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कहानी : नाक

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(रसियन साहित्यकार निकोलाई गोगोल की कृति The Nose का हिंदी रूपांतर)_

          ~ पुष्पा गुप्ता

     _सेंट पीटर्सबर्ग में 25 मार्च को एक अत्यंत असाधारण घटना हुई। वोज़्नेसेंस्की एवेन्यू में रहने वाला हज्जाम इवान याकोव्लेविच; उसका कुलनाम तो कहीं खो गया है और वह उसकी दुकान के साइनबोर्ड पर भी नहीं लिखा है जिसमें गालों पर साबुन का बहुत-सा झाग लगाये हुए एक सज्जन की तस्वीर बनी है और साथ ही यह सूचना भी लिखी हुई हैः ‘‘यहाँ फ़स्द भी खोली जाती है’’, तो हज्जाम इवान याकोव्लेविच एक दिन बहुत सवेरे उठा और उसकी नाक में गरम-गरम रोटी की ख़ुशबू आयी।_

        बिस्तर पर लेटे-लेटे ही उसने थोड़ा-सा सिर उठाकर देखा कि उसकी बीवी, जो निहायत शरीफ़ औरत थी और कॉफ़ी की बेहद शौक़ीन थी, तंदूर में से ताज़ी सिंकी हुई रोटियाँ निकाल रही थी।

‘‘प्रस्कोव्या ओसिपोव्ना, आज मैं कॉफ़ी नहीं पिऊंगा,’’ इवान याकोव्लेविच ने एलान किया, ‘‘उसके बजाय मैं प्याज़ के साथ एक गरम-गरम रोटी खाना चाहूंगा।’’

(सच पूछिये तो इवान याकोव्लेविच पीना तो कॉफ़ी भी चाहता था लेकिन वह जानता था कि दोनों चीज़ें एक साथ मांगना बेकार होगा, क्योंकि प्रस्कोव्या ओसिपोव्ना इस तरह की सनक को बहुत नापसंद करती थी।) ‘‘खाने दो इस खूसट बेवक़ूफ़ को रोटी, मेरा क्या जाता है,’’ उसकी बीवी ने सोचा : ‘‘मुझे कॉफ़ी का एक प्याला पीने को और मिल जायेगा।’’ और उसने एक रोटी मेज़ पर फेंक दी।

शिष्टता के नाते इवान याकोव्लेविच ने रात को पहनने की क़मीज़ के ऊपर एक कोट डाल लिया, और मेज़ पर बैठकर कुछ नमक निकाला, दो प्याज़ छीले, एक छुरी ली और बेहद संजीदगी के साथ अपनी रोटी को काटने लगा। रोटी को दो टुकड़ों में काटकर उसकी नज़र अंदर जो पड़ी तो उसमें कोई सफ़ेद-सफ़ेद चीज़ देखकर वह चकरा गया। बड़ी सावधानी से उसने उस चीज़ को छुरी से कुरेदा और उंगली से दबाकर देखा। ‘‘ठोस मालूम होती है’’ उसने सोचा, ‘‘कमबख़्त क्या चीज़ हो सकती है?’’

उसने उंगली गड़ाकर उसे खींचकर बाहर निकाला-एक नाक थी! यह देखते ही उसके हाथ नीचे झूल गये फिर उसने अपनी आंखें मलीं और उस चीज़ को टटोलकर देखा : हां, नाक ही थी, इसमें कोई शक ही नहीं था! और ऊपर से तुर्रा यह कि जानी-पहचानी नाक लगती थी। इवान याकोव्लेविच के चेहरे पर दहशत की लहर दौड़ गयी। लेकिन उसकी शरीफ़ बीवी को जो ग़ुस्सा आया उसके मुक़ाबले में यह दहशत कुछ भी नहीं थी।

‘‘यह नाक कहां काटी, क़साई?’’ वह ग़ुस्से से लाल होकर चिल्लायी। बदमाश! शराबी! मैं जाकर पुलिस में तेरी शिकायत करूंगी। सरासर मुजरिमाना हरकत है! तीन आदमी मुझे पहले ही बता चुके हैं कि दाढ़ी बनाते वक़्त तू उनकी नाक को इतने ज़ोर से खींचता है कि ताज्जुब ही है कि वे अपनी जगह क़ायम रहती हैं।’’

लेकिन इवान याकोव्लेविच को तो सांप सूंघ गया था। उसने पहचान लिया था कि वह नाक किसी और की नहीं- कालिजिएट असेसर कोवालेव की थी, जिसकी दाढ़ी वह हर बुधवार और इतवार को बनाता था।

‘‘सुनो तो, प्रस्कोव्या ओसिपोव्ना! मैं इसे कपड़े में लपेटकर वहां एक कोने में रखे देता हूँः वहाँ इसे कुछ देर रखा रहने दो, फिर मैं इसे ले जाऊंगा।’’

‘‘ख़बरदार, जो अब कुछ कहा! तू समझता है कि मैं एक कटी हुई नाक अपने कमरे में रहने दूंगी? अहमक़ कहीं का! तुझे तो बस अपना उस्तुरा तेज़ करना आता है, और वह वक़्त दूर नहीं है जब तू अपना काम भी ठीक से नहीं कर पायेगा, निकम्मा, बेवकूफ़! बदमाश कहीं का! तू समझता है कि मैं पुलिस के सामने तेरी पैरवी करूंगी? इस ख़्याल में भी न रहना, न किसी काम का न धाम का, काठ का उल्लू! ले जा इसे! ले जा! जहाँ तेरा जी चाहे, बस अब फिर कभी मुझे यह दिखायी न दे!’’

इवान याकोव्लेविच हक्का-बक्का खड़ा रहा। वह बिल्कुल बौखलाया हुआ अपने दिमाग़ पर ज़ोर डालकर सोच रहा था।

‘‘भगवान जाने, यह हुआ कैसे,’’ उसने आख़िरकार अपने कान के पीछे खुजाते हुए कहा। ‘‘शायद कल रात मैं पिये हुए घर आया था, या शायद न पी रखी हो, कह नहीं सकता। लेकिन देखने में तो यह बिल्कुल अजीब बात मालूम होती है मतलब यह कि रोटी तो पकायी जाती है और नाक तो ऐसी कोई चीज़ है नहीं कि उसे पकाया जाये। मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आता! इवान याकोव्लेविच चुप हो गया। यह सोचकर कि पुलिस वह नाक उसके पास देखेगी और उसे गिरफ़्तार कर लेगी, वह सहम उठा। अपने दिमाग़ में उसे साफ़ दिखायी दे रहा था गोट पर बढ़िया रुपहली डोरी लगा हुआ वह कालर, वह तलवार और वह सिर से पांव तक कांप उठा। आख़िरकार उसने अपनी बनियाइन और जूते उठाये, उन्हें जैसे-तैसे पहना और प्रस्कोव्या ओसिपोव्ना के गाली-कोसनों के बीच उसने नाक को एक कपड़े में लपेटा और बाहर सड़क पर निकल गया।

वह उसे कहीं चुपचाप छिपा देना चाहता था, फाटक के पास लगे हुए पत्थर के पीछे डाल दे या अनजाने ही उसे कहीं गिराकर सबसे पास वाली गली में खिसक जाये। लेकिन दुर्भाग्यवश हर बार उसे कोई न कोई जान-पहचानवाला मिल जाता था और उस पर सवालों की बौछार कर देता थाः ‘‘कहाँ जा रहे हो?’’ या : ‘‘इतने सबेरे-सबेरे किसकी हजामत करने निकल पड़े?’’ और इवान याकोव्लेविच को अपना मंसूबा पूरा करने का मौक़ा ही नहीं मिल पाता था। एक बार तो उसने उसे गिरा भी दिया था, लेकिन वहाँ ड्यूटी पर तैनात पुलिसवाले ने उसे पुकारा और अपने फरसे से इशारा करके कहाः ‘‘ऐ, सुनो! तुम्हारी कोई चीज़ गिर गयी है!’’ और इवान याकोव्लेविच को चुपचाप नाक उठाकर अपनी जेब में रख लेनी पड़ी थी। वह बिल्कुल निराश होता जा रहा था क्योंकि जैसे-जैसे दुकानें खुलती जा रही थीं वैसे-वैसे सड़क पर लोगों की आवाजाही बढ़ती जा रही थी।

उसने इसाकियेव्स्की पुल की ओर जाने का फ़ैसला किया, जहाँ, अगर कि़स्मत ने साथ दिया तो वह उसे नेवा नदी में फेंक देगा लेकिन यहां पर मुझसे एक छोटी-सी चूक हो गयी है कि मैंने अभी तक आपको इवान यकोव्लेविच के बारे में कुछ नहीं बताया है, जिसकी कई मामलों में बड़ी साख थी।

अपनी इज़्ज़त का ख़्याल रखने वाले हर रूसी दस्तकार की तरह इवान याकोव्लेविच भी बला का शराबी था। और हालांकि रोज़ वह दूसरों की दाढ़ी मूंड़ता था लेकिन उसकी अपनी दाढ़ी हमेशा बढ़ी रहती थी। इवान याकोव्लेविच का दो-पाखा कोट (क्योंकि इवान याकोव्लेविच कभी फ्रॉक-कोट नहीं पहनता था) चितकबरा था, मतलब यह कि वह काला तो था लेकिन उस पर पीलाहट लिये कत्थई रंग के और सुरमई धब्बे पड़े थे उसका कालर चीकट होकर चमकने लगा था, और तीन बटनों की जगह उसके सामने सिर्फ़ धागे लटकते रहते थे। इवान याकोव्लेविच बहुत नकचढ़ा था, और जब कालिजिएट असेसर कोवालेव दाढ़ी बनवाते वक़्त उससे कहताः ‘‘इवान याकोव्लेविच, तुम्हारे हाथों से हमेशा बदबू आती है।’’ तो इवान योकोव्लेविच तड़ से जवाब देताः ‘‘कोई वजह तो मेरी समझ में आती नहीं कि उनसे बदबू क्यों आये।’’ ‘‘यह तो मैं जानता नहीं, बड़ेमियां, लेकिन आती है,’’ कालिजिएट असेसर कहता, और इवान याकोव्लेविच एक चुटकी नसवार नाक में चढ़ाकर इसके जवाब में उसके गालों पर, उसकी नाक के नीचे, उसके कानों के पीछे, और उसकी ठोड़ी के नीचे, मतलब यह कि जहाँ भी उसके मन में आता, साबुन मल-मलकर झाग उठाता रहता।

तो यह बंदा अब इसाकियेव्स्की पुल पर पहुँच चुका था। सबसे पहले तो उसने अपने चारों ओर नज़र दौड़ायी फिर वह जंगले के ऊपर से इस तरह झुककर पुल के नीचे झांकने लगा मानो यह पता लगा रहा हो कि आज नदी में मछलियाँ बहुत आयी हैं कि नहीं, और फिर उसने चुपके से वह कपड़ा जिसमें नाक लिपटी हुई थी नीचे गिरा दिया। उसे ऐसा लगा कि उसके कंधों पर से कई मन का बोझ उतर गया है इवान याकोव्लेविच किलकारी मारकर हँस भी पड़ा। सरकारी अफ़सरों की हजामत करने के लिए जाने के बजाय उसने अपने क़दम एक ऐसे प्रतिष्ठान की ओर मोड़े जिसके सामने साइनबोर्ड लगा हुआ थाः ‘खाद्य-सामग्री और चाय’ वहाँ जाकर वह एक गिलास पंच मंगाकर पीने का इरादा कर ही रहा था कि पुल के दूसरे छोर पर उसे बहुत रोबदार शक्ल-सूरत के, गलमुच्छोंवाले पुलिस के एक सुपरिंटेंडेंट तिकोनी टोपी लगाये हुए और कमर में तलवार लटकाये दिखायी दिये। वह ठिठककर रह गया इतने में पुलिस सुपरिंटेंडेंट ने उसकी ओर अपनी उंगली टेढ़ी करके इशारा किया और कहाः ‘‘इधर आओ, भले आदमी!’’

ऐसी परिस्थितियों में उचित आचरण क्या होना चाहिये, यह जानते हुए इवान यालोव्लेविच ने काफ़ी दूर से ही अपनी टोपी उतार ली और उनकी ओर लपकता हुआ बोलाः

‘‘सलाम, हुज़ूर!’’

‘‘नहीं, नहीं, मेरे दोस्त, यह ‘हुज़ूर-वुज़ूर’ छोड़ो, मुझे तो यह बताओ कि तुम वहां पुल पर क्या कर रहे थे, क्यों?’’

‘‘झूठ बोलते हो! यह न समझना कि ऐसे बचकर निकल जाओगे। सच-सच बताओ, क्या बात है!’’

‘‘मैं हफ़्ते में दो बार, बल्कि तीन बार, हुज़ूर की दाढ़ी बिना किसी चूं-चपड़ के बना दिया करूंगा,’’ इवान याकोव्लेविच ने जवाब दिया।

‘‘नहीं, मेरे दोस्त, इससे काम नहीं चलेगा। मेरी दाढ़ी बनाने के लिए तीन हज्जाम पहले ही से लगे हुए हैं, और वे सभी इसे अपने लिए बड़ी इज़्ज़त की बात समझते हैं। इस वक़्त तो यह बताओ कि तुम वहाँ कर क्या रहे थे?’’

इवान याकोव्लेविच का रंग फ़क़ हो गया लेकिन यहाँ पहुँचकर घटनाओं पर कुहरे का एक परदा-सा पड़ गया है और हमें कुछ भी नहीं मालूम है कि इसके बाद क्या हुआ।

2

कालिजिएट असेसर कोवालेव काफ़ी सबेरे उठा और सांस बाहर छोड़ते हुए ज़ोर की आवाज़ निकालीः ‘‘ब्र-र्र-र्र-र्र!’’ जैसा कि वह जागने पर हमेशा करता था, हालांकि ऐसा करने की कोई वजह वह खुद भी नहीं जानता था। उसने अंगड़ाई लेकर सिंगार-मेज़ पर रखा हुआ छोटा आईना मंगाया। वह उस फुंसी को देखना चाहता था जो उसकी नाक पर पिछली रात निकल आयी थी लेकिन यह देखकर तो उसके आश्चर्य की कोई सीमा न रही कि जहाँ पर उसकी नाक होनी चाहिये थी वहाँ एक चौरस जगह थी! डरकर उसने थोड़ा-सा पानी मंगवाया और तौलिये से अपनी आंखें धोयीं बात सच थी, उसकी नाक ग़ायब थी। इस बात का पक्का यक़ीन करने के लिए कि वह अभी तक सो नहीं रहा है उसने अपने चुटकी काटी। लेकिन पता यह चला कि वह सो नहीं रहा था। कालिजिएट असेसर कोवालेव बिस्तर से उछलकर खड़ा हो गया और उसने अपने बदन को झंझोड़ाः नाक नदारद! उसने फ़ौरन अपने कपड़े मंगवाये और पुलिस कमिश्नर के दफ़्तर की ओर लपका।

लेकिन इस बीच हम पाठक का परिचय कोवालेव से करा दें ताकि वह खुद समझ सके कि हमारा कालिजिएट असेसर किस कि़स्म का आदमी था। जो कालिजिएट असेसर विद्योपार्जन के विभिन्न प्रमाणपत्रों की सहायता से यह पद प्राप्त करते हैं उनकी तुलना उन कालिजिएट असेसरों से कदापि नहीं की जानी चाहिये जो यह पद काकेशस में प्राप्त करते हैं। ये दो बिल्कुल ही अलग कोटियाँ होती हैं।

विद्वान कालिजिएट असेसर और लेकिन रूस ऐसी असाधारण जगह है कि अगर आप एक कालिजिएट असेसर के बारे में कुछ कहें तो रीगा से कमचात्का तक निश्चित रूप से सभी उसे अपने ऊपर आक्षेप मानेंगे।

यही बात सभी पदों और ओहदों के बारे में सच है। कोवालेव काकेशियाई कालिजिएट असेसर था। उसे इस पद पर आये अभी दो ही साल हुए थे, और इसलिए वह अभी तक अपनी इस नवप्राप्त प्रतिष्ठा के नशे में बिल्कुल चूर था अपना महत्त्व और रौब बढ़ाने के लिए वह अपने आपको कालिजिएट असेसर कहने के बजाय हमेशा मेजर कहता था। सड़क पर कोई क़मीज़ बेचनेवाली मिल जाती तो वह उससे कहताः ‘‘सुन, भलीमानस, मेरे यहाँ आ जानाः मेरा फ़्लैट सदोवाया स्ट्रीट में है किसी से पूछ लेना मेजर कोवालेव कहाँ रहते हैं, वह बता देगा।’’ और अगर कोई ख़ास तौर पर सुंदर-सलोनी छोकरी दिखायी पड़ जाती तो वह उसे बड़ी राज़दारी से इतनी हिदायत और देताः ‘‘मेरी मैना, तुम बस मेजर कोवालेव का घर पूछ लेना।’’- इसलिए इसके बाद हम भी अपने कालिजिएट असेसर को मेजर कहेंगे।

मेजर कोवालेव को रोज़ नेव्स्की एवेन्यू पर टहलने की आदत थी। उसकी क़मीज़ का कॉलर हमेशा दूध की तरह सफ़ेद और कलफ़ किया हुआ होता था। उसके गलमुच्छे उस ढंग के थे जैसे अब भी ज़िले के सर्वेयर, आर्किटेक्ट, रेजिमेंट डॉक्टर, तरह-तरह के पुलिसवाले, और आम तौर पर वे सभी शरीफ़ लोग रखते हैं जिनके भरे-भरे लाल गाल होते हैं और जिन्हें बोस्टन खेलने का शौक़ होता हैः ये गलमुच्छे ठीक गाल के बीच तक चले जाते हैं और वहाँ से बिल्कुल नाक तक पहुंच जाते हैं। मेज़र कोवालेव के पास बहुत-सी कार्नेलिया की मुहरें थीं जिनमें से कुछ पर ताज बने हुए थे कुछ पर दिनों के नाम बुधवार, गुरुवार, सोमवार आदि खुदे हुए थे। मेजर कोवालेव एक ख़ास काम से सेंट पीटर्सबर्ग आया था, यानी अपनी हैसियत के मुताबिक कोई ओहदा पक्का करने। अगर वह कामयाब हो जाता तो यह ओहदा नायब गवर्नर के स्तर का होता, अगर न होता तो वह किसी महत्त्वपूर्ण विभाग में प्रशासक का ही काम करने पर राज़ी हो जाता। मेजर कोवालेव शादी करने के विचार के भी खि़लाफ़ नहीं था लेकिन बस इस शर्त पर कि उसकी दुल्हन के पास दो लाख की पूंजी हो। इसलिए पाठक अब खुद अंदाज़ा लगा सकता है कि औसत आकार की ऐसी नाक के बजाय जो कोई ख़ास बदसूरत भी नहीं थी, एक हास्यास्पद, ख़ाली और चिकनी जगह का वर्णन करते समय हमारे इस मेजर की मनोदृाा क्या होती होगी।

दुर्भाग्य से सड़क पर एक भी घोड़ागाड़ी नहीं दिखायी दे रही थी, इसलिए मजबूर होकर उसे अपना लबादा लपेटे हुए और अपने चेहरे को रूमाल से ढके पैदल ही चलना पड़ा, उस आदमी की तरह जिसके नकसीर फूटी हो। ‘‘लेकिन हो सकता है कि यह सब मेरा वहम होः नाक ऐसे तो ग़ायब नहीं हो सकती है।’’ वह ख़ास तौर पर आईना देखने के इरादे से पेस्ट्री की एक दुकान में गया। सौभाग्य से उस समय दुकान में कोई नहीं थाः वेटर कमरों में झाडू लगा रहे थे और कुर्सियाँ ठीक से रख रहे थे उनमें से कुछ गरम-गरम टिकियों की ट्रे लेकर आ रहे थे काफ़ी के धब्बे पड़े हुए कल के अख़बार मेज़ों पर और कुर्सियों पर इधर-उधर पड़े थे। ‘‘चलो, भगवान की औपा से यहां कोई है नहीं, उसने कहा, अब मैं देख सकता हूँ।’’ वह डरते-डरते आईने की ओर बढ़ा और उसमें झांकने लगाः ‘‘क्या मनहूस लानत है!’’ उसने थूकते हुए कहा। ‘‘नाक की जगह कुछ तो होता, लेकिन इस तरह बिना किसी चीज़ के रह जाना!ण्’’

झुंझलाकर अपने होंट काटते हुए वह पेस्ट्री की दुकान से निकल आया और उसने फ़ैसला किया कि अपने दस्तूर के खि़लाफ़ वह न किसी की तरफ़ देखेगा, न किसी को देखकर मुस्करायेगा। अचानक एक दरवाज़े के पास पहुँचने पर एक ऐसा अत्यंत अविश्वसनीय दृश्य उसकी आंखों के सामने आया कि वह ठिठककर रह गयाः एक गाड़ी फाटक के सामने आकर रुकी दरवाज़े खुले एक अफ़सर झुककर फुर्ती से कूदकर नीचे उतरा और भागता हुआ सीढ़ियाँ चढ़ गया।

     आप कोवालेव के विस्मय और आश्चर्य की कल्पना कीजिये जब उसने पहचाना कि वह आदमी कोई और नहीं उसकी अपनी नाक था! यह असाधारण दृश्य देखकर वह हैरत से चकरा गया और अपने पांव भी बड़ी मुश्किल से ही टिकाये रख सका लेकिन उसने फै़सला किया कि हर क़ीमत पर वह नाक के अपनी गाड़ी के पास वापस आने की राह देखेगा और वह ऐसे कांपता रहा जैसे उसे बुखार हो। वही हुआ, दो मिनट बाद नाक महाशय निकले। वह सख़्त और ऊँचे कालर की सुनहरी झालरोंवाली वर्दी पहन थे उन्होंने स्वेड की पतलून पहन रखी थी और उनकी कमर के एक तरफ़ तलवार लटकी थी। उनकी परदार हैट से ज़ाहिर था कि वे स्टेट काउंसिलर बनते थे। उनकी चाल-ढाल से यह भी साफ़ था कि वह किसी से मिलने जा रहे थे। उन्होंने चारों ओर नज़र डालकर कोचवान को आवाज़ दीः ‘‘इधर!’’ गाड़ी में सवार हुए और गाड़ी सरपट चल दी।

बेचारे कोवालेव के तो मानो होश उड़ गये। उसकी समझ में न आता था कि इस अत्यंत असाधारण घटना का क्या मतलब लगाये। और सचमुच, इस बात की वजह बतायी भी क्या जा सकती थी कि एक नाक जो अभी कल तक उसके चेहरे पर लगी हुई थी, जो न गाड़ी पर चल सकती थी न पैदल, इस वक़्त वर्दी पहने हुए थी! वह गाड़ी के पीछे चल पड़ा, जो सौभाग्य से थोड़ी ही दूर जाकर कज़ान कैथीड्रल के सामने रुक गयी।

वह जल्दी से कैथीड्रल में घुसा और बूढ़ी भिखारिनों की क़तारों के बीच से, जिन्होंने आँखों के लिए दो पतली-पतली दरारें छोड़कर अपने चेहरे चीथड़ों में लपेट रखे थे, जिस दृश्य को देखकर पहले उसे हमेशा बहुत मज़ा आता था, गिरजाघर के अंदर जा पहुँचा। अंदर बहुत ज़्यादा उपासक नहीं थे और वे सब दरवाज़े के पास ही झुंड बनाये खड़े थे। कोवालेव इतना परेशान था कि वह प्रार्थना भी नहीं कर सकता था उसने बड़ी उत्सुकता से गिरजाघर में चारों ओर नज़र दौड़ायी कि शायद कहीं वह वर्दीवाले महाशय दिखायी पड़ जायें। आखिरकार उसने उन्हें एक ओर खड़े देखा। नाक महाशय ने अपना चेहरा पूरी तरह अपने ऊंचे सख़्त कालर में छिपा रखा था और वह असीम भक्ति-भाव से प्रार्थना कर रहे थे।

‘‘मैं उनके पास जाऊँ कैसे?’’ कोवालेव ने सोचा। ‘‘उनकी वर्दी और हैट से तो लगता है कि वह स्टेट काउंसिलर होंगे। हे भगवान! अब मैं करूं तो क्या करूं!’’

वह उनके पास पहुंचकर खांसा, लेकिन नाक महाशय पर कोई असर नहीं हुआ और वह अपनी बगुला भगतवाली मुद्रा बनाये वेदी के सामने झुक-झुककर शीश नवाते रहे।

‘‘मेहरबानण्’’ कोवालेव ने जान की बाज़ी लगाकर साहस बटोरते हुए कहा : ‘‘मेहरबान’’

‘‘क्या बात है?’’ नाक ने मुड़कर देखते हुए पूछा।

‘‘मुझे ताज्जुब है, जनाब मैं समझता हूँ आपको अपनी जगह मालूम होनी चाहिये। और देखिये, आपको मैंने पाया कहाँ-गिरजाघर में। यह तो आपको भी मानना पड़ेगाण्ण्’’

‘‘माफ़ कीजियेगा, लेकिन आप जो कुछ कह रहे हैं उसका सिर-पैर कुछ मेरी समझ में नहीं आ रहा है आप अपनी बात समझाकर कहिये।’’

‘‘मैं कैसे समझाऊँ?’’ कोवालेव ने सोचा, और एक बार फिर दिल कड़ा करके कहना शुरू किया :

‘‘बात यह है कि मैं दरअसल मैं एक मेजर हूँ। और, मुझे यक़ीन है कि आप भी मानेंगे कि मेरे लिए बिना नाक के फिरते रहना ज़रा नामुनासिब है। वोस्क्रेसेंस्की पुल पर बैठकर छिले हुए संतरे बेचने-वाली किसी औरत के लिए तो यह कोई बेजा बात न होती लेकिन चूंकि मुझे तरक़्क़ी पाने की उम्मीद है और चूंकि इसके अलावा मेरी पहचान कई जाने-माने घरानों की शरीफ़ औरतों से हैः स्टेट काउंसिलर चेख़्तार्योव की बीवी से, और दूसरी औरतों से आप खुद फै़सला कीजिये मेरी समझ में नहीं आ रहा है, जनाब, कि मैं अपनी बात कैसे कहूं’’ ;इतना कहकर मेजर कोवालेव ने अपने कंधे बिचकाये।द्ध ‘‘माफ़ कीजियेगा, अगर आप इसे खालिस फ़र्ज़ और इज़्ज़त की नज़र से देखें तो आपको मानना पड़ेगा।

‘‘कुछ समझ में नहीं आया,’’ नाक ने जवाब दिया। ‘‘इतनी मेहरबानी कीजिये कि अपनी बात साफ़-साफ़ कहिये।’’

‘‘मेहरबान’’ कोवालेव ने बड़ी गरिमा के साथ कहा ‘‘दरअसल है यह कि आपकी बात समझने में मुझे कुछ मुश्किल हो रही है मुझे तो सारी बात बिल्कुल साफ़ मालूम होती है या आप चााहते हैं कि  बात यह है कि आप मेरी अपनी नाक हैं!’’

नाक ने अपनी मुद्रा में कुछ नाराज़गी लाते हुए मेजर की ओर देखा।

‘‘आप भूल कर रहे हैं, मेहरबान! मेरी खुद अपनी एक हस्ती है। इसके अलावा, हमारे बीच कोई नज़दीकी रिश्ता हो भी नहीं सकता। आपकी वर्दी के बटन देखने से मालूम होता है कि आप किसी दूसरे विभाग में काम करते होंगे।’’

यह कहकर नाक ने मुंह फेर लिया और प्रार्थना करने का सिलसिला जारी रखा।

कोवालेव की समझ में अब बिल्कुल ही नहीं आ रहा था कि वह क्या करे या क्या सोचे भी। उसी वक़्त उसे किसी औरत के लिबास की सुखद सरसराहट सुनायी दीः काफ़ी बड़ी उम्र की एक महिला लैसों के ढेर में सजी-बनी चली आ रही थीं उनके साथ एक दूसरी दुबली-पतली युवती थी वह सफ़ेद लिबास पहने हुए थी, जो उसके छरहरे बदन पर बहुत फबता था, और उसने स्पंज-केक जैसे हल्की वसंती रंग की हैट लगा रखी थी। उनके पीछे बड़े-बड़े गलमुच्छों और पूरे दर्जन-भर कालरोंवाला एक लम्बा-सा अर्दली खड़ा था, जो नसवार की डिबिया खोल रहा था।

कोवालेव खिसककर कुछ और नज़दीक आ गया, उसने अपनी क़मीज़ का कैंब्रिक का कालर ऊपर उठाया, अपनी सोने की ज़ंजीर में लगी हुई मुहरों को ठीक किया और दाहिने-बायें मुस्कराहट बिखरते हुए अपना ध्यान उस कोमलांगी महिला की ओर मोड़ा, जो कुमुदिनी जैसे सफे़द अपने हाथ की लगभग पारदर्शी उंगलियों को अपने माथे की ओर उठाते हुए वसंत के फूलों की तरह थोड़ा-सा आगे को झुक आयी थी।

      उसकी हैट के नीचे एक गोल मलाई जैसी ठोड़ी और उसके गाल के एक हिस्से की झलक देखकर, जिस पर वसंत के पहले गुलाब का रंग थोड़ा-सा छुआ दिया गया था, कोवालेव की बाछें खिल गयीं। लेकिन अचानक वह पीछे हट गया मानो किसी गरम-गरम चीज़ से जल गया हो। उसे याद आ गया कि जहाँ उसकी नाक होनी चाहिये थी, वहाँ कुछ भी नहीं था, और उसकी आंखों में आँसू निकल आये। उन वर्दीधारी सज्जन को साफ़-साफ़ शब्दों में यह बता देने के लिए वह तेज़ी से मुड़ा कि वह स्टेट काउंसिलर होने का महज़ ढोंग कर रहे थे, कि वह सरासर जालिये और बदमाश थे और यह कि वह खुद उसकी अपनी नाक से न कुछ ज़्यादा थे न कम लेकिन नाक महाशय तो ग़ायब हो चुके थेः इस बीच वह वहां से खिसक गये थे, यक़ीनन किसी और से मिलने चले गये होंगे।

यह देखकर कोवालेव घोर निराशा में डूब गया। वह बाहर गया और एक मिनट के लिए बरामदे में खड़ा होकर इस उम्मीद से चारों ओर नज़र दौड़ाने लगा कि शायद नाक कहीं दिखायी दे जाये। उसे बिल्कुल अच्छी तरह याद था कि वह पर लगी हुई हैट और सुनहरी झालरवाली वर्दी पहने थे लेकिन उसने उनका वर्दी-कोट ध्यान से नहीं देखा था, न ही उनकी घोड़ागाड़ी का रंग देखा था, न उनके घोड़ों का, न ही यह बात कि उनके साथ कोई अर्दली था कि नहीं, और अगर था तो वह कैसी वर्दी पहने था। इसके अलावा, वहां इतनी बहुत-सी घोड़ागाड़ियां इतनी तेज़ी से इधर-उधर आ-जा रही थीं कि वह उन्हें अलग-अलग पहचान भी नहीं सकता था और पहचानकर करता भी क्या, वह उन्हें रोक तो सकता नहीं था। शानदार धूप निकली हुई थी। नेव्स्की पर लोगों की भीड़ थी पोलित्सेइस्की पुल से अनिचकिन पुल तक सड़क के किनारे की पटरियों पर फूलों जैसी महिलाओं का एक झरना बह रहा था। उधर दूर उसकी जान-पहचान का एक आदमी उसे दिखायी दिया, एक ऑलिक काउंसिलर जिसे वह लेफ्टिनेंट-कर्नल कहकर सम्बोधित करता था, ख़ास तौर पर दूसरे लोगों के सामने। उन लोगों में उसे यारीगिन दिखायी दिया, जो उसका बहुत अच्छा दोस्त था और सीनेट के किसी विभाग का प्रधान था बोस्टन खेलते हुए जब भी वह अट्ठे पर दांव लगाता था तो हार जाता था। पास ही एक दूसरे मेजर ने, जिसने अपना असेसर का पद काकेशस में हासिल किया था, उसे इशारा करके बुलायाण्.

‘‘लानत है!’’ कोवालेव ने कहा। ‘‘ऐ गाड़ीवाले, मुझे सीधे पुलिस कमिश्नर साहब के यहां ले चलो!’’

कोवालेव गाड़ी पर चढ़ गया और वहां बैठकर गाड़ीवाले पर चिल्लाता रहाः ‘‘सरपट भगाओ, जल्दी करो!’’

‘‘कमिश्नर साहब घर पर हैं?’’ उसने ड्योढ़ी में दाख़िल होते हुए चिल्लाकर पूछा।

‘‘साहब तो नहीं हैं,’’ दरबान ने जवाब दिया, ‘‘अभी-अभी बाहर गये हैं।’’

‘‘लानत है!’’

‘‘हाँ,’’ दरबान कहता रहा, ‘‘बहुत देर नहीं हुई, लेकिन वह चले गये हैं। कोई मिनट-भर पहले भी आप आ जाते तो मुलाक़ात हो जाती।’’

कोवालेव तमाम वक़्त अपने चेहरे पर रूमाल रखे, फिर गाड़ी पर बैठ गया और ऊँचे स्वर में चिल्लाकर बोलाः ‘‘चलो, आगे चलो!’’

‘‘कहाँ?’’ गाड़ीवाले ने पूछा।

‘‘सीधे आगे!’’

‘‘सीधे कैसे जा सकता हूँ? आगे दो सड़कें हैंः बायें चलूं या दाहिने?’’

इस सवाल पर कोवालेव को मजबूरन रुककर सोचना पड़ा।

        उसकी जैसी हालत में तो पुलिस के सार्वजनिक व्यवस्था मंडल की तरफ़ ही रुख़ करना सबसे अच्छा रहेगा, इसलिए नहीं कि उसका सीधा सम्बंध पुलिस के साथ था, बल्कि इसलिए कि वह दूसरे अधिकारियों के मुक़ाबले काम ज़्यादा जल्दी करवा देता था उसी जगह, जहाँ नाक महाशय काम करने का दावा करते थे, अपनी शिकायत दूर कराने की कोशिश करना सरासर नासमझी की बात होगी। खुद नाक के अपने बयानों से ज़ाहिर था कि यह जीव किसी भी चीज़ को ख़ातिर में नहीं लाता था और इस वक़्त भी वह वैसे ही झूठ बोलेगा जैसे वह उस वक़्त झूठ बोला था जब उसने दावा किया था कि उसने मेजर कोवालेव की कभी सूरत भी नहीं देखी थी। कोवालेव गाड़ीवाले को पुलिस सार्वजनिक व्यवस्था-मंडल की ओर ले चलने का आदेश देने जा ही रहा था कि इतने में एक दूसरा विचार उसके दिमाग़ में आया, यानी यह कि यह बदमाश और दग़ाबाज़, जो उनकी पहली ही मुलाक़ात में इतनी चालबाज़ी से पेश आया था, कई शहर छोड़कर नौ दो ग्यारह न हो गया हो। उस हालत में उसे खोजने की तमाम कोशिशें या तो बिल्कुल ही बेकार साबित होंगी, या फिर, भगवान न करे, पूरे महीने-भर चलती रहेंगी। आखिरकार, जैसे उसे कोई दैवी प्रेरणा मिली। उसने सीधे अख़बार के दफ़्तर जाने और ब्योरे के साथ उसके सारे गुण बयान करते हुए जल्दी से जल्दी एक इश्तहार छपवाने का फ़ैसला किया ताकि अगर कोई उसे देखे तो वापस लाकर उसके पास पहुंचा दे, या कम से कम उसका अता-पता बता दे। इस फै़सले पर पहुंचकर उसने गाड़ीवाले से सीधे अख़बार के दफ़्तर चलने को कहा, और सारे रास्ते चिल्लाते हुए उसकी पीठ पर घूंसों की बौछार करता रहाः ‘‘और तेज़ चल, बदमाश! और तेज़, लुच्चे!’’-‘‘उफ़, साहब!’’ गाड़ीवाले ने अपना सिर हिलाते हुए और कुत्ते जैसे झबरे बालोंवाले घोड़े की रास को झटका देते हुए ग़ुर्राकर कहा। आख़िरकार घोड़ागाड़ी रुकी और कोवालेव हांफता हुआ भागकर छोटे-से स्वागत-कक्ष में पहुंचा जहाँ सफे़द बालों वाला एक क्लर्क चश्मा लगाये और पुराना टेल-कोट पहने एक मेज़ के सामने बैठा था और चिड़िया के पर का अपना क़लम होंठों में दबाये सिक्कों का एक ढेर गिन रहा था जो उसके सामने लाकर रख दिये गये थे।

‘‘यहाँ इश्तहार कौन लेता है?’’ कोवालेव ने चिल्लाकर पूछा। ‘‘अहा-सलाम!’’

‘‘सलाम,’’ सफ़ेद बालोंवाले क्लर्क ने क्षण-भर के लिए आंखें उठाकर कहा और फिर उसने सिक्कों की गड्डियों पर अपनी नज़रें झुका लीं।

‘‘मैं छपवाना चाहता हूँ कि’’

‘‘ज़रा रुकिये। मेहरबानी करके थोड़ा सब्र कीजिये,’’ क्लर्क ने अपने दाहिने हाथ से कोई गिनती लिखकर बायें हाथ से गिनतारे पर दो गोलियां सटका दीं।

एक अर्दली, जिसने सुनहरी गोट लगी हुई वर्दी पहन रखी थी और जिसकी सूरत ही बताती थी कि वह किसी रईस के यहां काम करता था, मेज़ के पास हाथ में एक पर्चा लिये खड़ा था, और कुछ ज़रूरत में ज़्यादा बेतकल्लुफ़ी दिखाता अपने लिये ज़रूरी समझकर वह बोलाः

‘‘जानते हैं, साहब, वह कमबख्त कुत्ता अस्सी कोपेक का भी नहीं है, मैं तो उसके लिए पीतल का एक बटन भी न दूं लेकिन काउंटेस को उससे प्यार है, बेहद प्यार करती है उसे, और इसलिए वह उसका पता लगानेवाले को सौ रुबल ईनाम तक देने को तैयार हैं! अगर आप मेरी सच्ची राय पूछें तो लोगों की पसंद तरह-तरह की हैं अब अपने शिकारी को ही ले लीजिये, उसे शिकार का सुराग़ लगानेवाले या शिकार ढूंढकर लानेवाले कुत्ते के लिए पांच सौ तो क्या हज़ार रुबल भी देने में कोई एतराज़ नहीं होगा, लेकिन वह एक अच्छे कुत्ते की क़ीमत चुका रहा होता है।’’

क्लर्क महोदय बड़ी गम्भीर मुद्रा बनाये उसका प्रवचन सुनते रहे और साथ ही यह गिनकर हिसाब भी लगाते रहे कि जो इश्तहार उसके पास लाया गया था उसमें कितने अक्षर थे।

       उसके चारों ओर बहुत-सी बुढ़ियां, गुमाश्ते और दरबान पर्चियाँ लिये हुए मंडला रहे थे। किसी में एक ऐसे कोचवान को नौकरी की तलाश थी जो शराब नहीं पीता था किसी में 1814 में पेरिस में खरीदी गयी ऐसी घोड़ागाड़ी बेचने का इश्तहार था जो बहुत कम इस्तेमाल हुई थी किसी और में एक उन्नीस साल की ऐसी बंधक नौकरानी के लिए नौकरी की ज़रूरत की बात कहीं गयी थी जिसने कपड़ों की धुलाई का काम सीखा था, लेकिन दूसरे काम भी कर सकती थी किसी को एक ऐसी मज़बूत घोड़ागाड़ी के लिए खरीदार की ज़रूरत थी जिसकी एक कमानी ग़ायब थी किसी को केवल सत्रह साल के फुर्तीले नौजवान सुरमई चित्तियोंवाले घोड़े के लिए किसी को लंदन से मंगाये गये शलजम और मूली के बीजों के लिए किसी को ज़मीन के एक बड़े-से टुकड़े पर बने हुए बंगले के लिए जिसमें दो घोड़ों के लिए अस्तबल भी थे और जो बर्च या फ़र के बाग़ लगाने के लिए बहुत अच्छी जगह थी। एक और इश्तहार में उन सब लोगों का ध्यान आकर्षित किया गया था जो जूतों के पुराने तले खरीदना चाहते हों और उन्हें किसी भी दिन सबेरे 8 बजे से शाम के 3 बजे तक नीलामघर में आने का निमंत्रण दिया गया था। वह कमरा जिसमें ये सब लोग जमा थे उसकी लम्बाई-चौड़ाई बहुत कम थी और उसमें हवा बेहद घुटन-भरी थी लेकिन कालिजिएट असेसर को वातावरण का कुछ भी आभास नहीं था, क्योंकि वह अपने चेहरे पर रूमाल रखे हुए था और बहरहाल उसकी नाक इस वक़्त भगवान जाने कहां थी।

‘‘मेहरबान, सच कहता हूँ, आप इसे तो कर ही दीजिये बहुत ज़रूरी है,’’ उसने अधीर होकर कहा।

‘‘अभी, पल भर में! दो रूबल तैंतालीस कोपेक! अभी करता हूँ! एक रूबल चौंसठ कोपेक!’’ काग़ज़ की पर्चियां बुढ़ियों और दरबानों के मुंह पर फेंकते हुए सफे़द बालोंवाले क्लर्क ने कहा। ‘‘आपको क्या चाहिये?’’ आखिरकार उसने कोवालेव की ओर मुड़कर कहा।

‘‘मैं चाहता हूँ किण्’’ कोवालेव ने कहा, ‘‘बहुत बड़ी ग़द्दारी की नीच हरकत की गयी है, अभी तक मेरी समझ में नहीं आता कि हुआ क्या है। मैं चाहता हूँ कि आप यह छाप दीजिये कि जो आदमी इस बदमाश को मेरे पास पकड़ लायेगा उसे बहुत-सा ईनाम दिया जायेगा।’’

‘‘क्या मैं आपका नाम जान सकता हूँ?’’

‘‘जी नहीं, आपको मेरे नाम की क्या ज़रूरत? वह मैं आपको नहीं बता सकता। मेरे बहुत-से जाननेवाले हैंः चेख्तार्योवा, स्टेट काउंसिलर की बीवी, पलायेगा ग्रिगोर्येव्ना पोद्तोचिना, स्टाफ़ अफ़सर की बीवी उनकी नज़र इस पर पड़ सकती है, भगवान न करे! आप सिर्फ़ इतना लिख दीजियेः एक कालिजिएट असेसर, या इससे भी अच्छा होगा, मेजर के ओहदे के एक सज्जन।’’

‘‘और जो आदमी भाग गया है वह आपका बंधक नौकर था?’’

‘‘ क्या कहा, मेरा बंधक नौकर? जी नहीं, इससे भी बुरी बात है! लापता मेरा नौकर नहीं हुआ है जी नहीं-बल्कि लापता है नाक’’

‘‘अच्छा! कैसा अजीब नाम है। और यह नाक महाशय आपको बहुत बड़ी रक़म की चोट देकर चंपत हो गये हैं?’’

‘‘जी नहीं, नाक महाशय नहीं आप ग़लत समझे! मेरे जिस्म का नाक जैसा हिस्सा, मेरे अपने जिस्म का, न जाने कहां ग़ायब हो गया। शैतान मेरे साथ कोई भयानक खिलवाड़ कर रहा है!’’

‘‘लेकिन वह ग़ायब कैसे हो गया? माफ़ कीजियेगा, मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आया।’’

‘‘समझ में तो खुद मेरी भी नहीं आता लेकिन असल बात यह है कि इस वक़्त वह स्टेट काउंसिलर का भेस बनाये शहर में घूम रहा है।

    इसलिए मैं आपसे यह प्रार्थना करते हुए एक इश्तहार छाप देने को कह रहा हूँ कि जिस किसी की पकड़ में वह आ जाये वह उसे फ़ौरन ज़रा-भी देर किये बिना मेरे पास ले आये। आप खुद ही सोचियेः मैं अपने जिस्म के ऐसे प्रमुख हिस्से के बिना कैसे रह सकता हूँ?- ऐसा तो है नहीं कि मेरे पांव की कोई उंगली कट गयी हो, और इससे पहले कि कोई यह देख पाये कि वह नदारद है मैं अपना पांव जूते में डाल लूं। हर गुरुवार को मैं स्टेट काउंसिलर चेख्तार्योव की बीवी से मिलने जाता हूँ पलागेया ग्रिगोर्येव्ना पोद्तोचिना एक स्टाफ़ अफ़सर की बीवी है और उसके एक बहुत खूबसूरत बेटी है, और वे दोनों मेरी बहुत अच्छी दोस्त हैं, इसलिए आप खुद समझ सकते हैं कि मैं कैसे धर्मसंकट में फंस गया हूँ अब मैं उनके सामने मुंह भी नहीं दिखा सकता।’’

क्लर्क एक क्षण के लिए चिंतामग्न हो गया, जैसा कि उसके कसकर भिंचे हुए होटों से साफ़ ज़ाहिर था।

‘‘नहीं, मैं ऐसा इश्तहार अख़बार में नहीं छाप सकता,’’ उसने काफ़ी देर चुप रहने के बाद आख़िकार कहा।

‘‘क्या कहा? क्यों नहीं छाप सकते?’’

‘‘नहीं छाप सकता। अख़बार की बदनामी होने का डर है। अगर हर आदमी यह लिखने लगे कि उसकी नाक भाग गयी है, तो सोचिये यों ही लोग कहते हैं कि अख़बार दुनिया-भर की बकवास और झूठी ख़बरें छापते रहते हैं।’’

‘‘लेकिन इसमें बकवास क्या है? बिल्कुल आईने की तरह साफ़ बात है।’’

‘‘ऐसा तो आपको लगता है। लेकिन पिछले हफ़्ते का यह मामला ले लीजिए। जिस तरह आज आप आये हैं उसी तरह एक अफ़सर एक पर्चा लेकर आया था, जिसे छापने का ख़र्च दो रूबल तिहत्तर कोपेक आता था और इस इश्तहार में सिर्फ‍ इतनी बात कही गयी थी कि काले बालोंवाला एक पूडल कुत्ता भाग गया है। देखने में तो कोई ऐसी ग़ैरमामूली बात नहीं थी। लेकिन आख़िर में इस बात पर मानहानि का मुक़द्दमा चला, क्योंकि वह पूडल कुत्ता किसी संस्था का खजांची था, संस्था का नाम तो मुझे याद नहीं रहा।’’

‘‘लेकिन मैं तो किसी पूडल कुत्ते के बारे में इश्तहार नहीं छपवा रहा हूँ यह तो मेरी अपनी नाक का मामला है, जो लगभग वैसी ही बात है कि यह खुद मेरा अपना मामला है।’’

‘‘माफ़ कीजियेगा, मैं इस तरह का इश्तहार नहीं छाप सकता।’’

‘‘मेरी नाक सचमुच खो गयी हो तब भी नहीं!’’

‘‘अगर ऐसी बात है तो यह डाक्टरों के लायक़ काम है। सुना है अब तो ऐसे लोग हैं जो आपके जिस तरह की नाक आप चाहें लगा सकते हैं। लेकिन, बहरहाल, मैं तो समझता हूँ कि आप खुशमिज़ाज आदमी हैं और आपको मज़ाक़ करने का शौक़ है।’’

‘‘मैं क़सम खाकर कहता हूँ, अपनी जान की क़सम खाकर! चूँकि नौबत यहां तक पहुंच गयी है, इसलिए मैं आपको दिखाये देता हूँ।’’

‘‘रहने दीजिये!’’ क्लर्क नाक में नसवार चढ़ाते हुए कहता रहा।

‘‘दरअसल, अगर आपको बहुत ज़्यादा तकलीफ़ न हो,’’ उसने जिज्ञासा से नज़र उठाकर कहा, ‘‘तो मैं देख ही लूँ।’’

कालिजिएट असेसर कोवालेव ने अपने चेहरे पर से रूमाल हटा दिया।

‘‘अरे, यह तो कमाल हो गया!’’ क्लर्क बोला। ‘‘यह जगह तो बिल्कुल चिकनी है, ताज़ी सिंकी हुई चपाती की तरह। सच तो यह है कि कमाल की हद तक चिकनी है!’’

‘‘मैं समझता हूँ कि अब आपके सारे एतराज़ दूर हो गये होंगे! आप खुद समझ सकते हैं कि इश्तहार तो छपना ही चाहिये। मैं आपका बेहद एहसान मानूंगा, और मुझे बहुत खुशी है कि इस घटना की वजह से मुझे आपसे परिचित होने का सौभाग्य मिला’’

जैसा कि हम देखते हैं, इस मौके़ पर पहुंचकर मेजर ने थोड़ी-सी खुशामद से काम लेने की कोशिश करने का फै़सला किया था।

‘‘छाप देना तो बहुत आसान बात है,’’ क्लर्क ने कहा। ‘‘बस, मेरी समझ में यह नहीं आता कि उससे आपका भला क्या हो सकता है। अगर आप इस मामले में कुछ करने पर ही तुले हुए हैं तो आप किसी ऐसे आदमी को खोजिये जो शब्दों के साथ खेलना जानता हो, उससे इस बात को प्रऔति की एक अनहोनी घटना के रूप में लिखवाइये और फिर उस लेख को ‘उत्तरी मधुमक्खी’ नामक अख़बार में छपवाइये’’ ;यहां पर उसने एक चुटकी नसवार और चढ़ा लीद्ध, ‘‘ताकि हमारे नौजवानों की कुछ जानकारी बढ़े’’ ;यहां पर उसने अपनी नाक पोंछीद्ध, ‘‘सच तो यह है कि आम पढ़नेवालों को उनकी दिलचस्पी की कोई चीज़ मिल सके।’’

यह सुझाव अंतिम आघात था। कालिजिएट असेसर कोवालेव ने अपनी नज़रें अख़बार पर झुका लीं और वे नाटकोंवाले स्तंभ पर जाकर पड़ीं एक सुंदर नौजवान अभिनेत्री का नाम पढ़ते ही उसके चेहरे पर मुस्कराहट आने ही वाली थी, और उसका हाथ यह देखने के लिए जेब तक पहुंचा ही था कि उसके पास पांच रूबल का नोट था कि नहीं, क्योंकि कोवालेव की राय में स्टाफ़ अफ़सरों को सिर्फ‍ सबसे ऊँचे दर्जे में जाकर बैठना चाहिये- लेकिन तभी उसे अपनी नाक की याद आयी और उसका दिल बैठ गया।

ऐसा लग रहा था कि कोवालेव की हालत पर क्लर्क को भी तरस आ रहा था। उसे थोड़ी-बहुत तसल्ली देने के इरादे से उसने थोड़े-से शब्दों में अपनी सहानुभूति प्रकट कर देना उचित समझाः

‘‘मुझे सचमुच बहुत अफ़सोस है कि आपके साथ ऐसी मसखरेपन की दुर्घटना हुई है। शायद आप एक चुटकी नसवार लेना चाहेंगे? इससे सिरदर्द में राहत मिलती है और तबियत बाग़-बाग़ हो जाती है इससे बवासीर में भी फ़ायदा होता है।’’

यह कहकर क्लर्क ने अपनी नसवार की डिबिया कोवालेव के आगे बढ़ा दी और बड़ी होशियारी का सबूत देते हुए उसका ढक्कन उसके नीचे लगा दिया, जिस पर हैट पहने हुए एक महिला की तस्वीर बनी थी।

यह नादानी की हरकत कोवालेव की बर्दाश्त के बाहर थी।

‘‘मेरी समझ में नहीं आता कि आप इस तरह का मज़ाक़ कैसे कर सकते हैं,’’ उसने ताव खाकर कहा। ‘‘आपको यह तो दिखायी ही दे रहा है कि मेरे पास नसवार का आनंद लेने को कुछ भी नहीं रहा? भाड़ में जाये आपकी नसवार! मैं इस चीज़ को देखना भी गवारा नहीं कर सकता, वह सबसे बढ़िया क़िस्म की ही क्यों न हो, इस सस्ते बेरेजिंस्की तंबाकू के चूरे की तो बात ही छोड़िय़े।’’

इतना कहकर वह बेहद ताव में अख़बार के दफ़्तर से बाहर निकल गया और सुपरिंटेंडेंट पुलिस से मिलने के लिए चल पड़ा, जो शकर का बहुत शौक़ीन था। उसका सामनेवाला पूरा कमरा, जो उसका खाने का कमरा भी था, शकर के पिंडों की नुमाइश के काम आता था, जो उसे दुकानदार अपनी दोस्ती की निशानी के तौर पर लाकर देते थे। इस वक़्त सुपरिंटेंडेंट की बावर्चिन उसके लंबे जूते उतारने में व्यस्त थी उसकी तलवार और दूसरा सारा फ़ौजी ताम-झाम बड़ी शांति से कमरे के अलग-अलग कोनों में लटका दिया गया था और उसका तीन साल का बेटा अपने बाप की डरावनी तिकोनी टोपी से खेल रहा था, जबकि वह सूरमा खुद दिन-भर लड़ाई में जूझने के बाद अब शांति के सुख का आनंद लेने को तैयार था।

कोवालेव को उसके सामने ठीक उस वक़्त पेश किया गया जब ज़ोर की अंगड़ाई लेकर और मज़े से ग़ुर्राकर वह एलान कर रहा थाः ‘‘वाह, दो घंटे डटकर सोने को मिल जाये तो मज़ा आ जाये!’’ इस तरह हम देखते हैं कि कालिजिएट असेसर ने वहाँ पहुंचने के लिए बहुत बुरा वक़्त चुना था। और मुझे तो यह भी शक है कि अगर वह अपने साथ कुछ पौंड चाय और कपड़े का थान भी लाया होता तब भी उसका स्वागत बड़े तपाक से न किया गया होता।

      सुपरिंटेंडेंट कला और वाणिज्य दोनों ही के सभी रूपों का बहुत बड़ा प्रशंसक था, लेकिन सबसे ज़्यादा पसंद उसे सरकारी बैंक के नोट थे। ‘‘यह चीज़ है जो मुझे पसंद है,’’ वह कहा करता था। ‘‘इनमें से किसी का भी जवाब नहीं हैः आपको खाना इसे नहीं खिलाना पड़ता, जगह यह बहुत कम घेरता है, जेब में इसके लिए हमेशा जगह रहती है, और अगर गिर पड़े तो टूटता नहीं।’’

सुपरिंटेंडेंट बड़ी बेरुख़ी से कोवालेव से मिला और बोला कि खाने के बाद का वक़्त छानबीन करने के लिए नहीं होता, खुद कु़दरत ने यह कानून बनाया है कि पेट-भर खाना खाने के बाद आदमी को थोड़ा आराम करना चाहिये (जिससे कालिजिएट असेसर को अंदाज़ा हो गया कि पुलिस सुपरिंटेंडेंट पुराने ज्ञानियों से भी परिचित था)  उसने यह राय ज़ाहिर की कि किसी भी बा-इज़्ज़त आदमी को इतनी बेरहमी से उसकी नाक से अलग नहीं किया जा सकता और यह कि इस दुनिया में भांति-भांति के मेजर होते हैं, कुछ के पास तो ढंग का अंडरवियर भी नहीं होता और वे बेहद बदनाम जगहों में जाते रहते हैं।

यह, बदकि़स्मती से, कोवालेव की दुखती हुई रग थी! हम यह बता दें कि कालिजिएट असेसर बहुत तुनकमिज़ाज आदमी था।

     खुद उसके बारे में चाहे जो कह दिया जाता उसे वह बर्दाश्त कर लेता, लेकिन अपने ओहदे या पद का अपमान वह कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता था। उसकी दलील यह भी थी कि नाटकों के अभिनय में मातहतों के बारे में तो कुछ भी कहने की इजाज़त दी जा सकती है, लेकिन स्टाफ़ अफ़सरों पर कोई चोट नहीं की जा सकती। सुपरिंटेंडेंट के इस तरह उसका स्वागत करने पर उसे ऐसा धक्का लगा कि उसने अपना सिर हिलाया और अपनी बांहें फैलाकर बड़ी गरिमा के साथ एलान कियाः ‘‘मुझे अफ़सोस है कि आपके मुंह से ऐसी जली-कटी बातें सुनने के बाद मैं और कुछ कह ही नहीं सकता’’ और यह कहकर वह चला गया।

वह अपने घर लौट आया उससे ठीक से खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था। शाम का झुटपुटा छाने लगा था। इस लंबी और व्यर्थ खोज के बाद उसे अपना फ़्लैट सूना और बिल्कुल नीरस लग रहा था। जब वह कमरे में घुसा तो उसने देखा कि उसका अर्दली इवान चमड़े की गंदी कोच पर लेटा मुंह भर-भरकर थूक निशाना लगाकर छत पर एक ख़ास लक्ष्य की ओर उछाल रहा था, और उस लक्ष्य पर निशाना लगाने में उसे काफ़ी सफलता भी मिल रही थी। उस आदमी की इस काहिली पर कालिजिएट असेसर को बेहद गुस्सा आया अपनी टोपी से उसके सिर पर ज़ोर की धप मारते हुए उसने चिल्लाकर कहाः ‘‘तू हमेशा वाहियात बातों में वक़्त बर्बाद करता रहता है, सुअर कहीं का!’’

इवान फ़ौरन उछलकर खड़ा हो गया और लबादा उतारने में मदद देने के लिए झपटकर अपने मालिक की बग़ल में पहुंच गया।

अपने कमरे में पहुंचकर मेजर निढाल होकर उदास भाव से एक आराम-कुर्सी पर ढेर हो गया और कुछ आहें भरने के बाद आखिरकार बोलाः

‘‘हे भगवान, मेरे भगवान! मैंने ऐसा क्या किया था जो मुझे यह सज़ा मिली? अगर मेरी बांह या टांग कट गयी होती तो कहीं अच्छा था या मेरे कान ही कट गये होते-तकलीफ़ तो होती लेकिन कम से कम बर्दाश्त तो की जा सकती थी लेकिन नाक के बिना तो आदमी कुछ रह ही नहीं जाताः न इंसान रह जाता है न जानवर, बल्कि भगवान ही जाने क्या हो जाता है! बस वह किसी तरह का कूड़ा हो जाता है जिसे खिड़की के बाहर फेंक दिया जाये! और अगर लड़ाई में या किसी द्वंद्व-युद्ध में उसे मुझसे छीन लिया जाता, या अगर अपनी किसी ग़ल्ती की वजह से मैंने उसे खो दिया होता, तब भी कोई बात थी लेकिन उसके ग़ायब हो जाने की कोई वजह ही नहीं थी, कोई तुक ही नहीं था, बस यों ही!  लेकिन नहीं, ऐसा नहीं हो सकता,’’ उसने एक क्षण सोचने के बाद कहा। ‘‘नाक का इस तरह ग़ायब हो जाना बिल्कुल अनहोनी बात है, क़तई नामुमकिन है। या तो मैं सपना देख रहा हूँ, या यह मेरा वहम है  शायद पानी के बजाय मैंने वह वोद्का पी ली होगी जो मैं दाढ़ी बनाने के बाद अपने चेहरे पर मलता हूँ। उस बुद्धू इवान ने उसे हटाया नहीं होगा और मैंने उसे उठा लिया होगा।

इस बात का पक्का यक़ीन कर लेने के लिए कि उसने पी नहीं रखी थी मेजर ने इतने ज़ोर से अपने चुटकी काटी कि वह दर्द के मारे चिल्ला उठा। इस पीड़ा से उसे पूरा विश्वास हो गया कि वह पूरी तरह जागा हुआ था। वह चुपके से दबे पांव आईने के पास गया और आंखें सिकोड़कर उसने इस उम्मीद से देखा कि उसकी नाक अपनी जगह वापस आ गयी होगी लेकिन आईने में अपनी सूरत देखकर वह उछलकर पीछे हट गया और बेचैन होकर चिल्लायाः ‘‘कैसा हास्यास्पद दृश्य है!’’

बात सचमुच समझ के बाहर थी। ऐसा तो था नहीं कि कोई बटन, या चांदी का कोई चम्मच, घड़ी या उस तरह की कोई चीज़ खो गयी हो लेकिन नाक का खो जाना, और सो भी खुद उसके अपने फ़्लैट में! मेजर कोवालेव ने सारी परिस्थितियों पर अच्छी तरह सोच-विचार करने के बाद फै़सला किया कि इस सारे मामले के लिए क़सूरवार कोई दूसरा नहीं बल्कि सिर्फ‍ स्टाफ़ अफ़सर पोद्तोचिन की बीवी थी, जो चाहती थी कि वह उसकी बेटी से शादी कर ले।

       दरअसल उसे उस लड़की से इश्क़ लड़ाने में तो मज़ा आता था, लेकिन कोई पक्का वादा करने से वह साफ़ कतरा जाता था। जब स्टाफ़ अफ़सर की बीवी ने खुले शब्दों में एलान कर दिया कि वह अपनी बेटी की शादी उसके साथ करना चाहती है तो वह बहुत-सी चिकनी-चुपड़ी बातों की बौछार करके माफ़ बच निकला था उसने कह दिया था कि अभी वह बहुत कम-उम्र था, कि उसे अभी पांच साल नौकरी और करनी होगी तब कहीं जाकर वह बयालीस साल की सही उम्र को पहुँचेगा। और इसलिए स्टाफ़ अफ़सर की बीवी ने ज़ाहिर-बज़ाहिर बदला लेने के इरादे से, उसे तबाह कर देने का फै़सला किया था और इस काम के लिए चुड़ैलों की मदद का सहारा लिया था, क्योंकि यह बात तो सोची भी नहीं जा सकती थी कि उसकी नाक काट ली गयी होगीः उसके कमरे में कोई आया नहीं था उसके हज़्ज़ाम इवान याकोव्लेविच ने आख़िरी बार उसकी दाढ़ी बुध को बनायी थी और बुधवार तथा गुरुवार के पूरे दिन भी उसकी नाक सही-सलामत थी,- यह बात उसे अच्छी तरह याद थी और उसे इस बात का पक्का यक़ीन था और फिर, उसे दर्द भी तो होना चाहिये था, और इस बात का तो कोई सवाल ही नहीं है कि घाव इतनी जल्दी भर जाता और बिल्कुल चपाती की तरह चिकना हो जाता। वह योजनाएं बनाने लगाः क्या वह बाक़ायदा सरकारी कार्रवाई के ज़रिये स्टाफ़ अफ़सर की बीवी को अदालत में ले जाकर खड़ा कर दे या जाकर उससे खुद मिले और उसके मुंह पर उसपर इल्ज़ाम लगाये।

      दरवाज़े की दरारों में से रोशनी ने आकर विचारों के इस क्रम को भंग कर दिया, और उसे सूचना दी कि इवान ने सामनेवाले कमरे में मोमबत्ती जला दी है। थोड़ी ही देर में इवान खुद अपने सामने मोमबत्ती लिये हुए आ गया और पूरे कमरे में रोशनी फैल गयी। कोवालेव की पहली प्रतिक्रिया यह हुई कि झट से रूमाल लेकर उस ख़ाली जगह को ढक ले, जहां अभी कल तक नाक हुआ करती थी, ताकि वह बौड़म नौकर मुंह बाये खड़ा देखता न रहे।

इवान अभी अंदर आया ही था कि बैठक से कोई अजनबी आवाज़ यह पूछती हुई सुनायी दीः ‘‘क्या कालिजिएट असेसर कोवालेव यहीं रहते हैं?’’

‘‘अंदर आ जाइये। मेजर कोवालेव आपकी खिदमत में हाज़िर हैं,’’ कोवालेव ने लपककर दरवाज़ा खोलते हुए कहा।

दरवाज़े से एक पुलिसवाला अंदर आया, जिसके गलमुच्छे न बहुत हल्के रंग के थे, न बहुत गहरे रंग के और जिसके गाल काफ़ी भरे-भरे थे- यह वही पुलिस का अफ़सर था जो हमें इस कहानी के शुरू में इसाकियेव्स्की पुल पर मिला था।

‘‘क्या मेरा यह ख़्याल सही है कि हुजूर की नाक गुम हो गयी है?’’

‘‘बिल्कुल सही है।’’

‘‘अब उसका पता चल गया है।’’

‘‘क्या कह रहे हैं आप?’’ मेजर कोवालेव चिल्लाया। फिर खुशी से अवाक् होकर वह अपने सामने खड़े हुए पुलिसवाले को फटी-फटी आंखों से घूरता रहा, जिसके भरे-भरे होंठ और गाल मोमबत्ती की तेज़ रोशनी में नाचते हुए मालूम हो रहे थे। ‘‘उसे कैसे पाया आपने?’’

‘‘बिल्कुल इत्तफ़ाक़ से, वह भागने ही वाली थी कि हमने उसे पकड़ लिया। वह स्टेज कोच पर बैठ चुकी थी और रीगा जा रही थी। उसके पास किसी अफ़सर के नाम से एक पुराना पासपोर्ट था। एक और अजीब बात यह है कि पहले मैं उसे आदमी समझा था। लेकिन खुशकि़स्मती से मेरा चश्मा मेरे पास था और मैंने फ़ौरन देख लिया कि वह तो नाक है। बात यह है कि मेरी नज़र कमज़ोर है और अगर आप ठीक मेरे सामने भी खड़े हों तो मैं सिर्फ‍ इतना देख पाऊँगा कि आपके एक चेहरा है, लेकिन मैं नाक या दाढ़ी जैसी चीज़ अलग से नहीं पहचान पाऊँगा। मेरी सास भी, मेरा मतलब है मेरी बीवी की माँ भी, कुछ नहीं देख पातीं।’’

कोवालेव खुशी के मारे फूले नहीं समा रहे थे। ‘‘लेकिन वह है कहाँ? कहाँ है आख़िर? मैं अभी चलता हूँ।’’

‘‘आपको परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। यह सोचकर कि आपको उसकी ज़रूरत होगी मैं उसे अपने साथ ही लेता आया हूँ। और अजीब बात यह है कि इस मामले में सबसे बड़ा अपराधी वोज़्नेसेंस्काया स्ट्रीट का वह पाजी हज़्ज़ाम है जो इस वक़्त थाने में बैठा हुआ है। मुझे बहुत दिन से उस पर शक था कि वह शराबी और चोर है अभी दो ही दिन पहले की बात है कि उसने एक दुकान से बटनों का एक दर्जन बटन उड़ा दिये थे। आपकी नाक बिल्कुल वैसी ही है जैसी कि वह आपके जिस्म से अलग होने के वक़्त थी।’’

यह कहकर पुलिसवाले ने अपनी जेब में हाथ डालकर काग़ज़ में लिपटी हुई नाक निकाली।

‘‘वही है!’’ कोवालेव खुशी से चिल्लाया। ‘‘बिल्कुल वही। आप मेरे साथ चाय पियें।’’

‘‘बड़ी मेहरबानी आपकी, लेकिन मैं रुक नहीं सकताः यहाँ से मुझे सीधे जेलखाने जाना है क़ीमतें तो भयानक तेज़ी से बढ़ती जा रही हैं सास हमारे साथ ही रहती हैं- मेरा मतलब है, मेरी बीवी की माँ, और फिर बच्चे भी हैं सबसे बड़ावाला बहुत होनहार हैः बेहद तेज़ लड़का है लेकिन हमारे पास उसे पढ़ाने के लिए एक कोपेक भी नहीं है’’

कोवालेव फ़ौरन समझ गया कि उसका इशारा किस ओर था, और उसने मेज़ पर से दस रूबल का एक नोट उठाकर पुलिसवाले के हाथ में रख दिया पुलिसवाला बहुत झुककर सलाम करते हुए दरवाज़े से बाहर निकल गया और अगले ही क्षण कोवालेव को सड़क पर उसकी आवाज़ सुनायी दी वह किसी बुद्धू की मरम्मत कर रहा था जो अपनी गाड़ी सड़क की पटरी पर चढ़ा लाया था।

पुलिसवाले के चले जाने के बाद कालिजिएट असेसर कुछ क्षण तक स्तब्ध बैठा रहा अचानक भाग्य के इस तरह पलटा खाने पर वह इतना खुश था कि काफ़ी समय बीत जाने के बाद ही उसे फिर से अपने चारों ओर की चीज़ों का आभास हुआ। आख़िरकार, उसने बड़ी सावधानी से अपनी बरामद की हुई नाक को दोनों हाथों में लेकर एक बार फिर उसे बहुत ग़ौर से देखा।

‘‘वही है, बिल्कुल वही!’’ वह बोला। ‘‘बायीं तरफ़ वही फुंसी है जो कल निकल आयी थी।’’

खुशी के मारे मेजर की हँसी फूटी पड़ रही थी।

लेकिन इस ज़िंदगी में कोई चीज़ बहुत देर तो रहती नहीं दूसरे ही मिनट हमारा हर्षोन्माद उतना तीव्र नहीं रह जाता जितना पहले मिनट में होता है तीसरे मिनट में उसकी लहर बिल्कुल उतर जाती है और हमारी आत्मा अपनी सामान्य स्थिति में आ जाती है, ठीक वैसे ही जैसे कंकरी फेंकने पर पैदा हो जानेवाली छोटी-छोटी लहरें थोड़ी देर बाद अपने चारों ओर के समतल पानी में विलीन हो जाती हैं। कोवालेव सोचने लगा और उसने महसूस किया कि मामला अभी पूरी तरह तै नहीं हुआ हैः नाक मिल तो गयी थी, लेकिन उसे अभी चिपकाना था, उसे उसकी असली जगह पर वापस लगाना था।

‘‘और अगर वह न चिपकी तो?’’

अपने आप से यह सवाल करते ही मेजर के चेहरे का रंग उड़ गया।

बौखलाकर वह सिंगार-मेज़ की ओर लपका और उसने आईना अपने और पास खींच लिया, इस बात का पक्का यक़ीन कर लेने के लिए कि वह नाक सीधी ही लगाये। बेहद सावधानी से उसे उसकी पहले-वाली जगह पर लगाते समय उसके हाथ कांप रहे थे। बड़ी सावधानी से उसने उसी जगह पर उसे लगाया जहाँ वह पहले हुआ करती थी। ग़ज़ब हो गया! नाक किसी तरह चिपक ही नहीं रही थी! अपने मुंह के पास लाकर उसने उसे अपनी सांस से गरमाया और एक बार फिर उसे अपने दोनों गालों के बीच की सपाट जगह पर रखा लेकिन नाक थी कि एक क्षण को भी अपनी जगह टिकती ही नहीं थी।

‘‘बस, बहुत हो गया! टिकी रह, बेवक़ूफ़!’’ उसने आदेश दिया। लेकिन नाक लकड़ी की तरह सख़्त थी और वह एक अजीब आवाज़ पैदा करती हुई मेज़ पर गिरी, मानो काग की बनी हुई हो। मेजर का चेहरा रह-रहकर फड़कने लगा। ‘‘चिपकना तो इसे ज़रूर चाहिये,’’ उसने डरकर कहा। लेकिन जितनी बार उसने उसे उसकी जगह पर लगाया, हर बार उसकी कोशिश, बेकार रही।

उसने इवान को बुलाकर डॉक्टर के पास भेजा, जो उसी मकान में सबसे नीचे की मंज़िल पर सबसे बढ़िया फ़्लैट किराये पर लेकर रहता था।

          यह डॉक्टर देखने में बहुत प्रतिष्ठित आदमी था, जिसके शानदार गलमुच्छे बिल्कुल कोयले जैसे काले थे, और जिसकी बीवी बहुत सलोनी, फूल जैसी खू़बसूरत थी वह सबेरे ताज़े सेब खाता था, रोज़ सुबह वह कम से कम पौने घंटे तक ग़रग़रे करता था और पांच अलग-अलग कि़स्म के ब्रशों से अपने दांत साफ़ करता था। डॉक्टर फ़ौरन आ पहुंचा। यह पूछने के बाद कि इस दुर्घटना को हुए कितना समय बीता था, उसने ठोड़ी पकड़कर मेजर कोवालेव का सिर ऊपर उठाया और अपना अंगूठा इतने ज़ोर से उसके चेहरे के उस हिस्से पर दबाया जहाँ पहले नाक हुआ करती थी कि मेजर तिलमिला उठा और उसका सिर जाकर दीवार से टकरा गया। डाक्टर ने कहा कि कोई ऐसी बात नहीं थी और उससे दीवार के पास से हट आने को कहा। इसके बाद उसने उससे अपना सिर पहले दाहिनी ओर झुकाने को कहा और उस जगह को टटोलने के बाद जहाँ नाक हुआ करती थी, बोलाः ‘‘हुँः!’’ फिर उसने उससे अपना सिर बायीं ओर झुकाने को कहा और एक बार फिर ‘‘हुँ!’’ कहकर अपना अंगूठा ज़ोर से गड़ाया, जिससे तिलमिलाकर मेजर कोवालेव अपना सिर उस घोड़े की तरह झटकने लगा जिसके दांतों की जांच की जा रही हो। इस जांच के बाद डॉक्टर ने सिर हिलाकर कहाः

‘‘नहीं, यह काम नहीं हो सकता। बेहतर यही होगा कि उसे ऐसे ही रहने दीजिये, नहीं तो मामला और बिगड़ जायेगा। इसे चिपकाया तो जा सकता है, और मैं यह काम अभी कर सकता हूँ, लेकिन मैं यक़ीन दिलाता हूँ कि आपके लिए वह और बुरा ही होगा।’’

‘‘यह भी अच्छी कही! और नाक के बिना मैं रहूंगा कैसे?’’ कोवालेव ने विरोध किया। ‘‘अब जो हालत है उससे बुरी तो हो नहीं सकती। भगवान ही जानता है कि यह क्या माजरा है! ऐसी शर्मनाक हालत में मैं कहाँ अपना मुँह दिखाऊँ? मैं सबसे अच्छे कि़स्म के लोगों के बीच उठता-बैठता हूँ, और आज ही रात को मुझे दो दावतों में जाना है। मेरे बहुत-से जाननेवाले हैंः स्टेट काउंसिलर चेख्तार्योव की बीवी, पोद्तोचिना, स्टाफ़ अफ़सर की बीवी हालांकि उसकी इस हरकत के बाद मैं अब उससे कोई वास्ता नहीं रखूंगा, अलावा पुलिस की माफर्‍त। मैं आपके हाथ जोड़ता हूँ, ’’ उसने गिड़गिड़ाकर कहा। ‘‘क्या यह काम बिल्कुल हो ही नहीं सकता? इसे किसी भी तरह चिपका दीजिये बला से बहुत टिकाऊ न हो, बस किसी तरह टिकी रहे ख़तरनाक मौक़ों पर मैं इसे अपने हाथ का सहारा देकर रोके भी रख सकता हूँ। मैं यह भी बता दूं कि नाचता मैं हूँ नहीं इसलिए लापरवाही से झोंका खाने की वजह से इसके गिर पड़ने का कोई डर नहीं है। आप यक़ीन कीजिए कि मैं आपके आने का पूरी तरह शुक्राना अदा करूंगा, अपनी हैसियत भर’’

‘‘यक़ीन जानिये,’’ डॉक्टर ने ऐसी आवाज़ में कहा जो न बहुत ऊँची थी न बहुत धीमी, लेकिन उसमें बेहद आग्रह और आकर्षण थाः ‘‘मैं निजी फ़ायदे की नीयत से कभी किसी का इलाज नहीं करता। यह मेरे उसूल और मेरे हुनर के खि़लाफ़ है। यह सच है कि जब मैं किसी के यहाँ जाता हूँ, तो फ़ीस लेता हूँ, लेकिन सिर्फ‍ इसलिए कि मेरे इंकार करने से मेरे मरीज़ कहीं बुरा न मान जायें। ज़ाहिर है, में आपकी नाक लगा सकता हूँ, लेकिन अगर आपको मेरी बात का भरोसा नहीं है तो मैं अपनी इज़्ज़त की क़सम खाकर कहता हूँ कि इसका नतीजा आपके लिए और भी बुरा होगा। बेहतर यही होगा कि क़ुदरत ने जो कुछ किया है उस पर भरोसा करके उसे मान लीजिये। बार-बार ठंडे पानी से मुंह धोया कीजिये, और मैं यक़ीन दिलाता हूँ, कि नाक के बिना भी आप उतने ही तंदुरुस्त रहेंगे जितने कि नाक होने पर होते। और मैं आपको यह सलाह दूंगा कि अपनी नाक स़्पिरिट की एक अचारी में संभालकर रख दीजिये या इससे भी अच्छा यह होगा कि उसमें दो बड़े चम्मच भरकर मिर्चीवाली वोद़का और गरम सिरका भी डाल दीजिये- तब आपको उसकी बहुत अच्छी क़ीमत मिल जायेगी। अगर दाम बहुत ज़्यादा न हुए तो मैं खुद खरीद लूंगा।’’

‘‘नहीं, नहीं। मैं उसे किसी क़ीमत पर नहीं बेचूंगा!’’ मेजर कोवालेव घोर निराशा से चिल्लाया। ‘‘मैं उसे सड़ जाने दूंगा लेकिन बेचूंगा नहीं!’’

‘‘माफ़ कीजियेगा,’’ डॉक्टर ने विदा लेते हुए कहा, ‘‘मैं तो बस आपकी कुछ सेवा करना चाहता था खैर, ऐसे ही सही! बहरहाल, आप यह नहीं कह सकते कि मैंने कोशिश नहीं की।’’

यह कहकर डॉक्टर बड़ी गरिमा के साथ कमरे के बाहर चला गया। कोवालेव ने उसकी सूरत तक नहीं देखी थी, और स्तब्धता जैसी अपनी हालत में उसने सूरत तक नहीं देखी थी, और स्तब्धता जैसी अपनी हालत में उसने उसके काले टेल-कोट की आस्तीनों में से झांकते हुए बर्फ‍ के गोलों जैसे सफ़ेद उसकी क़मीज़ के कफ़ ही देखे थे।

अगले ही दिन उसने बाक़ायदा शिकायत दर्ज कराने से पहले स्टाफ अफ़सर की बीवी को ख़त लिखकर यह पूछने का फै़सला किया कि जिस चीज़ का वह जायज़ हक़दार था वह उसको वापस कर देने के लिए वह राजी होंगी कि नहीं। ख़त इस तरह थाः

‘‘प्रिय मादाम अलेक्सांद्रा ग्रिगोर्येव्ना,

आपके आचरण की विचित्रता समझने में मैं असमर्थ हूँ। आप यह जान लीजिये कि इस तरह की हरकतों से आपका कोई फ़ायदा नहीं होगा और आप किसी भी तरह मुझे इस बात के लिए मजबूर नहीं कर सकेंगी कि मैं आपकी बेटी से शादी कर लूं। मेरी बात का विश्वास कीजिए, मुझे अच्छी तरह मालूम है कि मेरी नाकवाला यह सारा मामला क्या है और मैं जानता हूँ कि इस पूरे मामले का कर्त्ता-धर्त्ता आपके अलावा कोई और नहीं है उसका अचानक अपने उचित स्थान से अलग हो जाना, उसका भाग जाना और भेस बदल लेना, पहले एक सरकारी अफ़सर के रूप में और फिर खुद अपने रूप में, ये सारी बातें जादू-टोने की उन हरकतों के नतीजों के अलावा कुछ भी नहीं हैं, जो खुद आपने या ऐसी ही कलाओं का अभ्यास करनेवाले दूसरे लोगों ने की हैं। जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं आपको यह चेतावनी दे देना अपने लिए ज़रूरी समझता हूँ कि अगर मेरी वह नाक, जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है, आज अपने उचित स्थान पर वापस न आ गयी तो मैं क़ानून का संरक्षण प्राप्त करने और उसकी शरण लेने पर मजबूर हो जाऊंगा।

तदपि आपके प्रति हार्दिकतम सम्मान की भावना रखते हुए, मैं हूँ आपका तुच्छ सेवक

प्लातोन कोवालेव।’’

‘‘प्रिय प्लातोन कुज़मीच,

मैं आपका पत्र पाकर अत्यधिक चकित हुई। मैं बिल्कुल स्पष्ट कहूँ कि उसमें कोई सर्वथा अप्रत्याशित बात थी, ख़ास तौर पर आपने अकारण जो निराधार लांछन लगाये हैं उनमें। मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि आपने जिस अफ़सर का उल्लेख किया है वह मेरे घर कभी नहीं आया, न भेस बदलकर और न अपने असली रूप में। अलबत्ता, फि़लीप इवानोविच पीतांचिकोव हमसे मिलने कई बार आये हैं। और यह तो सच है कि उन्होंने मेरी बेटी से शादी करने की इच्छा प्रकट की थी, और वह स्वयं बहुत अच्छे, संतुलित स्वभाव के और बहुत विद्वान आदमी हैं, लेकिन मैंने कभी उनका उत्साह नहीं बढ़ाया। आपने किसी नाक का भी ज़िक्र किया है। अगर इससे आपका मतलब यह है कि मैं, एक तरह से, आपको नाक चढ़ाकर देखती हूँ, अर्थात् आपको मैंने छूटते ही ठुकरा दिया है, तो मुझे आश्चर्य है कि आपने स्वयं यह बात उठायी है, क्योंकि, जैसा कि आप जानते हैं, मेरी राय ठीक इसकी उल्टी थी, और अगर आप अब भी मेरी बेटी से शादी करने की इच्छा उचित ढंग से प्रकट करें तो मैं तुरंत आपकी प्रार्थना स्वीकार कर लेने को तैयार हूँ, क्योंकि यही सदा से मेरी हार्दिकतम इच्छा का लक्ष्य रहा है, जिस आशा के साथ मैं हूँ सदा आपकी सेवा के लिए उपस्थित अलेक्सांद्रा पोद्तोचिना।’’

‘‘नहीं,’’ कोवालेव ने पत्र रखते हुए कहा। ‘‘वह बिल्कुल दोषी नहीं है। वह हो ही नहीं सकती! जो किसी अपराध का दोषी हो वह ऐसा ख़त लिख ही नहीं सकता!’’ कालिजिएट असेसर इन सब बातों का बहुत जानकार था क्योंकि काकेशस में नौकरी करते समय उसने कुछ मुक़द्दमों की कार्रवाई में हिस्सा लिया था। ‘‘आखिर यह सब कुछ हुआ कैसे? भगवान ही जानता है!’’ आख़िरकार उसने निराशा से अपने हाथ ढीले छोड़ते हुए कहा।

इसी बीच इस असाधारण घटना के बारे में अफ़वाहें राजधानी में फैल गयी थीं, और, जैसा कि आम तौर पर होता है, उनमें कुछ मिर्च-मसाला भी लगा दिया गया था। उन दिनों लोगों के दिमाग़ हर प्रकार की असाधारण घटनाओं पर सहज ही विश्वास कर लेने को तैयार रहते थेः इससे कुछ समय पहले सारे शहर पर चुंबकत्व के बारे में प्रयोग करने का भूत सवार था। इसके अलावा हाल ही में कोन्यूशेन्नी स्ट्रीट में नाचनेवाली कुर्सियों के बारे में एक कि़स्से की घर-घर चर्चा थी इसलिए इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं थी कि जल्दी ही यह अफ़वाह फैल गयी कि कालिजिएट असेसर कोवालेव की नाक रोज़ ठीक तीन बजे नेव्स्की एवेन्यू पर टहलने निकलती है। रोज उत्सुक तमाशबीनों की बहुत बड़ी भीड़ वहाँ जमा होने लगी। किसी ने कहा कि नाक जुंकर की दुकान में देखी गयी थी, और दुकान के चारों ओर ऐसी ज़बर्दस्त भीड़ जमा हो गयी कि पुलिस बुलवानी पड़ी। एक सूझ-बूझवाले आदमी ने, जिसकी सूरत-शक्ल में शरीफों वाली हर बात थी, यहां तक कि उसने गलमुच्छे भी रख छोड़े थे, और जो थियेटर के फाटक पर तरह-तरह की सूखी मिठाइयाँ बेचता था, खास तौर पर कुछ बहुत बढ़िया लकड़ी की मज़बूत बेंचें बनवा लीं जिन पर वह पब्लिक के उत्सुक सदस्यों को अस्सी कोपेक में खड़े होकर तमाशा देखने के लिए जगह देता था। एक बहुत बा-इज़्ज़त कर्नल साहब अपने घर से ख़ास तौर पर बहुत सवेरे निकले और बड़ी मुश्किल से भीड़ को चीरते हुए वहां जा पहुंचे लेकिन उनको बहुत झुंझलाहट हुई जब उन्होंने देखा कि दुकान की खिड़की में नाक नहीं बल्कि एक मामूली ऊनी जर्सी सजी हुई थी और एक तस्वीर लगी थी जिसमें एक लड़की को अपना लम्बा मोज़ा ठीक करते हुए दिखाया गया था और उसे पेड़ के पीछे से एक छैला देख रहा था, जो बांकी वास्कट पहने था और जिसकी ठोड़ी पर छोटी-सी दाढ़ी थी- यह तस्वीर उसी जगह दस साल से ज़्यादा टंगी हुई थी। वह वहां से झल्लाकर चले आये और नाराज़ होकर बोलेः ‘‘आख़िर लोगों को इस तरह की मसखरेपन की और बेबुनियाद अफ़वाहें फैलाने की इजाजत ही क्यों दी जाती है?’’

इसके बाद एक अफ़वाह यह फैली कि मेजर कोवालेव की नाक नेव्स्की एवेन्यू पर नहीं बल्कि तव्रीचेस्की गार्डन में टहलने जाती है, और यह कि वह बहुत अर्से से ऐसा करती रही है और यह भी कि जब फ़ारस के राजदूत खुसरो मिर्ज़ा वहाँ रहते थे तो उन्हें क़ुदरत का यह अनोखा अजूबा देखकर बेहद ताज्जुब हुआ था। सर्जिकल अकादमी के कुछ छात्र इस जगह के लिए रवाना हुए। एक कुलीन सम्मानित महिला ने पार्क के वार्डन को ख़त लिखकर ख़ास फ़रमाइश की कि वह उनके बच्चों को यह अद्भुत घटना दिखा दे, और अगर हो सके तो कम उम्र लोगों के लिए शिक्षाप्रद और उपदेशमूलक व्याख्या भी प्रदान करे।

हर दावत में देखे जानेवाले और समाज में मिलने-जुलने वाले वे सभी लोग, जिन्हें औरतों का मन बहलाने में बहुत मज़ा आता है, इन तमाम बातों से बेहद खु़श हुए क्योंकि मनोरंजन के उनके सारे साधन बिल्कुल ख़त्म हो चुके थे। बहुत ही थोड़े-से बा-इज्ज़त और क़ानून के पाबंद शहरी बेहद नाराज़ थे। एक साहब ने तो झल्लाकर यहां तक कहा कि उनकी समझ में नहीं आता कि जागृति के वर्तमान युग में इस तरह की मसखरेपन की मनगढ़ंत बातें लोगों में फैल कैसे जाती हैं, और यह कि उन्हें इस बात पर हैरत थी कि सरकार इस मामले की ओर कोई ध्यान क्यों नहीं दे रही थी। यह सज्जन स्पष्टतः नागरिकों के उस वर्ग के थे जो चाहते हैं कि सरकार हर बात में दख़ल दे, यहां तक कि अपनी बीवियों के साथ उनके रोज़मर्रा के झगड़ों में भी। इसके बाद लेकिन यहाँ पहुँचकर इस घटना पर कुहरे की एक चादर-सी पड़ी हुई है, और इसके बाद जो कुछ हुआ उसका कुछ भी पता नहीं है।

3

ज़िंदगी में बेहद ऊटपटांग बातें होती रहती हैं। कभी-कभी तो वे संभावना के किसी भी क़ायदे-कानून की कसौटी पर खरी नहीं उतरतींः एक दिन हुआ यह कि वही नाक जो स्टेट काउंसिलर का भेस बनाये गाड़ी पर घूमती फिर रही थी और जिसने शहर में इतना तहलका मचा रखा था फिर प्रकट हो गयी, मानो कुछ हुआ ही न होः अपने उचित स्थान पर, यानी मेजर कोवालेव के दोनों गालों के ठीक बीचों-बीच। यह घटना सात अप्रैल को हुई। आंख खुलने पर मेजर कोवालेव की नज़र इत्तफ़ाक़ से आईने पर जो पड़ी तो देखता क्या है- नाक! उसने उसे धर दबोचा- हाँ, उसकी नाक ही थी! ‘‘या-हू!’’ कोवालेव खुश होकर चिल्लाया और अगर इवान के अचानक वहाँ आ जाने से उसका जोश ठंडा न पड़ गया होता तो खुशी के मारे वह वहीं कमरे में नंगे पांव नाचने लगता। उसने फ़ौरन अपना मुंह-हाथ धोने का सामान मंगवाया, और मुंह-हाथ धोकर एक बार फिर आईने में अपनी सूरत देखी : नाक मौजूद थी! तौलिये से मुंह पोंछकर उसने एक बार फिर आईना देखाः वह वहीं मौजूद थीः उसकी नाक!

‘‘ज़रा, इवान, इधर आकर देखना तो, शायद मेरी नाक पर फुंसी निकल आयी है,’’ उसने कहा और फिर मन ही मन सोचाः अगर इवान ने यह कह दिया तो क्या होगाः ‘‘कहीं नहीं, साहब, फुंसी तो क्या नाक ही नहीं है!’’

लेकिन इवान ने कहाः ‘‘कहीं नहीं, कोई भी फुंसी नहीं है, आपकी नाक तो बिल्कुल उबले अंडे की तरह साफ़ है!’’

‘‘बाज़ी मार ली!’’ मेजर ने मन ही मन कहा और चुटकी बजायी। उसी वक़्त हज्जाम इवान याकोव्लेविच ने दरवाज़े में से झांककर देखा, लेकिन उस बिल्ली की तरह सहमे हुए जिसकी अभी-अभी गोश्त की बोटी चुराने पर पिटाई हो चुकी हो।

‘‘पहले तो यह बताओ कि तुम्हारे हाथ साफ़ हैं?’’ हज़्ज़ाम अभी थोड़ी दूर ही था कि कोवालेव ने चिल्लाकर पूछा।

‘‘हैं तो।’’

‘‘झूठा कहीं का!’’

‘‘क़सम खाकर कहता हूँ, साहब, बिल्कुल साफ़ हैं।’’

‘‘साफ़ न हुए तो तेरी खैर नहीं है।’’

कोवालेव बैठ गया। इवान याकोब्लेविच ने उसकी गर्दन में तौलिया लपेट दिया और पल-भर में ब्रश की मदद से उसकी सारी दाढ़ी और गालों के कुछ हिस्सों को फिंटी हुई क्रीम जैसे झाग से पोत दिया, जिस तरह की क्रीम बड़े-बड़े व्यापारियों के घरों में जन्मदिन की पार्टियों में मेहमानों के सामने पेश की जाती है।

‘‘मुझे तो गुमान भी नहीं हो सकता था!’’ नाक को देखकर इवान याकोव्लेविच ने मन ही मन कहा, और फिर अपना सिर घुमाकर नाक को बग़ल की ओर से देखाः ‘‘ज़रा देखो तो! यह बात भला कौन सोच सकता था!’’ वह नाक को ग़ौर से देखकर कहता रहा। आखिरकार उसने नाक का सिरा पकड़ने की तैयारी में इतनी नरमी से और इतनी सावधानी के साथ अपनी दो उंगलियाँ उठायीं कि सोचा भी नहीं जा सकता था। इवान याकोव्लेविच का यही तरीक़ा था।

‘‘बस, बस, ज़रा संभलकर!’’ कोवालेव चिल्लाया।

यह सुनते ही इवान याकोव्लेविच ने अपना हाथ नीचे कर लिया वह इतना डर गया और सहम गया जैसा इससे पहले अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं हुआ था। आख़िरकार, कुछ सावधानी से उसने मेजर की ठोड़ी के नीचे उस्तुरा चलाना शुरू किया, और हालांकि उसके लिए अपने ग्राहक की नाक पकड़े बिना दाढ़ी बनाना ज़रा भी आसान या सुविधाजनक नहीं था, फिर भी उसने सारी बाधाओं पर क़ाबू पाने के लिए किसी तरह अपना खुरदुरा अंगूठा मेजर के गाल और निचले मसूढ़े पर अड़ाकर काम चला लिया और उसकी दाढ़ी बनाने का काम पूरा कर दिया।

यह काम निबट जाने के बाद कोवालेव ने जल्दी-जल्दी कपड़े पहने, एक गाड़ी बुलवायी और उस पर बैठकर सीधा पेस्ट्री की दुकान में गया। दरवाज़े पर से ही वह चिल्लायाः ‘‘वेटर, एक प्याला चाकलेट!’’ और फ़ौरन आईने की तरफ़ लपकाः नाक मौजूद थी! बहुत खुश होकर वह पीछे मुड़ा और आंखें सिकोड़कर उसने दो अफ़सरों पर व्यंगभरी नज़र डाली, जिनमें से एक की नाक वास्कट के बटन से बड़ी नहीं थी। इसके बाद वह सीधा उस विभाग के दफ़्तर की ओर चल पड़ा जहाँ वह नायब-गवर्नर के पद के लिए, और अगर वह न मिल सके तो प्रशासक के पद के लिए, बातचीत कर रहा था। स्वागत-कक्ष में से होकर जाते हुए उसने कनखियों से आईने में देखाः नाक अपनी जगह पर मौजूद थी। फिर वह एक और कालिजिएट असेसर से मिलने गया, जो उसी की तरह मेजर था और फि़करे चुस्त करने में बहुत उस्ताद था, जिसकी चुटीली बातों के जवाब में आम तौर पर वह इतना ही कहता थाः ‘‘बस, बस, अब डंक मारने को रहने दो!’’ रास्ते में उसने सोचाः ‘‘मुझे देखते ही अगर मेजर हँसते-हँसते लोट-पोट न हो गया तो यह इस बात का पक्का सबूत होगा कि सब कुछ ठीक-ठाक है और हर चीज़ अपनी जगह पर है।’’ लेकिन कालिजिएट असेसर ने पलक तक नहीं झपकायी। ‘‘बहुत उम्दा बात है, लानत है हर चीज़ पर!’’ कोवालेव ने अपने मन में सोचा। रास्ते में उसे स्टाफ़ अफ़सर की बीवी पोद्तोचिना अपनी बेटी के साथ मिल गयी उसने झुककर उन्हें सलाम किया और उन दोनों ने खुशी से चिल्लाकर उसका स्वागत कियाः साफ़ ज़ाहिर था कि उसकी शक्ल-सूरत में कोई ख़राबी नही पैदा हुई थी। वह बड़ी देर तक उनसे बातें करता रहा उसने अदबदाकर अपनी नसवार की डिबिया निकाली और सबको दिखाकर अपने दोनों नथुनों में नसवार चढ़ाते हुए वह बराबर सोचता रहाः ‘‘तुम दोनों भी देख लो, मुर्गियों की जोड़ी! और बेटी से शादी तो मैं किसी भी हालत में नहीं करूंगा। रहा थोड़ा-बहुत इश्क़ लड़ाना-सो ज़रूर करूंगा!’’ और उसके बाद से मेजर कोवालेव, सारा काम-काज ऐसे करता रहा जैसे कुछ हुआ ही न हो वह नेव्स्की एवेन्यू पर टहलता था, थियेटर देखने जाता था, हर जगह अपनी सूरत दिखाता था। और उसकी नाक, जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो, उसके चेहरे पर चिपकी रही, और उसने इस बात का कोई संकेत नहीं दिया कि वह कभी उखड़ भी गयी थी। इसके बाद से मेजर कोवालेव हमेशा खुशमिज़ाज रहने लगा वह मुस्करा-मुस्कराकर हर खू़बसूरत लड़की का पीछा करने लगा, यहाँ तक कि एक बार वह मेडल का फ़ीता ख़रीदने के लिए ‘गोस्तीनी द्वोर’ की एक दुकान पर भी रुक गया था, हालांकि इसकी कोई पक्की वजह नहीं मालूम हो सकी क्योंकि वह खुद किसी कि़स्म का सूरमा नहीं था कि मेडल लगाये।

और इस तरह की घटना हमारे विस्तश्त देश की उत्तरी राजधानी में हुई! अब जाकर, जब हम इस पूरे कि़स्से पर ग़ौर करते हैं तो हमारी समझ में आता है कि इसमें कितनी ही बातें ऐसी हैं जो बिल्कुल असंभव मालूम होती हैं। नाक के इतने अजीब और अस्वाभाविक ढंग से कटकर अलग हो जाने और जगह-जगह स्टेट काउंसिलर के भेस में उसके दिखायी देने के अलावा-कोवालेव की समझ में यह बात क्यों नहीं आयी कि कटी हुई नाकों के बारे में अख़बारों में इश्तहार नहीं दिये जाते? इससे मेरा मतलब यह क़तई नहीं है कि अख़बार के इश्तहारों को मैं बेकार की फि़जूलखर्ची समझता हूँ- बकवास है, और मैं कोई कंजूस भी नहीं हूँ। लेकिन यह भद्दी बात है, बेजा बात है, ग़लत बात है! और फिरः वह नाक ताज़ी सिंकी हुई रोटी में कैसे पहुँच गयी, और पहली बात तो यह कि इसकी क्या वजह है कि इवान याकोव्लेविच ने नहीं, यह बात मेरी समझ में नहीं आती, रत्ती-भर समझ में नहीं आती! लेकिन इससे भी अजीब बात यह है, जिसे समझना सबसे ज़्यादा मुश्किल है, कि लेखक इस तरह की घटनाओं को अपना विषय बनायें ही क्यों। मैं यह मानने पर मजबूर हूँ कि यह बात मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आती, मैं बिल्कुल नहीं, यह बात मेरी समझ में ही नहीं आती। पहली बात तो यह कि इससे क़ौम को कोई भी फ़ायदा नहीं होता दूसरे नहीं, दूसरे भी इससे कोई फ़ायदा नहीं होता। मेरी समझ में ही नहीं आता कि इसका मतलब क्या है.

मगर फिर भी, हर बात पर सोच-विचार कर लेने के बाद, हम शायद थोड़ा-बहुत, जहाँ-तहाँ कुछ फुटकर बातें मान लेने को तैयार हो जायें, और शायद यह भी मेरा मतलब है, हर वक़्त अजीब-अजीब बातें होती रहती हैं, होती रहती हैं न? और अगर आप सोचने पर आयें तो आपको मानना पड़ेगा, कि इस सबमें भी कोई बात है ज़रूर, है न? आप कुछ भी कहें, लेकिन ऐसी घटनाएँ होती हैं, कभी-कभार ही सही, लेकिन होती ज़रूर हैं।

(चेतना विकास मिशन)

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