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*कहानी : बावरे मन के सपने*

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     दिव्या गुप्ता, दिल्ली

ठंडे मौसम में बॉनफायर के आगे बैठना किसे सम्मोहित नहीं करेगा…हाथों को उसकी आग में तापते और मोबाइल पर चल रहे ‘बावरा मन देखने चला एक सपना’ गाना सुनते-सुनते सचमुच उस समय मन बावरा हो गया था. बावरी-सी सांसें और धड़कनें, सब आंदोलित होने लगी थीं. किसी का साथ पाने के लिए… 

किसी के हाथों में हाथ डाल, उस तपिश को महसूस करने के लिए अंगड़ाइयां उफान पर आ गई थीं. गोल दायरे में लकड़ियां लगी थीं. बूंद-बूंद गिरती चिंगारियां… मानो कोई तारा टूट-टूटकर गिर रहा हो. सुर्ख लाल और पीला तारा, चमकदार-चटकीला तारा, लकड़ियों की दरारों से टूट-टूटकर गिरता तारा- पता नहीं कितने असंख्य तारे उस पल मन में फूट गए थे. चारों तरफ़ फैली ख़ामोशी और गिरती ओस की बूंदें… धीमी- गुनगुनाती हवा… एक सन्नाटा जो भीतर था, एक सन्नाटा, जो बाहर था… दोनों ही बहुत अच्छे लग रहे थे. एक सुकून भरी तृप्ति मन और पोर-पोर में भर गई थी.

ख़ामोशी भी गुनगुना सकती है, यह एहसास उस पल हुआ… जब चारों ओर अंधेरा छाया था, जब कोहरे ने पहाड़ों की हर परत को ढंका हुआ था, जब उसकी हरियाली केवल आभास लग रही थी. “तेरा चेहरा देखकर लग रहा है कि तू रोमांटिक हो रही है.” भारती ने उसे छेड़ा.  “लगता है माउंट आबू तुझे रास आ गया है. वैसे इस रिसॉर्ट का भी जवाब नहीं है.” “अब तू ऐसे गाने सुनाएगी, तो किस का मन उड़ान नहीं भरने लगेगा. अब यहां तो कोई है नहीं रोमांस करने के लिए. तेरे साथ ही क्यों न कर लिया जाए.” रिया ने अपनी सहेली के साथ ठिठोली की. भारती और रिया दोनों बेस्ट फ्रेंड तो थीं ही, साथ ही दोनों एक-दूसरे की हमराज़ भी थीं. 

कहीं जाना हो, तो दोनों साथ ही जातीं. बस, जब भी दो-चार छुट्टियां आ जातीं, दोनों कहीं घूमने निकल पड़तीं. दरअसल, दोनों को ही फोटोग्राफी का शौक़ था और दोनों बेहतरीन आर्टिस्ट भी थीं. रिया ने तो आईएएस अफ़सर बनने के बाद भी अपने इस शौक़ को नहीं छोड़ा था. ज़िंदगी का हर तार वे मिलकर छेड़तीं और मस्त रहतीं, अपने-अपने शिकवे और शिकायतों के साथ. ज़िंदगी है, तो परेशानियां भी होंगी और दुविधा भी, लेकिन वे बहुत आसानी से अपनी उलझनों को मुंह चिढ़ा निकल पड़तीं, किसी ट्रेकिंग पर या किसी मनोरम स्थल पर. 

27-28 की उम्र में ही उन्होंने न जाने कितनी जगहें एक्सप्लोर कर डाली थीं. अलमस्त, बेफ़िक्र ज़िंदगी जीनेवाली दोनों सहेलियां अपने-अपने जीवन में बहुत ख़ुश थीं. सुबह जब दोनों सैर पर निकलीं, तो गाइड ने उन्हें बताया कि ‘डेज़र्ट-स्टेट’ कहे जानेवाले राजस्थान का माउंट आबू इकलौता हिल स्टेशन तो है ही, साथ ही गुजरात के लिए भी हिल स्टेशन की कमी को पूरा करनेवाला सांझा पर्वतीय स्थल है. 

अरावली पर्वत शृंखलाओं के दक्षिणी किनारे पर पसरा यह हिल स्टेशन अपने ठंडे मौसम और वानस्पतिक समृद्धि की वजह से देशभर के पर्यटकों का पसंदीदा सैरगाह बन गया है. यह नक्की झील है. मान्यता है कि इस झील को देवताओं ने अपने नाख़ूनों से खोदा था. गाइड बताता जा रहा था, पर वे दोनों तो वहां का नज़ारा देख ही मंत्रमुग्ध हो गई थीं. “चल बोटिंग करते हैं. हरी-भरी वादियां, खजूर के वृक्षों की कतारें, पहाड़ियों से घिरी झील और झील के बीच आईलैंड. बड़ा मज़ा आएगा बोटिंग करने का.” भारती चहकी. “चल न, पहले थोड़ी देर यहीं किनारे पर बैठते हैं. 

पानी कितना साफ़ और ठंडा है.” रिया बोली. “काश यार! कोई मिल जाए यहां.” भारती फिर बोली. उसकी चंचलता को परे धकेलते हुए रिया गंभीर स्वर में बोली, “हां यार, जब भी कहीं जाती हूं, तो नज़रें उसी चेहरे को ढूंढ़ने लगती हैं. बस, एक बार सामने आ जाता.” “पहचान लेगी क्या तू उसे? कितने बरस हो गए उसे देखे हुए?” “पता नहीं. लेकिन एक बार चाहती हूं कि उससे मिलूं और बताऊं कि देखो तुम्हारी वजह से आज मैं किस मुक़ाम पर पहुंच गई हूं. फेसबुक पर उसे कितना तलाशा, पर नहीं मिला. कई बार अनजाने चेहरों में मैं उसे तलाशने लगती हूं. पता नहीं उसे पहचान भी पाऊंगी कि नहीं. 

धुंधली नहीं हुई है उसकी छवि, पर अब तो वह भी बदल गया होगा. 11-12 साल का अंतराल कोई कम नहीं होता है.” “तू भी तो यार, उस चेहरे को तलाश रही है, जिससे कभी बात तक नहीं की, जिसे कभी पास से देखा तक नहीं था.” “पर भारती, उसी की प्रेरणा मेरे लिए एक जुनून बन गई और मुझमें भी एक धुन समा गई थी कि मुझे भी कुछ बनना है. तुझे तो पता ही है कि हम दोनों एक ही सरकारी कॉलोनी में रहते थे. मेरे घर के पीछेवाला मकान उसका था. उसके घर की खिड़की जो हमारे घर से साफ़ दिखती थी, वहीं उसकी स्टडी टेबल थी, जहां बैठा वह पढ़ता रहता था. स्कूल से आने के बाद देर रात तक वह वहीं बैठा पढ़ता रहता. तब मैं और वह दोनों ही 11वीं में थे. 

अक्सर उस पर नज़र चली जाती. देखकर हैरानी होती कि आख़िर कोई इतना पढ़ाकू कैसे हो सकता है. पहले उसकी पढ़ाई की लगन ने मुझे उसकी ओर खींचा और फिर शायद एक इंफैच्युएशन-सा हो गया. वह उम्र ही ऐसी होती है. मुझे सजना-संवरना अच्छा लगने लगा. घंटों खिड़की के आगे खड़ी चुपचाप उसे निहारती रहती. धीरे-धीरे उसकी भी नज़रें मुझे छूने लगीं. मैं भी देर रात तक पढ़ने लगी. मैं ऐसी जगह बैठती, जहां से वह मुझे नज़र आता रहता. 

11वीं में मेरे अच्छे नंबर आए, तो 12वीं में मैं जी जान से पढ़ाई में जुट गई. वह जाने-अनजाने मेरी प्रेरणा बन गया. हम न कभी मिले, न बात हुई, पर नज़रों का यदा-कदा होनेवाला आदान-प्रदान ही मेरे लिए काफ़ी था. 12वीं में उसने टॉप किया और मैं भी फर्स्ट आई. फिर उसकी छोटी बहन से पता चला, जो कभी-कभी खेलने हमारे ब्लॉक में चली आती थी कि वह तो एनडीए ज्वॉइन कर रहा था. शायद खड़गवासला में. 

उसी साल पापा रिटायर हो गए और हमें वह मकान छोड़ना पड़ा. बस, सब वहीं रह गया, पर उसकी छवि और यादें मन में आज तक बसी हैं. “लेकिन यार, जब तेरी प्रेरणा वहीं छूट गई थी, फिर बाद में तूने अपने उस जुनून को कैसे कायम रखा?” “वहां से चले आने के बाद उसकी बहुत याद आती थी. पर सोचती कि अगर कभी जीवन में वह दुबारा मुझे कहीं मिल गया, तो उसकी क़ाबिलीयत के सामने मुझे बौना नहीं लगना चाहिए. बस, एक धुन मुझमें समा गई कि मुझे भी उसके जैसा क़ाबिल बनना है. जब वह इतनी मेहनत कर सकता है, तो मैं क्यों नहीं… कभी अगर मुलाक़ात हो जाए, तो मैं गर्व से कह सकूं कि देखो, मैंने भी तुम्हारी राह पर चलकर एक मुक़ाम हासिल कर लिया है. वह जो सामने नहीं था, वह जिसके नाम के सिवाय मैं कुछ नहीं जानती थी, वह मेरी ज़िंदगी का अनजाने में ही मार्गदर्शक बन गया था. 

और फिर मैं बन गई आईएएस ऑफिसर, पर उससे एक बार मिलने की चाह मन से कभी नहीं गई.” रिया भावुक हो गई थी. “चल यार, सेंटी मत हो. बोटिंग करने चलते हैं.” भारती ने अपनी सहेली के दर्द को कम करने के ख़्याल से कहा. “साहब, इन मैडम ने पहले बोट बुक कराई थी, दूसरी बोट के वापस आते ही आप उसमें चले जाना.” टिकट काउंटर पर बैठा आदमी जिससे बोल रहा था, उसने पायलट की यूनिफॉर्म पहनी हुई थी. “ओह! थोड़ी ही देर में मेरी फ्लाइट है. 

चलो कोई बात नहीं, फिर कभी सही.” कहते हुए वह जैसे ही मुड़ा, रिया की नज़र उस पर गई. एक लंबा, साधारण-सा लुकवाला, लेकिन स्मार्ट आदमी सामने खड़ा था. गोल चेहरा, वही आंखें और उनमें से झलकती मासूमियत. रिया के अंदर कुछ हरकत हुई, कोई छवि लहराई… यह वही तो नहीं. “अब चल भी, क्या सोच रही है?” भारती ने उसका हाथ खींचा. वह हाथ छुड़ा न जाने किस आकर्षण से खिंची उस आदमी की ओर बढ़ गई. उसके शरीर में कंपन हो रही थी. होंठ सूखते से लग रहे थे, पर फिर भी हिम्मत बटोरकर उसने पूछा, “एक्सक्यूज़ मी, आर यू अश्‍विनी गुप्ता, जो दिल्ली में पंडारा रोड पर रहते थे?” “पागल हो गई है क्या, हर किसी से यह पूछ बैठती है. किसी दिन मुसीबत में फंस जाएगी.” भारती ने उसे टोका. 

“हां, मेरा नाम अश्‍विनी गुप्ता ही है और मैं पंडारा रोड में ही रहता था, पर वह तो बरसों पुरानी बात है. डैडी की रिटायरमेंट के बाद तो हम अपने घर में शिफ्ट हो गए थे, पर आप कौन हैं और मुझे कैसे जानती हैं?” “मैं रिया जैन. आप बी-8 में रहते थे और मैं बी-16 में. बिलकुल आपके घर के पीछेवाला फ्लैट.” रिया जैसे उसे छोटी से छोटी हर बात बताने को आतुर थी. “ओह! याद आया, पर आप तो काफ़ी बदल गई हैं. अब तो स्लिम-ट्रिम हो गई हैं. मैं पहचान ही नहीं पाया. 

वैसे भी हमारी पहचान तो खिड़की तक ही सीमित थी.” वह मुस्कुराया. वही, पहले जैसी शर्मिली मुस्कान. उसके बाद तो जैसे बातों का सिलसिला रुका ही नहीं. मानो, दोनों के पास ही अनवरत बातें थीं, पर रिया ख़ुश थी कि आज वह अपने दिल का हाल खोलकर उसके सामने रख पाई है. “बहुत ख़ुशी हुई तुमसे मिलकर और यह जानकर कि मैं किसी की प्रेरणा बन पाया. मेरी फ्लाइट का व़क्त हो गया है, चलता हूं. फिर मिलेंगे और हां, इस बार मैं तुम्हें फेसबुक पर ढूंढ़कर फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजूंगा.” उसने विदा लेते हुए कहा. रिया का मन उस समय सचमुच बावरा हो गया था और सपने देखने लगा था.

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