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कहानी  :उस रात का तिलिस्म….*

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डॉ. नीलम ज्योति

  _चांदी-सी चमकती नदी के किनारे रात ढलने को थी। चांद की रोशनी में नहाई नदी चुपचाप बह रही थी कि चुप रहना ही उसकी नियति थी।_
   "ऐसा कैसे हो सकता है यार ! कोई बहती नदी चुपचाप कैसे बह सकती है?" वह बुदबुदाया फिर दार्शनिक अंदाज में बोला, "यदि नदी बह रही है तो उसकी कलकल...उसका शोर...कुछ तो सुनाई देना चाहिए न? लेकिन यहाँ तो उल्टा ही जादू बिछा पड़ा है। अजीब तिलिस्म है कि नदी बह भी रही है और न तो कलकल है, न कोई शोर..."

मैं उसकी पीठ से पीठ टिकाए बैठी उस नदी की रवानगी देख रही थी। ऊपर से नीचे आती नदी…फिर भी मूक… मैं भी तो ऐसी ही….
मैंने अपनी आँखों में आए आंसू पोंछे और उसकी पीठ पर अपना सिर टिकाते हुए कहा, “होती हैं कुछ नदिया ऐसी भी….”
वह पलटा। मैंने किसी कुशल जादुगरनी की तरह अपनी आँखों की नमी को जज़्ब कर लिया। उसकी ओर एक झूठी हँसी फेंकी और उसकी आँखों में झांक कर देखा। उसकी आँखों में अथाह समंदर लहरा रहा था…पीड़ा का…दुख का… लेकिन उसने मेरी तरह किसी जादू का इस्तेमाल नहीं किया। वह शायद जानकर अपना दुख मुझे दिखाना चाहता था…न कि छुपाना। मैंने उसकी आँखों को देखकर भी अनदेखा किया कि मेरा काम दुख की सुध लेना नहीं… सुख का अमृत पिलाना था।
मैंने उसकी आँखों के समंदर में डुबकी लगाने की बजाय नदी के ठंडे पानी को चुना और उसमें अपने पांव डुबो दिए। मेरे गोरे पांव पानी में झिलमिलाने लगे। पास ही एक लेम्पपोस्ट लगा था जिसकी सुनहरी रोशनी पानी की चांदी को सोने में बदलने का हुनर रखती थी। उस चांदी और सोने के मिलन में चमकते मेरे पांव देखकर उसने फिल्मी अंदाज़ में कहा, “आपके पांव बेहद खूबसूरत हैं… इन्हें जमीन पर न रखियेगा,” फिर ज़ोर का ठहाका लगाया, “अरे यार, हर उंगली में अलग-अलग नेल पॉलिश! क्यों? तुम लड़कियाँ भी ना..”
मैं उसका ठहाका सुनकर दंग रह गई। कुछ पल पहले जो मुझे अपनी आँखों में समाये दुख के समुंदर में शायद डुबो लेने की कोशिश कर रहा था… वही इतनी जल्दी ठहाका मारकर हँस रहा है! यह तो मुझसे भी बड़ा जादुगर निकला। बिल्कुल इस तिलिस्मी नदी की तरह जो पल-पल अपनी चमक बदल रही है।
उन बदलते रंगों से मैं उबर ही रही थी कि पास ही से किसी झिंगुर की आवाज़ आई।

मैंने उस आवाज़ की दिशा में देखने के लिए गर्दन घुमाई कि मैं उसकी आँखों मे देखने से बचना चाहती थी लेकिन उसने बीच में ही मुझे रोक दिया और मेरी नीली आँखों में झाँकते हुए कहा, “जानती हो… तुम्हारी आँखों में नीलम जड़े हैं…”
मैं जवाब में फीकी हँसी हँस दी।
नदी के किनारे उग आई काई हरे से कब काली हो गयी… पता ही न चला। मैंने लापरवाही से अपने पांव उस काली पड़ती काई पर रख दिये। काई की कालिख मेरे पांवों पर चढ़ती इसके पहले ही उसने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खड़ा कर दिया कि शायद उसे नीचे के पत्थर अब चुभने लगे थे या… रात का जादू जवां होने लगा था।
शायद वह अब और इंतजार नहीं कर सकता था। उसने मुझे अपनी बाहों में भरा तो मेरे मुँह से सिसकी-सी निकली। कल रात पीठ पर मिली सौगात टीस उठी थी। उसने आश्चर्य से मेरी ओर देखा… फिर नदी की ओर… नदी अभी-भी चुपचाप बह रही थी। मैंने भी फुर्ती से अपनी जादुगरी का कमाल दिखाया और अपनी सिसकी पी गयी। उसने मेरी ओर देखा… मुझे गोद में उठाया और नदी किनारे लगे टेंट की ओर चल पड़ा।
नदी के किनारे से उस टेंट की दूरी सिर्फ दस कदमों की थी लेकिन इन दस कदमों में मेरी आँखों के सामने पिछले कई साल घूम गए। इन सालों में न नदी बदली… न टेंट…हाँ, आदमी रोज़ बदलते रहे। नदी यूं ही चुपचाप बहती रही। लेकिन उसका तिलिस्म दिन-ब-दिन बढ़ता रहा। वह अपनी कला में और पारंगत होती गई। चुप रहना भी तो एक कला ही है। है न ?

ये दस कदम… मेरे लिए जितना लंबा सफर था, उसके लिए उतना ही कम।उसने फुर्ती से वह सफर तय किया। टेंट में मद्धम रोशनी फैली थी। उसने नजाकत से मुझे अपनी बाहों से उतारा और किसी फूल की तरह जमीन पर बिछा दिया।
मैं जानती थी कि कुछ ही देर में यह फूल मुरझायेगा और फिर कुम्हला जाएगा… मुरझाने से कुम्हलाने के बीच की क्रिया वही रहेगी जो रोज रहती है… फर्क सिर्फ सख्त या नरम का रहेगा। मैं इंतजार कर रही थी कि यह पल जितनी जल्दी हो, बीत जाएं रोज की तरह… लेकिन उसने मुझे टेंट में लाने की जितनी जल्दी दिखाई थी… अब वह उतना उतावला नहीं दिख रहा था। उसने आहिस्ते से मेरे पास बैठ टेंट का वह हिस्सा बंद कर दिया जहाँ से नदी साफ दिख रही थी।
लेकिन दूसरा हिस्सा खुला रखा जहाँ से पहाड़ दिख रहे थे। मैंने उसकी ओर आश्चर्य से देखा तो उसके चेहरे पर मनमोहक मुस्कान फैल गयी लेकिन आँखों में अभी-भी वीराना था।
मैं यह समझ ही नहीं पा रही थी कि अपनी आँखों में समाई पीड़ा, वीराना दिखाना उसका जादू था… या इसे न छुपाना।

“जब नदी पत्थरों पर उछलती-गिरती होगी तो पत्थरों को भी तो दर्द होता होगा न?” उसने पूछा।
“हं… म… मैं समझी नहीं…”
मेरे चेहरे की मासूमियत को देख उसने मेरे खूबसूरत पांव अपने हाथों में लेकर चूमे और अपनी आँखों में गहराई लाता हुआ बोला, “इन उंगलियों में लाल नेलपॉलिश अच्छी लगेगी।”
मैं कुछ न बोली। वह आगे बोला, “तुम कौन हो… तुम्हारा नाम क्या है… मैं नहीं जानता लेकिन कल जब मैंने तुम्हें पहली बार देखा… तो तुम्हारा आज का दिन अपने नाम लिखवा लिया।”
मैं अभी-भी चुप रही कि नदी टेंट के जिस हिस्से से दिख सकती थी वह तो उसने पहले ही बंद कर दिया था।
अब वह मेरे बहुत नजदीक बैठ गया। उसकी गर्म सांसे मुझे छू रही थीं। पता नहीं क्यों लेकिन आज पहली बार किसी अनजान आदमी का साथ अच्छा लग रहा था।
उसने हौले से पूछा, “मेरे बारे में जानना नहीं चाहोगी?”

उसके सवाल के बदले मैंने उसे एक कहानी सुनाना चुना, “सिरजन बताता है कि यह नदी पहले बहुत उछलती-कूदती बहती थी…” मैंने खामोश नज़रों से उसकी ओर देखा। वह गहराई से मेरी बात सुन रहा था। मैंने कहानी आगे बढ़ाई, “यह नदी कब मन्नत की नदी बन गयी यह तो सिरजन भी नही जानता लेकिन वह कहता है कि जो भी इस नदी तक पहुँचता वह अपनी मन्नत मांग इसमें सिक्का फेंकता।
समय बीतता गया। कोई आता, मन्नत का सिक्का डालता…नदी उसकी मन्नत पूरी करती और वह वापस चला जाता कभी न लौटने के लिए…धीरे-धीरे नदी की तलहटी मन्नतों के बोझ से भरती चली गयी…” मेरे मुँह से आह निकली, “मन्नत तो यह नदी अभी-भी पूरी करती है लेकिन… अब उछलती कूदती नही … सिर्फ बहती है… चुपचाप।”
“क्या कभी नदी को मन्नत मांगने वालों के बारे में जानने का मन न हुआ होगा?” उसने पूछा।

मैं हँसी… इतना हँसी कि आँखों के कोर भीग गए। उन भीगे कोरों से आवाज़ आई, “कुछ नदियाँ अभिशप्त होती हैं जो सिर्फ मन्नत के सिक्के समाने के लिए ही बहती हैं… वे सिक्के किस धातु के बने हैं यह जानने के लिए नहीं।”
उसने अचानक मुझे बहुत करीब खींच लिया और मेरी आँखों की नमी को अपनी उंगली में लेते हुए बोला, “चिंता मत करो…मैं कुछ नहीं करूंगा।”
मैं चौंक पड़ी। उसका अचानक यह कहना कि मैं कुछ नही करूँगा… मेरे लिए डर का सबब बन गया। क्या कोई आदमी ऐसा भी हो सकता है जो इस रूमानी माहौल में… एक खूबसूरत लड़की के साथ… रात के दूसरे पहर में अकेला होकर भी कह रहा हो… कि मैं कुछ नहीं करूंगा!

मेरी हथेलियाँ पसीने से भीग गईं। क्या चाहता है यह आदमी? मुझे घुटन होने लगी। मैंने टेंट की उस खुली जगह की ओर देखा जहाँ से पहाड़ दिख रहे थे।
“जाना चाहती हो वहाँ?” उसने पूछा। मैंने हाँ में गर्दन हिला दी।
हम दोनों उस छोटे से टेंट से निकलकर आसमान के प्राकृतिक टेंट के नीचे आ खड़े हुए। सामने बड़े-बड़े पहाड़ थे जिन पर चांद की रोशनी खेल रही थी। आज इतने सालों में पहली बार मेरे होठों पर मुस्कान सजी। सच्ची मुस्कान। किसी नूरानी चेहरे पर मोतियों की लड़ी-सी। वह मुझे मुस्कुराते हुए देखता रहा फिर बोला, “चढ़ना चाहती हो पहाड़ पर?”
मैं खिलखिला कर हँस दी। होठों पर सजी मुस्कान के मोती हँसने से झन्न से बिखर गए। हवाओं में मोतियों की चमक पसर गयी। वह मेरी हँसी भी देखता रहा। बोला, “सिरजन ने बताया था कि तुम्हें पहाड़ बहुत पसंद हैं। लेकिन नदी की तरह बहना तुम्हारी किस्मत है।”

मैं उसे देखती रही। उसका जादू मुझ पर छाने लगा । मेरा दिल कर रहा था कि मैं हिरण बन जाऊं और…और इन पहाड़ों पर कूदती फिरूँ। उसने जैसे मेरा मन पढ़ लिया। वह मेरा हाथ पकड़ कर दौड़ते हुए पहाड़ पर चढ़ने लगा।
मैं उन्मुक्त हो महक उठी। मेरे लिए पहाड़ रुई में बदल गए। रात का तीसरा पहर शुरू हो चुका था। नदी की कलकल साफ सुनाई आने लगी। जबकि यह वही पहर था जब नदी रोती थी लेकिन आज नदी की कलकल में रुदन का नहीं खुशी का नाद था।
मैं स्वच्छंद हो यहाँ-से-वहाँ उड़ रही थी। लगता जैसे बादलों पर सवार हो ऊंची उड़ान भर रही हूँ। मेरे पैर के नीचे कपास थी और सर के ऊपर नीलम जड़ा आकाश। टेंट कहीं पीछे छूट गया था।
मेरे जीवन का यह सबसे अद्भुत पल था। मैं इतनी खुश थी कि मैंने उसे अपनी बाहों में भर लिया। उसे बेशुमार चूमा। उसने हौले-हौले मेरे चेहरे पर आए बाल हटाए। मेरा चेहरा दमक रहा था। मैं उसकी बाहों में स्वर्ग का सुख भोग रही थी। उसने कोई जल्दी नहीं की। रात का तीसरा पहर लम्हा-लम्हा गुज़र रहा था। लेकिन मुझे होश ही कहाँ था।
मेरे पांव में तो जैसे घुँघरु बन्ध गए थे। मैं गिलहरी बन गई थी जिसने अपनी पुरानी दुखद यादों को उस टेंट में ही रखकर भुला दिया था। आज पहली बार देह पर रेंगते अनजान हाथ मुझे सुकून दे रहे थे। मेरी आँखें अपने-आप बंद हो रही थीं। उस रात का तिलिस्म मुझे खुद में समेटता जा रहा था।

मैं नींद और मदहोशी की खुमारी में थी कि मेरे कान के पास से उसकी आवाज हवा के साथ मिलकर सरगोशी करते कह गयी, “मुझे उछलती-कूदती, कलकल बहती नदी में सराबोर होना पसंद है… चुपचाप बहती नदी में नहीं…”
मेरी खुमारी झटके से उतर गयी। मैंने खुद को उस पहाड़ पर अकेला पाया। वह दूर-दूर तक कहीं नहीं था। मैं उठी कि नीचे की रुई फिर पत्थरों में बदल मुझे चुभने लगी थी। मैंने खुद को संभाला और दूर लगे टेंट की ओर देखा। वहाँ भी कोई हलचल न थी। हाँ, उसने शायद जाने से पहले टेंट का वह हिस्सा भी खोल दिया था जहाँ से नदी साफ दिखाई देती थी।
सूरज की पहली किरण में नहाई.. सुनहरी होती नदी को मैंने ध्यान से देखा। सूरज की तपिश में मेरी आँखों के नीलम पिघलने लगे थे।
नदी की कलकल फिर बंद हो चुकी थी। वह चुपचाप बह रही थी… रात के तीसरे पहर के रुदन के लिए…
(चेतना विकास मिशन)

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