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कहानी : प्रतिसाद

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  नग़मा कुमारी अंसारी 

“आंटीजी,  किसका सूटर है. अहहा! ऊन कितना नरम है ना…” कामवाली बाई सुगनी की छह साल की बेटी सलोनी ने सुभद्रा की गोद में रखा ऊन का नरम गोला अपने नन्हें हाथों से दबाया, तो सुभद्रा ने बरामदे की ओर जाने का इशारा करते घुड़का, “जाओ, उधर जाकर बैठो.”

बावजूद इसके सलोनी ऊन के गोले पर टकटकी लगाए वहीं खड़ी रही, तो ग़ुस्से को दबाती सुभद्रा ऊन-सलाई थैले में डालकर कमरे में चली आई.

“यही बुन लेती हूं… वहां सुगनी  की बेटी सिर पर खड़ी स्वेटर ही ताकती रहेगी…” सुभद्रा की भुनभुनाहट सुनकर जयेश ने घूरते हुए कहा, “ताकने से स्वेटर बिगड़ जाएगा क्या!”

“तुम्हें क्या पता, ये लोग अभावों में पले होते हैं. इनके हाथ साफ़ हों न हों, नज़रों  में कचरा होता है. ललचाई नज़रें अच्छी नहीं होतीं.”

जयेश को पत्नी की बात नागवार लगी, सो चिढ़कर वहां से उठ गए. सुभद्रा की आंखें फिर से सलाइयों पर टिक गईं. आजकल उसे स्वेटर के अलावा कुछ नहीं सूझ रहा.

दरअसल, उसकी इकलौती बेटी रागिनी  दिल्ली से अपने पति और छह साल की बेटी परी के साथ जयपुर आ रही है. दामाद पलाश  का सेमिनार जयपुर के पांच सितारा ग्रैंड होटल में उसी दिन होना है, जिस दिन परी का जन्मदिन है. ऐसे में रागिनी और पलाश ने निर्णय लिया कि बेटी का जन्मदिन जयपुर में ग्रैंड होटल में ही मना लेंगे.

नातिन को बर्थडे गिफ्ट में देने के लिए सुभद्रा हूबहू वैसा ही स्वेटर तैयार कर रही है जैसा रागिनी ने अपने छठे जन्मदिन पर पहना था. मां-बेटी अपने छठें जन्मदिन पर एक सा स्वेटर पहनी हों, यह कल्पना ही सुभद्रा को  मुदित कर जाती है. जबकि  जयेश ने स्वेटर बुनते देख उसे पहले ही दिन टोक दिया, “आजकल हाथ का बुना पहनता कौन है?” जो  परी जूते ख़रीदने के लिए पूरा बाज़ार नचा देती है, वह हाथ का बुना स्वेटर पहनेगी इसमें उन्हें तो संदेह था, बावजूद इसके सुभद्रा अपनी सारी ऊर्जा इस स्वेटर में झोंक रही है. दिन-रात उसके हाथों की सलाइयां आपस में लड़ती रहती हैं.

स्वेटर बुनने के जूनून में जयेश को उसे  आगाह करना पड़ा, “अपनी तबियत न ख़राब कर लेना…” फिर भी सुभद्रा आधा पल्ला बुनकर ही सोई.

अगले दिन सलोनी फिर सुगनी के साथ आई और स्वेटर देखकर चिल्लाई, “इत्ता बड़ा सूटर हो गया आंटीजी…” सुभद्रा ने उसके टोकने पर आंखें तरेरकर उसे देखा, फिर अधबुना स्वेटर पालीथिन में डालकर बैठ गई. पास ही बैठे जयेश उसकी बेचैनी भांप रहे थे.

“रख क्यों दिया स्वेटर. बुनो न आंटी…” सलोनी ने कई बार कहा, पर वह चुपचाप भरी हुई सी बैठी रही. सुगनी काम करके निकली, तब ऊन-सिलाई निकालते हुए बड़बड़ाई, “पच्चीस-तीस सलाई हो जाती अब तक… इसके आने से सब काम ठप्प हो गया. इसकी लड़की तो स्वेटर देखकर ऐसे लार टपकाती है जैसे ऊन का गोला चबा जाएगी…”

“ये ग़लत है सुभद्रा, बहुत ग़लत… परी जैसी है सलोनी, उतनी ही बड़ी.” जयेश झुंझलाए, पर उनकी झुंझलाहट पर प्रतिक्रिया देकर वह समय नहीं ख़राब करना चाहती थी. स्वेटर की बांहें भी बुननी थी और क्रोशिया के फूल टांककर लगाने थे. सो नज़रें और ध्यान स्वेटर पर लगाए रही. एक फंदा इधर का उधर होता, तो सारी मेहनत पर पानी फिर जाता.

पूरे दिन लगातार स्वेटर बुनने के कारण सुभद्रा की गर्दन अकड़ गई. दूसरे दिन सुबह आठ बजे तक भी उससे उठा नहीं गया. स्वेटर के दो पल्ले बन चुके थे. बाकी ठप्प काम का ठीकरा सलोनी के सिर फोड़ा गया, “मैं कहती थी न उसकी बिल्ली जैसी नज़रें  ख़राब हैं. कैसे उसने इत्ता बड़ा… इत्ता बड़ा… कह-कह कर मेरी गर्दन ही ऐठवां दी. बाबा रे बाबा, क्या करूं…”

सुभद्रा को दर्द से इतनी तकलीफ़ नहीं हुई जितनी इस बात से कि वह स्वेटर न बुन पाई, सारा दिन बेकार गया. दवा का असर रात तक हुआ. जयेश सो गए, तो धीमे से उठकर बेड पर तकियों का ढेर लगाकर सावधानीपूर्वक पीठ टिकाकर आस्तीन के लिए फंदे डाले  और सलाइयों पर आंखें गड़ा लीं. इस बार वह अपनी गर्दन के प्रति सतर्क थी. आधी रात बीत गई आधी बाजू बुन लेने के बाद उसने सलाइयां रख दीं.

सुबह जयेश उसे अपना ध्यान रखने को कहकर ऑफिस के लिए निकले. उनके निकलते ही वह स्वेटर वाला पॉलीथिन उठा लाई. बुनना शुरू ही किया था कि सुगनी आ गई और पीछे-पीछे सलोनी.

सलोनी को देखते ही पॉलीथिन में ऊन-सलाइयां डालते हुए सुभद्रा ने सुगनी से पूछा, “ये आजकल तुम्हारे साथ क्यों आती है?” “क्या करूं भाभी, अम्मा गांव गई हैं, किसके भरोसे छोड़ आऊं… हफ़्ता-दस दिन की बात है सो लिए आती हूं…”

“ठीक है. तुम जल्दी काम निपटा लो.” अनमने भाव से कहकर वह वहां से उठी और  बरामदे में आड़ में बैठकर सलाइयां निकालने ही लगी थी कि सलोनी की आवाज़ आई, “आंटीजी, कित्ता बुना, दिखाओ…”

कोफ़्त भरी उसांस भरते हुए मन मसोस कर उसकी उपस्थिति स्वीकारते हुए उसने बुनाई शुरू कर ही दी.

“हाय आंटीजी, कित्ती जल्दी-जल्दी बिनती हो…” दो दिन पहले ही आगे के एक और टूट गए दांतों के कारण बोले शब्दों से हवा सी निकली.

“चुप, नज़र मत लगा… हट इधर से…” सुभद्रा की धीमी घुड़की झाड़ू लगाने आई सुगनी ने सुन लिया. सुगनी के फूल से चेहरे को देख सुभद्रा का मन यह सोचकर बैठ गया कि कहीं सुगनी जैसी नेक कामवाली इस अपमान का बदला काम छोड़कर ही न ले ले. मन अनमना सा बना रहा.

शाम को सुगनी सलोनी के साथ आई तब जाकर उसने चैन की सांस ली. प्रायश्‍चित स्वरूप स्वेटर पॉलीथिन में रखकर छिपाने की चेष्टा भी नहीं की. आदत से मजबूर सलोनी उछलते-कूदते उसके सम्मुख आ खड़ी हुई और ताली बजाकर बोली, “अहा! कित्ता सुंदर लग रहा है स्वेटर, है न आंटीजी…”

“तुम्हें अच्छा लगा न?” सुभद्रा ने बनावटी मुस्कान के साथ सुगनी को सुनाते हुए सलोनी को कुछ दुलराया. और तो और, सुगनी  की उपस्थिति आसपास महसूसते हुए स्वेटर को सलोनी के पास ले जाकर परी की  लंबाई-ऊंचाई का माप भी लिया. हक़ीक़त में सावधानी पूरी बरती कि कहीं स्वेटर के पल्ले सलोनी की मटमैली फ्रॉक से छू न जाए…

सुगनी के चेहरे की कोमलता कह रही थी कि अपनी मालकिन की इस उदारता पर वह संतुष्ट है. शाम तक स्वेटर के पल्ले और बांहें जुड़ गई थी. देर रात लगभग वह क्रोशिया के गुलाबी फूल काढ-काढ टांकती गई. सुंदर  बटनों और स़फेद गुलाबी फूलों से सजे स्वेटर में चार चांद लग गए. घेरदार बैंगनी-गुलाबी रंग के ऊनी फ्रॉक पहने परी की मनमोहक छवि आंखों में तैरती रही. 

आख़िर वह दिन भी आ गया जब घर चहल-पहल से गुलज़ार हो गया. बेटी-दामाद की खातिरदारी में दौड़-दौड़ कर उसके पांव दुखे जाते थे. गट्टा, सांगरी, अचारी आलू, जलेबी न जाने क्या-क्या पकवान बनाए गए, पर अफ़सोस सब बस चखते भर ही थे.

डायटिंग और फूड चार्ट को फॉलो कर रही रागिनी-पलाश के साथ उनकी छह साल की परी भी खाने को लेकर कम तुनकमिज़ाजी नहीं दिखाती थी.

“नानी आपके हाथ के बने परांठे खाए, तो मैं मोटी हो जाऊंगी…”

“मम्मी, ये तो अभी से मॉडल वाली डायट फॉलो कर रही है. याद है हम लोग कैसे ठूंस-ठूंस कर खाते थे, पर आज की जेनरेशन कितनी कांशस है.”

रागिनी परी पर बलिहारी होती, तो सुभद्रा कहती, “तुम लोगों को क्या हो गया है. बित्ते भर की लड़की के इतने नखरे अच्छे हैं क्या! अरे, लड़की के शरीर में बचपन का खाया-पिया ही तो लगता है. नींव पक्की हो, तो आगे कोई कष्ट नहीं होता है. अरे कुछ काजू-बादाम, घी पिला, जो शरीर को लगे.” उनकी बात पर रागिनी लिहाज के चलते कुछ न कहती, पर परी ताली बजा-बजा कर हंसती.

वैसे परी सच में परी ही लगती. उसके कपड़े, बालों में लगी रंग-बिरंगी ढेरों क्लिपों की सज-धज से सुभद्रा कायल हो जाती. दिन में दो बार उसकी नज़र उतारती.

बर्थडे वाली ड्रेस रागिनी लेकर आई थी, इसके बावजूद जयेश भी अपने दोस्त की दुकान से परी के लिए एक ड्रेस उठा लाए. रागिनी ने तो ड्रेस की तारीफ़ की, पर परी बिदक गई, “ओ नानू इट्स सो आउटडेटेड…” उसके इतराने पर जयेश खिसिया गए.

पलाश ने परी को हल्का सा डांटा. रागिनी ने समझाया, “वैरी बैड. नानू इतने प्यार से लाए हैं और तुम ऐसे बोलती हो.” परी के नखरे और पति का खिसियाया चेहरा देख सुभद्रा को न चाहते हुए भी परी पर ग़ुस्सा आया. उसके ऐसे नखरे देखकर स्वेटर देने का ख़्याल डगमगाने लगा.

परी का जन्मदिन होटल में पूरी शान-शौकत से मनाया गया. बर्थडे के हंगामे में उसके हाथ के बुने स्वेटर की ललक कहीं दबी रही.

उनके जाने से एक दिन पहले ़फुर्सत के पलों में रागिनी परी को अपने बचपन का एलबम दिखा रही थी. रागिनी के जन्मदिन की फोटो को देख परी ज़ोर से हंसी, “मम्मी, यू लुक्स सो फनी इन दिस ड्रेस… एंड हेयर स्टाइल…”

“शटअप परी.” रागिनी ने उसे घुड़का, तो सुभद्रा ने कौतूहल में एलबम झांका, जिसमें  केक काटती रागिनी हू-ब-हू वैसा ही स्वेटर पहने थी, जैसा उसने परी के लिए बुना था. रागिनी के लंबे बालों की खजूरी चोटी में ढेर सारी रंगीन क्लिप लगाई थी. प्यारी सी रागिनी की फोटो परी को फनी लग रही है, यह देख सुभद्रा हैरान हो गई और परी से बोली, “कितनी तो सुंदर लग रही है तेरी मम्मी. मैंने तेरे लिए भी बुना है ऐसा स्वेटर…”

“नो… नो… नानी प्लीज़…” परी इठलाई तो रागिनी कहने लगी, “मम्मी, अब कौन  बुनता है ये सब. सब रेडीमेड, वो भी ब्रांडेड पहनते हैं. आपने जो पिछली बार स्वेटर बुना था, उसे तो इसने हाथ भी नहीं लगाया. मुझे बहुत बुरा लगता है. न किसी को दे सकती हूं और न ये पहनती है. आपकी मेहनत देखकर ही  उस  स्वेटर से इमोशनली अटैच हूं, पर प्लीज़़, अब दूसरा मत बनाना… आपकी मेहनत ये बच्चे डिज़र्व नहीं करते हैं.”

रागिनी सा हूबहू स्वेटर परी के लिए बन चुका है. इसे शायद रागिनी मज़ाक समझे बैठी थी, तभी वह सहजता से बोल गई. सुभद्रा कुछ देर की चुप्पी के बाद  धीरे से बोली, “तूने तो परी को बहुत जल्दी बड़ा कर दिया. अभी से अपने पहनावे व रख-रखाव और खाने-पीने के मामले में अपनी चलाती है. मुझे याद है, तुम कैसे मेरे हाथ के बनाए कपड़े पहनकर पूरे घर में इतराती फिरती थी. रात को बिस्तर में जाने पर भी उसे निकालने का नाम नहीं लेती थी.”

“हां मम्मी, सब याद है. हम कितने सिंपल थे और इन्हें देखो… अभी से खाने-कपड़े के मामले में चूज़ी हैं. क्या करें?”

“वो इसलिए, क्योंकि तुमने उसे चूज़ करने के मौ़के उपलब्ध करवाए.”

“अरे मम्मी, आजकल सब बच्चे करते हैं. टीवी, इंटरनेट क्या नहीं है आजकल के फैशन को जानने के लिए. और इस पर तो मॉडल बनने का फ़ितूर चढ़ा है. हाय! जाने कैसे बड़ा करूंगी मैं…”

रागिनी सुभद्रा की गोद में लेट गई, तो सुभद्रा उसके सिर को सहलाने लगी. आज बेटी पर बहुत प्यार आया. तीन दिन तो भागादौड़ी में जैसे बीते, उससे तो लगा ही नहीं कि रागिनी उसके इतने पास है.

“सुन, जयेश की लाई ड्रेस भी इसे पसंद नहीं आई है. फिर क्या करें?” सुभद्रा के पूछने पर रागिनी कुछ सोचकर बोली, “कुछ नहीं मम्मा, पापा कितने प्यार से लाए हैं, इसलिए उसे बदलना नहीं चाहती, उन्हें बुरा लगेगा.  नाना की दी हुई ड्रेस है. संभालकर रखूंगी.”

“हूं…” कहकर सुभद्रा मौन हो गई.

दूसरे दिन सब चले गए… तो घर में सन्नाटा व्याप्त हो गया. बेटी-दामाद और नातिन की मिज़ाजपुर्सी में पांव सूज गए थे. सिर दर्द से भारी था. सुगनी आई, तो अपने ही हाथों से सुभद्रा को अपने पांव दबाते देख सलोनी बोली, “आंटीजी दबा दूं?” उसने नन्हें हाथों से उसके पैर छूए, तो वह झट से पांव खींचती हुई बोली, “क्या कर रही है बिटिया. लड़की से पैर छुआना हमारे यहां नहीं होता.” अपनी ही आवाज़ पर वह अटपटाई, कब कैसे वो बिटिया बन गई.

“अरे दबवा लीजिए मैडमजी, इसके हाथों में जादू है. ऐसे दबाती है कि पंजों से सारा दर्द निकल जाता है.”

“फिर भी…” वह संकोच में थी, पर सलोनी तो थी ही ढीठ. पांव दबाने लगी, तो उसे भी अच्छा लगा. बहुत-बहुत अच्छा लगा. दर्द सच में निकल रहा था.

एक हफ़्ता यूं ही निकल गया था. इतवार को सुभद्रा को बर्तन मांजते देख जयेश पूछ बैठे, “क्या हुआ, सुगनी नहीं आई?”

“आज छुट्टी ली है.”

“शाम कहीं बाहर निकलते हैं. रात का खाना बाहर ही खा लेंगे.” जयेश के प्रस्ताव पर बिना ना-नुकुर किए सुभद्रा तैयार हो चल दी.

रात दस बजे तक दोनों वापस आए, तो फाटक के पास अंधेरे में सुगनी को अख़बार से ढकी थाली लिए खड़े देखा.

“अरे, इस व़क्त यहां..?” जयेश चौंके, तो सुगनी के पीछे खड़ी सलोनी इठलाते हुए सामने आई, “अंकलजी, आज हमारा जन्मदिन था. केक है, खाने में गुलगुले, पकौड़ी और…” सहसा सुगनी ने उसके मुंह पर हाथ धर दिया.

जयेश सलोनी को हैरानी से देख रहे थे.  सांवला चेहरा, चमकीले बटनोंवाला घेरदार बैंगनी और गुलाबी ऊनी फ्रॉक से दमक रहा था.

“ये तो…” वो कुछ बोले, उससे पहले ही सुभद्रा बोल पड़ी, “अरे वाह! तू तो बड़ी सुंदर  लग रही है.”

“हां आंटीजी, सब बोल रहे थे मैं न राजकुमारी लग रही हूं इस सूटर में.” उसने उत्तेजना में स्वेटर के चमकीले बटन मुट्ठी में बांध लिए. मानो वो बटन न हों, हीरे हों.

“आंटीजी, आप मेरे लिए बुन रही थीं न! अहाआआ कित्ता सुंदर…” वो फिर पुलक गई और स्वेटर के घेरे को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर घूम गई.

“ये शांति से नहीं खड़ी रह सकती.” सुगनी  ने दुलार भरी मीठी घुड़की दी.

जयेश चुपचाप घर के भीतर चले गए, तो सुगनी बोली, “दीदी, नए स्वेटर पर आज तो सबने बड़ी टोक लगाई है. पुराना बहुत पाई हूं, पर नया… कितना मेहनत से बुनी हो. सलोनी को देना था क्या, इसीलिए उससे मुझसे छिपाती थी… हाय आप बीमार भी हो गई थीं…” उसका गला भर सा आया. कुछ पल अजीब सा मौन पसरा, फिर वह बोली, “अब चलूं, इसकी नज़र उतारनी पड़ेगी. न-न इस स्वेटर की नज़र उतार देती हूं.”

उन दोनों को उत्साह से उमगते देख सुभद्रा का जी भर आया.

“आंटीजी ये सूटर मैं हमेशा अपने जन्मदिन पर पहनूंगी.”

“अच्छा तो क्या इत्ती बड़ी बनी रहेगी हमेशा. अगले जन्मदिन की अगले जन्मदिन में देखेंगे. अभी तो इसे ख़ूब पहन.”

सुभद्रा हंसी.

सुगनी के जाने के बाद वह प्रसन्नचित भाव से घर के भीतर आई. जयेश ने कुछ पूछा नहीं, तो वह बोली, “तुम पूछोगे नहीं, मैंने उसे क्यों दिया.”

“तुम्हारा खिला चेहरा सब चुगली कर रहा है.”

“सच कहूं, ईश्‍वर के प्रताप से परी के पास कपड़ों की कमी नहीं. पर एक यही वजह नहीं थी, जो स्वेटर सुगनी की बिटिया को दिया. दरअसल, उस स्वेटर को बुनने में मेरा जो परिश्रम लगा है, उसका वास्तविक प्रतिसाद  वसूलना चाहती थी. यदि मैं परी को दे भी देती, तो वह बेमन से इसे लेती, क्योंकि उसके टेस्ट पर मेरी भावनाएं खरी नहीं उतरतीं. रागिनी मेरा मान रखकर जीवनभर उसे सहेजती, पर इन सबमें मेरे परिश्रम का मूल्य शून्य होता… पर इस बच्ची के माध्यम से मैंने अपने श्रम की एक-एक बूंद निचोड़ ली है. तुम वो पल देखते जयेश, जब इस स्वेटर को  मैंने उन नन्हें हाथों में दिया. उफ़! अविश्‍वास, ख़ुशी और उत्साह के रंग  से रंगा  वो चेहरा मैं जीवनभर नहीं भूल सकती, ठीक किया न मैंने..?”

“आई एम प्राउड ऑफ यू.” जयेश ने मुस्कुराते हुए कहा.

रात को सोते समय आंखें मूंदीं, तो एक बार फिर सुभद्रा की बंद पलकों में सलोनी घूम गई, “ये लो, तुम्हें पसंद था न. अब ये तुम्हारा है. आज शाम इसे ही पहनना.”

स्वप्न से जाग्रत अवस्था में आती सलोनी मानो किसी सम्मोहन से छूटी थी. विश्‍वास हो जाने पर कि स्वेटर उसका ही है, वह बावली सी स्वेटर पकड़े नाच ही उठी. बार-बार स्वेटर को चूमती सलोनी उसके मस्तिष्क पटल से हट ही नहीं रही थी. 

आंखें मूंदे होंठों पर मुस्कान लिए सुभद्रा को परम संतोष के सागर में गोते लगाते देख जयेश मुस्कुरा रहे थे… नींद में भी वह बुदबुदा उठती थी, “सच जयेश, सलोनी को स्वेटर देकर बड़ा अच्छा किया. बहुत सुख मिला. काश! तुम उसका चेहरा देखते, काश..!”  (चेतना विकास मिशन).

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