अग्नि आलोक

कहानी : बोध 

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      ~> पुष्पा गुप्ता 

(मुंशी प्रेमचंद की यह कहानी कम वेतन पर पढ़ाने की विवसता से दुःखी निजी शिक्षकों के लिए एक सबक है).

पंडित चंद्रधर ने अपर प्राइमरी टीचर थे. उनके दो खास पड़ोसी थे। एक ठाकुर अतिबलसिंह, वह थाने में हेड कान्सटेबल थे। उनको लोग दरोगा कहते थे. दूसरे मुंशी बैजनाथ, वह तहसील में सियाहे-नवीस थे।

   इन दोनों का वेतन पंडितजी से कुछ अधिक न था, तब भी इनकी चैन से गुजरती थी। पंडित जी सदा पछताया करते थे कि  किसी अन्य विभाग में नौकर होते, आराम से जीवन व्यतीत होता। वे इसके लिए चेष्टा भी किया करते थे.

  दोनों पड़ोसी पंडितजी पर बड़ी कृपा रखते थे। कभी सेर आध सेर दूध भेज देते और कभी थोड़ी सी तरकारियाँ किन्तु इनके बदले में पंडितजी को ठाकुर साहब के दो और मुंशीजी के तीन लड़कों की निगरानी करनी पड़ती। 

    ठाकुर साहब कहते पंडितजी ! यह लड़के हर घड़ी खेला करते हैं, जरा इनकी खबर लेते रहिए। मुंशीजी कहते- यह लड़के आवारा हुए जाते हैं। जरा इनका खयाल रखिए।

     एक बार सावन के महीने में मुंशी बैजनाथ और ठाकुर अतिबलसिंह का परिवार सहित श्रीअयोध्याजी की यात्रा का कार्यक्रम बना। उन्होंने पंडितजी को भी साथ चलने के लिए बाध्य किया। मेले ठेले में एक फालतू आदमी से बड़े काम निकलते हैं। 

    जिस समय गाड़ी आयी, चारों और भगदड़-सी पड़ गई। उतावली में मुंशीजी पहले निकल गये। पंडितजी और ठाकुर साहब साथ थे। एक कमरे में बैठे। जिस कमरे में ठाकुर साहब थे, उसमें केवल चार मनुष्य थे। वह सब लेटे हुए थे। ठाकुर साहब चाहते थे कि वह उठ जायँ तो जगह निकल आये। उन्होंने एक मनुष्य से डाँटकर कहा-उठ बैठो जी देखते नहीं, हम लोग खड़े हैं।

  मुसाफिर लेटे-लेटे बोला- क्यों, तुम्हारे बैठने का ठेका लिया है?

ठाकुर- क्या हमने किराया नहीं दिया है ?

मुसाफिर- जिसे किराया दिया हो, उसे जाकर जगह माँगो।

ठाकुर- जरा होश की बातें करो। इस डब्बे में दस यात्रियों की आज्ञा है।

मुसाफिर- यह थाना नहीं है, जरा जबान सँभालकर बातें कीजिए।

ठाकुर- तुम कौन हो जी ?

मुसाफिर- हम वही हैं, जिस पर आपने खुफिया-फरोशी का अपराध लगाया था जिसके द्वार से आप नकद 25 रु. लेकर टले थे।

ठाकुर- अहा ! अब पहचाना। परन्तु मैंने तो तुम्हारे साथ रिआयत की थी। चालान कर देता तो तुम सजा पा जाते।

मुसाफिर- और मैंने भी तो तुम्हारे साथ रिआयत की गाड़ी में खड़ा रहने दिया। ढकेल देता तो तुम नीचे चले जाते।

  इतने में दूसरा लेटा हुआ यात्री जोर से ठट्टा मारकर हँसा और बोला- क्यों दरोगा साहब, मुझे क्यों नहीं उठाते ?

  ठाकुर- संदूक नीचे रख दो, बस जगह हो जाय।

दूसरा मुसाफिर बोला- और आप ही क्यों न नीचे बैठ जाएँ। इसमें कौन-सी हेठी हुई जाती है। 

ठाकुर साहब ने उसकी ओर भी ध्यान से देखकर पूछा- क्या तुम्हें भी मुझसे कोई बैर है?

‘जी हाँ, मैं तो आपके खून का प्यासा हूँ।’

‘मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, तुम्हारी तो सूरत भी नहीं देखी।’

दूसरा मुसाफिर- आपने मेरी सूरत न देखी होगी, पर आपकी मैंने देखी है।  आपने मुझे कई डंडे लगाए थे. मैं चुपचाप रह गया. पर घाव दिल पर लगा हुआ है ! आज उसकी दवा मिलेगी।

   यह कहकर उसने और भी पाँव फैला दिये और क्रोधपूर्ण नेत्रों से देखने लगा।

     पंडितजी चुपचाप खड़े थे। डरते थे कि कहीं मारपीट न हो जाय। अवसर पाकर ठाकुर साहब को समझाया। ज्योंही अगला स्टेशन आया, ठाकुर साहब ने बाल-बच्चों सहित उनको वहाँ से निकालकर दूसरे कमरे में बैठाया। 

 उधर मुंशी बैजनाथ की और भी बुरी दशा थी। सारी रात जागते गुजरी। जरा पैर फैलाने की जगह न थी।  पाचन-क्रिया में विघ्न पड़ गया। एक बार उल्टी हुई और पेट में मरोड़ होने लगी। बेचारे बड़े मुश्किल में पड़े। चाहते थे कि किसी भाँति लेट जायँ, पर वहाँ पैर हिलाने को भी जगह न थी। 

    लखनऊ तक तो उन्होंने किसी प्रकार सफर किया। आगे एक स्टेशन पर उतर पड़े। प्लेटफार्म पर लेट गए। पत्नी भी घबरायी। बच्चों को लेकर उतर पड़ी। असबाब उतारा, पर जल्दी में ट्रंक उतारना भूल गई। गाड़ी चल दी।

     दरोगा जी ने अपने मित्र को इस दशा में देखा तो वह भी उतर पड़े.  स्टेशन मास्टर ने यह दशा देखी तो समझा, हैजा हो गया है। हुक्म दिया कि रोगी को अभी बाहर ले जाओ।  पता लगा कि वहाँ एक छोटा-सा अस्पताल है। किसी से यह भी मालूम हुआ कि डाक्टर साहब उनके क्षेत्र बिल्हौर के रहने वाले हैं। ढांढस बँधा।    

डॉक्टर का नाम था चोखेलाल। कम्पौंडर थे, लोग आदर से डाक्टर कहा करते थे। पंडित जी मुंशीजी को अस्पताल लाये। ज्यों ही बरामदे में पैर रखा, चोखेलाल ने डाँटकर कहा- हैजे के रोगी को ऊपर लाने की आज्ञा नहीं है।

बैजनाथ धीरे से बोले- अरे, यह तो बिल्हौर के ही हैं; भला-सा नाम है तहसील में आया-जाया करते हैं। क्यों महाशय ! मुझे पहचानते हैं ?

   चोखेलाल- जी हाँ, खूब पहचानता हूँ।

  बैजनाथ- पहचानकर भी इतनी निठुरता। मेरी जान निकल रही है। जरा देखिए, मुझे क्या हो गया ?

चोखेलाल-हाँ, यह सब कर दूँगा और मेरा काम ही क्या है ! फीस ?

दरोगाजी- अस्पताल में कैसी फीस जनाब?

चोखेलाल- वैसी ही जैसी इन मुंशीजी ने वसूल की थी।

दरोगा- आप क्या कहते हैं, मेरी समझ में नहीं आता।

   चोखेलाल- मेरा घर बिल्हौर में है। वहाँ मेरी थोड़ी-सी जमीन है। साल में दो बार उसकी देख-भाल के लिए जाना पड़ता है। जब तहसील में लगान दाखिल करने जाता हूँ, तो मुंशीजी डांटकर अपना हक वसूल लेते हैं। न दूँ तो शाम तक खड़ा रहना पड़े। मेरी फीस दस रुपये निकालिए। 

  दारोगा- दस रुपये !!

चोखेलाल-जी हाँ, और यहाँ ठहरना चाहें तो दस रुपये रोज।

 दरोगाजी बैजनाथ की स्त्री से दस रुपये माँगे। चोखेलाल को दिये।  

    दूसरे दिन फिर दवा की आवश्यकता हुई। मुंशियाइन का एक गहना जो 20 रु. से कम का न था, बाजार में बेचा गया, तब काम चला। चोखेलाल को दिल में खूब गालियाँ दीं।

     श्री अयोध्याजी में पहुँचकर स्थान की खोज हुई। पंडों के घर जगह न थी. सिवाय खुले मैदान में रेत पर पड़े रहने के और कोई उपाय न था। एक स्वच्छ स्थान देखकर बिस्तरे बिछाए और लेटे। इतने में बादल घिर आये। बूंदें घिरने लगीं. अब यहाँ ठहरना दुस्सह था, पर जाएँ कहाँ ?

एक मनुष्य नदी की तरफ से लालटेन लिये आता दिखाई दिया। वह निकट पहुँचा तो पंडितजी ने उसे देखा। आकृति कुछ पहचानी हुई मालूम हुई. पास जाकर बोले- क्यों भाई साहब ! यहाँ यात्रियों के रहने की जगह न मिलेगी ? वह मनुष्य रुक गया। पंडितजी की ओर ध्यान से देखकर बोला- आप पंडित चन्द्रधर तो नहीं है ?

  पंडित प्रसन्न होकर बोले- जी हाँ। आप मुझे कैसे जानते हैं ?

उस मनुष्य ने सादर पंडितजी के चरण छुए और बोला- मैं आपका पुराना शिष्य हूँ। मेरा नाम कृपाशंकर है। मेरे पिता कुछ दिनों बिलेहौर में डाक मुंशी रहे थे। उन्हीं दिनों मैं आपकी सेवा में पढ़ता था।

   पंडितजी की स्मृति जागी : बोले- ओ हो, तुम्हीं हो कृपाशंकर। तब तो तुम दुबले-पतले लड़के थे, कोई आठ नौ साल हुए होगे।

कृपाशंकर- जी हाँ, नवाँ साल है। मैंने वहाँ से आकर इंट्रेंस पास किया। अब यहाँ म्युनिसिपैलिटी में नौकर हूँ। सौभाग्य था कि आपके दर्शन हो गए. बाल-बच्चे भी साथ हैं ?

  पंडितजी- नहीं, मैं तो अकेला ही आया हूँ, पर मेरे साथ दरोगाजी और सियाहेनवील साहब हैं- उनके बाल-बच्चे भी साथ हैं।

कृपाशंकर- कुल कितने मनुष्य होंगे ?

पंडितजी- हैं तो दस, किन्तु थोड़ी सी जगह में निर्वाह कर लेंगे।

कृपाशंकर- नहीं साहब, बहुत-सी जगह लीजिए। मेरा बड़ा मकान खाली पड़ा है। चलिए, आराम से एक, दो, तीन दिन रहिए। मेरा परम सौभाग्य है कि आपकी कुछ सेवा करने का अवसर मिला।

   कृपाशंकर ने कुली बुलाए। असबाब उठवाया और सबको अपने मकान पर ले गया। सब लोग तो खा-पीकर सोए, किन्तु पंडित चंद्रधर को नींद नहीं आई। उन्होंने आज शिक्षक का गौरव समझा। उन्हें आज इस पद की महानता ज्ञात हुई।

   पंडितजी वापस जब अपने घर पहुँचे तो उनके स्वभाव में बड़ा परिवर्तन हो गया था। उन्होंने फिर किसी दूसरे विभाग में जाने की चेष्टा नहीं की।

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