~ पुष्पा गुप्ता
सुबह अच्छी-ख़ासी नींद लेनेवाली सुमन ने जल्दी उठने और जल्दी सोने का संकल्प ले ही डाला. रविवार के दिन चाहती, तो देर तक सो सकती थी, लेकिन रोज़मर्रा की तरह अपने आप आंख खुल गई. आवाज़ न हो, इसलिए धीरे से स्लीपर पहने और शॉल ओढ़कर बाहर निकल गई.
वैसे घर में उसके अलावा था ही कौन, सिवाय उसके पति गौरव के और वह अंदर के कमरे में बेसुध सो रहा था. वह थोड़ा दूर जाकर पार्क में पत्थर के बने स्लैब पर शॉल को रखकर उस पर बैठ गई.
थोड़ी दूर पर दूसरे पत्थर की बेंच देखकर उसे याद आया कि ऐसी ही बेंच कॉलेज की लाइब्रेरी के पीछे के लॉन में भी थी. गौरव से उसकी पहली बार बात वहीं हुई थी. वह एकांत में कुछ नोट्स देख रही थी, तभी नीलिमा और गौरव वहां उससे मिलने आए थे. रंगमंच में रुचि रखने वाले गौरव को कॉलेज के वार्षिक कार्यक्रम में अपने नए प्ले का मंचन करना था. सुमन से कोई अंतरंग परिचय नहीं था, इसीलिए उसे नीलिमा को पकड़ना पड़ा था.
वह तो हाथ बांधे खड़ा रहा, नीलिमा ने ही बात शुरू की, “सुमन, प्ले लिख दोगी? ये गौरव है, इसके लिए. एनुअल फंक्शन के लिए.”
“गुड इवनिंग मैम.” गौरव ने हाथ जोड़ दिए याचना के साथ. उसकी तरफ़ बिना देखे सुमन ने नीलिमा से कहा, “तुम जानती हो, मैं जो भी लिखती हूं, वह स़िर्फ सेल्फ सैटिस्फैक्शन के लिए. उसका प्रकाशन या पैसा कमाने से कोई संबंध नहीं है. कॉलेज की मैगज़ीन की बात अलग है.”
“वो तो है, लेकिन गौरव जूनियर है. क्या हम सीनियर्स की ज़िम्मेदारी नहीं कि जूनियर्स की मदद करें.”
वह थोड़ी देर तक चुप रही. सोचा, क्या नई मुसीबत गले पड़ रही है. फिर उसने मन को लचीला किया, “अब तुम कहती हो तो… ठीक है.” गौरव से पूछा, “किस विषय पर प्ले करना है?”
“नई भौतिकवादी स्थितियों में टूटते परिवारों को संजोने की थीम चुनी है.”
“तुमने क्या अनुभव किया?”
“मैंने…! मैम, मेरा तो अभी विवाह भी नहीं हुआ… अनुभव कैसे…”
थोड़ी-सी हंसी आई सुमन के चेहरे पर, लेकिन क्षण भर को. फिर बोली, “ठीक है तीन दिन बाद नीलिमा को दे दूंगी, इससे ले लेना.”
एनुअल फंक्शन में प्ले ने सर्वाधिक अंक बटोरे, तो गौरव और सुमन के बीच संबंधों का सूत्रपात-सा हो गया. बाद के दिनों में प्ले की मांग दूसरे संस्थानों में भी बढ़ती गई. प्ले का तानाबाना ही कुछ ऐसा था कि हर वर्ग को पसंद आ रहा था. आख़िर कौन चाहता है परिवार का टूटना और कौन नहीं चाहता है टूटते परिवार को बचाए रखना?
बाद में सुमन ने गौरव के लिए कुछ और प्ले लिखे. कुछ में तो मंचन में भी वह उसके साथ रही.
धीरे-धीरे आत्मीयता बढ़ी, तो प्रेम का बीज चुपके से मन में घुसकर दिल में पल्लवित हो उठा.
बात पहले कुछ अंतरंग मित्रों और उसके बाद दोनों के घरों तक पहुंची. सब कुछ मिलता-जुलता देख दोनों परिवार सहमत हो गए. कुछ दिनों में गौरव को एक रंगमंच से जुड़ी संस्था में निर्देशक का काम मिल गया. सुमन ने एमएससी के बाद एक कोचिंग इंस्टीट्यूट में पार्ट टाइम जॉब कर लिया. शीघ्र ही चढ़ते सर्दी के मौसम में दोनों का विवाह हो गया.
जल्द ही उन्होंने शहर के पॉश इलाके में बनी नई कॉलोनी में लोन लेकर फ्लैट भी ले लिया.
सब कुछ सामान्य चल रहा था सिवाय गौरव के अधिक धन कमाने के जुनून को छोड़कर. इस महत्वाकांक्षा से वशीभूत होकर एक दिन उसने सुमन को सलाह दे ही डाली, “सुमन, मैं समझता हूं हमें आगे बढ़ने के लिए धन की ज़रूरत होगी. तुम अपना कोचिंग इंस्टीट्यूट चलाओ, इस छोटी-सी पराई नौकरी में मिलता ही क्या है.”
“मुझे ऐसे ही रहने दो, लेखन कर रही हूं. घर के कामकाज भी हैं. अपना इंस्टीट्यूट चलाना आसान नहीं है, बहुत व्यस्त हो जाऊंगी.” फिर आंख मारती हुई बोली, “दो-तीन बच्चे हो जाएंगे, तो उन्हें भी तो मुझे ही संभालना होगा.”
लेकिन गौरव अपनी बात से टस से मस नहीं हुआ, “दूसरी औरतों को छोड़ो, तुम्हें तो अपने स्तर को ऊपर उठाने के बारे में सोचना चाहिए.” कुछ देर ना-नुकुर के बाद सुमन राज़ी हो गई. उस दिन दोनों ने बाहर खाना खाया और रेस्टोरेंट के बाहर लॉन में बैठकर योजना बनाई. कुछ महीने की दौड़-धूप करके पास की दूसरी कॉलोनी में किराए पर भवन लेकर इंस्टीट्यूट खोल दिया. जल्द ही सुमन उसमें मगन हो गई.
इसी व्यस्तता में बच्चे की पैदाइश भी टल गई. तब गौरव ने कहा था, “हमें नया जीवन शुरू करना है, पहले ढंग से सेटल हो जाएं, तुम क्या कहती हो?”
“हां, ठीक है, जिसमें तुम राज़ी, उसमें मैं भी.” कितनी सहजता से उत्तर दिया था उसने.
जब प्रेम हो, तो विरोध की जगह ही कहां बचती है? दोनों एक ही हो जाएं, तो विरोध करेगा भी कौन?
“सुमन, मुझे अपनी नहीं, तुम्हारी इच्छाओं का ख़्याल रखना है. तुम जैसा चाहो, मैं वही करूंगा.”
“अरे नहीं, मैं भी यही चाहती हूं. जब पैसा ही नहीं होगा, तो आनेवाले बच्चे को भी क्या दे पाएंगे.” सुमन ने गौरव के माथे पर चुंबन जड़ दिया, तो प्रत्युत्तर में गौरव ने उसे बाहुपाश में जकड़ लिया. फिर कुछ समय के लिए दोनों डूब गए प्रेम के अथाह सागर में.
इंस्टीट्यूट के चल निकलने पर दोनों की दिनचर्या काफ़ी व्यस्त हो गई. फ्लैट पर आते तो भी वेतन और इंस्टीट्यूट की आमदनी पर चर्चा होती. आगे बढ़ने के लिए गौरव ने कई कंपनियां बदल डालीं और सुमन के इंस्टीट्यूट में भी छात्र-छात्राएं बढ़ गए. आमदनी बढ़ी, तो फ्लैट बेचकर विला ख़रीद लिया.
तीन साल ऐसे ही भागदौड़ में बीत गए. लेकिन बीते वर्षों में अगर उन्हें बहुत कुछ मिला था, तो काफ़ी-कुछ खोया भी तो था. धन कमाने के गणित ने विला में सुख-सुविधाएं तो भर दीं, लेकिन बच्चे की किलकारी से घर सूना था.
व्यस्तता और बढ़ती आत्मनिर्भरता ने दोनों के बीच रिश्तों को ठंडा करना शुरू कर ही दिया. बातचीत के लिए समय के अभाव के साथ ही एक-दूसरे पर निर्भर रहने से जुड़ी ज़रूरतों में भी कमी आती जा रही थी. आए दिन छोटी-छोटी बात पर दोनों के बीच पहले बहस, फिर आरोप-प्रत्यारोप और बाद में बोलचाल बंद होने लगी…
इतवार के दिन गौरव ने मूवी देखनी चाही, मन हुआ कि सुमन से पूछ ले, लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी.
अकेले ही मूवी देखने चला गया. बात खुली, तो दूसरे दिन सुमन ने कोहराम मचा दिया, “तुम समझते हो, मैं अकेले कुछ नहीं कर सकती? मैं तुम्हारी मोहताज नहीं हूं.”
“मैं ही कौन-सा तुम्हारे सहारे जी रहा हूं. ज़्यादातर काम तो ख़ुद ही करता हूं. तुमसे कोई उम्मीद भी नहीं रखता.” गौरव भी झल्ला उठा.
“उम्मीद रखना भी मत, मैंने तो पहले ही अपने दम पर जीने का मन बना लिया है. ख़ुद कमाती हूं और घर-बाहर के सारे अपने काम ख़ुद ही करती हूं, समझे… धौंस किसी और को देना.”
“घर का ख़र्चा कौन चलाता है?”
“आ गए अपने पे? मैं तो जानती ही थी कि तुम्हारे मन में क्या पक रहा है.” ग़ुस्से से बोली सुमन.
सुमन के कर्कश शब्दों ने उसे अंदर तक चीर दिया, “हर बात का ग़लत अर्थ निकालती हो. कुछ तो समझदारी हो…!”
“मैं ग़लत हूं, तो क्यों साथ रख रहे हो इस बोझ को, अलग करो.”
“अगर तुम्हारी यही मर्ज़ी है, तो अपने-अपने ख़र्चे अलग कर लो, मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता.” गौरव को भी क्रोध आ ही गया, “शायद इसी से घर में शांति आ जाए.”
दो दिन बोलचाल बंद रही. इसी बीच गौरव के ऑफिस का दोस्त निखिल आ गया. बात छुपनी तो थी नहीं. कुछ देर औपचारिकता के बाद तू-तू, मैं-मैं शुरू होनी ही थी, हो गई. बात बढ़ी तो निखिल ने समझौता कराने की कोशिश की, लेकिन बातचीत ने बहस का रूप ले लिया. बहुत समझाने पर समझौता तो हुआ, लेकिन ख़र्चे और काम के बंटवारे के बाद ही तय हुआ कि घरेलू सामान की पूरी ख़रीददारी गौरव करेगा, जबकि दूध, गैस, नौकरानी और घर का मेंटेनेंस सुमन के हिस्से में आया.
बंटवारा यहीं तक रहता तो ठीक था, लेकिन संबंधों का यंत्रीकरण इतना बढ़ गया कि धीरे-धीरे प्रेम और केयरिंग में भी शिथिलता आती गई. महीने के पहले सप्ताह में गौरव महीनेभर का सामान लाकर रख देता. बाकी चीज़ें. शर्त के मुताबिक़ सुमन जुटाती. अब जब घर में गणित घुस गया, तो हर बात उसी की नज़र से देखी जाने लगी. ऐसे में जीवन के कई अवसर कहीं खोते चले गए.
मूवी देखना, कहीं घूमने जाना, बाहर खाना खाना और यहां तक कि विवाह समारोहों में शामिल होने पर भी ख़र्चे को लेेकर बहस होने लगी. बाद के दिनों में तेज़ बहस के तनाव से बचने के लिए दोनों चुप्पी साधने लगे. मन और उचाट हुआ, तो पहले एक बेड पर अलग-अलग हुए, फिर अलग-अलग बेड और बाद में कमरे भी अलग हो गए.
…सुमन बीते दिनों के ताने-बाने में डूबी थी, तभी कॉलोनी का एक परिवार सामने की बेंच पर बैठ गया.
पति-पत्नी बैठे, तो बेटा-बेटी उनसे छिटक कर झूले पर चढ़ गए. बच्चों को देखते ही सुमन को गौरव से दूरी कचोटने लगी. यह क्या हो गया घर को! क्या उसे घर कहा जा सकता है? शायद नहीं, क्योंकि अब घर में ख़ूबसूरत दीवारें हैं, कालीन, पर्दे, सुविधाएं हैं, लेकिन सब बेजान-से हैं. उनका जीवन तो कहीं खो गया है. अब वह घर नहीं, सिर्फ़ और स़िर्फ मकान है और वो दोनों मालिक-मालकिन न होकर अपने ही घर में पेइंग गेस्ट हैं. आत्मनिर्भरता तो मिली, लेकिन बंधन कहीं खो गए थे, वो बंधन जो वैवाहिक जीवन का मुख्य आधार होते हैं और एक-दूसरे की निर्भरता के मोहताज होते हैं.
ऐसे बंधन जिनमें बंधकर भी आज़ादी और स्वाभिमान का भास होता है. आत्मनिर्भर बनने और उससे उपजे अहं की संतुष्टि की कितनी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ रही थी दोनों को! न प्रेम, न सहानुभूति, न परवाह और न ही संबंध. क्या सोचा था और क्या हो गया ये? तो क्या एक-दूसरे पर निर्भर बने रहना ही ठीक था? प्रश्न कौंधा मन में.
सुमन ने एक बार फिर सामने बैठे परिवार को देखा, तो मन ईर्ष्या और खिन्नता की बजाय प्रफुल्लता से भर गया. उस परिवार में उसे अपना हंसता-खेलता परिवार नज़र आने लगा. ख़ुद-ब-ख़ुद क़दम घर की ओर चल दिए. घर में आते ही लॉबी से कमरे में झांका, गौरव अभी भी बेसुध सोया हुआ था. अचानक उसके मन में गौरव के लिए प्रेम उमड़ पड़ा. उसने उसके पास जाना चाहा, लेकिन जा ना सकी.
एकाएक मन के विचारों को व्यावहारिक रूप देना कभी-कभी बहुत मुश्किल होता है, लेकिन अंदर के आह्लाद ने उसे तितली-सा बना दिया था. गौरव के लिए गीज़र ऑन कर दिया और उसकी मेज़ पर फैली फाइलें दुरुस्त करने लगी.
बार-बार मन हुआ, जगा ले उसे और चाय बनाने को कहे, लेकिन ऐसा कर ना सकी. नहाकर आई, तो गौरव अभी भी सोया हुआ था. चेहरा देखा, तो छोटा भोला-भाला बच्चा-सा नज़र आया. वात्सल्य उमड़ पड़ा, जिससे वशीभूत हो वह उसके पास ही लेेट गई. गौरव इससे अनजान बेसुध सोता रहा. थोड़ी देर तक वह उसके चेहरे को निहारती रही, लगा लिपट जाए, लेकिन ऐसा कर नहीं सकी. थोड़ी देर में उठी और कमरा ठीक करने लगी.
गौरव जागा तो उसे सुमन की पीठ दिखाई दी, काफ़ी कुछ खुली हुई. एकटक निहारने के बाद उसने ठंडी-सी आह भरी, फिर बाथरूम में घुस गया. फ्रेश होकर आया, तो डाइनिंग टेबल पर सुमन बैठी उसका इंतज़ार कर रही थी. गौरव ने एक पल उसके चेहरे को देखा, बोला कुछ नहीं. बहुत दिनों से बंजर पड़ी संवादों की ज़मीन पर एकाएक शब्दों की हरियाली आए भी तो कैसे!
अहं से मुक्त हो बात शुरू की सुमन ने ही, “चलो, सुलेखा दीदी के घर चलते हैं, बहुत दिन हो गए मिले.”
गौरव चौंका. कई दिनों से ना तो वो दोनों किसी के घर गए थे और ना ही कोई उनके घर आया था, फिर किसी के मानने-ना मानने की वजह ही कैसी? सुमन की बढ़ती आत्मीयता से उसके अंदर भी प्रेम उमड़ पड़ा, बोला, “ठीक है.”
कॉलोनी में सुलेखा का परिवार क़रीब दो साल पहले ही आया था, जब उसके पति अभिनव की एक कंपनी में अकाउंट विभाग में नौकरी लगी थी. कुछ दिनों बाद सुलेेखा ने घर में ही प्ले स्कूल खोल लिया था. दो बच्चों की ज़िम्मेदारी को दोनों बख़ूबी निभा रहे थे. आज शाम को विवाह की पांचवीं सालगिरह थी उनकी, ऐसा सुलेखा ने उसे दो दिन पहले बताया था.
कॉलबेल बजाने पर सुलेखा ने दरवाज़ा खोला, “अरे आओ, आओ. बहुत दिनों बाद दर्शन दिए महारानीजी ने!” उसके साथ दोनों लॉबी के सोफे पर बैठ गए.
“शाम को डिनर तो याद है ना! छोटा-सा कार्यक्रम है.” शब्दों में ना कोई औपचारिकता, ना कोई तनाव.
“अभिनव भाईसाहब कहां हैं?” सुमन ने पूछा.
“शाम के प्रोग्राम के लिए कुछ सामान लेने गए हैं.”
चाय पीने के दौरान बात घूम-फिरकर आ गई घर के ख़र्च पर. “दीदी, आपके घर का ख़र्च कौन चलाता है?”
“कौन का क्या अर्थ है. अरे! ये तो घर है, इसमें कौन की तो कोई जगह ही नहीं है.”
“फिर भी….!” अब की गौरव ने सवाल किया.
“अरे भई, एक आलमारी में पैसा रखा रहता है, उसी में से, जब काम पड़ता है, कोई भी निकाल लेता है.”
“फिर भी कोई हिसाब तो रखता ही होगा?”
“इसमें हिसाब कैसा और किसी से पूछने की भी क्या ज़रूरत?”
“अरे दीदी, आप और भाईसाहब दोनों कमा रहे हैं, कुछ तो….”
“सुमन, दोनों कौन? पति-पत्नी तो एक ही होते हैं. अगर अलग-अलग हुए, तो घर कहां रह जाएगा, नरक हो जाएगा. अरे यार, ये कोई ऑफिस या दुकान थोड़ी है जो गुणाभाग हो.”
सुमन कुछ कहती कि तब तक अभिनव आ गया. “अरे भई, तुम्हें तो शाम को बुलाया था, अभी से आ धमके.” अभिनव की चुटकी पर सभी ठहाका लगा बैठे.
“बस छुट्टी थी, आप लोगों की याद आई, चले आए.” सुमन बोली.
“और आते ही घर का हिसाब-किताब मांगने लगी.” सुलेखा की बात पर सब हंस पड़े.
“अरे नहीं, मैं तो….”
“कैसा हिसाब-किताब भई ?” अभिनव ने हंसते हुए पूछा.
“यही कि घर का ख़र्चा कौन चलाता है, कैसे मैनेज होता है, मैंने तो कह दिया कि सारा मैं ही ख़र्च करती हूं.” सुलेखा ने अभिनव को चिकोटी काटी.
“ठीक कहा, अरे डार्लिंग, जब मैं तुम्हारा हो गया, तो जो मेरा है वो सब तुम्हारा ही तो है. अपन तो तुम्हारे टुकड़ों पर ही पल रहे हैं मोहतरमाजी.”
फिर सब खिलखिला पड़े. थोड़ी देर में सुलेखा बोली, “नहीं, नहीं, मेरा कुछ नहीं, सब इन्हीं के कारण है. ॠणी और निर्भर हूं इन पर. इनके बिना तो एक क़दम नहीं चल सकती. मैं तो धन्य हूं इन्हें पाकर.”
अभिनव के फ्लैट से लौटते समय गौरव और सुमन को लगा जैसे हवा में उड़ रहे हों. सारा तनाव, सारा भारीपन और गंभीरता न जाने कहां चली गई. विला में पहुंचने पर सुमन ने अपनी आलमारी से सारे पैसे निकालकर गौरव की आलमारी में रख दिए.
“ये क्या कर रही हो?”
“मुझे नहीं रखना हिसाब-किताब. एक तो घर का काम करो और फिर पैसों और ख़र्च में माथापच्ची करो.” सुमन ने प्यारभरी उलाहना दी, “मेरी सारी ज़िम्मेदारी तुम उठाओगे, पत्नी हूं तुम्हारी, समझे!”
“अरे, हर हाइनेसजी, मैं भी तो आपके बिना एक क़दम नहीं चल सकता. नज़रें इनायत बनाए रखना मैडम.” गौरव ने उसकी बांहें पकड़कर सीने से लगा लिया.
सुमन ने खुद को छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन असफल रही. गौरव ने उसे कसकर बांहों में भींच लिया और फिर थोड़ी ही देर में दोनों बेड पर गिर पड़े.