(सिगफ़्रीड लेंज़ की रचना का हिन्दी रूपान्तर)
~ डॉ. गीता शुक्ला
उन लोगों ने ख़ास निमंत्रण देकर प्रेस वालों को बुलवाया था कि वे आकर ख़ुद अपनी आँखों से देखें, हुकूमत के प्रति जनता का समर्थन कितना ज़बर्दस्त है। शायद वे हमें यक़ीन दिलाना चाहते थे कि उस सरकार की ज़्यादतियों के बारे में जो कुछ लिखा जा रहा था, वह सब झूठ था, वहाँ किसी को भी ‘टॉर्चर’ नहीं किया जा रहा था, घेराबन्दी पूरी तरह हट चुकी थी और प्रदेश के किसी भी हिस्से में आतंकी या आज़ादी की लड़ाई जैसा कोई अभियान बाक़ी नहीं बचा था।
निमंत्रण के मुताबिक़ हमें शहर की ऑपेरा बिल्डिंग के सामने इकट्ठा होना था। वहाँ एक मीठी ज़बान वाले अधिकारी ने हमारी अगवानी की और वह हमें सरकारी बस की ओर ले चला। बस के भीतर हल्का संगीत बज रहा था। बस चली तो उस अधिकारी ने क्लिप पर लगा माइक्रोफ़ोन निकाला और विनम्रता से फिर हम लोगों का स्वागत किया। “मेरा नाम गारेक है!” उसने कुछ संकोच से कहा, “इस यात्रा पर मैं आपका मार्गदर्शक हूँ!” कुछ आगे चलकर उसने हाथ के इशारे से वह जगह दिखायी जहाँ सरकार की एक आदर्श हाउज़िंग कॉलोनी की नींव रखी जाने वाली थी। शहर से बाहर निकलकर हमने सूखी नदी पर बने एक पुल को पार किया जहाँ एक नौजवान सिपाही हाथ में हल्की मशीनगन थामे लापरवाही से खड़ा था। हमें देखकर उसने गर्मजोशी से अपना हाथ हवा में हिलाया। गारेक ने बताया कि इस इलाक़े में निशानेबाज़ी की ट्रेनिंग दी जाती है।
टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर ऊपर चढ़ते हुए हम एक गर्म और ख़ुश्क मैदान में निकल आये। खिड़की से छनकर आती खड़िया जैसी महीन धूल से हमारी आँखें जलने लगी थीं। गर्मी से हमने अपने कोट उतार दिये, लेकिन गारेक ने अपना कोट पहने रखा। माइक्रोफ़ोन हाथ में पकड़े वह उन बेजान, बंजर मैदानों में पैदावार बढ़ाने की सरकारी योजनाओं के बारे में बता रहा था। मेरी बग़ल में बैठे शख़्स ने कुछ ऊब में अपना सिर पीछे टिकाकर अपनी आँखें बंद कर ली थीं। मैंने उसे कुहनी मारकर उठा देने की सोची क्योंकि गाड़ी के ‘रियर व्यू’ शीशे में से दिखायी देती गारेक की आँखें रह-रहकर हम दोनों पर ठहर जाती थीं। तभी गारेक अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और मुस्कुराहटभरा चेहरा लिये सीटों के पतले गलियारे से होता हुआ सब अतिथियों को पुआल की बनी टोपियाँ और कोल्ड ड्रिंक की ठण्डी बोतलें बाँटने लगा।
कुछ आगे हम एक गाँव से गुज़रे। यहाँ सभी खिड़कियाँ लकड़ी की पेटियों से तोड़े गये तख़्तों पर कीलें ठोककर बन्द कर दी गयी थीं। टहनियों से बनी मेंड़ें जगह-जगह आंधी से टूट चुकी थीं और साबुत-सलामत हिस्सों में जगह-जगह सूराख़ थे। सपाट छतें वीरान थीं और कहीं भी कपड़े नहीं सूख रहे थे। कुआँ पतरे से ढंका हुआ था और ताज्जुब की बात है कि हमारे पीछे कहीं भी न तो कुत्ते ही भौंके और न ही कोई शख़्स वहाँ नज़र आया। बिना रफ़्तार कम किये हमारी बस जन्नाटे के साथ आगे निकल गयी।
गारेक इस बीच फिर से सबको सैंडविच के पैकेट बाँटने लगा था। बस के भीतर की गर्मी के ऐवज में उसने हमें तसल्ली भी दी कि अब आगे का सफ़र बहुत लम्बा नहीं है। सड़क आगे नदी के कटाव से बनी घाटी के सिरे पर बसे एक छोटे-से गाँव के क़रीब आ पहुँची।
गारेक ने हाथ से इशारा किया कि यहीं हमें उतरना है। अब हम सफ़ेदी पुती एक साफ़-सुथरी झोंपड़ी के सामने कच्चे चौक में खड़े थे। उस झोंपड़ी की सफ़ेदी इस क़दर चमकदार थी कि बस से उतरते हुए वह हमें अपनी आँखों में चुभती हुई सी लगी। एक नज़र झोंपड़ी पर डालकर हम गारेक के लौटने का इन्तज़ार करने लगे, जो बस से उतरने के बाद झोंपड़ी के भीतर ग़ायब हो गया था।
गारेक को लौटने में कुछ मिनट लगे। जब वह बाहर आया तो उसके साथ एक और शख़्स था, जिसे हमने इससे पहले कभी नहीं देखा था।
“ये मिस्टर बेला बोंजो हैं!” गारेक ने उस आदमी की ओर इशारा करते हुए कहा, “ये अपने घर में कुछ काम कर रहे थे, लेकिन फिर भी आप इनसे जो सवाल चाहें पूछ सकते हैं!”
हम सब बड़े ध्यान से बोंजो की ओर देखने लगे। हमारी तलाशती हुई निगाहों को झेलते हुए उसका सिर कुछ झुक-सा गया। उसके बूढ़े चेहरे और गर्दन पर गहरी स्याह रेखाएँ थीं। हमने ग़ौर किया कि उसका ऊपरी होंठ कुछ सूजा हुआ था। उसे घर के किसी काम के बीच अचानक हड़बड़ा दिया गया गया था और जल्दी-जल्दी अपने बालों में कंघी फिरा चुकने के बाद अब वह हमारे सामने प्रस्तुत था। उसकी गर्दन पर बने उस्तरे के ताज़े निशान बता रहे थे कि उसने जल्दबाज़ी में किसी खुरदुरे ब्लेड से दाढ़ी बनायी है। ताज़ा सूती क़मीज़ के नीचे उसने किसी और के नाप वाली बेढंगी पतलून पहन रखी थी जो बमुश्किल उसके घुटनों तक आती थी। पैरों में कच्चे बदरंग चमड़े के नये जूते थे, जैसे रंगरूटों को ट्रेनिंग के दौरान मिलते हैं।
हम सबने ‘हैलो!’ कहते हुए बारी-बारी से उससे हाथ मिलाया। वह सिर हिलाता रहा और फिर उसने हमें घर के भीतर आने का न्यौता दिया। भीतर एक बड़े से कमरे में एक बूढ़ी औरत जैसे हमारा इन्तज़ार कर रही थी। कमरे की मरियल रोशनी में हमें उसके चेहरे की जगह सिर्फ़ उसका शाल दिखायी दिया। आगे बढ़कर उसने अपनी मुट्ठियों के आकार का एक अजीब सा फल खाने को दिया जिसका गूदा इस क़दर सुर्ख लाल था कि हमें लगा, हम किसी ताज़े ज़ख़्म पर अपने दाँत गड़ा रहे हैं।
कमरे से निकलकर हम वापस चौक में आये तो बहुत-से अधनंगे बच्चे हमारी बस के गिर्द इकट्ठे हो गये थे। वे सब अपनी जगह से हिले-डुले बग़ैर बहुत ग़ौर से बोंजो की ओर देख रहे थे। एक अजीब संतोशभरी साँस खींचकर बोंजो उनकी ओर देखते हुए मुस्कुराया।
“तुम्हारे बच्चे हैं?” हमारे एक साथी ने रुककर पूछा तो बोंजो ने कहा, “हाँ, एक बेटा है। लेकिन उससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। वह सरकार विरोधी था और साथ ही आलसी और निकम्मा भी। पैसों की ख़ातिर उसने बाग़ी क्रान्तिकारियों का साथ दिया, जो इन दिनों हर जगह गड़बड़ी फैला रहे हैं। वे समझते हैं कि सरकार के मुक़ाबले वे बेहतर ढंग से इस देश को चला सकते हैं!” उसकी आवाज़ में गहरा आत्मविश्वास और विश्वसनीयता थी। मैंने ग़ौर किया कि उसके सामने के दाँत नहीं हैं।
“लेकिन उनका यह दावा सही भी तो हो सकता है!” हममें से एक ने उसके प्रतिवाद में कहा।
इस पर गारेक, जो सबकुछ सुन रहा था, कुछ विनोद-भाव से मुस्कुराया। लेकिन बोंजो ने बहुत सधी हुई आवाज़ में कहा, “सरकार का बोझ, चाहे वह हल्का हो या भारी, आख़िरकार जनता को ही उठाना होता है।”
बच्चों ने अर्थपूर्ण ढंग से एक-दूसरे की ओर देखा।
“फ़क़त आज़ादी को लेकर आप क्या चाटिएगा!” बोंजो ने मुस्कुराकर कहा, “ऐसी आज़ादी किस काम की जिससे पूरा देश ग़रीबी की चपेट में आ जाये।”
बच्चों में एक लहर-सी दौड़ गयी। बोंजो ने अपनी गर्दन झुकायी और दुबारा कुछ अजीब-से भाव से मुस्कुराया। गारेक कुछ फ़ासले पर खड़ा चुपचाप सब सुन रहा था।
गारेक मुड़कर बस की ओर चला गया। बोंजो बहुत सावधानी से उसकी ओर देख रहा था। जैसे ही बस का भारी दरवाज़ा बन्द हुआ और हम अकेले रह गये तो मेरे साथी रिपोर्टर ने इसका फ़ायदा उठाकर जल्दी से सवाल किया, “अब असली माजरा बताओ! अब हम अकेले हैं!”
बोंजो ने थूक निगली और कुछ आश्चर्य से बोला, “माफ़ कीजिए, मैं समझा नहीं आपका सवाल…”
“अब हम खुलकर बात कर सकते हैं!” रिपोर्टर ने कुछ हड़बड़ाते हुए कहा।
“खुलकर बात कर सकते हैं!” बांेजो ने काफ़ी सावधानी के साथ सवाल को दोहराया और फिर उसके चेहरे पर हँसी फैल गयी। उसके सामने के दाँतों की ख़ाली जगह अब बख़ूबी देखी जा सकती थी।
“मैं आपसे खुलकर ही बता रहा था। मैं और मेरी पत्नी, हम दोनों इस हुकूमत के तरफ़दार हैं। हमें जो कुछ अब तक मिला है उसमें सरकार का बड़ा हाथ रहा है। मैं ही नहीं, मेरे पड़ोसी और सामने खड़े ये सारे बच्चे और इस गाँव का एक-एक आदमी, हम सब इस हुकूमत के वफ़ादार हैं। आप यहाँ किसी भी घर का दरवाज़ा खटखटा लें, वहाँ आपको सरकार के समर्थक ही मिलेंगे।”
इस पर एक दुबला-पतला नौजवान पत्रकार अचानक आगे निकल आया। बोंजो के नज़दीक आकर उसने फुसफुसाहटभरे स्वर में सवाल किया, “मुझे जानकारी है कि तुम्हारा बेटा पकड़ लिया गया है और शहर के क़ैदख़ाने में उसे यातना दी जा रही है। इस पर तुम्हारा क्या कहना है?”
बोंजो ने अपनी आँखें बन्द कर लीं। उसकी पलकों पर अब धूल की मटमैली सफ़ेदी थी। “जब वह मेरा बेटा ही नहीं है तब उसे ‘टॉर्चर’ कैसे किया जा सकता है? मैं आपसे फिर कहता हूँ कि मैं इस हुकूमत का वफ़ादार और उनका दोस्त हूँ।”
उसने एक मुड़ी-तुड़ी हाथ से बनायी बीड़ी सुलगा ली और तेज़ी से उसके कश खींचते हुए बस के दरवाज़े की ओर देखने लगा, जो अब तक खुल चुका था। गारेक बस से उतरकर हमारी ओर आया और हल्केपन से पूछने लगा, सब कैसा चल रहा है। बोंजो के चेहरे से लगा कि गारेक की वापसी से उसकी बेचैनी काफ़ी कम हो गयी है। वह बहुत सहजता से हमारे सभी सवालों का जवाब देता रहा। बीच-बीच में वह अपने दाँतों की ख़ाली जगह से बीड़ी का धुआँ छोड़कर निःश्वास लेता।
फावड़ा लिये एक आदमी उधर से गुज़रा तो बोंजो ने हाथ के इशारे से उसे अपने पास बुला लिया। फिर बोंजो ने उससे वे सारे सवाल किये जो हमने उससे पूछे थे। उस आदमी ने कुछ नाराज़गी से अपना सिर हिलाया। जी नहीं, वह जी जान से सरकार का समर्थक था। उसके बयान को बोंजो विजय-भाव से सुनता रहा, गोया कि हुकूमत के साथ अपने साझा रिश्ते पर वे विश्वसनीयता की मुहर लगा रहे हों।
चलने से पहले हम सब बारी-बारी से बोंजो से हाथ मिलाने लगे। मेरा नम्बर आख़िरी था। जब मैंने उसके सख़्त, खुरदुरे हाथ को अपनी उंगलियों से दबाया तो अचानक हथेली पर काग़ज़ की एक गोली का दबाव महसूस हुआ। फुर्ती से उंगलियाँ मोड़ते हुए मैंने उसे वापस खींचा और जब हम बस की ओर मुड़े तो मैंने चुपचाप उस गोली को जेब में डाल लिया। बीड़ी के सुट्टे लगाता हुआ बोंजो उसी तरह नीचे चौक में खड़ा था। जब बस चलने को हुई तो उसने अपनी पत्नी को भी बाहर बुला लिया और वे दोनों उस फावड़े वाले आदमी और उन बच्चों के साथ खड़े पीछे घूमती बस की ओर अविचलित भाव से देखते रहे।
हम उसी रास्ते से लौटने की जगह उसी रास्ते पर आगे बढ़ते गये। इस पूरी यात्रा के दौरान मेरा हाथ अपने कोट की जेब में घुसा हुआ था और मेरी उंगलियों के बीच थी काग़ज़ की वह गोली, जो इतनी सख़्त थी कि उसे नाख़ून से दबाना भी मुश्किल था। उसे जेब से बाहर निकालना ख़तरे से ख़ाली नहीं था क्योंकि गारेक की पैनी आँखें ‘रियर व्यू’ के शीशे से होती हुई बार-बार हम पर आकर ठहर जाती थीं।
काग़ज़ की उस गोली को अपने हाथ में दबाते हुए मुझे बोंजो का ख़याल आया। एक हाथगाड़ी पास से गुज़री तो उसपर बैठे सिपाहियों ने मशीनगनें हवा में हिलाते हुए हमारा स्वागत किया। मौक़ा पाकर मैंने काग़ज़ की उस गोली को चोर जेब में छिपाकर ऊपर से बटन बन्द कर दिया। इसके साथ ही मुझे दुबारा हुकूमत के दोस्त बोंजो का चेहरा याद हो आया। मैंने अपनी आँखों के सामने उसके कच्चे चमड़े के जूतों, उसके चेहरे की मुस्कुराहट और बोलते समय नज़र आती उसके दाँतों के बीच की ख़ाली जगह को देखा। हममें से किसी को भी शक नहीं था कि बोंजो के रूप में सरकार को एक सच्चा समर्थक मिल गया था।
समुद्र किनारे से होते हुए हम वापस शहर लौट आये। ऑपेरा हाउस पर बस से उतरे तो गारेक ने शिष्टतापूर्वक हम सबसे विदा ली। मैं होटल तक अकेला लौटा और कमरे का दरवाज़ा बन्द करने के बाद मैंने बाथरूम में सरकार के उस समर्थक द्वारा ख़ुफ़िया तौर पर थमायी गयी काग़ज़ की उस गोली को सावधानी से खोला। लेकिन पूरा काग़ज़ ख़ाली था, न उस पर कोई शब्द लिखा था और न ही वहाँ कोई निशान बना था। और तब मैंने देखा कि उसी काग़ज़ में लिपटा हुआ था कत्थई रंग का एक टूटा हुआ दाँत, जिसपर बने तम्बाकू के दाग़ को देखते हुए अन्दाज़ लगाना मुश्किल नहीं था कि यह दाँत किसका हो सकता है!
(चेतना विकास मिशन)