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*कहानी : अनिद्रा*

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     ~ दिव्यांशी मिश्रा, भोपाल

आआआआsssss…

जतिन आज फिर नींद से चिल्लाकर उठा। सर से पांव तक पसीने से भीगा हुआ, सीना इतनी तेजी से ऊपर नीचे होता हुआ जैसे पहाड़ी नदी की रवानी, चेहरे पर आते-जाते दहशत के भाव…

यह लगभग रोज का किस्सा बन गया है। जाने कितने दिनों से जतिन दो घड़ी से ज्यादा नहीं सो पाया है।

एक समय था जब जतिन को सोते से उठाना मतलब पूरी एक मशक्कत हुआ करती थी और जतिन को उठाने के सारे जतन व्यर्थ जाते थे। जब उसे उठना होता, वह तभी उठता। उसकी मां मजाक-मजाक में उसे कुंभकर्ण कहती। फिर तो सभी उसे इसी नाम से चिढ़ाने लगे थे लेकिन मजाल जो उसके कान पर जूं भी रेंग जाती।

जतिन का कहना था कि नींद से बढ़कर सुख… कोई नहीं। ऐसा कहे भी क्यों न! आखिर रईस खानदान का इकलौता चिराग था। रुपए, पैसे, जेवर, खेती, जमीन जायजाद, किसी चीज की कोई कमी न थी।

जतिन के पिताजी खानदानी रईस थे। जिस लड़की से उनकी शादी हुई, उसका परिवार भी उनकी टक्कर का ही था। उपर से इकलौती बेटी। शादी तो धूमधाम से हुई ही। दान-दहेज भी खूब मिला। समय बीतने के साथ यह परिवार बहुत फला फूला। जतिन के जन्म के बाद तो जैसे लक्ष्मी जी इनके घर पर ही आकर विराज गईं।

अब ऐसे में भला जतिन को कौन-सा खेत जोतना था जो वह जल्दी उठता। लेकिन आज वही जतिन…। 

इतनी रईसी के बाद भी न जतिन के माता पिता में, और न ही जतिन में कभी घमंड आया। तीनों ही सबसे घुलमिलकर रहते। जहां यह परिवार रहता था वह गांव नहीं था पर शहर भी उसे नहीं कह सकते। आबादी गांव से ज्यादा पर शहर से कम थी। सुविधाओं की भी यही स्थिति थी। स्कूल, दवाखाना था तो लेकिन शहर जैसा नहीं। लेकिन फिर भी… काम चल रहा था।

जतिन की शुरुआती पढ़ाई तो गांव में ही हुई। जब बड़ा हुआ तो कॉलेज की पढ़ाई के लिए शहर चला गया। वहीं होटल मैनेजमेंट का कोर्स किया। पढ़ाई खत्म होने पर, आँखों में ढेरों सपने लिए मां पिताजी से मिलने घर पहुंचा लेकिन कहां जानता था कि वह आँखों में सिर्फ सपने ही नहीं बल्कि शरीर पर एक जान लेवा बीमारी भी लेकर घर पहुंचा है।

जतिन जिस दिन घर पहुंचा, उस दिन उसके पिताजी ने एक बड़ी पार्टी रखी। जिसका न्यौता वहां के सारे घरों को था। सब इस पार्टी में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने आए। आखिर जतिन सबका लाडला तो था ही, साथ ही उनके गांव नुमा शहर का पहला एमबीए भी था। इतना पढ़ा लिखा वहां और कोई न था।

देर रात तक लोग आते-जाते रहे। खूब रौनकें लगीं। खाने-पीने की कोई कमी न थी। आधी रात जब सब अपने-अपने घर गए तो जतिन भी अपने कमरे में सोने चला आया और सुबह देर तक सोया। मां उसे उठाने आई। बहुत समय बाद मां के मुंह से कुंभकर्ण सुनकर जतिन खूब हंसा।

जतिन ने सोकर उठते ही अपने पिता से कहा, “पिताजी, मैं एक ऐसा शानदार होटल खोलना चाहता हूं जो अपने आप में अनोखा हो। जिसके सामने पांच, सात सितारा होटलों की रौनक भी फिंकी पड़ जाए।”

बेटे की हर एक इच्छा बचपन से ही पिता पूरी करते आए थे। और अब तो बेटा कामकाजी बनना चाहता था। पिता ने खुशी-खुशी कहा, “हां, हां, बिलकुल। आखिर ये सारी दौलत, जमीन जायजाद तेरी ही तो है। यूं तो तू कुछ काम न भी करे तो भी तेरी आने वाली 2-3 पीढियां तो आराम से बैठ कर खा सकती हैं। लेकिन मुझे खुशी है बेटा, कि तूने खुद कुछ करने की सोची।”

पिता की बात सुन जतिन उत्साहित होते हुए बोला, “पिताजी, मैं अपने होटल में आने वाले कस्टमर्स को ऐसी-ऐसी सुविधाएं दूंगा जो उन्हें विदेशों में भी न मिलती हों। देखना हमारा होटल पूरी दुनिया में अपने तरह का अनोखा होगा।”

पीछे खड़ी मां जतिन की बात सुनकर निहाल हुई जाती थी। बोली, “ठीक है, ठीक है, पहले नहा धो तो ले। इतनी देर तक तो तू सोता रहता है, ऐसा न हो कि तेरे होटल में आने वाले मेहमान बिना पैसा दिए ही भाग जायें और तू सोता ही रह जाये।”

सब जोर से हँस दिए। जतिन ने मां के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “मां, तू है न मुझे उठाने के लिए और वैसे भी तेरे मुंह से कुंभकर्ण सुनना बड़ा भाता है, इसलिए तो देर तक सोता हूं।”

“ओह! ये बात है। और जो मैं नहीं रही तो… तब तो जल्दी उठ जाया करेगा न?”

मां की बात सुन जतिन ने मां को कसकर गले लगा लिया, “मां, दोबारा ऐसी बात न करना।”

मां ने भी खुशी से कहा, “नहीं कहूंगी बाबा, चल अब नहा ले।”

जतिन को घर आए तकरीबन दस दिन हो गए थे। कल देर रात तक दोस्तों को अपने होटल बनाने का सपना बताता जतिन जब सोया तो दोपहर तक सोता ही रहा। जब तेज गर्मी लगने लगी तो जतिन की नींद खुद ही खुल गई लेकिन आज उसे मां उठने न आई थी। जतिन को थोड़ा आश्चर्य हुआ तो वह खुद ही उठकर मां को आवाज लगाने लगा।

“मां! कहां हो? देखो, आज कुंभकर्ण खुद ही उठ गया।” कहता हुआ जतिन मां को ढूंढने लगा लेकिन मां न तो रसोई में दिखी न बरामदे में। आखिर जतिन ने मां के कमरे में झांककर देखा तो मां बिस्तर पर लेटी तेज बुखार में तप रही थी। दीवान पर लेटे पिता का भी यही हाल था।

मां पिताजी, को जतिन ने कभी बीमार पड़े नहीं देखा था। आज पहली बार दोनों की ऐसी हालत थी कि जैसे उनके हिलने डुलने की शक्ति ही छिन गई हो। 

जतिन को कुछ समझ न आया कि अचानक क्या हुआ। वह दौड़कर गया और गांव के अस्पताल से डॉक्टर को साथ ले आया। जब वह अस्पताल जा रहा था तब आस पडौस के कई घरों के लोग ऐसे ही बुखार से तप रहे थे। 

डॉक्टर ने जब जतिन के मां-पिताजी की हालत देखी तो उन्होंने उसे अलग ले जाकर पूछा, “तुम शहर से कब आए?”

“जी, कोई 10 दिन पहले। क्यों? बात क्या है?”

डॉक्टर की आवाज में चिंता घुल गई, “पूरी दुनिया में एक जान लेवा वायरस फैला है जिसका असर हमारे देश, खासकर शहरों में दिख रहा है। अब तक गांव इससे अछूते थे लेकिन अब लगता है … शायद वह वायरस तुम्हारे साथ यहां आ पहुंचा है।”

“क्या?” जतिन का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया।

“हां,” डॉक्टर ने उसकी ओर बेजार नजरों से देखते हुए कहा, “और इसका कोई इलाज भी नहीं है।”

जतिन को विश्वास ही नहीं हो रहता था, “लेकिन मैं … मैं तो बिलकुल ठीक हूं। मुझे कुछ नहीं हुआ है तो फिर इनको कैसे?”

डॉक्टर ने जतिन से एक सीमित दूरी बनाए रखते हुए कहा, “इस बीमारी का असर तो सब पर हुआ है लेकिन कुछ लोगों पर वह दिख नहीं रहा। वे लोग सिर्फ इसके वाहक बने हुए हैं। शायद तुम भी उन्हीं में से एक…”

अभी दोनों में बात चल ही रही थी कि लाले की बहु दौड़ते हुए आई और बोली, “डॉक्टर साहब, ज… जल्दी चलिए, चुन्नू के बापू… ठ… ठीक से सांस नहीं ले पा रहे। जल्दी… जल्दी चलिए।”

जतिन वहीं खड़ा-का-खड़ा रह गया। उसका दिमाग सुन्न पड़ चुका था, “ये क्या हो गया!”

हर जगह अफरा-तफरी मची हुई थी। समाचार पत्रों और टीवी पर इस भयानक बीमारी को कोविड-19 नाम दिया जा रहा था। यह ऐसी खतरनाक छूत की बीमारी थी कि कोई किसी की मदद को भी नहीं जा पा रहा था। मां-बाप, पति-पत्नी, भाई-बहन तक एक दूसरे की मदद नहीं कर पा रहे थे। अस्पतालों में मरीजों की भीड़ थी। जिनकी जीवन डोर टूट जाती, उन्हें लिवाने या उनका अंतिम संस्कार करने के लिए भी किसी को आने की हिम्मत नहीं हो रही थी। कई जगह तो भरे पूरे घरों की लाशें भी लावारिस की तरह पड़ी थीं जिनका दाह संस्कार सरकारी कर्मचारी कूपन देकर कर रहे थे।

धीरे-धीरे मरने वालों की संख्या बढ़ती ही जा रही थी और तब … जतिन के गांव में भी पहली मौत हुई।

लाले के बेटे की। 

पूरा गांव सहमा हुआ था। हर घर में कोई-न-कोई कोविड से पीड़ित था। सरकार की ओर से तरह-तरह के निर्देश आने लगे। सभी अपने-अपने घरों में कैद हो गए। 

जतिन के मां-पिताजी की तबियत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। जतिन चाह कर भी उनके पास, उनकी सेवा करने नहीं जा पा रहा था। घर में दर्दनाक खांसी और तेज चलती सांसों की आती आवाजें जतिन को अंदर तक हिला डालती थीं। और आखिर … 14 वें दिन उसकी मां तो 15 वें दिन पिताजी चल बसे।

जतिन को उन्हें छूने तक की इजाजत नहीं मिली। कुछ सरकारी कर्मचारी, उन दोनों के मृतक शरीरों को नीली पन्नी में लपेटकर ले गए। जतिन को उनका अंतिम संस्कार तक करने को न मिला। वह दाहघर में दूर खड़ा, बस अपने मां पिताजी की धूं धूं जलती चिता देखता रहा।

बाकी घरों की हालत भी इससे अलग न थी। हर घर से कोई-न-कोई इस बीमारी का शिकार हो रहा था।

इस सबके बाद जतिन ने अपने आप को एक कमरे में कैद कर लिया। गांव की सारी मौतों का जिम्मेदार वह खुद को समझने लगा। न वह शहर से घर आता, न उस रात वह पार्टी होती और न पूरा गांव इस बीमारी की चपेट में आता।

जतिन सोच-सोच कर घुलता रहा। कुंभकर्ण जैसी नींद लेने वाले की आंखों से नींद अब कोसों दूर थी। वह जब भी आंख बंद करता, नीली पन्नी में लिपटे मां, पिताजी, गांव वाले, धूं धूं जलती चिताएं दिखने लगती। दिल चीरती चीखें, घर-घर से आते रोने के करुण स्वर सुनाई आने लगते और वह चिल्लाकर उठ बैठता। पसीने से तरबतर।

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आखिर देखते-देखते उन दर्दनाक हादसों को लगभग 1 साल बीत गया। जतिन अनिद्रा का शिकार हो चुका था। आँखों के नीचे गड्ढे पड़ चुके थे। सूख कर कांटा हुआ जाता था। क्योंकि उन सारी दुखद घटनाओं से वह उबर ही नहीं पा रहा था। आखिर हार कर उसने अपनी जीवन लीला समाप्त करने का निश्चय कर लिया लेकिन कहते हैं न कि हम कुछ भी क्यों न तय कर लें, होता वही है जो ऊपर वाले ने तय किया होता है।

एक दिन अचानक सुबह-सुबह लाले की बहु ने जतिन को आवाज दी, “जतिन बेटा! जतिन!”

जतिन जैसे-तैसे बाहर आया। उसकी हालत देख एक पल को चाची कांप गई। बोली, “कैसा है बेटा?”

जतिन ने चाची को ऐसी नजरों से देखा जैसे उसने कुछ सुना ही न हो, “चाची, क्या तू मुझे माफ कर सकती है? न मैं शहर से गांव आता, न चाचा… ह… हमें छोड़ कर…” इतना कहते हुए जतिन रोते-रोते वहीं ड्योडी पर बैठ गया।

चाची ने उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा, “इसीलिए तो आज यहां आई हूं बेटा।”

जतिन को कुछ समझ नहीं आ रहा था। ग्लानि और अनिद्रा के कारण उसकी सोचने समझने की शक्ति क्षीण हो गई थी।

चाची भी उसके पास वहीं बैठ गई। बोली, “सब विधि का विधान है बेटा, तू तो सिर्फ जरिया बना।” 

फिर जतिन को झकझोरती हुई बोली, “यदि तू अपनी इस ग्लानि से बाहर निकलना चाहता है तो उठ, और इस बीमारी से बचकर निकले लोगों के लिए कुछ करने का सोच। इस तरह मरने से तो यह लाख दर्जे बेहतर ही होगा।”

इतना कह चाची अपने आँखों में आए आंसू छिपाते हुए उठ खड़ी हुई।

जतिन वहीं बैठा रहा। धीरे-धीरे उसके अंदर कुछ टूटने लगा और कुछ नया आकार लेने लगा।

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आज गांव के पास, प्रकृति की गोद में जतिन का बनाया एक शानदार होटल खड़ा है जो वहां आने वाले हर व्यक्ति को एक शांतिपूर्ण, सुखमय नींद लेने का अवसर दे रहा है।

इस होटल का नाम है ‘नींद का हिंडोला’, जो अपने आप में अनूठा है, जहां कोरोना की विभीषिका झेल चुके लोग, जो अनिद्रा का शिकार हुए हैं… साथ ही वे सब जिनकी आँखों के सामने उनके अपने तड़प-तड़प कर मरे हैं, जिनकी आँखों से नींद कोसों दूर हो गई है… उन सबके लिए मात्र एक रुपए के खर्चे पर भरपूर, शांत, सुखमय नींद मुहैया करवाई जा रही है। 

चाची को पूरी उम्मीद है कि रात की भरपूर नींद लेकर, ऊर्जा से भरे चेहरे देखने से शायद जतिन की अनिद्रा भी चली जाए.

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