~ सोनी तिवारी, वाराणसी
”शुभा, सो गई क्या? लो खाना खालो.”
”खाना..?” पुलकित सी वह फटाफट रजाई फेंक, उठ खड़ी हुई, ”हां, बहुत भूख भी लग रही है.” बेचैनी से प्लेट पकड़ती हुई वह बोली, लेकिन यह क्या, ”फिर मूंग की खिचड़ी… मुझे तो आज खाना खाना है.” वह बच्चों की तरह तुनकते हुए बोली, ”लक्ष्मी को बुलाओ जरा.”
”लक्ष्मीईईई…” उसने ज़ोर से आवाज़ दी. लक्ष्मी दौड़ती हुई आ गई, ”जी भाभीजी.”
”तूने फिर मेरे लिए मूंग की खिचड़ी बनाई?”
”भैया ने कहा.” उसके ग़ुस्से को नज़रअंदाज़ करती लक्ष्मी, विनय की तरफ़ देख कुटिलता से मुस्कुराई.
”क्यों? आज तो छह दिन हो गए… मेरी तबीयत तो अब बिल्कुल ठीक है.”
”अभी तक तुम्हें कमज़ोरी की वजह से चक्कर आ रहे है… कुछ दिन खिचड़ी खानी पड़ेगी. ” उसके तुनकने का विनय पर लेशमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा. वे गंभीर मुखमुद्रा में थे.
”मुझे नहीं खानी है खिचड़ी… मुझे खाना खाना है.”
”खिचड़ी भी खाना ही होती है.”
”ऊब गई मैं खिचड़ी खाते-खाते… खिचड़ी ही खिलानी थी, तो कम से कम पुलाव जैसा बना देती है लक्ष्मी.” वह लक्ष्मी की तरफ़ देखकर बोली. सुनकर लक्ष्मी पल्लू में मुस्कान दबाए वापस पलट गई.
”और चाहिए होगा, तो आवाज़ दे देना.” कहते हुए विनय भी कमरे से बाहर निकल गए.
”और चाहिए… माई फुट… इसी को देखकर उल्टी आ रही है…” वह ग़ुस्से में बड़बड़ाई.
तभी फोन की घंटी बज उठी. फोन समीर का था. एक बार तो दिल किया फोन पर ही समीर का गला दबा दे. उस दिन बहला-फुसलाकर बुलाया था, एक चाइनीज़ रेस्तरां में, ‘आजा बढ़िया ट्रीट दूंगा… मेरा प्रमोशन हुआ है‘ समीर उसके बचपन का स्कूल, काॅलेज का दोस्त था.
वह भी चली गई. इतना तीखा-चटपटा, खाते समय तो बहुत मज़ा आया, पर दूसरे दिन पेट ख़राब हो गया. विनय तब ऑफिस में थे. पहले तो सोचा कि विनय को बताए ही ना, इसलिए उसने जो दवाइयां घर पर उपलब्ध थी, खा ली.
विनय को बताने का मतलब, मूंग की खिचड़ी… वो भी न जाने कितने दिनों तक. उन्हें सेफ साइड में रहने की आदत जो है. फिर उसके कहीं आने-जाने पर, कमज़ोरी का हवाला देकर, पूर्ण प्रतिबंध… इसीलिए वह अपनी छोटी-मोटी बीमारियां विनय से अक्सर छिपा देती है.
”हैलो…” फोन उठाते हुए वह बोली.
”कैसी हो..?” समीर का स्वर कुछ उदास व दर्दीला था.
”कैसी हो मतलब… 6 दिन में तुमने एक भी फोन नहीं किया. पता भी है, उस दिन से तबीयत कितनी ख़राब है… तब से मूंग की खिचड़ी खा रही हूं.” वह सारा ग़ुस्सा समीर पर निकालते हुए बोली.
”ओह! तो क्या तुम भी..?” उसकी आवाज़ में कुछ राहत उभर आई.
”मैं भी मतलब..?”
”क्योंकि मैं भी उस दिन से खिचड़ी खा रहा हूं… सौम्या कुछ और खाने को ही नहीं दे रही…”
शुभा ठहाका मारकर हंस पड़ी, ”बड़ा ज़बर्दस्त अटैक था उस चाइनीज़ फूड का.”
”तुम हंस रही हो… पता भी है, भूख के मारे पेट में चूहे कूद रहे हैं…”
”मेरे भी…” शुभा खिचड़ी को घूरते हुए बोली.
”यार किन के पल्ले पड़ गए हैं… मां-बाप ने कहां फंसा दिया… तुझ से कहा था उस समय… भाग चल मेरे साथ…”
”ऐसे कैसे भाग जाती… नौकरी तो थी नहीं तुम्हारी… हम दोनों के माता-पिता जात-पांत में उलझे थे, जिनको ग़लती से पसंद आ गई थी, वे जल्दी शादी के लिए पीछे पड़े थे… मेरे माता-पिता तुम्हारी डर से आनन-फानन में मेरी शादी निबटा देना चाहते थे… बताओ कैसे भागती… दोनो सड़क पर भीख मांगते क्या?”
बचपन के दोस्त शुभा व समीर एक ही काॅलोनी में रहते थे. दिल-दिमाग़, विचार, स्वभाव सब में समान थे. दोनों की बहुत पटती थी. एक-दूसरे के घर में आना-जाना था. दोनों के घरवाले उन्हें पसंद करते थे. लेकिन जब शुभा ने मां से कहा कि वह समीर से शादी करना चाहती है, तो घर में जैसे प्रलय आ गई.
समीर तो अपने घर में कुछ बोल भी न पाया था कि यह ख़बर उसके घर के पिछले दरवाज़े से प्रवेश कर गई और दोनों के पिता हिटलर बन गए. लेकिन यह सब इतनी शांति से चुपचाप हुआ कि दोनों कुछ न बोल पाए और शुभा की शादी विनय से हो गई.
दोनों परिवारों ने उन्हें ऐसे जताया जैसे कुछ हुआ ही न हो. 3 साल बाद समीर का विवाह भी हो गया और सभी परिवारों ने उनकी बचपन की दोस्ती को इज्ज़त के साथ स्वीकार कर लिया गया.
”मेरे कहने से उस समय भाग जाती, तो भीख मांगकर ही गुज़ारा कर लेते थोड़े दिन, पर यह आए दिन की खिचड़ी तो न खानी पड़ती.” समीर भी शायद अपने घर में उस समय खिचड़ी को ही घूर रहा था.
”पता है, मुझे तो कभी-कभी लगता है कि विनय मुझ पर अपनी खुंदक निकालने का मौक़ा ढूंढ़ते रहते हैं… ज़रा-सा बीमार हुई नहीं कि खिचड़ी…” शुभा ने अपनी भड़ास निकाली.
”हां, सही कह रही है… सौम्या का भी मुझे यही लगता है.” समीर ने शुभा की हां में हां मिलाई.” हम दोनों कितने अच्छे हैं ना… जरा भी डोमिनेट नहीं करते एक दूसरे को.”
”मैं तुम्हें कभी खिचड़ी खाने के लिये ज़बर्दस्ती न करती…” शुभा ने लंबी आह भरी.
”मैं भी…” समीर ने उसकी बात का अनुमोदन किया, ”अच्छा, गुड नाइट… कोशिश करता हूं इस नामुराद खिचड़ी को खाने की…”
बात चाहे खिचड़ी की हो रही थी, पर शुभा व समीर का दिल हर वक़्त एक-दूसरे में ही अटका रहता था. शादी तो माता-पिता ने कर दी थी. अच्छे पति-पत्नी की तरह निभा भी रहे थे, पर हर समय उनके दिलो-दिमाग़ में एक-दूसरे को न पाने की कसक बनी रहती. हालांकि दोनों का बचपन का दोस्तानाभरा प्यार बिल्कुल सात्विक था. दिल में कोई विकार न था, पर एक-दूसरे पर भरोसा ऐसा कि कोई भी बात अपने लाइफ पार्टनर को बताने से पहले एक-दूसरे को बताते थे.
शुभा जितना विश्वास समीर पर करती, उतना किसी पर नहीं. यही हाल समीर का था. दिल तो दोनों का करता कि उनकी बातें कभी ख़त्म ही न हो, पर मजबूरी थी. ख़ूबसूरत, गुण संपन्न शुभा हर समय समीर के दिमाग में छाई रहती. वही उसकी पहली पसंद थी. वह हर वक़्त सौम्या में शुभा की झलक ढूंढ़ता रहता.
शुभा की शादी को 20 साल से अधिक हो गए थे. उसके दोनों बच्चे स्कूल की पढ़ाई पूरी करके बाहर पढ़ने चले गए थे. पर समय ने, शादी ने, उम्र ने उन दोनों के रिश्ते में रंचमात्र भी दरार नहीं डाली. लगता था जैसे विधि ने उन्हें एक-दूसरे का पूरक तो बनाया, पर जोड़ी बनाना भूल गया. प्रेम, स्नेह, ममता, विश्वास की जो मिलीजुली भावनाएं उनके दिलों में एक-दूसरे के लिए उभरती वह अपने लाइफ पार्टनर के लिए कभी न उभरती.
ग़मगीन-सी शुभा खिचड़ी खाने की कोशिश करने लगी. तभी विनय मोबाइल उठाए आ गए, ”लो बात करो… कार्तिक का फोन है…”
”हैलो..” खिचड़ी खाते हुए वह बेटे से बात करने के लिये ज़रा भी उत्सुक नहीं थी.
”हैलो माॅम… कैसी हैं आप… पापा कह रहे थे कि अभी भी बहुत कमजो़री है… अपना ध्यान रखिए… अभी कुछ दिन खिचड़ी ही खाइए.” कार्तिक कुछ दबे स्वर में बोला. शुभा को लगा, कार्तिक हंसी दबाकर बोल रहा है.
”तेरा गला मुझे ख़राब लग रहा है… कोल्ड ड्रिंक पीना बंद क्यों नहीं करता कुछ दिन.” शुभा ने नहले पर दहला मारा.
”मेरा गला बिल्कुल ठीक है माॅम…” वह खंखारता हुआ बोला, “पर आप अपना पूरा ध्यान रखिए और अभी कुछ दिन खिचड़ी ही खाइए.”
”उफ़!” शुभा फोन पटकते-पटकते रह गई, क्योंकि कार्तिक तब तक फोन बंद कर चुका था. कल के बच्चे भी फ्री की सलाह दे देते हैं. वह 2-4 चम्मच खिचड़ी निगलकर, प्लेट किचन में रखने के लिए उठी, तभी विनय आ गए.
”कहां जा रही हो..?”
”जहन्नुम.” वह मन ही मन भुनभुनाई. “किचन में प्लेट रखने जा रही हूं.”
”अरे, पर तुमने तो कुछ खाया ही नहीं.” उसे लगा विनय मुस्कुरा रहे हैं, पर वास्तव में ऐसा नहीं था.
”हां, छप्पन पकवान धरे थे न प्लेट में… देखकर ही मन भर गया.” वह बड़बड़ाई.
”तुम सो जाओ. प्लेट मैं रख देता हूं.” प्लेट लेकर विनय बाहर चले गए.
“ये विनय भी न… पति कम पिता ज़्यादा हैं, केयर करने पर उतरते हैं, तो ऐसा उतरते हैं कि न चाहते हुए भी उसे बचपन के दिन याद आ जाते हैं. जब मां पेट ख़राब होने पर खिचड़ी खिलाती थी और ज़ुकाम होने पर काढ़ा पिलाती थी.
”ई.ई…ई…यूयू यू…” काढ़े का स्वाद याद आते ही उसे उल्टी आने को हुई. शादी के पहले तक उसने दवाइयां नहीं के बराबर खाई थीं. मां घर के नुस्खे़ ही आज़माती थी, पर विनय तो उसे हर छोटी-मोटी तकलीफ़ में भी डाॅक्टर के पास ले जाते और दवाइयां खिला देते थे. यहां तक कि उसके बच्चे भी दवाइयां खा-खाकर ही बड़े हुए.
आजकल के बच्चों के पास, तो बीमार होने का भी टाइम नहीं है. ‘बस दवाई खाओ और काम पर जाओ…‘ बुदबुदाते हुए वह लेट गई.
सुबह उठी, तो उसे अपनी तबीयत और भी सही लग रही थी. उसका दिल किया कुछ अच्छा-सा नाश्ता करे. बढ़िया-सा तैयार होकर अपनी किसी सहेली के घर जाए, लेकिन उसे ख़ुद की तबीयत ठीक लगने से क्या फ़ायदा. सोचते-सोचते वह क्षुब्द हो गई. उसकी तबीयत ठीक है या नहीं… यह भी उसे विनय ही बताएंगे. उसका मूड फिर ख़राब होने लगा.
वैसे चाहे उसे पूछे न.. पर उसके बीमार होने पर विनय उसके आगे-पीछे ऐसे घूमने लगते हैं, जैसे पक्का प्रबंध कर रहे हों कि दोबारा बीमार न पड़े. सर्दियों में घर से बाहर जाते समय उसके पहने हुए कपड़े गिनते हैं. कम लगे, तो ऊपर से जैकेट पहनने का हुक्म सुना देते.
सोचते-सोचते अचानक उसे ताव आ गया… भन्नाती हुई बुदबुदाई, ‘अरे यार पति, पति जैसा होना चाहिए… बिल्कुल दोस्त जैसा… कभी नोक-झोंक हो, तो कभी खट्टा-मीठा झगड़ा… फिर रूठना-मनाना… कभी बेपरवाह हंसना… कभी चाट गली में चाट खाना, फिल्म देखना, बाहर खाना. कभी आपस में लड़ाई हो, तो पड़ोसी देश बन जाएं… कभी मिट्ठी हो, तो खिचड़ी पक जाए.‘
“ओह खिचड़ी…” शुभा को फिर खिचड़ी याद आ गई. लंबी सिसकारीभर कर सोचने लगी, ‘काश! विनय आज टूर पर चले जाएं और वह अपनी सहेलियों के साथ डे आउट करे या फिर समीर के साथ फिल्म देखे, बाहर लंच करे‘ कितना मज़ा आएगा.
‘समीर की बीवी सौम्या भी पक्की बोर चीज़ है. गंभीरता से गृहस्थी चलानेवाली… ज़रा भी मस्ती नहीं उसमें. समीर भी जब-तब यही शिकायत करता है. वह बिल्कुल विनय जैसी है. विनय को भी कोई शौक नहीं… बस ऑफिस जाना और घर आना.‘
विनय तो जैसे ताक में ही रहते हैं कि कब शुभा बीमार पड़े और कब उसे खिचड़ी खिलाए. बच्चों के साथ भी यही करते थे. शुभा इस बात पर रोज़ अफ़सोस करती कि क्यों न भाग गई, उस समय समीर के साथ. समीर में तो कोई कमी ही नहीं है, बिल्कुल वैसा है जैसा वह चाहती है.
लंबा-ऊंचा समीर जैसा दिखता है, वैसा ही मस्तमौला भी है. गंभीरता भी है और मस्ती भी… नोक-झोंक पर उतरता है, तो हंसा-हंसाकर पेट दुखा देता है. जब किसी बात पर समझाता है, तो गुरू बन जाता है. उसके उदास होने पर उसके और उसकी उदासी के बीच ढाल बन जाता है. ये नहीं कि ज़रा-सी बीमारी में पटाक से खिचड़ी खिला दे.
ख़ैर कुछ दिनों में वह बिल्कुल ठीक हो गई और ज़िंदगी फिर अपनी रफ़्तार से दौड़ने लगी. इसी बीच विनय को 15 दिनों की ट्रेनिंग के लिए मुंबई जाना पड़ा. ‘अब आयेगा मज़ा‘ शुभा ने सोचा. विनय के साथ तो ज़िंदगी सूखी रोटी-सब्जी जैसी थी, इसलिए विनय के जाते ही उसने अपनी सभी सखी-सहेलियों व समीर को भी सब कुछ बता दिया.
10-12 दिन तो उसके ख़ूब मस्ती में बीते, ‘पता नहीं ये मस्ती विनय के साथ क्यों नहीं हो पाती…‘ इन दिनों हल्की सर्दी होते हुए भी स्वेटर नहीं पहना… अक्सर बाहर ही खाया. समीर के साथ भी ख़ूब गप्पें लड़ाई. वह अपनी मस्ती में विनय की अनुपस्थिति ख़ूब एंजॉय कर रही थी.
लेकिन एक दिन उसे अपनी तबीयत कुछ गिरी हुई सी लगने लगी. गले में दर्द शुरू हुआ और बुखार ने आ घेरा. अपने प्रति वह हमेशा से लापरवाह थी. आदत पड़ गई थी इतने सालों में कि विनय अपने आप देखेंगे. एक ही रात में बुखार सीधे 103 चला गया. समीर को फोन किया. वह आया और उसे डाॅक्टर को दिखा लाया. लोकल होने की वजह से मां उसके पास रहने आ गई.
लेकिन बुखार की तीव्रता में बिस्तर पर लेटे-लेटे एकाएक विनय बहुत याद आने लगे. मां उसे ज़बर्दस्ती कुछ खाने के लिए कहती, तो वह चिढ़ जाती. मां हारकर चुप हो जाती, लेकिन विनय चुप न होते थे. अपने हाथ से चाहे दो चम्मच ही सही पर खिलाकर ही मानते थे.
उसे तो इतनी ज़्यादा केयर व पैंपर होने की आदत पड़ गई थी कि विनय की कमी कोई पूरी नहीं कर सकता था. समीर जब-तब कह देता, ‘क्या यार 2 दिन में ही पस्त हो गई… इतने बुखार में तो मैं ऑफिस जाता हूं‘
सुनकर उसे विनय की याद और शिद्दत से आती. यों तो सभी उसका ख़्याल रखने की कोशिश कर रहे थे, पर उसे तो लग रहा था कि विनय नहीं है, इसीलिए वह ठीक नहीं हो रही है. वह बेसब्री से विनय के आने के दिन गिनने लगी थी. सोच रही थी कि विनय आए और बीमार होने पर डांट-डपट करे… ज़बर्दस्ती खिचड़ी खिलाए.. उस पर सौ पाबंदियां लगाए… 4 स्वेटर पहनाए… चाहे तो कोट पहनकर सोने के लिए कहे. अब वह बिल्कुल नहीं चिढ़ेगी… सारा कहना मानेगी.
सोच-सोचकर उसकी आंखें विनय के प्रति दिल में उमड़ आए भावों से भरती जा रही थी. यह सच है कि समीर उसकी दिली पसंद है, पर विनय उसकी आदत है. पसंद तो समय के साथ बदल जाती है, लेकिन इतने सालों की आदत नहीं छूट सकती. हालांकि समीर के आभामंडल की तपिस से वह जब-तब पिघल जाती है, पर विनय की शीतलता के सुरक्षा घेरे की आदत हो गई है उसे.
सोचते-सोचते उसे नींद आ गई. बुखार की बेहोशी में वह न जाने कितनी देर तक सोती रही. तभी उसे अपने माथे पर किसी के हाथों का स्पर्श महसूस हुआ. उसने जल्दी से आंखें खोली, “अरे तुम… कब आए? तुमको तो परसों आना था…” पुलकित हो वह सुखद आश्चर्य से बोली.
”मां से तुम्हारे बीमार होने का पता चला… इसलिए किसी तरह जल्दी आ गया. मां कह रही थी कि तुम बिना कुछ खाए ही सो गई… लो थोड़ी-सी खिचड़ी खालो… कपड़े नहीं पहने होंगे ठीक से… इसीलिए सर्दी-बुखार हो गया… तुम्हें किसी बात का ध्यान तो रहता नहीं है.” विनय बड़बड़ा रहे थे और वह मुग्ध भाव से उन्हें निहार रही थी. लग रहा था अब वह जल्दी ठीक हो जाएगी. वह कुछ बोलने को हुई, तो विनय अपनी ही रौ में बोले, ”कुछ और नहीं मिलेगा… चुपचाप ये खिचड़ी खाओ… कम से कम 15 दिन तो तुम्हें अब खिचड़ी खानी पड़ेगी. वह मन ही मन हंस पड़ी.. ‘खिचड़ी की बारगेनिंग‘ तो बाद में कर लेगी. अभी तो वह विनय के ग़ुस्से के पीछे के प्यार में डूब गई थी.
”जितने दिन कहोगे… उतने दिन खिचड़ी खाऊंगी… जब तक कहोगे… घर से बाहर कदम भी नहीं रखूंगी…” कहते हुए उसने मुंह खोल दिया. विनय ने हंसकर उसके मुंह में खिचड़ी डाल दी. अनायास ही उसकी पलकें भीग गईं.
”क्या हुआ…” द्रवित हो विनय उसके पास बैठ गया.
”कुछ नहीं…जब तुम खिलाते हो न, तो खिचड़ी बहुत स्वादिष्ट लगती है.” वह प्लेट एक तरफ़ रख, विनय से लिपट गई. पहली बार एक निश्छल प्रेम की खिचड़ी उनके बीच पकने लगी थी.