Site icon अग्नि आलोक

कहानी : नमक

Share

आरती शर्मा

उन सिख बीबी को देखकर सफ़िया हैरान रह गई थी, किस कदर वह उसकी माँ से मिलती थी। वही भारी भरकम जिस्म, छोटी-छोटी चमकदार आँखें, जिनमें नेकी, मुहब्बत और रहमदिली की रोशनी जगमगाया करती थी। चेहरा जैसे कोई खुली हुई किताब।
वैसा ही सफ़ेद बारीक मलमल का दुपट्टा जैसा उसकी अम्मा मुहर्रम में ओढ़ा करती थी।
जब सफ़िया ने कई बार उनकी तरफ़ मुहब्बत से देखा तो उन्होंने भी उसके बारे में घर की बहू से पूछा। उन्हें बताया गया कि ये मुसलमान हैं। कल ही सुबह लाहौर जा रही हैं अपने भाइयों से मिलने, जिन्हें इन्होंने कई साल से नहीं देखा।
लाहौर का नाम सुनकर वे उठकर सफ़िया के पास आ बैठीं और उसे बताने लगीं कि उनका लाहौर कितना प्यारा शहर है। वहाँ के लोग कैसे खूबसूरत होते हैं, उम्दा खाने और नफ़ीस कपड़ों के शौकीन, सैर-सपाटे के रसिया, जिंदादिली की तसवीर।
कीर्तन होता रहा। वे आहिस्ता-आहिस्ता बातें करती रहीं। सफ़िया ने दो-एक बार बीच में पूछा भी,“माता जी, आपको तो यहाँ आए बहुत साल हो गए होंगे।” “हां बेटी! जब हिन्‍दुस्तान बना था तभी आए थे। वैसे तो अब यहाँ भी हमारी कोठी बन गई है। बिजनेस है, सब ठीक ही है, पर लाहौर बहुत याद आता है। हमारा वतन तो जी लाहौर ही है।”
फिर पलकों से कुछ सितारे टूटकर दूधिया आँचल में समा जाते हैं। बात आगे चल पड़ती, मगर घूम-फिरकर फिर उसी जगह पर आ जाती–‘साडा लाहौर’!
कीर्तन कोई ग्यारह बजे खत्म हुआ। जब वे प्रसाद हाथ में लिए उठने लगीं और साफ़िया के सलाम के जवाब में दुआएँ देती हुई रूखसत होने लगीं तब सफ़िया ने धीमे से पूछा, “आप लाहौर से कोई सौगात मँगाना चाहें तो मुझे हुक्म दीजिए।”
वे दरवाजे से लगी खड़ी थीं। हिचकिचाकर बहुत ही आहिस्ता से बोलीं, “अगर ला सको तो थोड़ा-सा लाहौरी नमक लाना।”
पंद्रह दिन यों गुजरे कि पता ही नहीं चला। जिमखाना की शामें, दोस्तों की मुहब्बत, भाइयों की खातिरदारियाँ-उनका बस न चलता था कि बिछुड़ी हुई परदेसी बहिन के लिए क्या कुछ न कर दें! दोस्तों, अजीजों की यह हालत कि कोई कुछ लिए आ रहा है, कोई कुछ। कहाँ रखें, कैसे पैक करें, क्यों कर ले जाएँ-एक समस्या थी। सबसे बड़ी समस्या थी बादामी कागज की एक पुडि़या की जिसमें कोई सेर भर लाहौरी नमक था।
सफ़िया का भाई एक बहुत बड़ा पुलिस अफ़सर था। उसने सोचा कि वह ठीक राय दे सकेगा। चुपके से पूछने लगी, “क्‍यों भैया, नमक ले जा सकते हैं?”
वह हैरान होकर बोला, “नमक? नमक तो नहीं ले जा सकते, गैरकानूनी है और… और नमक का आप क्या करेंगी? आप लोगों के हिस्से में तो हमसे बहुत ज्यादा नमक आया है।” वह झुँझला गई, “मैं हिस्से-बखरे की बात नहीं कर रही हूँ, आया होगा। मुझे तो लाहौर का नमक चाहिए, मेरी माँ ने यही मँगवाया है।”
भाई की समझ में कुछ नहीं आया। माँ का क्यों जिक्र था, वे तो बँटवारे से पहले ही मर चुकी थीं।
जरा नरमी से समझाने के अंदाज में बोला, “देखिए बाजी! आपको कस्टम से गुजरना है और अगर एक भी चीज ऐसी-वैसी निकल आई तो आपके सामान की चिंदी-चिंदी बिखेर देंगे कस्टमवाले।
कानून जो…”
वह बिगड़कर बोलीं, “निकल आने का क्या मतलब, मैं क्या चोरी से ले जाऊँगी? छिपा के ले जाऊँगी? मैं तो दिखा के, जता के ले जाऊँगी?”
“भई, यह तो आप बहुत ही गलत बात करेंगी।… कानून…।” “अरे, फिर वही कानून-कानून कहे जाते हो! क्या सब कानून हुकूमत के ही होते हैं, कुछ मुहब्बत, मुरौवत, आदमियत, इंसानियत के नहीं होते? आखिर कस्टमवाले भी इंसान होते हैं, कोई मशीन तो नहीं होते।”
“हां, वे मशीन तो नहीं होते, पर मैं आपको यकीन दिलाता हूँ वे शायर भी नहीं होते। उनको तो अपनी डयूटी करनी होती हैं।”
“अरे बाबा, तो मैं कब कह रही हूँ कि वह डयूटी न करें। एक तोहफ़ा है, वह भी चंद पैसों का, शौक से देख लें, कोई सोना-चाँदी नहीं, स्मगल की हुई चीज नहीं, ब्लैक मार्केट का माल नहीं।”
“अब आपसे कौन बहस करे।
आप अदीब ठहरीं और सभी अदीबों का दिमाग थोड़ा-सा तो जरूर ही घूमा हुआ होता है। वैसे मैं आपको बताए देता हूँ कि आप ले नहीं जा पाएँगी और बदनामी मुफ्त में हम सबकी भी होगी। आखिर आप कस्टमवालों को कितना जानती हैं?”
उसने गुस्से से जवाब दिया, “कस्टमवालों को जानें या न जानें, पर हम इंसानों को थोड़ा-सा जरूर जानते हैं। और रही दिमाग की बात सो अगर सभी लोगों का दिमाग हम अदीबों की तरह घूमा हुआ होता तो यह दुनिया कुछ बेहतर ही जगह हो जाती, भैया।”
मारे गुस्से के उसकी आँखों से आँसू बहने लगे थे। उसका भाई सिर हिलाकर चुप हो गया। अगले रोज दो बजे दिन को उसे रवाना होना था। सुबह के लिए बहुत व्यस्त कार्यक्रम बन चुका था, इसलिए उसे सारी पैकिंग रात ही को करनी थी। कमरे का दरवाजा अंदर से बंद करके वह सामान बाँधने लगी।
इधर-उधर फैली हुईं चीजें धीरे-धीरे सिमटकर सूटकेस और बिस्तरबंद में चली गईं। सिर्फ दो चीजें रह गईं। एक तो वह छोटी-सी टोकरी जिसमें कीनू थे, एक दोस्त का तोहफ़ा-संतरे और माल्टे को मिलाकर पैदा किया गया फल, माल्टे की तरह रंगीन और मीठा, संतरे की तरह नाजुक। और दूसरी थी वह नमक की पुडि़या। अब तक सफ़िया का गुस्सा उतर चुका था। भावना के स्थान पर बुद्धि धीरे-धीरे उस पर हावी हो रही थी। नमक की पुडि़या ले तो जानी है, पर कैसे? अच्छा, अगर इसे हाथ में ले लें और कस्टमवालों के सामने सबसे पहले इसी को रख दें? लेकिन अगर कस्टमवालों ने न जाने दिया! तो मजबूरी है, छोड़ देंगे।
लेकिन फिर उस वायदे का क्या होगा जो हमने अपनी माँ से किया था? हम अपने को सैयद कहते हैं। फिर वायदा करके झुठलाने के क्या मायने? जान देकर भी वायदा पूरा करना होगा। मगर कैसे? अच्छा, अगर इसे कीनुओं की टोकरी में सबसे नीचे रख लिया जाए तो इतने कीनुओं के ढेर में भला कौन इसे देखेगा? और अगर देख लिया? नहीं जी, फलों की टोकरियाँ तो आते वक्त भी किसी की नहीं देखी जा रही थीं। उधर से केले, इधर से कीनू सब ही ला रहे थे, ले जा रहे थे। यही ठीक है, फिर देखा जाएगा।
उसने कीनू कालीन पर उलट दिए। टोकरी खाली की और नमक की पुडि़या उठाकर टोकरी की तह में रख दी।
एक बार झाँककर उसने पुडि़या को देखा और उसे ऐसा महसूस हुआ मानो उसने अपनी किसी प्यारे को कब्र की गहराई में उतार दिया हो! कुछ देर उकड़ूँ बैठी वह पुडि़या को ताकती रही और उन कहानियों को याद करती रही जिन्हें वह अपने बचपन में अम्मा से सुना करती थी, जिनमें शहजादा अपनी रान चीरकर हीरा छिपा लेता था और देवों, खौफ़नाक भूतों तथा राक्षसों के सामने से होता हुआ सरहदों से गुजर जाता था। इस जमाने में ऐसी कोई तरकीब नहीं हो सकती थी वरना वह अपना दिल चीरकर उसमें यह नमक छिपा लेती। उसने एक आह भरी।
फिर वह कीनुओं को एक-एक करके टोकरी में रखने लगी, पुडि़या के इधर-उधर, आसपास और फिर ऊपर, यहाँ तक कि वह बिलकुल छिप गई। आश्वस्त होकर उसने हाथ झाडे़, सूटकेस पलंग के नीचे खिसकाया, टोकरी उठाकर पलंग के सिरहाने रखी, और लेटकर दोहर ओढ़ ली।
रात को तकरीबन डेढ़ बजे थे। मार्च की सुहानी हवा खिड़की की जाली से आ रही थी। बाहर चाँदनी साफ़ और ठंडी थी। खिड़की के करीब लगा चंपा का एक घना दरख्त सामने की दीवार पर पत्तियों के अक्स लहका रहा था।
कभी किसी तरफ़ से किसी की दबी हुई खाँसी की आहट, दूर से किसी कुत्ते के भौंकने या रोने की आवाज, चौकीदार की सीटी और फिर सन्‍नाटा! यह पाकिस्तान था। यहाँ उसके तीन सगे भाई थे, बेशुमार चाहनेवाले दोस्त थे, बाप की कब्र थी, नन्हे-नन्हे भतीजे-भतीजियाँ थीं जो उससे बड़ी मासूमियत से पूछते, ‘‘फूफ़ीजान, आप हिन्‍दुस्तान में क्यों रहती हैं, जहाँ हम लोग नहीं आ सकते।’’ उन सबके और सफ़िया के बीच में एक सरहद थी और बहुत ही नोकदार लोहे की छड़ों का जंगला, जो कस्टम कहलाता था।

कल वह लाहौर से चली जाएगी। हो सकता है, सालभर बाद फिर आए। एक साल से पहले तो वह आ भी नहीं सकती थी और यह भी हो सकता था कि अब कभी न आ सके। उसकी आँखें आहिस्ता-आहिस्ता बंद होने लगीं। फिर उसे एक सफ़ेद दुपट्टे का दूधिया आँचल लहराता दिखाई देने लगा, जिस पर यहाँ-वहाँ सितारे झिलमिला रहे थे-हमें वहाँ से आए तो बहुत दिन हो गए, यहाँ हमारी कोठी भी है, बिजनेस भी, हम यहाँ बस भी गए हैं, पर हमारा वतन तो जी लाहौर ही है।
फिर दिखा इकबाल का मकबरा, लाहौर का किला, किले के पीछे डूबते हुए सूरज की नारंगी किरणें, आसपास से फैलता-उभरता अँधेरा, उस रंगीन अँधेरे में बहती हुई नरम हवा।
उस हवा में रची हुई मौलसिरी की खुशबू और मकबरे की सीढि़यों पर बैठे हुए दो इंसान- सिर झुकाए चुपचाप, उदास, जैसे दो बेजान परछाइयाँ।
“तो तुम कल चली जाओगी?” “हां!” “अब कब आओगी?” “मालूम नहीं, शायद अगले साल। शायद कभी नहीं।” अचानक उसकी आँखें खुल गईं। शायद उसने मकबरे की सीढि़यों के नीचे लगी दूब से एक पत्ती तोड़ी थी जिस पर ठंडी ओस जमनी शुरू हो गई थी। हुआ यह था कि नींद में करवट लेते हुए उसका हाथ कीनुओं से लबालब भरी टोकरी पर जा पड़ा था-रसीले, ठंडे कीनू जिनको देते वक्त उसके दोस्त ने कहा था, “यह हिंदुस्तान-पाकिस्तान की एकता का मेवा है।”
सफ़िया फ़र्स्ट क्लास के वेटिंग रूम में बैठी थी। देहली तक का किराया उसके भाई ने दिया था। वह हाथ में टिकट दबाए वेटिंग रूम के बाहर प्लेटफार्म पर टहल रहा था।
वह अंदर बैठी चाय की प्याली हाथ में लिए कीनुओं की टोकरी पर निगाहें जमाए यह सोच रही थी कि आसपास, इधर-उधर इतने लोग हैं, लेकिन सिर्फ वही जानती है कि टोकरी की तह में कीनुओं के नीचे नमक की पुडि़या है।
जब उसका सामान कस्टम पर जाँच के लिए बाहर निकाला जाने लगा तो उसे एक झिरझिरी-सी आई और एकदम से उसने फ़ैसला किया कि मुहब्बत का यह तोहफ़ा चोरी से नहीं जाएगा, नमक कस्टमवालों को दिखाएगी वह। उसने जल्दी से पुडि़या निकाली और हैंडबैग में रख ली, जिसमें उसका पैसों का पर्स और पासपोर्ट आदि थे।
जब सामान कस्टम से होकर रेल की तरफ़ चला तो वह एक कस्टम अफ़सर की तरफ़ बढ़ी। ज्यादातर मेजें खाली हो चुकी थीं। एक-दो पर इक्का-दुक्का सामान रखा था। वहीं एक साहब खड़े थे-लंबा कद, दुबला-पतला जिस्म, खिचड़ी बाल, आँखों पर ऐनक। वे कस्टम अफ़सर की वर्दी पहने तो थे मगर उन पर वह कुछ जँच नहीं रही थी। सफ़िया कुछ हिचकिचाकर बोली, “मैं आपसे कुछ पूछना चाहती हूँ।”
उन्होंने नजर भरकर उसे गौर से देखा।
बोले, फ़रमाइए।” उनके लहजे ने सफ़िया की हिम्मत बढ़ा दी, “आप…आप कहाँ के रहने वाले हैं?” उन्होंने कुछ हैरान होकर उसे फिर गौर से देखा, “मेरा वतन देहली है, आप भी तो हमारी ही तरफ़ की मालूम होती हैं, अपने अजीजों से मिलने आई होंगी।”
“जी हाँ। मैं लखनऊ की हूँ। अपने भाइयों से मिलने आई थी। वे लोग इधर आ गए हैं। आपको…आपको भी तो शायद इधर आए-?”
“जी, जब पाकिस्तान बना था तभी आए थे, मगर हमारा वतन तो देहली ही है।” सफ़िया ने हैंडबैग मेज पर रख दिया और नमक की पुडि़या निकालकर उनके सामने रख दी और फिर आहिस्ता-आहिस्ता रूक-रूक कर उनको सब कुछ बता दिया।
उन्होंने पुडि़या को धीरे से अपनी तरफ़ सरकाना शुरू किया।
जब सफ़िया की बात खत्म हो गई तब उन्होंने पुडि़या को दोनों हाथों में उठाया, अच्छी तरह लपेटा और खुद सफ़िया के बैग में रख दिया। बैग सफ़िया को देते हुए बोले, “मुहब्बत तो कस्टम से इस तरह गुजर जाती है कि कानून हैरान रह जाता है।”
वह चलने लगी तो वे भी खड़े हो गए और कहने लगे, “जामा मस्जिद की सीढि़यों को मेरा सलाम कहिएगा और उन खातून को यह नमक देते वक्त मेरी तरफ़ से कहिएगा कि लाहौर अभी तक उनका वतन है और देहली मेरा, तो बाकी सब रफ्ता-रफ्ता ठीक हो जाएगा।”
सफ़िया कस्टम के जंगले से निकलकर दूसरे प्लेटफ़ार्म पर आ गई और वे वहीं खड़े रहे। प्लेटफार्म पर उसके बहुत-से दोस्त, भाई रिश्तेदार थे, हसरत भरी नजरों, बहते हुए आँसुओं, ठंडी साँसों और भिचे हुए होठों को बीच में से काटती हुई रेल सरहद की तरफ बढ़ी। अटारी में पाकिस्तानी पुलिस उतरी, हिंदुस्तानी पुलिस सवार हुई। कुछ समझ में नहीं आता था कि कहाँ से लाहौर खत्म हुआ और किस जगह से अमृतसर शुरू हो गया।
एक जमीन थी, एक जबान थी, एक-सी सूरतें और लिबास, एक-सा लबोलहजा, और अंदाज थे, गालियाँ भी एक ही-सी थीं जिनसे दोनों बड़े प्यार से एक-दूसरे को नवाज रहे थे। बस मुश्किल सिर्फ इतनी थी कि भरी हुई बंदूकें दोनों के हाथों में थीं।
अमृतसर में कस्टम वाले फ़र्स्ट क्लास वालों के सामान की जाँच उनके डिब्बे के सामने ही कर रहे थे।
सफ़िया का सारा सामान देखा जा चुका तो वह उन नौजवान कस्टम अफ़सर की ओर बढ़ी जो बातचीत और सूरत से बंगाली लगते थे, “देखिए, मेरे पास नमक है, थोड़ा-सा।”
फिर उसने हैंडबैग खोला और वह पुडि़या उनकी तरफ़ बढ़ाते हुए, अटकते, झिझकते, हिचकिचाते हुए उनको सब-कुछ कह सुनाया। उन्होंने सिर झुका लिया था, सुनते रहे, बीच-बीच में सिर उठाते, गौर से उसे देखते, फिर सुनने लगते। बात पूरी हो गई तो उन्होंने एक बार फिर सफ़िया को ऊपर से नीचे तक देखा, धीरे से बोले, “इधर आइए जरा!” चलते-चलते उन्होंने एक-दूसरे से कहा, “इनके सामान का ध्यान रखिएगा।” प्लेटफ़ार्म के सिरे पर एक कमरा था। वे उसके अंदर घुसे। सफ़िया दाखिल होते हिचकिचाई। वे मुसकराकर बोले, “आइए, आइए न!”
जेब से रूमाल निकालकर उन्होंने कुर्सी को झाड़ा और बोले, “बैठिए।” सफ़िया ने पुडि़या और बैग को मेज पर रख दिया। बाहर की तरफ़ झाँककर उन्होंने एक पुलिस वाले को इशारा किया। सफ़िया के पैर तले की जमीन खिसकने लगी-अब क्या होगा!
“दो चाय लाओ, अच्छी वाली।” पुलिसवाला सफ़िया को घूरता हुआ चला गया। फिर उन्होंने मेज की दराज खींची और उसमें अंदर दूर तक हाथ डालकर एक किताब निकाली।
किताब को सफ़िया के सामने रखकर उन्होंने पहला सफ़ा खोल दिया। बाईं ओर नजरुल इस्लाम की तसवीर थी और टाइटल वाले सफ़े पर अंग्रेजी के कुछ धुँधले शब्द थे-“शमसुल इसलाम की तरफ़ से सुनील दास गुप्त को प्यार के साथ, ढाका 1946”
“तो आप क्या ईस्ट बंगाल के हैं?” “हां, मेरा वतन ढाका है।” उन्होंने बड़े फ़ख्र से जवाब दिया। “तो आप यहाँ कब आए?” “जब डिवीजन हुआ तभी आए, मगर हमारा वतन ढाका है, मैं तो कोई बारह-तेरह साल का था। पर नजरुल और टैगोर को तो हम लोग बचपन से पढ़ते थे। जिस दिन हम रात यहाँ आ रहे थे उसके ठीक एक वर्ष पहले मेरे सबसे पुराने, सबसे प्यारे, बचपन के दोस्त ने मुझे यह किताब दी थी।
उस दिन मेरी सालगिरह थी-फिर हम कलकत्ता रहे, पढ़े, नौकरी भी मिल गई, पर हम वतन आते-जाते थे।”
“वतन?” सफ़िया ने जरा हैरान होकर पूछा। “मैंने आपसे कहा न कि मेरा वतन ढाका है।”-उन्होंने जरा बुरा मानकर कहा। “हां-हाँ, ठीक है। ठीक है।” सफ़िया जल्दी से बोली। “तो पहले तो बस इधर ही कस्टम था, अब उधर भी कुछ गोलमाल हो गया है।” उन्होंने चाय की प्याली सफ़िया की तरफ़ खिसकाई और खुद एक बड़ा-सा घूँट भरकर बोले, “वैसे तो डाभ कलकत्ता में भी होता है जैसे नमक यहाँ भी होता है, पर हमारे यहाँ के डाभ की क्या बात है! हमारी जमीन, हमारे पानी का मजा ही कुछ और है!”
उठते वक्त उन्होंने पुडि़या सफ़िया के बैग में रख दी और खुद उस बैग को उठाकर आगे-आगे चलने लगे; सफ़िया ने उनके पीछे चलना शुरू किया।
जब सफ़िया अमृतसर के पुल पर चढ़ रही थी तब पुल की सबसे निचली सीढ़ी के पास वे सिर झुकाए चुपचाप खड़े थे। सफ़िया सोचती जा रही थी किसका वतन कहाँ है-वह जो कस्टम के इस तरफ़ है या उस तरफ़!
(चेतना विकास मिशन)

Exit mobile version