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कहानी : दुख का सबब 

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      ~ पुष्पा गुप्ता 

“आज कुछ ज़्यादा ही इत्मीनान से गाड़ी नहीं चला रहे हो? और कितनी देर लगेगी?”

   मैंने अपनी झुंझलाहट ड्राइवर पर उतार दी और उसने अपनी हड़बड़ाहट एक्सेलेरेटर पर! गाड़ी आगे भागने लगी और मेरा मन पीछे…

      “मैं पूरी फीस जमा नहीं कर सकती मैम! अगर आप आधा घंटे भी बैठने दें तो…” क़रीब छह महीने पहले कृति रंग और कूची संभाले चित्रकला अकादमी के दरवाज़े पर खड़ी थी.

     ईश्वर प्रदत्त असाधारण प्रतिभा की धनी वो लड़की हर पेंटिंग के साथ मुझे चौंकाती रही.

        कुछ दिन सब ठीक चला, लेकिन उसके  उज्जवल भविष्य के साथ अपना सिंहासन भी डोलता हुआ मुझे दिखाई देने लगा, जब वो मामूली फेरबदल के साथ मेरे चित्रों के दोष भी दूर करने लगी.

    जैसे-जैसे अकादमी में उसकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी, नारी सुलभ ईर्ष्या की फफूंदी गुरु-शिष्या रिश्ते में घुसपैठ बना रही थी.

    “मैम! ये पेंटिंग अखिल भारतीय प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के लिए… कैसी है?”

    मैं सर्वांग कांप उठी. ये नहीं हो सकता… ये पेंटिंग इसको कितनी प्रसिद्ध कर सकती है, मुझे पता था.

“नहीं-नहीं, ये विषय आधारित नहीं है, कोई दूसरी बनाओ…”

कृति पेंटिंग रखकर चली गई… ना वो वापस आई, ना मेरी नींद. नींद की गोलियां भी जब काम करना बंद कर चुकीं, तब अपराधबोध से ग्रसित होकर कला के पारखी जेम्स को फोन कर दिया था.

    “मैडम, कृति बिटिया का घर आ गया!” ड्राइवर की आवाज़ सुनकर मैं वापस आई. दरवाज़ा कृति ने ही खोला.

     “मैम, आप यहां?” मासूम आंखों में आंसू झिलमिला रहे थे.

“दो महीने से क्लास नहीं आई हो, डांटने आई हूं,” मैंने आंसू रोकते हुए कहा.

     “तुम्हारी पेंटिंग है ना, ‘फ्लावर इन द ओशियन’, मैंने बेच दी है तुमसे बिना पूछे. दुनियाभर में जानी जाओगी अब! और हां, अकाउंट नंबर दे दो, सात लाख रुपए तुम्हारे हाथ में थोड़ी दूंगी.”

   विस्मय से उसकी आंखें फैलीं, डबडबाईं और छलक पड़ीं. मैं उसका सिर सहला रही थी, लेकिन नींद मुझे आ रही थी… बहुत दिनों बाद, बिना गोली लिए!

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