौत जब आनी है, आती है. वह ज़रा भी एक्स्ट्रा वक्त नहीं देती.

     उस दिन यमराज कुछ पल पहले पहुंच गये या उनको क्या सूझी, उन्होंने ऑप्सन दिया.

    पैटर्न फिक्स नहीं था. 

ऑप्शन को सेलेक्ट करने के लिए समय भी दिया.

   यह माता- पिता, पुत्र- पुत्रीयुक्त चार लोगों का परिवार था. चारों मौज़ूद थे.   

     यम ने कहा : 

“एक को चलना है, बताओ कौन चलेगा?  बाहर- भीतर वाले सारे कपड़े उतार दो. यहाँ का सब यहीँ छोड़ दो और चलो.

   चारों अवाक थे.

 यम पुन: बोले~

“लगता है कपड़े वाली बात आप लोग नहीं समझ पाए. मिट्टी, हवा, आग, पानी और आकाश निर्मित पंच-भौतिक तात्वों का शरीर आपका बाहरी कपड़ा है. मन, बुद्धि, अहंकार, सोच और विचार आपका आतंरिक कपड़ा है.”

पिता : “ठीक है यम जी, मैं चल रहा हूँ.”

माँ : “नहीं मुझे जाना है. कैसी बातें करते हो जी? जीवन भर साथ निभाने का वादा किए हो. भूल गए क्या?”

   ~ “ऐसा नहीं है मेरी ज्योति जी. जीवन भर साथ निभाया ना. मेरा जीवन यहीँ तक है. अब क्या करुं!”

~ “नहीं जी! मेरे जीवन भर साथ निभाना है.”

~ “तुम्हारे जीवन भर कैसे भला. ऐसा कहाँ होता है. जिसका समय पूरा हुआ, वह जाएगा. जीवन पूरा हो जाने पर साथ कैसे निभाएगा.”

~ “मुझे सुहागन विदा करो. विधवा नहीं होना है मुझे.”

पुत्र : “यम जी, आप मुझे ले चलो. अपना सारा जीवन खपा दिए माता-पिता मेरे लिए. मैं इन दोनों को अलग होते नहीं देख सकता. कम से कम इतना तो मैं इनके लिए कर ही दूँ.”

पुत्री : “क्यों जी, तुम क्यों? मैं जाऊंगी. क्या मैं कुछ नहीं कर सकती माता-पिता के लिए. हमेशा बेटे ही करें? मैं तो वैसे भी परायी हूँ. पराये घर की होना है मुझे.”

   निर्णायक बनकर पिता/पतिश्री उनसे बोले :

   “देखो, तुम सभी बहुत अच्छे हो. अपनी-अपनी जगह बिल्कुल सही हो. आजकल ऐसा परिवार नहीं मिलता है. मैं धन्य अनुभव करता रहा हूँ तुम सब को पाकर. मुझे जाने दो! तुम सब एक-दूसरे का ख्याल अच्छे से रख लोगे. प्यार से रह लोगे. मुझे विश्वास है तुम सब पर. मैं तो बहुत-सी गलतियां किया हूँ. क्या पता आगे भी कर दूँ. वैसे भी बच्चों को पिता से अधिक जरूरत माँ की होती है. ख़ासकर तब, जब पिता का इकोनॉमिक मैनेजमेन्ट में कोई रोल नहीं हो. अपने-अपने कर्तव्य का पालन करना. इस धरा का इस धरा पर सब धरा रह जाता है. यहाँ का कुछ- भी लेकर कोई नहीं जाता है. सुना ना, यम जी ने अंदर- बाहर के सारे कपड़े उतारकर यहीँ छोड़ देने को बोला है. और हाँ, मेरे लिए रोना-धोना नहीं. किसी कर्मकांड के ढोंगी लफड़े में भी नहीं पड़ना. यहाँ का सब यहाँ छोड़ देने वाले पर, यहाँ की किसी क्रिया का प्रभाव वहाँ नहीं पड़ता. तुम सभी खुश रहना, एक-दूसरे को खुश रखना. मेरी अच्छाइयों से, मेरी चेतना से प्रेरणा लेते रहना. उनके रूप में मैं हमेशा तुम-सबके साथ रहूंगा.”

     इसके पहले कि उनमें से कोई कुछ बोल पाता, उनका शरीर लुढ़क गया. (चेतना विकास मिशन).

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