अग्नि आलोक

कहानी : मेरी प्यारी ओक्साना

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          पुष्पा गुप्ता 

पूर्व कथन : यह कहानी व्लादीमिर कोरोलेन्को की है.  19वीं शताब्दी के अन्त और 20वीं शताब्दी के आरम्भ के एक प्रमुख यथार्थवादी लेखक व्लादीमिर कोरोलेन्को अपने समय के एक सर्वाधिक मनमोहक व्यक्ति थे।        कोरोलेन्को को अपना पहला गुरु बताते हुए सर्वहारा लेखक मक्सिम गोर्की ने लिखा है- “मेरे लिए कोरोलेन्को उन सैकड़ों लोगों में सबसे श्रेष्ठ बने रहे हैं जिनसे मेरी भेंट हुई है और मैं उन्हें रूसी लेखक का आदर्श रूप मानता हूँ।”

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            सदा ही शोर मचा रहता था इस जंगल में – एक ही सुर में बँधा हुआ, दूरी पर बजने वाली घण्टियों की गूँज की तरह लहराता हुआ। अस्पष्ट-सा यह शोर मन को शान्ति देता था, दूर से सुनायी पड़ने वाली निःशब्द मधुर धुन की भाँति, अतीत की उलझी-उलझायी स्मृतियों की तरह। हमेशा ही शोर रहता था इस जंगल में, क्योंकि यह बहुत पुराना, घना और सपनों में ऊँघता हुआ-सा था। किसी ठेकेदार के आरे और कुल्हाड़ी ने इसे छुआ तक नहीं था। सनोबर के सौ-सौ वर्ष पुराने ऊँचे वृक्ष फ़ौजी जवानों की तरह मुँह फुलाये खड़े थे। बहुत बड़े-बड़े और लाल-लाल तने थे उनके। उनकी हरी-भरी फुनगियाँ आपस में गुँथी हुई थीं। नीचे गहरा सन्नाटा था, राल की गन्ध थी। सनोबर के सुई जैसे पत्तों की ज़मीन पर जमी हुई मोटी परतों के बीच से जहाँ-तहाँ चमकती हुई झाड़ियाँ अपने सिर बाहर निकाले हुए थीं। ये झाड़ियाँ इन परतों की फूली-फूली और अत्यधिक आकर्षक झालर-सी मालूम होती थीं। ये एकदम निश्चल थीं, एक पत्ता तक नहीं हिल रहा था इनका। जंगल के नम हिस्सों में ऊँची-ऊँची हरी घास दूर तक खड़ी थी। तिपतिया घास के सफ़ेद फूल सिर भारी होने के कारण झुके जा रहे थे, मानो चुपचाप अपनी थकान मिटा रहे हों। नीचे था ऐसा सन्नाटा और ऊपर थी जंगल की अविराम साँय-साँय। पुराना वन मानो गहरी साँसें ले रहा था।

जंगल की ये साँसें इस वक़्त और अधिक गहरी और ज़ोरदार हो गयी थीं। मैं इस वन की एक पगडण्डी पर चला जा रहा था। यह सही है कि मुझे आकाश दिखायी नहीं दे रहा था, मगर वन के तेवर देखकर मैंने यह महसूस कर लिया था कि ऊपर धीरे-धीरे बादल उमड़-घुमड़ रहे हैं। वक़्त काफ़ी हो चुका था। वृक्षों के तनों के बीच से कहीं-कहीं कोई किरण झलक दिखा रही थी। मगर वन के घने हिस्सों पर शाम का झुटपुटा छाता जा रहा था। नज़र आ रहा था कि रात होते तक तूफ़ान आयेगा। आज के लिए शिकार का ख़याल दिमाग़ से निकालना ज़रूरी हो गया था। तूफ़ान आने के पहले रात बिताने के ठिकाने पर पहुँचना लाज़िमी था। ज़मीन से बाहर निकली हुई जड़ों पर मेरे घोड़े के सुम बज रहे थे और वह नथुने फरफरा रहा था। आवाज़ की गूँज जब जंगल में ज़ोर से प्रतिध्वनित होती, तो वह कनौतियाँ बदलता। वन-रक्षक की जानी-पहचानी जगह की ओर वह ख़ुद ही तेज़ी से क़दम बढ़ाता जा रहा था।

कुत्ता भूँका। वृक्षों के तनों के बीच से लिपी-पुती दीवारें झलक दिखाने लगीं। ऊपर छायी हुई हरियाली के नीचे धुएँ की नीली रेखा बल खा रही थी। लाल तनों की दीवार के नीचे एक तरफ़ को झुकी हुई झोपड़ी थी, जिसकी छत भी जीर्ण-शीर्ण थी। ऐसा लगता था कि सुघड़ और तने हुए सनोबरों के ऊँचे-ऊँचे सिर जब इस झोपड़ी के ऊपर झूमते हैं, तो यह और अधिक ज़मीन में धँस जाती है। जंगल के खुले मैदान के बीचोबीच शाहबलूत के कमउम्र वृक्षों के झुण्ड आपस में गुँथे हुए खड़े थे।

शिकार के वक़्त के मेरे साथी वन-रक्षक ज़ख़ार और मक्सिम यहीं रहते थे। स्पष्ट था कि इस समय उन दोनों में से कोई भी घर पर नहीं था, क्योंकि एलसेशन कुत्ते के ज़ोर से भूँकने पर भी कोई घर से बाहर नहीं निकला था। सिर्फ़ एक बूढ़ा बाबा झोपड़ी की दीवार से सटकर बैठा हुआ था – चाँद निकली हुई, सफ़ेद मूँछें, जो सीने तक पहुँच रही थीं। वह छाल के जूते गाँठ रहा था और धुँधली नज़र से ऐसे देख रहा था, मानो कुछ याद करने की कोशिश कर रहा हो, जो उसे याद नहीं आ रहा था।

“नमस्कार बाबा! घर पर है कोई?”

“ऐं!” उसने सिर हिलाया। “न तो ज़ख़ार है और न मक्सिम। रही मोल्या तो वह गाय के पीछे जंगल में गयी है – गाय कहीं वन में खो गयी है। बहुत मुमकिन है भालू… गाय को भालू खा गये हों… हाँ तो, कोई नहीं है घर पर!”

“ख़ैर, कोई बात नहीं। मैं तुम्हारे पास बैठकर इन्तज़ार करता हूँ उनका।”

“कर लो इन्तज़ार, बैठ जाओ यहाँ,” बूढ़े बाबा ने उत्तर दिया। मैं जब बलूत की टहनी से अपना घोड़ा बाँध रहा था, तो वह अपनी कमज़ोर और धुँधलायी हुई नज़र से मुझे देखता रहा। बेचारा बूढ़ा – आँखों से दिखायी नहीं देता, हाथ काँपते हैं।

मैं जब उसके क़रीब ही बैठ गया, तो बूढ़े ने पूछा –

“कौन हो भाई तुम?”

जब-जब भी मैं यहाँ आता था, बूढ़ा बाबा मुझसे हर बार यही सवाल पूछता था।

“अरे, तुम हो… समझा,” बूढ़े ने जवाब दिया और फिर जूते गाँठने के काम में जुट गया। “अक्ल बुढ़ा गयी है। दिमाग़ बिल्कुल छलनी हो गया है, कुछ भी नहीं ठहरता उसमें। जो कभी के मर-खप गये, वे याद हैं मुझे, बहुत अच्छी तरह से याद हैं! मगर नये लोगों को, सभी नये लोगों को भूल जाता हूँ… बहुत अधिक दिन जी लिया इस धरती पर।”

“बाबा, बहुत अर्से से डेरा है क्या इसी जंगल में?”

“हाँ, ऐसा ही समझो, भाई! फ़्रांसीसी जब आये थे ज़ार के राज में, तब भी मैं धरती पर था।”

“तब तो बहुत कुछ देखा-जाना है तुमने, बाबा। शायद बहुत कुछ जानते हो।”

बूढ़े बाबा ने आश्चर्य से मेरी ओर देखा।

“क्या देखना-वेखना था मुझे, भाई? बस, जंगल देखा… शोर मचाया करता है जंगल, दिन को, रात को, जाड़े में, गरमी में… मैं तो ख़ुद मानो एक पेड़ हूँ, यहीं जंगल में उम्र गुज़र गयी – न कुछ देखा, न भाला… क़ब्र में पाँव लटकाये बैठा हूँ। कभी-कभी सोचता हूँ – सो भी अक्ल काम नहीं करती – समझ नहीं पाता कि दुनिया में जिया भी कि नहीं… हाँ, तो यह बात है! शायद बिल्कुल जिया ही नहीं…”

जंगल के खुले मैदान में खड़े हुए वृक्षों के झुण्डों की घनी चोटियों के पीछे से काली घटा का छोर दिखायी दिया। जंगल के इस खुले भाग को घेरने वाले सनोबरों की टहनियों ने हवा के झोंकों के इशारों पर झूलना शुरू कर दिया था। जंगल में बहुत शोर मच गया। बूढ़े ने सिर उठाया और इस शोर की तरफ़ कान लगा दिया।

“तूफ़ान आ रहा है,” उसने घड़ी-भर बाद कहा, “मैं यह निश्चित रूप से जानता हूँ। ओह, रात को ज़ोर का अन्धड़ चलेगा, सनोबरों की शामत आयेगी, जड़ समेत उखाड़कर फेंक देगा वह उन्हें!… अपने रंग दिखायेगा जंगल का मालिक…” उसने धीरे-से कहा।

“तुम्हें कैसे मालूम है, बाबा?”

“अरे, यह मुझे मालूम है! मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि पेड़ क्या कहता है… प्यारे, पेड़ भी डरता है… इसे देखो इस एस्प के वृक्ष को… मनहूस वृक्ष है यह… चौबीसों घण्टे कुछ न कुछ बोलता रहता है अपनी बोली में। हवा नहीं है, मगर उसे तो अपने काँपने से मतलब। इस सनोबर को ले लो – साफ़ दिन होता है, धूप होती है, तो यह ख़ूब मस्त रहता है। ज़रा हवा चलने लगती है, तो यह लगता है गूँजने और कराहने। यह तो ख़ैर कुछ नहीं… तुम अब ज़रा ध्यान से सुनो। आँखों से तो बेशक मुझे बहुत कम दिखायी देता है, पर कानों से तो सुनता हूँ – शाहबलूत शोर मचा रहा है न, छेड़ रहा है उसे कोई जंगली मैदान में… यह निशानी है तूफ़ान की।”

उसकी बात सही थी। मैंने कम ऊँचे और इधर-उधर फैले हुए बलूतों के उस झुण्ड की तरफ़ देखा, जो जंगल के मैदान के बीचोबीच खड़ा था और जिसके गिर्द ऊँचे सनोबर वृक्षों की दीवार-सी बनी हुई थी। बलूत वृक्षों का यह झुण्ड हवा के ज़ोरदार झोंकों में झूल रहा था और उससे जो कठोर अघोष ध्वनि पैदा हो रही थी, वह सनोबरों के गूँजते शोर से बिल्कुल भिन्न थी।

“क्यों? सुना तुमने?” बूढ़े ने कहा। उसके होंठों पर बाल-सुलभ शरारत थी। “मैं ख़ूब जानता हूँ – छेड़ा है किसी ने बलूत को! मतलब यह है कि मालिक रात को आयेगा, तोड़ा-मरोड़ी करेगा… हाँ, मगर नहीं, टूटेगा नहीं वह! वह शाहबलूत है – बड़ा जानदार वृक्ष है, मालिक की भी चलने नहीं देता… यह है क़िस्सा, प्यारे!”

“यह मालिक कौन है, बाबा? तुम ख़ुद ही तो कहते हो कि तूफ़ान पेड़ों को तोड़ता-मरोड़ता है।”

बूढ़े बाबा ने सिर हिलाया। उसके चेहरे पर शरारत झलक रही थी।

“सभी कुछ तो जानता हूँ मैं!… कहते हैं कि ऐसी हो गयी है दुनिया कि किसी चीज़ में कोई विश्वास, कोई आस्था ही नहीं रही। तो यह है मामला! मगर मैंने तो देखा है उसे अपनी इन आँखों से, जैसे कि अब तुम्हें देख रहा हूँ। अरे नहीं, इससे भी कहीं अच्छी तरह से, क्योंकि अब तो बुढ़ा गयी हैं मेरी आँखें और तब जवानी की आँखें थीं। ओह, क्या रोशनी, कैसी ज्योति थी उन दिनों मेरी आँखों में!…”

“कैसे देख लिया तुमने उसे, बाबा? कुछ सुनाओ तो।”

“सब कुछ ऐसे ही था जैसे कि इस समय। पहले सनोबर वन में कराहता है… गूँजता नहीं, कराहता है – हाय… ओह! थोड़ा दम लेता है, फिर चीख़ता-चिल्लाता है, फिर चीख़ता है, जल्दी-जल्दी… हाँ, बहुत रोता-तड़पता है। जानते हो क्यों? क्योंकि रात को मालिक इसकी कसकर पिटाई करता है। फिर बलूत बोलना शुरू करता है। शाम होते-होते उसका ज़ोर बढ़ता है और रात होते ही उसका चक्कर शुरू हो जाता है – ठहाके लगाता है और हँसता है, उछल-कूद करता है, जी भरकर अपना रंग दिखाता है और बार-बार बलूत पर ही टूट-टूटकर पड़ता है, उसे ही उखाड़ फेंकने की फ़िक्र में रहता है… एक बार क्या हुआ कि पतझड़ के दिन थे – मैंने खिड़की से झाँका, मालिक को मेरी यह हरकत अच्छी नहीं लगी – सनोबर का सूखा तना उठाकर दे मारा खिड़की पर। बुरा हो उसका, चेहरे की खाल उड़ती-उड़ती बची। मैं भी कोई कच्ची गोलियाँ थोड़े ही खेला हूँ, साफ़ बचकर निकल गया। हाँ प्यारे, समझ लो, कैसा क्रोधी है वह!…”

“सूरत-शक्ल कैसी है उसकी?”

“सूरत-शक्ल की क्या पूछते हो, दलदल में उगने वाले बेद वृक्ष जैसी है सूरत उसकी। बेहद मिलती-जुलती!.. बाल ऐसे जैसे सूखी हुई अमरबेल, जो पेड़ों पर छा जाती है। दाढ़ी भी ऐसी ही! रही नाक, तो जैसे मोटा-ताज़ा तना हो। थोबड़ा एकदम खुरदरा, काई से लथ-पथ। छिः कैसी भौंड़ी सूरत है उसकी! भगवान न करे कि कभी किसी की सूरत उससे मिलती-जुलती हो… भगवान की क़सम! दूसरी बार फिर मुझे इसके दर्शन हुए दलदल में, बिल्कुल वैसा ही था! बहुत निकट से देखा मैंने इसे… अगर मन हो, तो जाड़े में आ जाना, ख़ुद अपनी आँखों से देख लेना उसे। वहाँ चले जाना उस पहाड़ पर – वहाँ जहाँ जंगल ही जंगल है, वहाँ सबसे ऊँचे पेड़ पर चढ़ जाना – उसकी फुनगी पर। वहाँ से किसी न किसी दिन नज़र आ जायेगा वह तुम्हें। जंगल के ऊपर-ऊपर से सफ़ेद खम्भे की तरह जाता है वह, अपने आप ही कभी इधर तो कभी उधर घूमता-फिरता है और फिर पहाड़ से नीचे ही नीचे उतरता चला जाता है। भागता जाता है, भागता जाता है नीचे की ओर और फिर जंगल में ओझल हो जाता है आँखों से। ओह!… जिधर से गुज़रता है, उधर ही सफ़ेद बर्फ़ के निशान छोड़ता जाता है… क्या विश्वास नहीं होता बूढ़े की बातों पर? कभी न कभी ख़ुद देख लेना अपनी आँखों से।”

बूढ़े के मन में जो कुछ आता था, अपनी लहर में कहे जा रहा था। लगता था कि जंगल की हलचल और बेचैनी और हवा में तूफ़ान की झलक ने बूढ़े रक्त में गरमी ला दी थी। बूढ़ा बाबा सिर हिलाता था, हँसता था और अपनी धुँधलायी तथा ज्योतिहीन आँखों को मिचमिचाता था।

पर अचानक उसके ऊँचे माथे पर एक छाया-सी पड़ी। उसके माथे पर झुर्रियों की हलरेखाएँ-सी बनी हुई थीं। कोहनी से मुझे टहोककर उसने रहस्यमय ढंग से कहा –

“जानते हो, प्यारे, मैं तुमसे क्या कहने वाला हूँ?… बेशक है वह वन का स्वामी, लेकिन बड़ा ही दुष्ट है, यह भी सच है। धर्म-ईमान में विश्वास रखने वाले आदमी के लिए तो उसकी भौंड़ी सूरत देखना भी ठीक नहीं… मगर फिर भी उसके बारे में सच्ची बात तो कहनी ही चाहिए – वह बुरा किसी का नहीं करता… योंही किसी से थोड़ी छेड़छाड़ कर ले, यह बात दूसरी है, मगर किसी को सताये-रुलाये, ऐसा कभी नहीं होता।”

“बाबा, तुमने ख़ुद ही तो कहा था कि उसने तुम्हारे मुँह पर सूखा तना दे मारना चाहा था?”

“अरे हाँ, चाहा तो था उसने! वह तो बात ही दूसरी थी! नाराज़ हो उठा था वह कि मैंने खिड़की में से क्यों झाँका था! पर अगर कोई उसके मामले में टाँग न अड़ाये, तो ऐसे आदमी को कोई हानि नहीं हो सकती उससे। तो ऐसा है वह वन का मालिक!… और जानते हो कैसे-कैसे भयानक काम किये हैं लोगों ने इस जंगल में। भगवान बचाये, राम-राम!”

बूढ़े बाबा ने सिर झुकाया और घड़ी-भर के लिए चुप्पी साधे रहा। फिर जब उसने मेरी तरफ़ देखा, तो उसकी आँखों की धुँधलायी हुई पुतलियों के भीतर से मानो एक चिंगारी-सी निकली, किसी भूली-बिसरी, किसी सोयी हुई याद की चिंगारी-सी।

“तो लो, प्यारे, सुना ही देता हूँ तुम्हें क्या कुछ हो चुका है हमारे इस जंगल में। बहुत पुरानी, बरसों पुरानी बात है यह, यहीं ठीक इसी जगह घटी थी वह घटना… याद है मुझे, सपने जैसी लगती है। और जैसे ही जंगल ज़ोर से शोर मचाने लगता है, वैसे ही मुझे याद आने लगती है उस घटना की… चाहते हो सुनना? सुनोगे?”

“हाँ, हाँ, ज़रूर! सुनाओ, बाबा।”

“तो सुना ही देता हूँ, लो सुनो!”

2

“बहुत छोटा-सा था मैं कि माँ-बाप चल बसे… एकदम अकेला रह गया मैं इस दुनिया में। तो ऐसी गुज़री अपने साथ! पंचायत बैठी और लोग-बाग लगे सोचने – ‘क्या किया जाये इस यतीम का?’ ख़ुद ज़मींदार चौधरी को भी मेरी फ़िक्र… हुआ यह कि तभी वन-रक्षक रोमान वहाँ आ पहुँचा। उसने पंचायत से कहा, ‘मुझे दे दो यह छोकरा, मैं इसकी देखभाल करूँगा, इसे खिलाऊँ-पिलाऊँगा… मेरा जंगल में जी बहलेगा और इसका पेट भरेगा…’ तो यह कहा रोमान ने। पंचायत ने कहा, ‘ठीक है, ले जाओ!’ और वह मुझे अपने साथ ले आया। इस तरह मैं पहुँचा इस जंगल में और वह दिन और आज का दिन – बस, सारी उम्र यहीं बीत गयी।

“तो वह रोमान ही मुझे खिलाता-पिलाता। बड़ी उल्टी खोपड़ी का आदमी था वह, भगवान बचाये ऐसे लोगों से!… लम्बा-तड़ंगा, काली-काली आँखें। और आँखों में झाँकने से ही मालूम हो जाता था कि आत्मा भी काली है उसकी। मामला ही कुछ ऐसा था – सारी उम्र बितायी थी उसने जंगल में ही। लोग-बाग कहते थे कि भालू उसके भाई जैसे हैं और भेड़िये भाँजे-भतीजे। सभी दरिन्दों से उसकी जान-पहचान थी और क्या मज़ाल कि किसी से डरे। पर जब लोगों को देखता, तो उनसे कन्नी काटता… तो ऐसा था वह रोमान – सच कहता हूँ क़सम भगवान की! मुझे जब कभी वह नज़र भरकर देख लेता था, तो ऐसे महसूस होता था कि मानो बिल्ली की दुम मेरी पीठ सहला रही है… पर ख़ैर, कुल मिलाकर आदमी था दरियादिल – खिलाता-पिलाता मुझे ख़ूब अच्छी तरह। दलिया बना-बनाकर देता, ख़ूब चर्बी डाल-डालकर। जब कभी कोई बत्तख़ हाथ लग जाती, तो वह भी खिलाता मुझे। सच तो सच ही रहेगा, ख़ूब खिलाया-पिलाया उसने।

“तो इस तरह हम दोनों रहे जंगल में। रोमान जंगल में जाता, तो मुझे भीतर बन्द कर जाता कि कोई दरिन्दा न फाड़ खाये। बाद में बीवी भी बाँध दी गयी उसके पल्ले। ओक्साना नाम था उसका।

“चौधरी ने ही दिलवायी थी उसे बीवी। रोमान को बुलवा भेजा उसने गाँव में और कहा, ‘रोमान ब्याह करना है तुम्हारा।’ रोमान ने जवाब दिया, ‘मुझे क्या लेना-देना है बीवी से? जंगल में मेरा डेरा, क्या करूँगा मैं उसे वहाँ ले जाकर? और फिर बिना बीवी के ही मेरे तो बेटा भी है। नहीं करना मुझे शादी-ब्याह!’ बात असल में यह थी कि रोमान कभी लड़कियों से घुला-मिला नहीं था! मगर चौधरी – वह भी ख़ूब घुटा हुआ आदमी था… जब याद आती है उसकी, तो सोचता हूँ कि अब ऐसे चौधरी नहीं रहे, अब पहले जैसे चौधरी हो गुज़रे… तुम अपने ही को ले लो – कहते हैं कि तुममें भी चौधरियों का ख़ून है… शायद ठीक ही होगा, पर फिर भी वह बात नहीं तुममें, असली चौधरी वाली… ख़ैर, यों ही छोटे-मोटे चौधरी हो तुम भी, पर वैसे नहीं!

“वह था असली चौधरी, पुराने ज़माने के चौधरियों में से एक… सुनो, बताता हूँ तुम्हें, कैसी धाक थी उसकी! सौ-सौ जने डरते थे उस अकेले से! समझे!… देखो प्यारे, यों तो अण्डे में से ही निकलता है बाज़ भी और चूज़ा भी। बाज़ आसमान की तरफ़ उड़ान भरता है! ओह! जब वह वहाँ से चीख़ता है, तो बेचारे चूज़ों की तो क्या हस्ती, बडे़-बड़े मुर्ग़ों का भी दम निकल जाता है… तो इसे कहते हैं बाज़ – असली, ऊँची नस्ल का परिन्दा, और चूज़ा – वह तो योंही होता है मामूली-सा देहाती नस्ल का जानवर…

“हाँ, अभी तक याद है मुझे, छोटा-सा ही था तब मैं। एक दिन देखता क्या हूँ कि देहाती जंगल से मोटे-मोटे लट्ठे लिये जा रहे हैं – यही रहे होंगे कोई तीस जने। दूसरी तरफ़ से चौधरी अकेला आ रहा था अपने घोड़े पर, मूँछों पर ताव देता हुआ। घोड़ा उसका अठखेलियाँ कर रहा था और वह ख़ुद इधर-उधर देख रहा था। ओह! देहातियों की नज़र पड़ गयी चौधरी पर! बस, क्या था खलबली मच गयी, रास्ता छोड़ दिया, घोड़े बर्फ़ में डाल दिये और टोपियाँ उतार लीं। बाद में जाने कैसी-कैसी मुसीबतों से लट्ठे निकाले उन्होंने बर्फ़ में से। कुछ न पूछो! और चौधरी, वह उसी तरह अपना घोड़ा कुदाता चला गया। देखा तुमने, उस अकेले आदमी के लिए रास्ता तंग था! चौधरी की त्योरी चढ़ती, देहातियों की जान सूख जाती, वह हँस देता, तो सब चहक उठते, नाक-भौं सिकोड़ लेता, तो सबके चेहरों का रंग उड़ जाता। चौधरी की बात काट दे, ऐसा माई का लाल पैदा नहीं हुआ था।

“मगर रोमान तो ज़ाहिर है कि जंगल में ही पला था, दुनिया के तौर-तरीक़े वह नहीं जानता था। चौधरी ने इसीलिए उसकी बात का कुछ बुरा नहीं माना।

“चौधरी ने कहा, ‘मैं चाहता हूँ कि तू शादी कर ले। क्यों तू कर ले शादी यह मुझे मालूम है। ले ले ओक्साना को।’

“‘नहीं चाहता मैं शादी करना,’ रोमान ने तड़ाक से इंकार दिया। ‘नहीं ज़रूरत मुझे बीवी की, ओक्साना ही क्यों न हो वह। बेशक काले चोर से हो जाये उसकी शादी, मेरी बला से!..’

“‘तो यह रहा माज़रा!’

“चौधरी ने हुक्म दिया कि कोड़े लाये जायें। रोमान को बाँधकर लिटा दिया गया है। चौधरी ने पूछा –

“‘क्यों रे करेगा रोमान शादी?’

“‘नहीं,’ उसने जवाब दिया, ‘नहीं करूँगा।’

“‘करो इसकी पिटाई,’ चौधरी ने हुक्म दिया।

“बस, फिर क्या था, दे कोड़े पर कोड़ा। ख़ूब खाल उधेड़ी गयी उसकी। रोमान भी बड़ा जानदार आदमी था, पर कब तक सहता कोड़ों की मार। आ गया रास्ते पर।

“‘बस करो, बस करो,’ उसने कहा। ‘कर लूँगा शादी! बेशक उसे शैतान उठा ले जाये, मुझे क्या! मुझे क्या पड़ी है कि एक औरत के लिए इतनी मुसीबत सहूँ। ले आओ उसे, कर लूँगा शादी!’

“चौधरी की ड्योड़ी में एक हँकवा पड़ा रहता था – ओपानास श्वीद्की नाम था उसका। जब रोमान को शादी के लिए ले जा रहे थे, वह ठीक तभी खेत से लौटा। उसने रोमान की विपदा सुनी और फट से जा गिरा चौधरी के पैरों पर। पैरों पर पड़ा हुआ चूमता जाये उन्हें…

“‘हुज़ूर, क्या ज़रूरत पड़ी है आदमी को मारने-पीटने की। मुझसे कर दीजिये ओक्साना का ब्याह। क्या मज़ाल कि चूँ भी करूँ…’

“अपने आप तैयार हो गया ब्याह करने को। देखो तो कैसा कमाल का था वह आदमी, भगवान की क़सम!

“रोमान के तो मन के चीते हो गये, बाँछें खिल गयीं। झटपट उठकर खड़ा हो गया, शलवार ठीक की और कहा –

“‘लो झंझट निपट गया। भलेमानस, तू क्या थोड़ी देर पहले नहीं आ सकता था? और ये चौधरी भी ख़ूब हैं – हमेशा ऐसा ही करते हैं। इतना भी न हुआ कि पूछ ही लेते कि क्यों भाई, कोई अपनी मर्ज़ी से शादी करने को राजी है। पकड़ लिया आदमी को और करवा दी उसकी पिटाई। धर्म-ईमान वाले लोग भी भला कभी ऐसा करते हैं? छिः!…’

“रोमान तो आदमी था कुछ दूसरे ही ढंग का! चौधरी को भी ख़ातिर में नहीं लाता था। जब ग़ुस्से में आ जाता था, तो क्या हिम्मत किसी की कि उसके मुँह लगे, बेशक चौधरी ही क्यों न हो। मगर चौधरी भी बड़ी चलती रक़म था! उसके दिमाग़ में कोई दूसरी ही बात थी। फिर हुक्म दे दिया उसने रोमान को घास पर लिटाने का। चौधरी ने कहा –

“‘मैं तुझ गधे का भला करना चाहता हूँ और तू नख़रा करता है। अब तू अकेला पड़ा रहता है जैसे भालू गुफा में। तेरे घर जाने में न कोई मज़ा होता है, न कोई लुत्फ़… उधेड़ते जाओ इस पाजी की खाल जब तक कह न उठे – बस करो!… और ओपानास तू! तू जा भाड़ में! तू कौन – मैं ख़ामख़ाह। किसने बुलाया है तुझे तेरी दावत करने को। अपने आप ही मत पड़ इस फेर में, वरना समझ ले रोमान की तरह ही तेरी भी मेहमानी होगी।’

“इस बार रोमान सचमुच ही बहुत ग़ुस्से में था। कोड़े पर कोड़ा पड़ रहा था। जानते हो कैसे थे पहले वक़्तों के लोग? जब पिटाई शुरू करते थे, तो खाल ही उड़ती दिखायी देती थी। मगर रोमान था कि कोड़े खाता रहा और मुँह से कहकर नहीं दिया – बस करो! सहता गया, सहता गया, बहुत देर तक और आखि़र को उसने थूक दिया –

“‘बुरा हो तुम्हारा, एक औरत के लिए इस तरह पीट रहे हो एक धर्म-ईमान मानने वाले को! मारते जाते हो, गिनते तक भी नहीं! बस करो अब! राम करे तुम्हारे हाथ टूट जायें! शैतान ने सिखा दिया तुम्हें कोड़े लगाना! पूला समझ लिया है क्या मुझे, जो इस बुरी तरह धुनते चले जा रहे हो। अँधेर है अँधेर, कर लूँगा शादी।’

“चौधरी ने हँसते हुए मज़ाक़ किया –

“‘अच्छा ही हुआ, तुम्हारी पिटाई हो गयी। अब तुम शादी के वक़्त बैठ तो पाओगे नहीं, इसलिए नाचते फिरोगे…’

“बड़ा ही मज़ेदार आदमी था चौधरी, बहुत ही मज़े का आदमी था। मगर बाद में उस पर जो गुज़री, भगवान करे धर्म-ईमान वाले किसी आदमी पर न गुज़रे! सच कहता हूँ, भगवान किसी को भी ऐसा बुरा दिन न दिखाये, किसी यहूदी पर भी ऐसी मुसीबत न आये। मैं तो ऐसा ही सोचता हूँ…

“तो ख़ैर, रोमान का ब्याह हो गया। जवान बीवी को घर ले आया। शुरू-शुरू में तो उसे डाँटता-डपटता, कोडे़ खाने के ताने-बोलियाँ देता –

“‘इस लायक़ थोड़े ही थी तू कि कोई अपनी खाल उधड़वाता।’

“कई बार ऐसा भी हुआ था कि वह जंगल से लौटा और लगा उसे धक्के देकर घर से बाहर निकालने –

“‘निकल यहाँ से! नहीं रखनी औरत मुझे अपने झोपड़े में! तेरी छाया भी नहीं देखना चाहता! मेरे झोपड़े में औरत सोये, यह मुझे पसन्द नहीं। दम घुटने लगता है मेरा…’”

“हाँ!”

“मगर बाद में ख़ैर, सब्र का घूँट भर लिया उसने। ओक्साना घर की ख़ूब अच्छी तरह सफ़ाई करती, उसे लीपती-पोतती, बर्तन-भाँडों को चमकाती, सारा घर चमचम करता रहता। रोमान को अनुभव होने लगा कि कुछ बुरी नहीं औरत। धीरे-धीरे आदी हो गया उसका। प्यारे, आदी ही नहीं हो गया, दिल में समा गयी, वह उसे प्यार करने लगा। भगवान की क़सम, झूठ नहीं बोलता हूँ! तो यह रहा रोमान का क़िस्सा। जब अच्छी तरह से जान-समझ गया अपनी बीवी को, तो लगा कहने –

“‘भला हो चौधरी जी का, मुझे रास्ते पर डाल दिया। और हाँ, मैं तो सचमुच ही बड़ा बेवक़ूफ़ आदमी था, बेकार कोड़े पर कोड़े खाता रहा। अब देखता हूँ कि कुछ बुरा नहीं रहा। सच तो यह है कि अच्छा ही रहा यह क़िस्सा!’

“इसके बाद बहुत दिन गुज़र गये, मालूम नहीं कितने। एक दिन क्या हुआ कि ओक्साना चारपाई पर लेटकर कराहने-चीख़ने लगी। मैं जो शाम को सोया, तो सुबह उठा। सुनता क्या हूँ कि कोई बारीक-सी आवाज़ में रो रहा है। सोचा, हो न हो, बच्चा जना है ओक्साना ने! सचमुच ऐसा ही निकला भी।

“बहुत समय तक नहीं जिया वह बच्चा इस धरती पर। बस, इतना ही समझो, सुबह से शाम तक। शाम होते तक उसकी आवाज़ बन्द हो गयी… ओक्साना रो पड़ी। रोमान ने उससे कहा –

“‘बच्चा तो अब रहा नहीं। जब वही नहीं रहा, तो पादरी को बुलाकर क्या करेंगे। सनोबर के नीचे दफ़ना देते हैं।’

“तो ऐसे कहा रोमान ने। और केवल कहा ही नहीं, झटपट कर भी डाला – छोटी-सी क़ब्र खोदी और उसे दफ़ना दिया। वह देखो, वह रहा पुराना ठूँठ, बिजली मार गयी थी उसे… वही है वह सनोबर का पेड़, जहाँ रोमान ने बच्चे को दफ़नाया था। देखो प्यारे, एक बात बताऊँ तुम्हें, अभी तक ऐसा होता है कि जैसे ही सूरज डूबता है और जंगल के ऊपर जगमगाता सितारा चमकने लगता है, एक चिड़िया उड़ती हुई आती है और चीख़ती है। ओह, कैसा दर्द होता है उसकी चीख़ में! दिल भर-भर आता है उसकी चीख़ सुनकर! यह है बिना बपतिस्मे के भटकने वाली आत्मा! सलीब माँगती है चीख़-चीख़कर। भई, जिन लोगों ने किताबें पढ़ रखी हैं, सब कुछ जानते-समझते हैं, कहा जाता है कि वे उसे शान्ति दे सकते हैं। फिर नहीं उड़ती फिरेगी यह आत्मा… और देखो न, हम लोग तो हैं वनवासी, न कुछ जानें, न समझें। वह बेचारी आत्मा उड़ती-फिरती है, शान्ति और धर्म-ईमान चाहती है और हम बस, इतना ही कह पाते हैं, ‘उड़ जा, उड़ जा, बेचारी दुखी आत्मा! कुछ भी तो मदद नहीं कर सकते हम तुम्हारी!’ बेचारी रो-धोके उड़ जाती है और फिर आ जाती है। ओह प्यारे, बड़ा रहम आता है बेचारी आत्मा पर!

“कुछ समय बाद ओक्साना भली-चंगी हो गयी, हर रोज़ बच्चे की छोटी-सी क़ब्र पर जा बैठती। क़ब्र पर जा बैठती और रोती ज़ार-ज़ार, इतने ज़ोर से कि जंगल-भर में गूँजते उसके बैन। इस तरह तड़पती वह अपने बच्चे के लिए। रोमान को बच्चे के मरने का तो ग़म नहीं था, पर ओक्साना के लिए उसे दुख होता। जंगल से लौटता रोमान ओक्साना के क़रीब जा खड़ा होता और उससे कहता –

“‘तू तो बिल्कुल पगली हो गयी, बन्द कर यह रोना-धोना! आखि़र रोया भी जाये, तो किसलिए! एक बच्चा मर गया, तो दूसरा हो जायेगा। और इस बार और भी अच्छा हो जायेगा। फिर एक बात और भी है – हो सकता है कि वह मेरा हो ही नहीं। मैं तो नहीं जानता, न। लोग कहते हैं… पर ख़ैर, इस बार जो होगा, वह होगा मेरा बच्चा।’

“जब वह ऐसा कहता, तो ओक्साना बुरा मानती। होता यह कि रोना-धोना बन्द कर देती और लगती उसकी लानत-मलामत करने, उसे जली-कटी सुनाने। मगर रोमान उसकी बातों का बुरा न मानता। वह कहता –

“‘किसलिए तू बिगड़ रही है, बक-झक कर रही है? आखि़र मैंने बुरा ही क्या कहा है? यही तो कहा है कि मुझे सच-झूठ की कुछ ख़बर नहीं। सो भी इसलिए कि यहाँ आने के पहले तू मेरी नहीं थी और न जंगल में रहती ही थी। तू रहती थी बड़ों के बीच, लोगों के बीच। अब मैं भला कैसे जान सकता हूँ कि क्या सच है? अब तू जंगल में रहती है, अब सब ठीक है। जब मैं फ़ेदोस्या धाय को बुलाने गाँव गया, तो उसने यही कहा था, ‘अरे रोमान, इतनी जल्दी तुम्हारे घर बच्चा भी हो गया।’ मैंने उसे जवाब दिया, ‘मुझे भला क्या मालूम, जल्दी हुआ है कि देर से…’ पर ख़ैर, तू यह अपना रोना-धोना बन्द कर दे, वरना मेरा पारा चढ़ जायेगा और देखना कि मैं कहीं तेरी मरम्मत ही न कर डालूँ।’

“ओक्साना बकबक करती जाती, भौंकती रहती और फिर चुप हो जाती।

“ऐसा भी होता कि वह उसे बुरा-भला कहती रहती, डाँटती जाती और कभी-कभी तो पीठ पर दो-चार हाथ भी जमा देती। मगर जैसे ही रोमान ग़ुस्से में आता, तो ठण्डी पड़ जाती – डरती थी उससे। उसे सहलाती, पुचकारती, चूमती और उसकी आँखों में आँखें डाल देती… और मेरा रोमान था कि बस, मोम हो जाता। देखो न, बात यह है, प्यारे… तुम तो शायद यह सब कुछ नहीं जानते हो, पर मैं ठहरा बूढ़ा-खूसट! बेशक अपनी शादी नहीं की, मगर फिर भी बहुत ज़माना देखा है मैंने। जवान औरत जब मीठे-मीठे प्यार करने लगती है, तो ख़सम को चाहे कितना भी ग़ुस्सा क्यों न आया हो, चुटकी बजाते में हवा हो जाता है। मैं अच्छी तरह समझता हूँ इनके तिरिया-चरित्तर! ओक्साना बड़ी चिकनी-सी थी, एकदम जवान। अब तो ऐसी कहीं नज़र ही नहीं आती हैं। ईमान की बात कहूँ तुमसे, दोस्त, अब कहाँ वे औरतें, जो पहले होती थीं।

“एक बार क्या हुआ कि जंगल में नरसिंघा बज उठा – तरा-ता, तरा-तरा-ता-ता-ता। ऐसी गूँज उसकी जंगल में कि क्या कहने, बहुत ही अच्छा लगा। मैं तब छोकरा-सा था, नहीं जानता था कि वह क्या चीज़ है। देखता क्या हूँ कि पक्षी घोंसलों से निकल-निकलकर उड़ रहे हैं, पंख फड़फड़ा रहे हैं, चीख़ रहे हैं, ख़रगोश कान दबाये हुए इधर-उधर दीवाने-से भागे जा रहे हैं। सोचा, शायद यह कोई दरिन्दा है, जो पहले कभी नहीं देखा मैंने। वह दरिन्दा ही इतने अच्छे ढंग से चीख़ता है। पर नहीं, कोई दरिन्दा-वरिन्दा नहीं, वह तो चौधरी था, जो घोड़े पर सवार चला आ रहा था और नरसिंघा बजा रहा था। चौधरी के पीछे-पीछे कुत्तों की जं़जीरें थामे हुए घोड़ों पर हँकवे आ रहे थे। सभी हँकवों में से ख़ूबसूरत था वही ओपानास श्वीद्की। वह चौधरी के पीछ-पीछे था। नीले कोट में अपनी छटा दिखाता हुआ। उसकी टोपी के ऊपरी हिस्से पर कढ़ाई का सुनहरा काम किया हुआ था। घोड़ा उसका अठखेलियाँ कर रहा था। कन्धों से लगी हुई बन्दूक़ चमक रही थी और पेटी के साथ एक तरफ़ को लटका हुआ था बन्दूरा(एक उक्राइनी बाजा। – सं)। बहुत मन चढ़ा हुआ था ओपानास चौधरी के। भई, मन तो चढ़ना ही था, ख़ूब बढ़िया बजाता था वह बन्दूरा और गाता भी था तो ख़ूब ही। कैसा बाँका, कैसा ख़ूबसूरत आदमी था यह ओपानास, यह मत पूछो! बला का ख़ूबसूरत था! चौधरी भी भला क्या बराबरी कर सकता था ओपानास की इस मामले में! चौधरी की चाँद निकल आयी थी, नाक उसकी लाल थी और आँखें – ख़ैर, वैसे तो वे हँसती हुई थीं, मगर ओपानास की आँखों के सामने तो पानी भरती थीं। होता यह था कि ओपानास जैसे ही मेरी ओर देखता, तो मुझ छोकरे का भी, मैं कोई लड़की थोड़े ही था, हँसने को मन होता। सुनने में आया था कि ओपानास के बाप-दादा ज़ापोरोज्ये के कज़्ज़ाक थे, वहाँ के मैदानों में आज़ादी की ज़िन्दगी बिताते थे। वहाँ के लोग बड़े हट्टे-कट्टे, बड़े सुन्दर-सुडौल और फ़ुर्तीले होते थे। अब प्यारे, तुम ख़ुद ही सोचकर देख लो कि कहाँ तो वे लोग जो भाला लेकर पक्षियों की तरह मैदानों में घोड़ों पर उड़े फिरते हैं और कहाँ हम लोग हैं कि लकड़ी काटते-काटते ही उम्र बीत जाती है। फ़र्क़ तो होना ही हुआ।

“मैं भागकर बाहर आया। देखा कि चौधरी दरवाज़े तक आ पहुँचा है। उसका घोड़ा रुका और उसी वक़्त हँकवों के घोड़े भी रुक गये। रोमान झोपड़े से बाहर निकला, उसने चौधरी के घोड़े की लगाम थामी और चौधरी नीचे उतरा। रोमान ने झुककर नमस्कार किया।

“‘कैसे गाड़ी चल रही है?’ चौधरी ने रोमान से पूछा।

“‘कौन-सी गाड़ी, हुज़ूर?’

“तो देखा तुमने, रोमान चौधरी को उसी तरह जवाब नहीं दे सका जैसे देना चाहिए था। चौधरी के हँकवों को हँसी आ गयी और चौधरी भी हँस दिया।

“‘अरे भाई, ज़िन्दगी की गाड़ी।’

“‘सो तो ठीक चल रही है, हुज़ूर!’

“‘शुक्र है भगवान का,’ चौधरी ने कहा। ‘कहाँ है तेरी बीवी?’

“‘कहाँ होगी बीवी? वहीं है, जहाँ उसे होना चाहिए। घर में…’ “‘ठीक है, हम घर में चलेंगे,’ चौधरी ने कहा, ‘और देखो तुम लोग तब तक घास पर कालीन बिछा दो और बाक़ी सब चीज़ें तैयार कर लो। पहली बार आज हम इस जवान जोड़े को बधाई देंगे।’

“इतना कहकर वे चल दिये घर के भीतर – चौधरी और ओपानास, उनके पीछे-पीछे नंगे सिर रोमान और फिर बोगदान। बोगदान – यह था बड़ा हँकवा और चौधरी का सबसे अधिक भरोसे का नौकर। ऐसे नौकर भी अब इस धरती पर नहीं रहे। वह बूढ़ा आदमी था, नौकरों-चाकरों से बहुत कड़ाई से पेश आता और चौधरी के आगे-पीछे कुत्ते की तरह दुम हिलाता-फिरता। चौधरी के सिवा कोई नहीं था बोगदान का इस दुनिया में। सुनने में आया था कि जब बोगदान के माँ-बाप चल बसे थे, तो उसने बड़े चौधरी से कहा था, ‘हुज़ूर, मुझे अपना असामी बना लो, मैं अपना शादी-ब्याह करना चाहता हूँ।’ बड़े चौधरी नहीं माने। उसे अपनी ड्योढ़ी में रख लिया बेटे की सेवा करने के लिए और कहा, ‘बस, यहीं अपनी माँ, बाप और बीवी समझो’। बोगदान ने चौधरी के बेटे की जी-जान से सेवा की, उसे घुड़सवारी सिखा दी, बन्दूक़ चलाने में उस्ताद बना दिया। चौधरी का बेटा बड़ा हुआ और ख़ुद चौधरी बन गया। बूढ़ा बोगदान तब भी चौधरी के पीछे-पीछे कुत्ते की तरह लगा रहा। ओह, तुम्हें बताता हूँ, बहुत कुछ भला-बुरा कहा लोगों ने बोगदान को, बहुत लोगों को रुलाया-सताया उसने… सब इसी चौधरी के लिए। चौधरी के मुँह से जो निकलता, वही बोगदान पूरा करता। सच तो यह है कि अगर चौधरी हुक्म देता, तो वह आव देखता न ताव, सगे बाप के भी टुकड़े-टुकड़े कर डालता…

“हाँ तो मैं था छोकरा-सा, उनके पीछे-पीछे चल दिया झोपड़े में। बस, योंही मन में जिज्ञासा। जिधर को चौधरी जाये, मैं भी इधर ही उसके पीछे-पीछे।

“देखता क्या हूँ कि चौधरी झोपड़े के बीचोबीच जाकर खड़ा हो गया है, मूँछों पर ताव देता हुआ, मुस्कुरा रहा है। रोमान भी उसके पीछे खड़ा था टोपी को हाथों से मलता हुआ। पर ओपानास दीवार के साथ पीठ लगाये अकेला खड़ा था, लुटा-लुटा-सा, बुरे मौसम में बलूत के पेड़ की तरह। हवाइयाँ उड़ रही थीं उसके चेहरे पर, मुरझाया-मुरझाया-सा था वह…

“वे तीनों ओक्साना की ओर घूमे। सिर्फ़ अकेला बूढ़ा बोगदान एक कोने में एक तख़्ते पर बैठ गया, बाल नीचे को गिराकर। वह चौधरी के हुक्म के इन्तज़ार में था। ओक्साना कोने में चूल्हे के पास खड़ी थी, आँखें झुकी हुई थीं उसकी और उसके गाल ऐसे लाल थे जैसे जई के पौधों के बीच पोस्त का लाल फूल। ओह, वह तो जैसे साफ़ तौर पर यह समझ रही थी कि उसके कारण कोई न कोई मुसीबत आयेगी। देखो प्यारे, यह भी मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि अगर तीन आदमी एक ही औरत की ओर देखने लगते हैं, तो समझ लो ज़रूर कोई न कोई आफ़त आयेगी। अगर और अधिक बुरा नहीं होगा, तो हाथापाई तो होगी ही। मैं अच्छी तरह जानता हूँ यह, ख़ुद अपनी आँखों से देख चुका हूँ।

“चौधरी ने हँसकर कहा,

“‘रोमान बता तो, अच्छी बीवी दिलवायी है न मैंने तुझे?’

“‘ठीक है, औरत जैसी औरत है, ख़ासी है, सरकार।’

“ओपानास ने ये शब्द सुने, तो कन्धे उचकाये, नज़र ऊपर की और ओक्साना की ओर देखकर अपने आपसे कहा –

“हाँ, बीवी तो है! काश किसी इस जैसे बुद्धू के पल्ले न पड़ती।’

“रोमान के कानों में पड़ गये ये शब्द, ओपानास की ओर मुड़ा और बोला –

“‘ओपानास मियाँ, किसलिए आपको मैं बुद्धू नज़र आता हूँ, ज़रा बताइये तो…’

“‘इसलिए हो तुम बुद्धू कि अपनी बीवी की रखवाली नहीं कर सकते हो।’

“देखा कैसी बात कही उससे ओपानास ने! चौधरी ने पाँव पटका, बोगदान ने सिर झटका। रोमान घड़ी-भर को सोच में पड़ गया। फिर उसने सिर ऊपर उठाया और चौधरी की ओर देखते हुए कहा –

“‘किससे रखवाली करनी है मुझे उसकी,’ ओपानास से कहते और चौधरी की ओर देखते हुए उसने पूछा। ‘जंगली जानवरों के सिवा यहाँ है ही कौन, आदमी तो आदमी, शैतान भी नहीं। ले-देकर कभी-कभार चौधरी आ जाते हैं। किससे बचाना है मुझे उसे। देख रे कज़्ज़ाक बच्चे, मुझे ग़ुस्सा मत दिला, वरना ऐसे झोंटे खींचूँगा कि अक्ल ठिकाने आ जायेगी।’

“मार-पिटाई की नौबत बस आ ही जाती। वह तो चौधरी बीच में आ गया, उसने पाँव पटका और वे ठण्डे हो गये।

“‘चुप हो जाओ, शैतान के बच्चो!’ चौधरी ने कहा। ‘लड़ने-भिड़ने थोड़े ही आये हैं हम यहाँ। इस जवान जोड़े को बधाई देनी है हमें तो। और रात को शिकार के लिए जाना है दलदल में। चलो, आओ मेरे पीछे!’

“चौधरी मुड़ा और झोपडे़ से बाहर चला। इसी बीच हँकवों ने वृक्षों के नीचे खाने-पीने की सारी तैयारी कर दी थी। चौधरी के पीछे-पीछे बोगदान था। ओपानास ने रोमान को ड्योढ़ी में रोक लिया।

“‘मुझसे नाराज़ मत हो, मेरे भाई,’ कज़्ज़ाक ने कहा। ‘जो कुछ ओपानास तुझसे कहता है, उसे ध्यान से सुन। देखा था न तूने कि कैसे मैं चौधरी के पैरों में लोटा था, उसके जूते चूमे थे मैंने कि वह ओक्साना का हाथ मेरे हाथ में दे दे? भगवान तेरा भला करे, भले आदमी… पादरी ने तुम दोनों की शादी करवायी है, शायद ऐसा ही लिखा था क़िस्मत में! मगर अब मेरा दिल यह बरदाश्त नहीं कर सकता कि यह जानी दुश्मन, यह चौधरी उस तेरी बीवी की और तेरी खिल्ली उड़ाये। हाय, कोई नहीं जानता कि क्या गुज़रती है मेरे दिल पर… जी में आता है कि इस चौधरी के बच्चे और उस लौण्डिया को बिस्तर के बजाय गीली मिट्टी में सुला दूँ…’

“रोमान ने ध्यान से उसकी तरफ़ देखा और पूछा –

“‘ए कज़्ज़ाक, कहीं सचमुच तेरा दिमाग़ तो नहीं चल निकला?’

“ओपानास ने बहुत धीमे-से इसका जवाब दिया, जो मैं नहीं सुन सका। वे ड्योढ़ी में खुसुर-फुसुर करते रहे। फिर रोमान ने उसका कन्धा थपथपाकर कहा –

“‘ओह ओपानास, ओपानास! कैसे-कैसे दुष्ट और मक्कार लोग पड़े हैं इस दुनिया में! मुझे कुछ ख़बर ही नहीं। मैं जंगल का वासी, कैसे जान पाता यह सब। ऐ चौधरी, तेरी मौत ही तुझे यहाँ खींच लायी है!…’

“‘अच्छा अब तू जा और देख किसी को कानोकान ख़बर नहीं होनी चाहिए इस बात की। बोगदान से तो बहुत ही सँभलकर रहना। तू आदमी है कम-समझ और चौधरी का वह कुत्ता है बड़ा धूत्र्त! और सुन चौधरी की वोद्का कहीं बहुत मत पी जाना। अगर वह तुझे अपने हँकवों के साथ दलदल की तरफ़ भेजे और ख़ुद यहाँ ठहरना चाहे, तो तू पुराने बलूत तक उन्हें ले जाकर दलदल की फेर वाली डगर की तरफ़ इशारा करके कहना – तुम लोग इधर से जाओ और मैं जंगल के बीच से, सीधे रास्ते से आऊँगा। फिर झटपट यहाँ लौट आना।’

“‘ठीक है,’ रोमान ने जवाब दिया। ‘शिकार की तैयारी कर लूँ। बन्दूक़ में छर्रे नहीं, गोली भर लेता हूँ – परिन्दों का नहीं, मोटे भालू का शिकार जो करना है मुझे।’

“तो वे बाहर आये। चौधरी तो पहले से ही कालीन पर डटा हुआ था। हुक्म दिया उसने कि बोतल और प्याली बढ़ायी जाये। उसने वोद्का प्याली में डाली और रोमान के सामने कर दी। बहुत कमाल की थी चौधरी की बोतल और प्याली! और वोद्का – वह उनसे भी कहीं बढ़-चढ़कर। एक प्याली गले से नीचे उतरी नहीं कि जी बाग़-बाग़। दूसरी प्याली पी, तो दिल उछलकर सीने में। आदमी को पीने की आदत न हो, तो तीसरी प्याली पीते ही ज़मीन पर लोट-पोट होता फिरे, अगर औरत उठाकर तख़्ते पर न लिटा दे।

“देखो, तुम्हें बताता हूँ, बहुत चालाक था चौधरी! यह थी उसकी चाल कि रोमान को पिला-पिलाकर बेसुध कर दे। मगर ऐसी वोद्का कहाँ से आती, जो रोमान पर अपना जादू चला पाती। वह चौधरी के हाथ से प्याली ले-लेकर पीता जाता था – एक प्याली पी उसने, दूसरी पी, तीसरी पी। आँखें ऐसी हो गयीं जैसे कि भेड़िये की, अँगारे जैसी लाल। और हाँ, अपनी काली-काली मूँछों को ताव देता रहा। चौधरी तो झल्ला उठा –

“‘ले और पी कमीने! कैसे मज़े से प्याली पर प्याली चढ़ाता जा रहा है, पलक तक नहीं झपकता है! कोई दूसरा होता, तो कभी का चीं बोल गया होता, रो दिया होता। और यह, देखो तो इसे, भले लोगो, ऊपर से हँस रहा है…’

“दुष्ट चौधरी अच्छी तरह जानता था कि अगर कोई आदमी उसकी वोद्का पीकर रो पड़ता है, तो घड़ी-भर में वह अपनी खोपड़ी मेज़ पर पटक देता है। पर इस बार उसे जिस पट्ठे से पाला पड़ा, वह दूसरी ही मिट्टी का निकला। “‘मैं भला क्यों रोने लगा?’ रोमान ने कहा। ‘यह तो अच्छा भी न होता। मेरे मेहरबान चौधरी, आप तो मुझे बधाई देने आये हैं और मैं क्या औरतों की तरह रोने बैठ जाता। शुक्र है भगवान का कि ऐसी कोई बात ही नहीं कि मैं आँसू बहाऊँ। मैं क्यों रोऊँ, अच्छा है रोयें मेरे दुश्मन।’

“‘इसका मतलब है कि तुम ख़ुश हो?’ चौधरी ने पूछा।

“‘बेशक! न ख़ुश होने की वजह ही क्या हो सकती है?’

“‘याद है कि कैसे कोड़ों की मदद से तुम्हारी शादी की थी?’

“‘वह भला कैसे भूल सकता हूँ! इसीलिए तो कहता हूँ कि बेसमझ था, नहीं जानता था कि क्या मीठा है और क्या कड़वा है। कोड़ों की मार कड़वी थी, मगर मैंने उसे औरत से बेहतर समझा। बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ आपको, मेरे कृपालु चौधरी, कि आपने मुझे, उल्टी खोपड़ी के आदमी को शहद चाटना सिखा दिया।’

“‘ठीक है, ठीक है,’ चौधरी ने उसे कहा। ‘इसलिए अब तू भी मेरा एक काम कर – मेरे हँकवों के साथ दलदल में जा और बहुत-से परिन्दे मार ला। शिकार का मज़ा तो यह है कि तू जंगली तीतर मार लाये।’

“‘कब आप हमें भेजना चाहते हैं दलदल में?’ रोमान ने पूछा।

“‘बस, यही थोड़ी और पीते हैं, ओपानास का गाना-बजाना होगा और फिर तुम लोग चल देना भगवान का नाम लेकर।’

“रोमान ने चौधरी की ओर देखते हुए कहा –

“‘यह तो आपने बड़ी मुश्किल कर दी – देर हो चुकी है, दलदल दूर है, फिर जंगल में ज़ोर की हवा चल रही है और रात को आयेगा तूफ़ान। ऐसा होशियार परिन्दा अब कहाँ से आयेगा कि जिसका शिकार हो सके?’

“चौधरी को इस बीच चढ़ गयी थी और वह बुरी तरह चिढ़ गया। चौधरी के हँकवे भी कानाफूसी करने लगे कि ‘रोमान ठीक तो कहता है, जल्द तूफ़ान आने वाला है’। चौधरी के कान में भी भनक पड़ गयी और बस क्या था – आगबबूला हो उठा, प्याली फेंक दी और जैसे ही उसने सबको एक नज़र घूरा कि सब ठण्डे पड़ गये।

“नहीं डरा तो अकेला ओपानास! चौधरी के कहने पर वह बन्दूरा हाथ में थामे गाने-बजाने के लिए सामने आया। वह बन्दूरा के तार कसने लगा। चौधरी को बग़ल से झाँकते हुए उसने कहा –

“मेहरबान चौधरी! ज़रा सोचिये तो सही! कभी कहीं ऐसा देखा-सुना है कि रात को, और सो भी आँधी-पानी के समय और ऐसे जंगल में जहाँ हाथ को हाथ सुझायी न दे, कोई पक्षियों का शिकार करने गया है?’

“ऐसा दिलेर था ओपानास! ज़ाहिर था कि बाक़ी थे चौधरी के दास, जान निकलती थी उनकी उसके सामने, और वह था आज़ाद आदमी, कज़्ज़ाक बच्चा। छोटा-सा ही था कि बन्दूरा बजाने वाला एक बूढ़ा कज़्ज़ाक उसे अपने साथ ले आया था उक्रइना से। वहाँ एक नगर है ऊमान, जहाँ कोई गड़बड़ हो गयी थी। उसी गड़बड़ में भाग लेने के लिए बूढ़े कज़्ज़ाक की आँखें निकाल ली गयी थीं, कान काट दिये गये थे और उस हालत में ही उसे वहाँ से चलता कर दिया गया था। इसी छोकरे ओपानास की उँगली पकड़े-पकड़े वह नगर-नगर, गाँव-गाँव घूमता रहा और फिर हमारे देश में आ निकला। बूढ़े चौधरी को गाने सुनने का शौक़ था, उसने उसे अपने पास रख लिया। बूढ़ा कज़्ज़ाक चल बसा और ओपानास चौधरी की ड्योढ़ी पर ही रहा, वहीं बड़ा हुआ। वह नये चौधरी को भी अच्छा लगा और इसलिए कभी-कभार उसकी चुभती हुई बात भी सह जाता था। कोई और ऐसी बात कह देता, तो वह उसकी खाल खिंचवाकर उसमें भुस भरवा देता। “इस बार भी ऐसा ही हुआ। शुरू में तो चौधरी का पारा चढ़ा। ऐसा लगा कि वह कज़्ज़ाक की मरम्मत कर डालेगा, मगर नहीं, उसने झल्लाकर ओपानास से कहा –

“‘अरे ओपानास, ओपानास, तू आदमी तो है समझदार, मगर इतना नहीं जानता कि दरवाज़े के बीच नाक नहीं डालनी चाहिए। अगर किसी ने दरवाज़ा बन्द कर दिया तो…’

“देखा तुमने कैसी पहेली बुझवायी चौधरी ने उससे! कज़्ज़ाक फ़ौरन बात समझ गया और उसने जवाब दिया एक गाने में। अगर कज़्ज़ाक के गाने का मतलब चौधरी की समझ में आ जाता, तो बाद में शायद उसकी बीवी को उसकी लाश पर आठ-आठ आँसू न बहाने पड़ते।

“‘धन्यवाद तुम्हारा चौधरी कि तुमने अक्ल सिखायी,’ ओपानास ने कहा।

‘अब मैं सुनाता हूँ तुम्हें गाना, तुम सुनो उसे।’

“इतना कहकर उसने बन्दूरे के तार छेड़े।

“फिर उसने सिर ऊपर उठाकर आकाश को देखा कि कैसे वहाँ बाज़ पंख फैलाता है, कैसे वहाँ हवा बादलों को इधर-उधर भगाती है, उनसे खिलवाड़ करती है। उसने कान खड़े किये और सुना कि सनोबर के वृक्ष कैसे ज़ोर से साँय-साँय करते हैं।

“फिर से उसने बन्दूरे के तार झनझनाये।

“प्यारे, तुमने नहीं सुना कैसे बजाता था ओपानास श्वीद्की बन्दूरा! अब कहाँ सुन पाओगे तुम ऐसा बन्दूरा! वैसे बाजा-वाजा तो वह कुछ ख़ास नहीं है, पर जब किसी उस्ताद के हाथ में आ जाता है, तो समाँ बाँध देता है। होता यह था कि जब ओपानास की उँगलियाँ बन्दूरे के तारों पर दौड़ती थीं, तो वे बता देते थे कि बुरे मौसम में कैसे अँधेरा जंगल साँय-साँय करता है, स्तेपी के ख़ाली समतल मैदानों में हवा कैसे चीख़ती-दहाड़ती है और टीले पर बनी कज़्ज़ाक की क़ब्र पर कैसे सूखी घास सरसराती है।

नहीं मियाँ, नहीं रहे अब असली बन्दूरा बजाने वाले! आजकल यहाँ सभी तरह के लोग आते हैं। ऐसे कि जो सिर्फ़ पोलेस्ये ही नहीं, और भी बहुत-सी जगहों पर घूम चुके हैं। वे पूरा उक्रइना देख पाये हैं – चिगीरिनो, पोल्तावा, कीयेव और चेर्कासी का चक्कर लगा आये हैं। वे कहते हैं कि बन्दूरा बजाने वाले अब नहीं रहे, मेलों-ठेलों और बाज़ार-मण्डियों में भी अब उनका बन्दूरा सुनायी नहीं देता। भीतर घर में मेरे पास एक पुराना बन्दूरा अभी तक दीवार से लटका हुआ है। ओपानास ने इसी पर मुझे बजाना सिखाया था। मगर मुझसे किसी ने नहीं सीखी यह उस्तादी। अपने तो चलाचली के दिन हैं और जैसे ही साँस बन्द होगी, वैसे ही बन्दूरे की झंकार भी हमेशा के लिए सो जायेगी। ढूँढ़े से भी नहीं मिलेगा दुनिया में कोई बन्दूरा बजाने वाला। यह है असली बात!

“ओपानास ने धीमी-धीमी आवाज़ में गीत गाया। ओपानास की आवाज़ ऊँची नहीं थी और वह गाता था दर्द और सोच में डूब-डूबकर। उसका गीत दिल पर मानो चोट करता था। और प्यारे, कज़्ज़ाक ने वह गाना चौधरी के लिए अपने मन से ही गढ़ा था। फिर कभी सुनायी नहीं पड़ा वह गाना। बाद में कई बार जब मैंने ओपानास से कहा कि गुरु वह गाना सुना दो, वह राजी नहीं हुआ।

“‘जिसके लिए था गाना, वही अब दुनिया में नहीं रहा,’ वह कहता।

“उस गाने में कज़्ज़ाक ने चौधरी को सब कुछ सही-सही बता दिया था कि उसके साथ क्या बीतने वाली है। चौधरी सुनता रहा, रोता रहा, आँसू बह-बहकर मूँछों तक आते रहे, पर ज़ाहिर है कि कुछ नहीं समझा वह उसका मतलब।

“वह गाना तो मुझे याद नहीं, योंही कुछ पंक्तियाँ अटकी रह गयी हैं दिमाग़ में। कज़्ज़ाक ने इवान नाम के किसी चौधरी को सम्बोधित करके वह गाना गाया था।

“‘इवान चौधरी, अरे चौधरी!

तू सचमुच बेहद समझदार…

इतना तो है मालूम तुझे

जब बाज़ गगन में उड़ता है

कौवे को मार गिराता है…

इवान चौधरी, अरे चौधरी!…

पर यह तुझको मालूम नहीं:

यह भी इस दुनिया में होता,

जब बाज़ घोंसले में घुसता,

कौवे के घर में जाता है,

तब कौवा मार गिराता है…

इवान चौधरी, अरे चौधरी…’

“कुछ इसी तरह से आगे था वह गाना। मुझे लगता है कि मानो अभी भी मैं सुन रहा हूँ यही गाना और देख रहा हूँ उन लोगों को अपने सामने। मैं देखता हूँ कि कज़्ज़ाक बन्दूरा लिये सामने खड़ा है, चौधरी कालीन पर बैठा है, गर्दन झुकाये और रो रहा है। उसके नौकर-चाकर सभी ओर से उसे घेरे हुए हैं, एक-दूसरे को कोहनियाँ मार रहे हैं, बूढ़ा बोगदान सिर झुला रहा है… जंगल जैसे इस समय है वैसे ही तब भी साँय-साँय कर रहा था, धीरे-धीरे और दर्द पैदा करते हुए बज रहा था बन्दूरा और कज़्ज़ाक गा रहा था कि कैसे चौधरी की बीवी, इवान की बीवी उसकी लाश पर बिलख-बिलखकर रो रही है –

“‘अरे चौधरी की बीवी अब

तड़प-तड़पकर नीर बहाये

हाय! चौधरी के उस शव पर

काला कौवा शोर मचाये।’

“चौधरी नहीं समझा, तो नहीं समझा इसका मतलब। उसने आँसू पोंछे और कहा –

“‘रोमान, हो जाओ तैयार! ए छोकरो, हो जाओ घोड़ों पर सवार! और ओपानास तू भी इनके साथ जायेगा – बस, काफ़ी हो गया गाना-बजाना!.. अच्छा है तेरा गाना, मगर जो कुछ गीतों-गानों में गाया जाता है, वह दुनिया में सचमुच कभी नहीं होता।’

“उधर कज़्ज़ाक का यह हाल था कि दिल पिघलकर मोम हो गया था, आँखों में कुहासा-सा छा गया था।

“‘ओह चौधरी, चौधरी,’ ओपानास ने कहा, ‘हमारे यहाँ के बड़े-बूढ़े कहते हैं कि कहानी में भी सच होता है, गाने में भी सच होता है। मगर कहानी का सच होता है लोहे के समान। बार-बार लोगों के हाथों में घूमता रहता है, तो ज़ंग लग जाता है उसे… मगर गाने का सच है सोने के समान। कितना ही बेशक घूमे लोगों के हाथों में, कभी ज़ंग नहीं लगता उसे… हाँ, तो ऐसा कहते हैं बड़े-बूढ़े!’

“चौधरी ने हाथ झटक दिया –

“‘कहते होंगे ऐसा तुम्हारे देश में, मगर हमारे यहाँ नहीं कहते ऐसा… अच्छा अब तू चलता-फिरता नज़र आ – कान खा गया है।’

“कज़्ज़ाक घड़ी-भर तो चुप रहा और फिर अचानक चौधरी के पैरों पर गिर पड़ा ज़मीन पर। मिन्नत करते हुए बोला –

“मेरी मानो, चौधरी! घोड़े पर सवार होकर अपनी बीवी के पास चले जाओ। बहुत बुरे-बुरे ख़याल आ रहे हैं मेरे मन में।’

“अब क्या था, चौधरी लाल-पीला हो गया। उसने कज़्ज़ाक को ठोकर मारकर कुत्ते की तरह दुत्कार दिया –

“‘दूर हो जा मेरी आँखों के सामने से! तू कज़्ज़ाक नहीं, औरत है, औरत! चला जा यहाँ से, वरना समझ ले कि तेरी शामत आयी… अरे कमीनो, तुम क्या मुँह ताक रहे हो खड़े-खड़े? या फिर यह कि मैं अब तुम्हारा चौधरी नहीं रहा? ऐसी ख़बर लूँगा तुम्हारी कि जैसी मेरे बाप-दादा ने कभी तुम्हारे बाप-दादा की भी न ली होगी!…’

“ओपानास ऐसे उठकर खड़ा हुआ मानो उमड़ता-घुमड़ता काला बादल हो। उसने रोमान की आँखों में झाँका। रोमान एक तरफ़ को खडा था बन्दूक़ पर कोहनियाँ टिकाये जैसे कि कुछ हुआ ही न हो।

“कज़्ज़ाक ने अपना बन्दूरा ज़ोर से पेड़ पर दे मारा! टुकड़े-टुकड़े हो गये बन्दूरे के। जंगल-भर में उसकी आह-कराह गूँज उठी।

“‘तो जाये जहन्नुम में, मेरी बला से! जो आदमी अक्ल की बात पर कान नहीं देता, उसका वहाँ, दूसरी दुनिया में दिमाग़ ठिकाने कर दिया जायेगा… चौधरी, मुझे लगता है कि तुम्हें वफ़ादार नौकर की ज़रूरत नहीं।’

“चौधरी उसकी बात का जवाब भी नहीं दे पाया कि ओपानास कूदकर जा बैठा अपने घोड़े पर और चल दिया। हँकवे भी घोड़ों पर सवार हो गये। रोमान ने बन्दूक़ कन्धे पर लटकायी और वह भी जा चढ़ा अपने घोड़े पर। हाँ, मगर घर के पास से जाते हुए उसने पुकारकर ओक्साना से कहा –

“‘छोकरे को सुला दे, ओक्साना! उसके सोने का वक़्त हो गया। हाँ, और सुनो, चौधरी के लिए भी बिस्तर लगा दो।’

“बस, क्या था, झटपट सब एक ही रास्ते से जंगल की ओर चल दिये। चौधरी घर के अन्दर गया। बाहर सिर्फ़ पेड़ के साथ उसका घोड़ा बँधा रह गया। अँधेरा गहराने लगा था, जंगल शोर मचा रहा था और बारिश अपना टपाटप का गीत अलाप रही थी, ठीक वैसे ही जैसे कि इस समय… ओक्साना ने मुझे घास-फूस की कोठरी में लिटा दिया, मुझ पर सलीब का निशान बनाया… कुछ देर बाद मैंने ओक्साना के रोने की आवाज़ सुनी।

“ओह, मैं तब बिल्कुल छोटा-सा था, छोकरा-सा। कुछ भी तो समझ नहीं पर रहा था कि मेरे इर्द-गिर्द यह क्या गड़बड़-घोटाला हो रहा है! कोठरी में सिकुड़ा-सिमटा पड़ा रहा, जंगल में तूफ़ान का गीत सुनता रहा और मेरी आँख लगी झपकने।

“ओह, अचानक मुझे घर के क़रीब किसी के पैरों की आहट सुनायी दी… कोई पेड़ के पास पहुँचा और उसने चौधरी का घोड़ा खोल लिया। घोड़ा हिनहिनाया, उसने पाँव पटका। वह घोड़े को ले भागा जंगल में, घोड़े की टापें सुनायी देती रहीं और फिर बन्द हो गयीं… फिर कोई घोड़ा दौड़ाता हुआ आया, और इस बार घर के क़रीब आ पहुँचा। वह घोड़े से कूदा और सीधे खिड़की की तरफ़ लपका।

“‘ओ चौधरी, ओ चौधरी!..’ बूढ़ा बोगदान ऊँची आवाज़ में चिल्लाया। ‘अरे चौधरी, जल्दी से उठ बैठो! नीच कज़्ज़ाक के मन में खोट है। उसी ने तुम्हारा घोड़ा जंगल में डाल दिया है।’

“बूढ़ा बोगदान अपनी बात कह भी नहीं पाया था कि किसी ने उसे पीछे से आ दबाया। फिर जैसे कोई भारी-भरकम चीज़ गिरती है, ऐसा धमाका हुआ। मेरा तो दम निकल गया…

“चौधरी ने दरवाज़ा खोला, बन्दूक़ लिये हुए बाहर निकला। ड्योढ़ी में ही रोमान ने उसे धर लिया, सीधा झोंटों पर हाथ मारा और धड़ाम से पटक दिया ज़मीन पर…

“चौधरी ने समझ लिया कि अब मारे गये। लगा गिड़गिड़ाने –

“‘अरे रोमान! छोड़े दे मुझे। मेरी नेकी का यही बदला दे रहा है तू मुझे?’

“रोमान ने जवाब दिया,

“‘अच्छी तरह याद है मुझे, दुष्ट चौधरी! तूने जो नेकी की है मेरे साथ और मेरी बीवी के साथ। अब मैं तुझे तेरे एहसान का पूरा-पूरा बदला दूँगा…’

“तब चौधरी ने ओपानास की दुहाई दी –

“‘अब तू ही मेरी मदद को आ, मेरे वफ़ादार सेवक! मैं तो तुझे बेटे की तरह मानता हूँ।’

“ओपानास ने जवाब दिया –

“‘तूने अपने वफ़ादार सेवक को कुत्ते की तरह दुत्कार दिया था। तू मुझे ऐसे प्यार करता था जैसे लाठी पीठ से प्यार करती है और अब ऐसे जैसे कि पीठ लाठी से… मैंने तो तेरे सामने नाक रगड़ी, तेरी मिन्नत-समाजत की – मगर तूने कान ही नहीं दिया…’

“अब चौधरी ने ओक्साना की दुहाई दी –

“‘मेरी ओक्साना, अब तू ही आगे आ, मुझे बचा। तू दिल की बहुत भली है।’

“ओक्साना आगे आयी तो, पर हाथ फैलाकर रह गयी –

“‘चौधरी, मैं तुम्हारे सामने गिड़गिड़ायी, हाथ-पाँव जोड़े – तुमसे कहा कि मेरी जवानी पर रहम करो, मेरी आबरू नहीं लूटो, मैं विवाहिता नारी हूँ। पर नहीं, तुम्हें दया नहीं आयी मुझ पर और अब ख़ुद मेरी दुहाई देते हो… मैं भला कर ही क्या सकती हूँ, बेबस नारी?’

“‘छोड़ दो मुझे,’ चौधरी फिर चिल्लाया, ‘मेरी वजह से तुम सब साइबेरिया में पड़े सड़ोगे…’

“‘हमारी चिन्ता नहीं करो, चौधरी,’ ओपानास ने कहा, ‘रोमान तो तुम्हारे हँकवों से पहले दलदल में जा पहुँचेगा। 

       रही मेरी बात तो तुम्हारी कृपा से मैं दम का दम हूँ, अपने सिर की फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं मुझे। बन्दूक़ कन्धे पर लटकाऊँगा और जंगल में जा पहुँचूँगा… तगड़े और मज़बूत कुछ छोकरे अपने साथ मिला लूँगा और बस, जंगल में मंगल रहेगा… रात को जंगल से बाहर सड़क पर पहुँच जाया करेंगे और जैसे ही कोई गाँव नज़र आयेगा, सीधे चौधरी की हवेली पर धावा बोलेंगे। ए रोमान, ज़रा उठाना भई चौधरी मेहरबान को, बाहर बारिश दिखा दें।’

“चौधरी की जब एक न चली तो लगा ज़ोर-ज़ोर से चीख़ने। रोमान था कि अपने आप भालू की तरह गुर्रा रहा था और कज़्ज़ाक उड़ा रहा था मज़ाक़। तो इस तरह वे बाहर निकले।

“मुझे तो डर ने आ दबोचा। मैं घर के अन्दर भागा और सीधा पहुँचा ओक्साना के पास। मेरी ओक्साना बेचारी बैठी थी तख़्ते पर – उसका रंग एकदम ऐसे सफ़ेद हुआ पड़ा था जैसे कि दीवार…

“इस बीच जंगल में सचमुच ही ज़ोर का तूफ़ान आ गया था – तरह-तरह की आवाज़ों में चीख़-चिल्ला रहा था जंगल, हवा रो रही थी, विलाप कर रही थी और रह-रहकर बिजली कड़क रही थी। हम दोनों – मैं और ओक्साना – अलावघर पर बैठे थे। अचानक मुझे जंगल से किसी की कराह सुनायी दी। ओह, कितना दर्द था उस कराह में! अभी तक भी जब उसकी याद आ जाती है, तो दिल तड़प उठता है। वैसे देखो तो कितने अधिक बरस बीत गये हैं…

“‘ओक्साना,’ मैंने पूछा, ‘मेरी प्यारी ओक्साना, कौन है, जो इस तरह जंगल में कराह रहा है?’

“ओक्साना मुझे बाँहों में लेकर झुलाने लगी।

“सो जा, बेटे, सो जा, मेरे बच्चे,’ उसने कहा, ‘कुछ नहीं, यह तो योंही जंगल शोर मचा रहा है।’

“जंगल तो सचमुच ही शोर मचा रहा था। ओह, कैसा भयानक शोर था वह! “हम इसी तरह कुछ देर तक और बैठे रहे। अचानक मुझे सुनायी दिया कि किसी ने जंगल में गोली दाग़ी है।

“‘ओक्साना, मेरी प्यारी ओक्साना,’ मैंने कहा, ‘किसने यह गोली चलायी है जंगल में?’

“मगर वह मुझे पहले की तरह ही बाँहों में झुलाती रही। फिर बोली –

“‘चुप रह, चुप रह, मेरे बच्चे। यह तो बिजली कड़की है जंगल में।’

“मगर उसकी अपनी आँखों से आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। मुझे वह कसकर छाती से चिपटाती गयी और यह लोरी गाती रही – ‘शोर मचाये, शोर मचाये, जंगल शोर मचाये, मेरे बच्चे…’

“इस तरह उसकी बाँहों में झूलता हुआ ही मैं सो गया…

“सुबह हुई तो मैं उछलकर खड़ा हुआ, प्यारे। देखता क्या हूँ कि सूरज चमक रहा है। घर में अकेली ओक्साना ही सोयी पड़ी है, कपड़े पहने हुए। मुझे पिछली रात की बातें याद आयीं, तो मैंने सोचा कि कोई सपना देखा होगा मैंने।

“पर नहीं, वह सपना नहीं था। ओह, वह सपना नहीं था! वह हक़ीक़त थी। मैं भागकर घर से बाहर आया, जंगल में पहुँचा। जंगल में चिड़ियाँ चहचहा रही थीं और पत्तों पर ओस की बूँदें चमक रही थीं। मैं भागकर झाड़ियों की तरफ़ गया। वहाँ क्या देखा कि चौधरी और उसका वफ़ादार नौकर बोगदान एक-दूसरे के क़रीब पड़े हैं। चौधरी शान्त नज़र आ रहा था और उसमें मानो ख़ून का तो नाम ही नहीं था। बोगदान के बाल कबूतर के समान सफ़ेद थे और उसकी ऐंठ और अकड़ वैसे ही थी, मानो ज़िन्दा हो। और चौधरी तथा नौकर, दोनों की छाती पर ख़ून ही ख़ून था।”

… … …

इतना कहकर बूढ़े बाबा ने गर्दन झुका दी और चुप्पी साध ली। यह देखकर मैंने पूछा –

“यह तो तुमने बताया नहीं बाबा, कि बाक़ी लोगों का क्या हुआ?”

“ओह! हुआ क्या, वही कुछ जो कज़्ज़ाक ओपानास ने कहा था। बरसों तक भटकता रहा वह जंगल में, छोकरों के साथ रास्तों पर निकलता और चौधरियों की हवेलियों पर टूटता। जन्म से ही क़िस्मत में यही कुछ लिखा था उसकी। बाप-दादों ने भी यही कुछ किया था और जो उसकी क़िस्मत में था, वह भी सामने आया। कई बार वह हमारे इस घर में भी आया। मगर प्रायः वह तभी आता, जब रोमान घर पर न होता। वह आता, बैठता, गाने गाता और बन्दूरा बजाता। जब उसके साथी साथ होते, तो ओक्साना और रोमान उनकी ख़ूब आवभगत करते। ओह, सच बात कहूँ तुमसे, प्यारे – दाल में कुछ काला था, कुछ गड़बड़ मामला था। जल्द ही मक्सिम और ज़ख़ार जंगल से आने वाले हैं। तुम ग़ौर से देखना उन दोनों को। मैं तो उनसे कुछ कहता-वहता नहीं हूँ, पर जो रोमान और ओपानास को जानते थे, उन्हें तो पहली ही नज़र में यह बात साफ़ हो जाती है कि कौन शक्ल-सूरत में किससे मिलता-जुलता है। बेशक यह सही है कि ये बेटे नहीं, पोते हैं… तो देख लो, मियाँ, कैसी-कैसी बातें हो चुकी हैं मेरी आँखों के सामने इस जंगल में…

“बहुत ज़ोर से शोर मचा रहा है जंगल – तूफ़ान आयेगा!”

3

बूढ़े बाबा ने अन्तिम शब्द इस तरह कहे, मानो थक गया हो। सम्भवतः उसके विचारों की ज्वार अब उतार पर थी और वह मन मारकर ऊबे-ऊबे अपनी कहानी जारी रख रहा था। ज़ुबान उसकी लड़खड़ाने लगी थी, सिर उसका काँप रहा था और आँखों में आँसू झलक रहे थे।

धरती पर शाम उतर आयी थी। जंगल में अँधेरा गहरा चुका था। घर के चारों ओर वन ऐसे झोंके खा रहा था, मानो समुद्र में ज्वार-भाटे आ रहे हों। वृक्षों की काली-काली चोटियाँ ऐसे झूम रही थीं, मानो बुरे मौसम में समुद्र में उठने-गिरने वाली लहरें हों।

कुत्तों को मालिकों के पैरों की आहट मिली, तो लगे ख़ुशी से भाैंकने। दोनों वन-रक्षक घर की ओर जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ा रहे थे। उनके पीछे-पीछे हाँफती हुई मोत्रया उस गाय को हाँकती ला रही थी, जो खो गयी थी। अब हम सब इकट्ठा हो गये।

कुछ क्षण बाद हम घर के अन्दर जा बैठे। तन्दूर में आग जल रही थी और मोत्रया दावत का इन्तज़ाम करने में जुटी थी।

मैंने ज़ख़ार और मक्सिम को यों तो अनेक बार देखा था। मगर आज देखा तो ख़ास ध्यान से। ज़ख़ार का चेहरा साँवला और माथा झुका हुआ था, भाैंहें गोल थीं, माथे पर जुड़ी हुईं। उसकी आँखों में कठोरता थी, लेकिन चेहरे पर पैदाइशी नेक स्वभाव की झलक साफ़ दिखायी दे रही थी। मक्सिम की आँखों में मस्ती थी, मानो उसकी भूरी-भूरी आँखें स्नेह से उमड़ी पड़ती हों। अपने घुँघराले बालों को वह बार-बार पीछे की ओर झटकता। उसकी हँसी में तो निराली गूँज थी। दूसरों को भी इस हँसी की छूत लग जाती थी।

“कहिये, बूढ़े बाबा ने आपको कोई क़िस्सा-विस्सा नहीं सुनाया, हमारे दादा की आपबीती?” मक्सिम ने पूछा।

“हाँ सुनायी तो है,” मैंने जवाब दिया।

“हमेशा बस, ऐसा ही होता है! जंगल जब ज़ोर से शोर मचाता है, तो पुरानी स्मृतियाँ उसे परेशान करने लगती हैं। अब क्या मजाल कि रात-भर इसकी आँख लग जाये।”

“बिल्कुल छोटे बच्चे के समान है,” बूढ़े बाबा के लिए शोरबा डालते हुए मोल्या ने कहा।

बूढ़ा बाबा मानो यह समझ ही नहीं पा रहा था कि उसकी चर्चा हो रही है। वह बिल्कुल ढलक गया था, अपने ही में डूब गया था। कभी-कभी उसके चेहरे पर बेमानी-सी, खोयी-सी मुस्कान झलक उठती और वह सिर हिलाने लगता। जब जंगल के तूफ़ानी झँझावात का कोई तेज़ झोंका झोपड़े को झकझोरता, तो वह चौंक उठता और उसके कान खड़े हो जाते। डरे-डरे, सहमे-सहमे चेहरे से वह कुछ सुनने की कोशिश करता।

कुछ ही देर बाद जंगल के इस झोपड़े में ख़ामोशी छा गयी। केवल दीपक की मद्धिम-सी लौ टिमटिमाती रह गयी। हाँ, झींगुर अपना झीं-झीं का एकसुरा राग अलापता जा रहा था… ऐसा लगता था मानो जंगल में हज़ारों ज़ोरदार और अस्पष्ट आवाज़ें एक-दूसरी में गड्डमड्ड हो गयी हैं। घुप अँधेरे में ये आवाज़ें मानो किसी अनजाने ख़तरे की ओर संकेत कर रही थीं। ऐसे मालूम पड़ता था मानो अँधेरे में कोई तूफ़ानी शक्ति शोर-शराबे की मज़लिस लगाये बैठी थी। इसमें हिस्सा लेने वाले सभी दिशाओं से आये हुए थे। उन्होंने मानो जंगल के इस झोपड़े पर चारों तरफ़ से धावा बोलने की ठान ली थी। बीच-बीच में यह अनबूझ-सा शोर और बढ़ जाता, उग्र हो उठता और हवा के झोंके की तरह बह जाता। उस वक़्त दरवाज़ा चरचरा उठता। तब बिल्कुल ऐसे लगता कि मानो कोई ग़ुस्से से फुँकारता हुआ दरवाज़े पर पिल पड़ा है। रात के इस तूफ़ान में चिमनी से ऐसी दर्दभरी और कराहती आवाज़ें निकल रही थीं कि सुनने वाले का दिल डूब-डूब जाये। फिर थोड़ी देर को तूफ़ानी झोंके रुक जाते। जानलेवा गहरा सन्नाटा डरे-सहमे दिल पर बहुत भारी गुज़रता। फिर वही ग़ुल-गपाड़ा शुरू हो जाता। ऐसा महसूस होता मानो बरसों पुराने सनोबरों ने रात की इस तूफ़ानी हलचल के साथ अपनी जगहों से उड़कर अचानक अनजाने विस्तारों में जा पहुँचने का इरादा बना लिया है।

कुछ मिनट के लिए मुझे झपकी-सी आ गयी। बहुत ही थोड़ी देर को। जंगल में तूफ़ान गूँज रहा था, तरह-तरह के सुरों में, तरह-तरह की आवाज़ों में। रह-रहकर दीप की लौ फड़फड़ा उठती, झोपड़ी को जगमगा देती। बूढ़ा बाबा अपने तख़्ते पर बैठा था, हाथ फैलाकर अपने चारों ओर कुछ टटोल रहा था। उसे मानो इस बात की आशा बँधी थी कि कोई उसके क़रीब ही मौजूद है। इस बेचारे बूढ़े बाबा के चेहरे पर भय और बाल-सुलभ बेबसी और लाचारी का भाव झलक रहा था। मुझे उसकी दर्दभरी आवाज़ सुनायी दी –

“ओक्साना, मेरी प्यारी ओक्साना, कौन यह जंगल में कराह रहा है?”

उसने चौंककर हाथ फैलाया और कान लगाकर कुछ सुना।

“ओह!” वह फिर बड़बड़ाया, “कोई भी तो नहीं कराह रहा। वह तो तूफ़ान का शोर है जंगल में… और कुछ भी तो नहीं, जंगल शोर मचा रहा है, जंगल शोर…”

इसी तरह कुछ मिनट और गुज़र गये। छोटी-छोटी खिड़कियों में जब-तब बिजली की नीलिमा कौंध जाती, ऊँचे-ऊँचे वृक्ष घड़ी-भर को खिड़कियों के बाहर झलक उठते और फिर तूफ़ान के भयानक शोर के बीच अँधेरे में डूब जाते। मगर तभी बहुत तेज़ रोशनी हुई, दीप की टिमटिमाती लौ एकदम अन्धी हो गयी और कहीं पास में ही कड़कड़ाकर जंगल में बिजली गिरी।

बूढ़ा बाबा फिर परेशान हो उठा –

“ओक्साना, मेरी प्यारी ओक्साना, किसने यह गोली चलायी है जंगल में?”

   “सो जाओ, बूढ़े बाबा, सो जाओ,” तन्दूर की छत पर से मोल्या का शान्त स्वर सुनायी दिया। “जब तूफ़ान आता है, तो हमेशा ऐसा ही होता है। रात-रात-भर ये ओक्साना को पुकारते रहते हैं। इतना भी भूल जाते हैं कि एक ज़माना हो गया ओक्साना को दूसरी दुनिया में पहुँचे। ओह!”

मोत्रया ने जम्हाई ली, भगवान को याद किया और झोपड़े में फिर से सन्नाटा छा गया। इस सन्नाटे को बेधता था जंगल का शोर और बूढ़े बाबा का चौंक-चौंककर बड़बड़ाना –

     “जंगल गूँज रहा है, जंगल शोर मचा रहा… ओक्साना, मेरी प्यारी ओक्साना…”

     कुछ ही देर बाद मूसलाधार बारिश फट पड़ी। वह शोर मचाया बारिश ने कि तेज़ हवा के झोंकों की साँय-साँय और सनोबर के वृक्षों की आहें-कराहें उसमें डूबकर रह गयीं।

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