पुष्पा गुप्ता
वहाँ होटल की स्वागत द्वार पर गाड़ी खड़ी की और रिसेपनिस्ट को अपनी बुकिंग का ब्यौरा देकर दो कमरों के सैट की चाबी ली। गाड़ी पार्क कर सभी ने अपना-अपना सामान उठाया और एलिवेटर की तरफ चल दिए। रूम नंबर 801 और 802 थे। यानी होटल की आठवीं मंज़िल पर कमरा नम्बर एक, दो। ‘अरे वाह! पूर्णांक में नौ और एक से नई की शुरूआत।’ उसने सोचा।
ये नम्बरों की समीक्षा उसका मस्तिष्क जब देखो अनायास ही करने में न केवल लग जाता, बल्कि ये भी कहा जा सकता है कि अब तो यह आदत ही बन गई है उसकी। एलिमेंट्री स्कूल की मैथमेटिक्स टीचर होने के नाते अंकों को देखते ही उसका अंतर्मन विश्लेषण करने में जुट जाता है। उसका यह बचपन का शौक़ ही जीविका बना गया। अंतर्मन हमेशा हर गतिविधि में उसे जहाँ भी कोई अंक दिखता वहीं उसकी नम्बर की विश्लेषण प्रक्रिया शुरू हो जाती।
जैसे ही कोड नम्बर वाली काग़ज़ की चाबी दरवाज़े की पर लगा हैंडिल घुमाया दरवाज़ा खुल गया। दो कमरों के सुंदर झकाझक सजे सेट में वे उतावले से अंदर आए। सामान को एक तरफ पटका और सीधे सोफे के सामने पड़ती खिड़की के साथ छोटी-सी बालकनी में खुलते दरवाज़े का पर्दा हटाया कि सामने विशाल फ़ोर्टलोडल के समूँदरी तट पर झूलते नारियल के पेड़ों के साथ पूरी छटा बिखेरती क्षितिज छूता दिखाई दिया समुद्र।
डेविड ने अपना सामान किचन वाले रूम 801 में रखा और तीनों बड़े बच्चों का रूम नंबर 802 में उनके स्कूल बैग सहित कुछ खाने का ज़रूरी सामान भी रख दिया।
असल में समय बचाने के लिए मैंडी व बच्चों को सीधे स्कूल से ही लिया गया। यहाँ आने की पूरी तैयारी तो मैंडी ने रात को ही कर ली थी। इस लम्बे वीकेंड का पूरा आनंद जो इस समंदर तट पर पूरी मस्ती के साथ उठाना था। और बाक़ी हल्का सामान पैक कर नन्हीं मियां के साथ डेविड सीधा एलिमेंट्री स्कूल पहुंच गया वहीं से मैंडी और तीनों बच्चों को लेकर वे सभी यहाँ के लिए चल दिए।
डेविड अपने रूम में आया तो वहां मैंडी मियां को गोदी में उठाए समंदर की तरफ का दरवाजा खोल बालकनी में खड़ी बड़ी तन्मय हो कुछ देख रही थी, कि उसे डेविड के आने का अहसास तक न हुआ। उसकी तन्मयता को भंग न करने के इरादे से डेविड ने हौले से अपना सामान सोफ़े पर ही टिका दिया और ख़ुद दबे पाँव मैंडी के क़रीब जा खड़ा हुआ तो देखा कि वहाँ समंदर तट के ऊपर विज्ञापनों के बड़े-बड़े गैस गुब्बारों में एक आयताकार पतंग नुमा पट्टी भी आसमान में इधर से उधर मस्ती से लहरा रही है जिस पर लिखा था ”मेनडेना विल यू मेरी मी!” साथ ही उस समंदर तट पर बड़े-बड़े गुब्बारों के आकर्षण से , मैंडी की आँखें ओर सब तरफ़ से एकदम हटकर उस पट्टी पर लिखे शब्दों को पढ़ने लगी। डेविड ने थोड़ा ध्यान से देखा कि सागर के सीने पर तैरती कश्ती से एक अपारदर्शी डोर से बंधी हुई आयताकार पट्टी पर अंकित मोटे-मोटे शब्द खुले आसमान में लहरा रहे हैं और नीचे जनसमूह से कुछ जोड़ी आंखें कभी नियतन और कभी यूं ही उस पर अटक जाती।
बच्चे तो यूँ ही ग़ुब्बारों के लिए आकर्षित होते ही है और ज़्यादातर वही बड़ों को दिखाने में भी उत्साहित भी रहते।
लेकिन ज्यादातर भीड़ अपनी मस्ती में कोई समुंदर तट पर में नहा रहे हैं, कोई रुपहली रेत में अपना बदन सेक रहे हैं और कई यूं ही इधर-उधर मटरगश्ती में मस्त।
क्षितिज को छू रहे किनारे की तरफ बड़े-बड़े 3 समुद्री जहाज क्रूस जहां तक नज़र जाती दाएं से बाएं पहरियों की तरह वहां तैनात। लंबे वीकेंड पर तो मानो जन-सैलाब इस समुद्र तट पर कुछ ज्यादा ही उमड़ पड़ा है या फिर क्या पता यह तट हमेशा ही सैलानियों से यूं ही भरा रहता हो। सभी अपनी मस्ती में मस्त दिखाई दिए जैसे कि इस भीड़ में किसी को किसी की परवाह नहीं सिर्फ मस्ती और बस मस्ती।
तो क्या इस जन-सैलाब में मैंडेना किनारे खड़ी अपने लिए हवा में तैरते इन शब्दों को देख कर रही होगी या के विशाल हृदय इस झील के सीने पर तेज़ रफ़्तार उसी मोटर बोट में बैठी अपने सवाली-प्रेमी की बाहों में आकाश में उड़ती इस इच्छा का पूरा आनंद ले रही होगी, जिसने अपनी हार्दिक चाहत को आज आकाश की ऊंचाइयों पर लहरा दिया है।
मैंडी को लगा कि जैसे डेविड ने ही अपनी दिली अनंत चाहत की पतंग उसके लिए हवा में ऊँची से ऊँची उड़ाने भरने खुले आसमान में छोड़ दी हो। लगे भी क्यों न! उसकी अनंत चाहत एलिमेंट्री स्कूल में पढ़ने से शुरू हुई थी और अभी तक उसकी नज़र हर पल एक अद्भुत चाहत से भरी उसे चाहती आ रही है! मैंडी को बड़ी तन्मयता से बाहर आसमान पर देखते हुए,उसकी नज़र भी उधर ही चल दी जहां मैंडी नज़ारे गढ़ाए थी।
“वाऊ!” कहने के साथ ही मैंडी को बाहों के घेरे में ले गोशे में बोला, “मैंडी! विल यू मेरी मी!” तो मैंडी के पीताभ गोरे चेहरे पर मक्खनी सफ़ेद रंगा सिन्दूर घुल गया। उसकी चेतना जागी; जब बाहों के कसाव में नन्हीं मियाँ की कुनमुन भी शुरू हो गई.
फिर उन दोनों को दरवाज़े से हट कर सोफ़े पर बैठने आना ही पड़ा। धम्म से बैठ गए अवाक्, हाथों में हाथ कसे एक दिल, एक जान हुए, मूक-मगन से….! कि इतने में मारिया, जैकब, सोफ़िया भी कमरे आन धमके और चहकते हुए पूछने लगे, “केन वे गो टू, सी शोर” (हम समन्दर तट पर जाएँ) निश्चय ही उन्होंने भी अपने कमरे की बॉलकनी का पर्दा हटा बाहर झाँक लिया होगा, और अब उन तीनों ने समुन्द्र तट पर जा पानी में मस्ती करने का मन बना लिया है।
ढलते सूरज की धूप में अभी तपिश भी ढीली पड़ गई है। उन दोनों को भी सही लगा। चाहे दोपहर बाद ही वे यहाँ पहुँच पाए, फिर समुन्द्र जल-क्रीड़ा का आनन्द आज से ही क्यों न लिया जाए। मैंडी ने डेविड की तरफ देखा, वही तो ड्राइव करके और पूरे घर की व्यवथा करके आया था, न जाने किस हद तक थका होगा और सोफे पर पाँव फैलाए ढीला-ढाला पड़ा डेविड एकदम ताज़ा मुस्कान के साथ उठ बैठा, बोला, “बी रेडी! लेट्स गो!” बच्चे उसी फुर्ती से अपनी स्वीमिंग ड्रैस में तैयार होने को भागे! मैंडी अभी भी वैसे ही उसे देखे जा रही थी। जैसे पूछ रही हों; तो क्या तुम थके नहीं. आँखों का जवाब ओंठों ने दिया, और वह भी जल्दी से सीटी बजाते हुए तैयार होने चल दिया, तब कहीं मैंडी को महसूस हुआ कि अब उसे भी जल्दी उठना ही होगा,पहले मीयाँ को तैयार करना है फिर ख़ुद तैयार होना है, और खिलौने का बैग भी उठाना हैं, समुंदर तट की रेत में खेलने के लिए जो लाए हैं।
यहीं से शुरुआत हुई, मस्ती, और मन की मौज भरे उस आनंद की, जिसकी योजनाएँ वे कितने दिनों से बनाते आ रहे हैं। और फिर पूरा समय उनका भी पूरे तीन दिन कैसे मौज मौज-मस्ती से भरे खाने-खेलने, धूप में नहाने- सुस्ताने की पूरी बेफ़िक्री और खुली आज़ादी में पँख लगाए उड़ गये पता ही न चला। न तब घर की, घर के कामों की परवाह थी, न स्कूल के बच्चों की असाइनमेंट चेक करने का ध्यान, न फ़ैक्ट्री की झिकझक, न ही वहाँ मस्ती में मग्न दूसरे लोगों की ही परवाह। सभी अपने-आप में, परिवार या मित्र मंडली में मस्त। इतनी भीड़ में भी पूरी आज़ादी मस्ती और बेपरवाही दिखाई दी! आस-पास की भीड़ का मानो कुछ अस्तित्व था ही नहीं वहाँ, और न ही यह सोचने का भी कि इस भीड़ में भी कही, कोई अकेला-निसंग भी हो सकता है!
वापसी में नए उत्साह से भरे बच्चों के गानों ने वो समा बांधा कि कब घर पहुँच गए पता ही न चला। नन्हीं मीयाँ को कार सीट में ही गहरी नींद आ गई। उसे धीरे से उठा बेड पर सुलाया, लेकिन घर पहुँचते ही थोड़ी पेट पूजा कर जो, जहां भी सुस्ताने के लिए बैठा वहीं सोने के लिए पसर गया कि थोड़ी थकान मिटा तरोताज़ा हो लिया जाए। कल से फिर वही कामों की चक्करघिनी शुरू हो जानी है। और मैंडी अपने स्टडी टेबल पर अपने छात्रों का काम चेक करने को लेपटाप पर काम करते हुए ही खाना खाने लगी।
जल्दी उठ सुबह मैंडी ने बच्चों को स्कूल के लिए अपनी गाड़ी में बैठने को कहा, और डेविड के बाल सहला उसे बाय किया तो कहीं उसकी नींद खुली। “ओह!” लेकिन लेट शिफ़्ट का ध्यान आते ही फिर से करवट बदल सुस्ताना चाहता था वह अभी। वैसे भी वीकेंड के बाद ज़्यादातर यही होता है, बेवजह थोड़ी और मस्ती में सुस्ताने को लालायित रहता, मन। लेकिन उस ऊँघलाती मस्ती में भी पूरे सप्ताह कई-कई कामों की लिस्ट उसे कहाँ सुस्ताने देती।
अचानक फ़ोन पर रिमाईंडर बज उठा मीयाँ की डाक्टर के यहाँ एप्पोईंटमैंट थी। वह चीते की फुर्ती से बेड से उछल पड़ा। ख़ुद तैयार हो मीयाँ को उठा, हैल्थ सेंटर पहुँच ही गया किसी तरह समय पर लम्बे वीकेंड के बाद सुबह के इस आफिस-ट्रेफ़िक में भी। थोड़ी देर नींद न खुलती, फिर तो अगली अपवांटमेंट करने में आज का दिन पूरा ही बर्बाद या बेमज़ा हो जाता।
वहाँ की ज़रूरी कार्यवाही कर, वेटिंग-रूम में पड़ी मेगजींन उठा खोलना शुरू किया ही था कि फ़ोन बज उठा, लेकिन अनपहचाना नम्बर। उसने बंद कर दिया कि अनवांटेड काल ही होगी, यूँ ही कोई एडवरटाइजमैंट या फिर रांग नम्बर। कुछ ही पलों में फिर रिंग आई, और फिर एक और तो उसने माथे पर बल डालते हुए फ़ोन लिया, उधर से आवाज़ आई, “मैं,स्क्यूरिटी गार्ड एलिमेंट्री स्कूल से। ध्यान से सुने! बहुत सीरियस बात है।”
“जस्ट वेट। मैं डाक्टर के यहाँ अपनी बच्ची के मेडिकल चैकअप…लेट मि कम आउट।” झट से बाहर निकाला वह और बोला, ‘यैस!”
“यहाँ अभी-अभी एक सिरफिरे युवा ने गन-शूटिंग की है, टीचर मैंडी को भी गोली लगी है!”
“वे कैसी हैं? हाऊ इज शी!” घबराहट में बोला वह।
“अभी कुछ नहीं कह सकते, उसे अस्पताल….।” बिना कुछ आगे कहे-सुने; डेविड ने वेटिंगरूम से मीयाँ को उठाया, जाते-जाते रिसेप्शनिस्ट से बोला, “आज की ये एपोईंटमेंट कैंसल कर दो, मुझे बहुत जल्दी एलिमेंट्री स्कूल जाना है, वहाँ गन-शूटिंग हुई है।”
“वट!… क्या?लेकिन…”
“उससे मेरी वाइफ़ को भी चोट लगी है!” गोली का नाम लेने से ही उसके दिल में भारी दहशत हो रही थी। और रिसैपशनिष्ट ने सिर हिला बस ये ही कहा, “गन शूटिंग, ओ गॉड ! हाउ मच?”
वहाँ पहुँचते ही पता चला कि शूटर कोई बड़ा आदमी न था। यही कोई जवानी की दहलीज़ पर चढ़ने को आतुर एक बड़ा बच्चा ही तो था वह, जो मानो खिलौना गन से छोटे-छोटे बच्चों को अंधाधुंध निशाना बनाकर कोई खेल खेल रहा हो। मैंडी ने उसे देखा तो उससे गन छीनने के लिए यह कहते हुए भागी :
“दिस इज़ नोट ए टाँय, माई बोय! वट आर यू डूइंग? ईट इज़ रियल गन!” ये खिलौना नहीं है, मेरे बेटे! क्या कर रहे ही? ये असली गन है!” और उसने अपना निशान बच्चों को छोड़ मैंडी की ओर साध लिया!”
“माई गॉड!” कह जैसे ही मैंडी औंधे मुँह गिरी कि उस लड़के ने न जाने इक पल क्या सोचा और फिर ख़ुद को निशाना लगा ट्रिगर दबा, ख़ुद भी वहीं ढेर हो गया!
जल्दी में मीयाँ को कार सीट से ही न निकाला और हड़बड़ाता हुआ भागकर वहाँ पहुँच, डेविड ने पूछा, “कहाँ है मैंडी?” प्रिंसिपल ने उसे अपने साथ चलने का इशारा किया नज़दीकी हेल्थ-सेंटर ले जाने को। सभी अपनी-अपनी कारों में बैठ पाँच मिनट में वहाँ जा पहुँचे। और उसी तेज चाल से एक कमरे की तरफ़ चल दिए, जहां सफ़ेद चादर में ढके एक बेड के पास वे आन खड़े हुए सभी, ख़ामोश! डेविड ने चेहरे से चद्दर हटा कर देखा, मैंडी की आँखें बंद पर चेहरा एक अद्भुत-सी आभा से प्रदीप्त।
देखते ही वह भी मुस्करा कर घुटने के बल झुक, उसके सीने पर दोनों हाथ रख धीरे से बोला :
“मैंडी विल यू मेरी मी!” और अपने हाथों पर ही माथा टिका दिया उसने।
_कमरे में खड़े प्रिंसिपल और हैल्थ सेंटर अटेंडेंट की आँखें बरस पड़ी । लेकिन उन दोनों ने उसे महसूस किया,डेविड की तब न सिसकी, न रोने की, आवाज़ सुनाई दी, न आह ही निकली। उन दोनों ने थोड़ी व्याकुल नज़रों से एक दूसरे को देखा और झट से उसे कंधे से सांत्वना देने के इरादे से पकड़ सिर हिलाया कि वह एक तरफ झूल गया। वहाँ तब एक नहीं दो शरीर एक रुह हुए पड़े थे निश्चल निष्प्राण!_
(चेतना विकास मिशन)