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कहानी : सेल्फडिफेन्स

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प्रखर अरोड़ा

    मैं शांति से बैठा पढ़ रहा था. तभी कुछ मच्छरों ने आकर मेरा खून चूसना शुरू कर दिया। स्वाभाविक प्रतिक्रिया में मेरा हाथ उठा और चटाक हो गया और दो-एक मच्छर ढेर हो गए.

    फिर क्या था.  उन्होंने शोर मचाना शुरू कर दिया कि मैं असहिष्णु हो गया हूँ.

    मैंने कहा तुम खून चूसोगे तो मैं मारूंगा.  इसमें असहिष्णुता की क्या बात है?

 वो कहने लगे खून चूसना उनकी आज़ादी संबंधी हक़ है.

    “आज़ादी” शब्द सुनते ही कई बुद्धिजीवी उनके पक्ष में उतर आये और बहस करने लगे.

    इसके बाद नारेबाजी शुरू हो गई : “कितने मच्छर मारोगे, हर घर से मच्छर निकलेगा…”

बुद्धिजीवियों ने अख़बार में तपते तर्कों के साथ बड़े-बड़े लेख लिखना शुरू कर दिया. उनका कहना था कि मच्छर देह पर मौज़ूद तो थे लेकिन खून चूस रहे थे ये कहाँ सिद्ध हुआ है.

 और अगर चूस भी रहे थे तो भी ये गलत तो हो सकता है लेकिन ‘देहद्रोह’ की श्रेणी में नहीं आता, क्योंकि ये “बच्चे” बहुत ही प्रगतिशील रहे हैं. किसी की भी देह पर बैठ जाना इनका ‘सरोकार’ रहा है.

      मैंने कहा मैं अपना खून नहीं चूसने दूंगा बस. तो कहने लगे ये “एक्सट्रीम देहप्रेम” है. तुम कट्टरपंथी हो, डिबेट से भाग रहे हो.

    मैंने कहा तुम्हारा उदारवाद तुम्हें मेरा खून चूसने की इज़ाज़त नहीं दे सकता.

    इस पर उनका तर्क़ था कि भले ही यह गलत हो लेकिन फिर भी थोड़ा खून चूसने से तुम्हारी मौत तो नहीं हो जाती, लेकिन तुमने मासूम मच्छरों की ज़िन्दगी छीन ली.  “फेयर ट्रायल” का मौका भी नहीं दिया.

   इतने में ही कुछ राजनेता भी आ गए और वो उन मच्छरों को अपने बगीचे की ‘बहार’ का बेटा बताने लगे.

हालात से हैरान और परेशान होकर मैंने कहा : लेकिन ऐसे ही मच्छरों को खून चूसने देने से मलेरिया हो जाता है.  तुरंत न सही, बाद में बीमार और कमज़ोर होकर मौत भी हो जाती है.

     इस पर वो कहने लगे कि तुम्हारे पास तर्क़ नहीं हैं इसलिए तुम भविष्य की कल्पनाओं के आधार पर अपने ‘फासीवादी’ फैसले को ठीक ठहरा रहे हो.

    मैंने कहा ये साइंटिफिक तथ्य है कि मच्छरों के काटने से मलेरिया होता है. मुझे इससे पहले अतीत में भी ये झेलना पड़ा है.

    साइंटिफिक शब्द उन्हें समझ नहीं आया. तथ्य के जवाब में वो कहने लगे कि मैं अतीत को लेकर मच्छर समाज के प्रति अपनी घृणा का बहाना बना रहा हूँ, जबकि मुझे वर्तमान में जीना चाहिए.

   इतने हंगामें के बाद उन्होंने मेरे ही सर माहौल बिगाड़ने का आरोप भी मढ़ दिया.

मेरे ख़िलाफ़ मेरे कान में घुसकर सारे मच्छर भिन्नाने लगे कि, “लेके रहेंगे खून पीने आज़ादी.”

     मैं बहस और विवाद में पड़कर परेशान हो गया था. उससे ज़्यादा, जितना खून चूसे जाने पर हुआ था.

 आख़िरकार मुझे तुलसी बाबा याद आये : “सठ सन विनय कुटिल सन प्रीती” और फिर मैंने काला हिट उठाया और मंडली से रास्ते तक, बगीचे से नाले तक उनके हर सॉफिस्टिकेटेड और सीक्रेट ठिकाने पर दे मारा.

    एक बार तेजी से भिन्न-भिन्न हुई और फिर सब शांत. उसके बाद से न कोई बहस न कोई विवाद न कोई आज़ादी न कोई बर्बादी न कोई क्रांति न कोई सरोकार.

 अब सब कुछ ठीक है.

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