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कहानी : रत्तो

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    प्रस्तुति : बविता यादव 

रत्तो भेड़िए की भाँति उनके घर के भीतर घुस आई। बिखरी हुई लटूरियाँ, कांतिहीन और डरावनी आँखें, पीला रंग, फटे तथा मैले कपड़े-साक्षात डायन जैसी वह दिखाई पड़ती थी। एक चुहिया जैसी काली-कलूटी बालिका उसने गोद में उठा रखी थी और तीन-चार बालकों की पंक्ति उसके पीछे-पीछे आ रही थी। यह सब देखते ही जैसे राधो की जान मुट्ठी में आ गई।

       “सुन री ठेकेदारनी,” अन्दर कदम रखते ही रत्तो गरजी, “अगर तुम्हें तिमंजिला मकान बना कर शांति नहीं मिली तो हमारी झोंपड़ी छीन कर कलेजा ठंडा हो जाएगा क्या?”

और वह राधो के पास आकर फर्श पर ही बैठ गई। गोद में उठाई हुई बालिका के मुख में अपना स्तन देते हुए उसने राधो की ओर ऐसे देखा जैसे उसे खा जाना चाहती हो। राधो का चेहरा फक हो गया।

“सारे गाम में से ऊँची तुम्हारी अटरिया,” गुस्से-भरी ऊँची आवाज़ में रत्तो ने कहा, “बसने वाले तुम तीन जने हो। अगर इनमें भी तुम्हारी तोंदें नहीं समातीं तो जाकर श्मशान के चारों ओर चारदीवारी बना लो।”

“कुछ सोच-विचार कर बात करो मेरी बहन!” राधो ने बड़ी नम्रता से, पर कुछ डरी हुई आवाज़ में कहा।

पर रत्तो को तो जैसे चंडाल चढ़ा हुआ था।

“बोलूँगी सोचकर।” उसने आँखें दिखाते हुए उत्तर दिया, “तू भी सुन ले और अपने खसम को बता दीजियो कि यदि किसी ने हमारे घर के अन्दर पाँव भी रखा तो मैं उसका कलेजा निकाल कर खा जाऊँगी। जानते नहीं, मैं रत्तो हूँ, संतू सिरकटे की बेटी। मरने के बाद भी पीछा नहीं छोड़ूँगी; प्रेत बनकर तुम्हारी सात कुलों का नाश नहीं किया तो मुझे सिरकटे बाप की बेटी कौन कहेगा?”

राधो की जबान को जैसे ताला ही लग गया हो। उसने रत्तो को समझाना तथा फिर कुछ कहना चाहा परंतु उसके सूखे कंठ से आवाज नहीं निकली। रत्तो, मुंह आई कहती चली गई और ऐसे ही बुड़बुड़ाती बालकों की पलटन को पीछे लगाए चली गई।

      दोपहर को केसू ठेकेदार जब रोटी खाने घर आया तो राधो ने उसे सब बात बताई और बोली, “मुझे तो राम कसम उस पर तरस आता है। कुएँ में फेंको ऐसी जायदाद को अपनी पहली ही हममे संभाली नहीं जाती तो और क्या करेंगे।’

     परन्तु ठेकेदार को उसकी बात पर हंसी आ गई और वह व्यंग्य से बोला, “यदि तेरे जैसा स्याना होता तो आज तक टींडे-ककड़ियां बेचता होता।”

और दूसरे क्षण वह कुछ क्रोध में आकर कहने लगा, “उसी बड़ी अक्ल वाली ने पहले अपने उस खसम को क्यों नहीं समझाया जो एक हजार की अकेली शराब ही पी गया, जो ढाई तीन-सौ की अफीम तथा नसवार चढ़ा गया, वह अलग रही । जाने मैं आज तक कैसे चुप कर रहा, यदि कोई और होता तो इनके सिर के बाल तक उखाड़ देता। मैं तो फिर भी तरस खाता चला आया कि चलो गरीब है थोड़ा-थोड़ा करके दे देगा।”

    ‘परन्तु तुम ऐसों को उधार दिया क्यों करते हो?’ राधो ने कुछ खीझ कर पूछा।

     ‘तुझे क्या पता है दुकानदारी के भेदों का हमें ही पता है जिनको इन मूर्ख लोगों से निपटना पड़ता है। नकद तो इनके पास जहर खाने को भी पैसा नहीं होता, उधार हम दें नहीं तो कर ली दुकानदारी-जाट गुड़ की भेली ही दिया करता है गन्ना नहीं दिया करता।

‘मुझे तो उसकी बद्दुआ से डर लगता है ऐसी दुखिया की आह खाली कभी नहीं जाती। दूसरे कितने ही छोटे छोटे बाल बच्चे ठहरे, उनको लेकर कहां जाएगी बेचारी ।’

     परन्तु ठेकेदार ऐसा आदमी नहीं था जो राधो की बातों के लिए इतना बड़ा नुक्सान उठा लेता। राधो को उसने बताया कि यह भी उसकी दरियादिली ही थी कि उसने रत्तो के पति जीवने से केवल घर ले कर ही फैसला कर लिया था। कोई बारह सौ रुपया उसने जीवने से शराब, अफीम तथा नस्वार का लेना था। कोई अढ़ाई सौ से अधिक का ब्याज बन जाता था परन्तु जीवने के पुराने घर का कोई पांच सौ भी देने को तैयार न था । यदि उसकी इच्छा होती तो वह जीवने की सारी जमीन भी कुरक करवा सकता था। उसने तो जीवने पर इतना तरस खाया था परन्तु वह फिर भी बेईमानी कर गया था। उसने चोरी-चोरी अपनी तीन बीघा जमीन बेच दी थी । अब यदि ठेकेदार उस पर मुक्कदमा कर देता तो घर के साथ-साथ उसके बर्तन भी कुरक हो सकते थे। परंतु क्योंकि वह खुद बाल बच्चेदार आदमी था इसीलिए उसने सोचकर उसका घर लेकर इतना घाटा भी सहन कर लिया था।

     “परंतु यदि इस पर भी वह ऐसी बातें करती फिरती है,” ठेकेदार ने गुस्से से कहा, “तो मैं भी अपने बाप का बेटा नहीं जो रात पड़ने से पहले-पहले उनका बोरिया-बिस्तर न उठा दूं तो। जितना इन लोगों से नर्मी करें, उतने ही सिर पर चढ़ जाते हैं।”

अपने पति की यह बात सुनकर राधो का मन और भी उदास हो गया, परंतु विवश होकर चुप हो गई।

ठेकेदार ने उसी रोज जीवने को बुलाकर कह दिया कि यदि उसने कल तक घर खाली नहीं किया तो वह पुलिस बुलवा लेगा।

     “लाला जी, मुझे चार दिन और काट लेने दो। फिर मैं शहर जाकर कोई मेहनत मजदूरी कर लूँगा। यहाँ अपने गाँव में रहते मुझ से शरम के मारे गुजर नहीं होगी।” जीवने ने मिन्नत से कहा।

परंतु ठेकेदार ने आँखें दिखाते हुए उत्तर दिया, “तो बड़ी इज्जत वाले ने मेरा कर्ज क्यों नहीं दे दिया? अब तो गाँव में, घर छोड़ कर रहते शरम आने लगी, जब बोतल को हिला-हिला कर देखते कहा करता था,

‘ठेकेदार, पहले तोड़ की नहीं है यार!’ तब यह बातें याद नहीं थीं?”

जीवना सिर नीचा किए…चला आया।

     रात पड़ने से पहले-पहले इस बात की चर्चा सारे गाँव में होने लगी। रत्तो के तीखे स्वभाव को सभी जानते थे कि वह मर कर भी अपना घर नहीं छोड़ेगी, जीतेजी तो उसे कौन निकालने वाला ठहरा। परंतु दूसरे दिन जब जीवना अपना टूटा-फूटा सामान गाड़ी पर लाद कर, अपने चचा के पशुओं वाले अहाते की ओर जाने लगा तो लोगों को इस बात का भरोसा नहीं हुआ। सभी यही सोच रहे थे कि उसने रत्तो को घर छोड़ देने पर कैसे राजी कर लिया?

     फिर तीन दिन रत्तो को किसी ने नहीं देखा। परंतु चौथे रोज जीवने के चचा के पशुओं के अहाते में से, गाँव वालों ने उसकी किलकारियाँ सुनीं। वह केसू ठेकेदार के बेटों का ‘स्यापा’ कर रही थी। आधी रात तक वह स्यापा करते-करते थक-हार कर जब बेहोश-सी हो गई तब कहीं जाकर चुप हुई।

      और उसके पश्चात् गाँव वालों को रत्तो की किलकारियाँ हर रोज सुनाई देने लगीं। वह केसू ठेकेदार के सारे परिवार का स्यापा करती, उसे गालियाँ निकालती, और बहुत रात गए तक न जाने क्या-क्या बोलती रहती। उसकी किलकारियाँ जैसे सब के कलेजे चीर जातीं और लोग रात-भर उसी की बातें करते रहते।

रत्तो के कच्चे घर को गिराकर केसू ठेकेदार ने वहाँ नई हवेली की नींव रख दी थी। हवेली को बनते कई दिन हो गए थे परंतु राधो वहाँ नहीं गई थी। ठेकेदार उसे रोज कहता कि चलो अपना नया घर बनता देख लो परंतु राधो को हर समय रत्तो की किलकारियाँ सुनाई पड़ती रहतीं। उसे ऐसे जान पड़ता जैसे रत्तो, अपने काले-कलूटे, फटे-पुराने चीथड़ों में लिपटे बच्चों की पल्टन लिए उसके घर के भीतर घुसी आ रही है और उसको डायन की भाँति खा जाना चाहती है। मारे डर के वह, यह सब ठेकेदार को भी नहीं बताती थी।

     और जब पति के बहुत कहने पर वह एक दिन अपनी, बन रही नई हवेली देखने चली तो उसके मन का भय पूरा हो गया। जिस गली से होकर वह जा रही थी उसी के मोड़ पर उसने रत्तो को खड़े देखा। नंगा सिर, चेहरे पर बिखरी लटें, भयंकर आँखें और चुडैलों जैसे हाथ-पाँव । वहाँ खड़ी वह ऊँची आवाज में केसू ठेकेदार का नाम ले-लेकर गालियाँ निकाल रही थी। चीखें मार रही थी, और उसके बेटों का स्यापा कर रही थी। उसके देखते ही राधो बेहोश-सी हो गई। दीवार का सहारा लेकर वह वहीं रुक गई।

      थोड़ी देर बाद जब उसे कुछ होश आई तो उसने देखा कि रत्तो उसकी बन रही नई हवेली के पास चली गई थी। उसके हाथ में एक टूटा हुआ जूता था और पास ही गाड़े हुए एक खूटे पर जोर-जोर से जूता मारते हुए वह चिल्ला रही थी :

     “अब बोल मेरे भय्या के साले, अब बोल ! तूने जो तालाब का पानी बोतलों में भरकर मेरा घर फूंक डाला है, मैं भी रत्तो नहीं जो तेरे सारे कबीले के बच्चे-बच्चे को न खा जाऊँ तो!…अब बोल मेरे मामू…अब बोल…”

राधो दीवार के सहारे काँपती हुई उसे देखती रही। जूता मारते और गालियाँ निकालते-निकालते जब वह थक-सी गई तो अपने आप ही अपने अहाते की ओर चली गई। राधो भी उसकी आँख बचाकर वहीं से घर को लौट पड़ी, अपनी नई हवेली तक पहुँचने का उसे साहस नहीं हुआ।

     उस दिन रात को जब ठेकेदार घर आया तो राधो ने उसे कहा, “यदि कहा मानो तो इस घर को जैसे भी हो बेच डालो। मुझसे अपनी आँखों यह सब नहीं देखा जाता-उस अभागी की यह दशा मुझसे देखी नहीं जाती, देखो तो कैसी बुरी हालत हो रही है?…उसकी बददुआओं से मुझे डर लगता है।”

    “बड़ी दयावान न बन। चुप करके बैठी रह।” ठेकेदार गुस्से से बोला, “यदि हाथी कुत्तों के भौंकने से डरकर भाग जाएँ तो दुनिया न उलट जाए! मैंने घर कर्ज के पैसों में लिया है कोई दान नहीं लिया जो ऐसी चुडैल की बददुआओं से डरकर छोड़ दूँ।”

राधो फिर चुप हो गई।

    उस दिन के बाद रत्तो को किसी ने कहीं फिरते नहीं देखा। जो कोई कभी उसके अहाते के आगे से गुजरता उसे छप्पर के नीचे खाट पर लेटे-लेटे, धीमी-धीमी आवाज़ में ठेकेदार के बेटों का स्यापा करते देख पाता। वह अब इतनी दुर्बल हो गई थी कि उसकी आवाज़ उसके अहाते के बाहर तक भी मुश्किल से पहुँच पाती थी। बिना किसी के सहारे वह उठ बैठ भी न सकती थी। परंतु अपने दालान में एक बड़ी लकड़ी का खूँटा गाड़कर और उसके ऊपर एक हाँडी औंधी रखकर उसने जो, ठेकेदार केसू का पुतला बना रखा था, रात को सोते समय और प्रातःकाल उठते समय, वह उस पर पाँच जूते अब भी मारती थी। और कहने वाले कहते हैं कि यह प्रण उसने आखिरी श्वास तक निभाया।

थोड़े दिन बाद राधो ने सुना कि रत्तो मर गई। उसको यह सुनकर इतना दुःख और भय लगा कि वह दो दिन खाट से नहीं उठ पाई; न कुछ खाया न पिया, बस पड़ी-पड़ी सामने दरवाजे की ओर देखती रही। उसे पल-पल ऐसे जान पड़ता जैसे अपने, उन्हीं काले-कलूटे, फटे-पुराने चीथड़ों में लिपटे बच्चों की पल्टन लिए. रत्तो उसके घर के अंदर घुसी आ रही है। परंतु तीसरे दिन उसका मन कुछ शांत होने लगा और एक लम्बे समय से उसके मन में बैठा भय दूर हो गया; तब भी भीतर उसके कहीं कोई, उदासी का बोझ-सा अनुभव होने से नहीं रुक पाया।

     और कुछ दिन बाद राधो की नई हवेली तैयार हो गई। मीठे चावल बाँटने के लिए वह स्वयं गई। चावल बाँटते-बाँटते उसने एक बहुत दुबली-पतली, काली-कलूटी तथा नंगी-धड़ंगी बालिका की ओर देखा तो उसका हाथ अपने आप रुक गया। उसे एक भय-सा लगा।

“तू किसकी बेटी है री?” राधो ने उससे पूछा।

“रत्तो की।” बालिका ने उत्तर दिया।

     राधो से आँखें भी नहीं झपकी गईं। वह देखती की देखती रही : वही कांतिहीन बड़ी-बड़ी आँखें, सफेद रंग, बिखरी लटें, डायन जैसे हाथ-पाँव…जैसे वही रत्तो सामने खड़ी हो।

    राधो की टाँगें काँपने लगीं। नाई को चावलों वाली परात पकड़ाकर वह झट से भीतर चली गई-घर वापस आने तक का साहस भी उस में नहीं था। भीतर जाकर वह दीवार का सहारा लेकर नीचे फर्श पर ही बैठ गई। कितनी देर उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा और वह आँखें फाड़-फाड़कर छत की ओर देखती रही। कुछ देर बाद जब उसे थोड़ा-थोड़ा दिखाई पड़ने लगा तो उसने देखा कि छत के बड़े गार्डर से बँधी, रंग-बिरंगी कातरों की बनी हुई चिड़िया जो लटक रही थी, उसकी आँखें बिल्कुल रत्तो की आँखों जैसी जान पड़ती थीं। और फिर ऐसे ही उसकी आँखों की ओर देखते-देखते वह बेहोश हो गई।

अगले दिन लोगों ने राधो को, रत्तो की भाँति ही गालियाँ देते और किलकारियाँ मारते हुए सुना। उसी भाँति उसने ठेकेदार केसू का नाम ले-लेकर उसके बेटों का स्यापा किया। ठेकेदार ने कई डॉक्टर, हकीम बुलवाए परंतु राधो को आराम नहीं आया। यदि क्षण-भर उसे होश आ भी जाता तो अगले क्षण वह अधिक जोर से चिल्लाने लगती, पहले से अधिक गालियाँ निकालती, अधिक जोर-जोर से स्यापा करती।

     जब कई दिन राधो को आराम नहीं आया तो गाँव में इस बात की अधिक चर्चा होने लगी। गाँव की बूढ़ी स्त्रियाँ कहने लगीं कि उस पर रत्तो की छाया पड़ गई थी-तभी तो रत्तो की भाँति वह गालियाँ निकालती थी, उसी की भाँति स्यापा करती थी; और तो और उसका स्वर भी रत्तो जैसा ही बन गया था।

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