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कहानी : कायापलट

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(मोवसेस अराजी की कृति का भाषिक रूपांतर)

        ~> पुष्पा गुप्ता 

हर चीज बदलती थी, सिर्फ़ मुकुच नहीं बदलता। पिछले दस वर्षों से वह चर्मशोधनालय में पहरेदार का काम कर रहा है। इस अवधि में शासन में दो बार तब्दीली आयी और चर्मशोधनालय में पाँच बार प्रबन्धक बदले गये।

       इसके बावजूद, मुकुच पर इन सब बातों का कोई भी प्रत्यक्ष प्रभाव दृष्टिगोचर न होता। चाहे आप किसी से पूछें, जवाब एक ही होगा : हमेशा की तरह फटा-चीटा पहने मुकुच जहाँ पहले था, वहीं है।

जो भी नया प्रबन्धक आता, पहले दिन ही निरीक्षण के दौरान मुकुच को देखता। और हर बार, औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद नया प्रबन्धक बड़ी अर्थपूर्ण आवाज में मुकुच को सम्बोधित करता,

“ठीक है, मेरे निर्देश तक अपनी जगह पर बरक़रार रहो।” मगर ऐसा निर्देश कभी नहीं आता और मुकुच अपने स्थान पर बरक़रार रहता उन शब्दों का अर्थ उसकी समझ के बाहर था। फिर उसे एकदम भुला दिया जाता या दूसरे शब्दों में उसकी उपस्थिति नज़र अन्दाज़ कर दी जाती। कुछ ही दिनों में नया प्रबन्धक उसे देखते रहने का श्रादी हो जाता कि उसे कारख़ाने का प्रभिन्न अंग समझने लगता।

मुकुच की शकल सूरत में भी कोई फेर-बदल नहीं दिखाई देता। वह अधेड़ उम्र का था और इस अवस्था में लोग लम्बे समय तक ज्यों के त्यों ही लगते हैं। चौड़ी नाक और घनी दाढ़ीवाला उसका भोंडा चेहरा सूजा सूजा लगता। ध्यान से देखने पर ही उसकी बड़ी-बड़ी स्थिर श्राँखों में अनवरत चिन्ता व दुख के भाव देखे जा सकते थे।

जाड़ा हो या गरमी, मुकुच गंदले धूसर रंग के एक ही कपड़े हमेशा पहने रहता। सेना के ओवरकोट के चिथड़ों से बना उसका जैकेट समय बीतने के साथ अपना वास्तविक रँग गँवा चुका था। तुर्रा यह कि उसके नीचे इतनी सारी गुदड़ियाँ होतीं कि मुकुच दूर से किसी चलती-फिरती बोरी की तरह दिखाई देता। भेड़ की खालवाला ख़स्ताहाल उसका काला टोप तो ऐसा लगता मानो उसके सिर से उग आया हो, क्योंकि बालों से उसकी कोई भिन्नता न रह गयी थी।

लेकिन मुकुच के जूते, कुछ न पूछिये – उसके पूरे स्वरूप के सबसे लाजवाब पहलू थे। किसी जमाने में वे सेना के बूट थे। अपने मालिक की सेवा पूरी कर वे मुकुच के पास आ गये थे। उस पर इतने पैवन्द, इतनी पिच्चियाँ थीं कि असली शकल की पहचान असंभव थी। पिच्चियों को यथास्थान ताँत, कीलों या तार से जोड़ रखा गया था!

हर नया प्रबन्धक पहले दिन काम पर आते ही गोल-माल हालत देखताः चर्मशोधनालय का पहरेदार ऐसे गये गुजरे जूते पहने है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। और हर बार नया प्रबन्धक उसके जूतों के लिए चमड़ा दिये जाने का आदेश देता। लेकिन कुछ दिन बाद मुकुच उस चमड़े को बेचकर आटा ख़रीद लेता – पुराने जूते ज्यों के त्यों उसके पैरों में चस्पाँ रहते। सच कहा जाये तो मुकुच को इससे ज्यादा निराशा भी न होती थी। उसने यह सचाई गाँठ बाँध रखी थी कि चमड़े से नया जूता बना लेने पर भी वह दूसरे जूतों की तरह घिस जायेगा, नष्ट हो जायेगा जबकि पुराना हमेशा-हमेशा बरक़रार रहेगा।

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पहली बार मिलने पर कोई भी मुकुच को रेफूजी कहेगा। और अगर आपने उससे पूछा तो वह बतायेगा कि बचपन में वह अपने पिता के साथ फलां-फलाँ गाँव गया – कभी यहाँ कभी वहाँ। इस प्रकार, इस घुमन्तू आर्मीनियाई के असली ठिकाने के बारे में कोई कुछ नहीं बता सकता।

मुकुच का रेफूजीपन इस बात से और भी बढ़ जाता कि उसकी मिल्कियत बस एक गुदड़ीदार बिस्तर और एक पुराना-सा काँसे का लोटा था – वह जहाँ भी जाता इन दोनों को अपने साथ रखता। मुकुच के लिए यह ठीक ही था क्योंकि वह ऐसे ज़माने में रह रहा था जब अधिकांश आर्मीनियाई रेफूजी ही माने जाते थे।

“जब तक रोटी मुयस्सर है, किसी दूसरी चीज़ की कोई भी फ़िकर नहीं,” यह उसका तकियाकलाम बन गया था।

मुकुच मय बीवी व चार बच्चों के चर्मशोधनालय के पास ही एक टूटे फूटे मकान में टिक गया था। अगर यह बिन बुलाये मेहमान न आते तो वह मकान शायद हमेशा भाँय-भायें ही करता रहता। बायीं ओर की छत कुछ इस अन्दाज़ से धंस गयी थी कि अब या तब गिरने का भय होता।

बच्चों में सबसे बड़ा सात साल का था। वे दिन भर यूँ मेमियाते-पेपियाते रहते कि मार्जार-शिशुओं के म्याऊँ म्याऊँ का भ्रम होता। मुकुच इस विचित्र आवाज़ का आदी कब का हो चुका था। इसका मतलब था :“भूख लगी है, रोटी दो!”

इसलिए जब-जब शासन में तब्दीली आती, मुकुच के दिमाग़ में बस एक ही सवाल अहम होता- रोटी का सवाल। न जाने कितने लोगों से वह दिन भर पूछता रहता: “क्या यह सच है? लोगों का कहना है, अब रोटी की क़ीमत कम हो गयी है। “

किसने कहा था वैसा? कहाँ? सच तो यह था कि किसी ने कुछ भी नहीं कहा था। बस प्रचंड लालसा के वशीभूत मुकुच ऐसी ख़बरें फैलाने को विवश होता।

सोवियत सत्ता की स्थापना के पहले वर्ष, जब उसे कारखाने में रोटी लाकर देने का काम सौंपा गया तो उत्तेजना के कारण वह बहुत ज्यादा बक-बक करने लगा। कोई देखे तो यही सोचे कि सारी राशन की रोटियाँ उसी के लिए थीं। जो मिलता, उसी को रोककर वह कहता, “मैं मज़दूरों को रोटी लाकर दूँगा।”

इस काम में उसका उत्साह देखते बनता! कन्धे पर रोटियों का बोरा उठाये वह खाद्य डिपो से कारखाने के चक्कर लगाता दौड़ता रहता। रोटी की निकटता और उसकी मादक खुशबू इतनी प्रलोभनकारी थी कि वह बोरे से चेहरा सटाकर जोरों की साँस लेने से खुद को नहीं रोक पाता। वह सपना देखा करता कि एक दिन वे उसे एक बड़ी-सी रोटी देकर कहेंगे, “लो, यह लो मुकुच!”

लेकिन राशन बँट जाने और बोरे के ख़ाली हो जाने के बाद उसके सपने भी गायब हो जाते। कड़ाई से राशन में मिलती रोटी का बहुत थोड़ा-सा हिस्सा ही उसके पेट में पहुँच पाता।

किसी ऐसे दिन जब बेकरी में रोटी तैयार होने में देर हो जाती और खाद्य डिपो में मुकुच को घंटों प्रतीक्षा करनी पड़ती, उसके प्राण सूखने लगते। उसे लगता अब कोई बाहर आयेगा और कह देगा,

“रोटी ख़त्म हो गयी। अब प्रतीक्षा करने से कोई लाभ नहीं।”

लेकिन फिर खुद ही अपने आप से कहता, चर्मशोधनालय के मज़दूर और प्रबन्धक दोनों ही अपने राशन यहाँ से पाते हैं। इसलिए, स्वभावतया, कोई भी प्रबन्धकों को बिना रोटी के रखने की हिम्मत नहीं करेगा। हाँ, अगर सब मुकुच जैसे ग़रीब लोग होते तो फिर कोई उम्मीद न थी लेकिन चूँकि प्रबन्धक और उस जैसे महत्वपूर्ण लोग भी कारखाने में काम करते हैं, उन्हें खाद्य डिपोवाले रोटी का राशन नहीं रोक पायेंगे।

मुकुच दिन में कई बार घर आता। हर बार मुकुच और उसकी बीवी के बीच बड़ी गड़बड़ी मचती : पेट की भूख इस उम्मीद में उसे घर ले आती कि शायद बीवी ने सब्जियों से कुछ खाने को तैयार किया हो और, दूसरी ओर, उसकी बीवी सोचती, शायद शौहर रोटी लाने में सफल रहा है। निराशा चिड़चिड़ी बीवी की जिह्वा पर चढ़कर बोल उठती, उसका रोज़ का झगड़ा शुरू हो जाता,

“तो जनाब, घर आ गये हैं, क्यों? बहुत खूब! यूँ ख़ाली हाथ दौड़े चले आते हैं मानो जनाब को मालूम ही न हो कि उनका भी कोई परिवार है!” उसकी आवाज ऊँची हो उठती जाती और मुकुच के कानों में भिनभिनाहट होने लगती। धीरजवाला होने के बावजूद वह चीख पड़ता :

“अपनी जबान फिर चलानी शुरू कर दी! बहुत हुआ!” फिर जल्दी- जल्दी बाहर निकल जाता और उसके पीछे-पीछे, कारख़ाने तक बीवी को कोसती आवाजें चली आतीं।

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सोवियत सत्ता की स्थापना से सब पर बड़ा असर पड़ा। कुछ ने खुशियाँ मनायीं और जिनकी सम्पदाएँ व सामाजिक प्रतिष्ठा छिन गयी थीं, उन्होंने इसे लानतें भेजीं।

नयी सरकार के पहले दिनों की गहमागहमी, जोशीले भाषणों और लाल पताका लिए मार्च करते लोगों ने मुकुच को भी आकृष्ट किया। वह इस तरह के कई मार्चों में गया, कई सभाओं में शामिल हुआ। वह सब से आख़िर में खड़ा होता और दत्त-चित्त सुनता रहता। कभी-कभी उसे ऐसा लगता मानो जो कुछ कहा जा रहा है, सब उसकी समझ में आने- वाली बातें हैं – आख़िर वे लोग उसी जैसे ग़रीबों के हक़ों के बारे में तो बोल रहे थे।

बहुत सारे दिन गुजर गये। फिर रोटी की तंगी उसे पीड़ित करने लगी। उसके विचार उलझकर रह गये। सुने गये भाषण उसे समझ में न आनेवाले प्रतीत हुए।

और इस प्रकार नयी सरकार के दिनों पुराना सवाल फिर से उभरकर सामने आने लगा और मुकुच यह कहने का मौक़ा कभी नहीं चूकता,

“क्या यह सच है? सुना है, रोटी का राशन बढ़नेवाला है।”

किसने कहा था ऐसा? किससे यह बात कही गयी थी? पहले की तरह यह अब भी रहस्य बना था।

रोटी के अलावा हर बात को, सारे भाषणों को मुकुच बेकार की बकवास समझता। उसके मुताबिक ये सारी चीजें “ऊँचे ओहदे” वालों के लिए अच्छे भोजन के बाद मनबहलाव के अच्छे साधन थीं।

उसके मुताबिक़ “ऊँचे ओहदे” वाले वे लोग थे जो शहरी कपड़े पहनते थे और थोड़ा बहुत पढ़ सकते थे। सोवियत कार्यालय अधिकारियों को वह इसी तरह अभिहित करता। हालांकि उसकी आँखों के सामने ही उन्हें रोटी व खाने-पीने के सामानों का राशन मिलता था, तनख्वाह भी उन्हें उसकी मौजूदगी में मिलती थी लेकिन मुकुच को पूरा यकीन था कि उन्हें कहीं दूसरी जगह अतिरिक्त तनख्वाह राशन की अदायगी को जाती थी।

“ग़रीब लोग खाये बिना रह सकते हैं लेकिन ऊँचे ओहदेवालों को फाकामस्ती की आदत नहीं,” मुकुच अपने मन में कहता।

बचपन से ही मुकुच इन सारी दुनियावी बातों का आदी हो चुका था और इन पुरानी धारणाओं ने उसके मन में गहरी जड़ें जमा ली थीं। उन्हें दूर करना कठिन था।

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फिर भी दुनिया कितनी बदल गयी थी! मुकुच की बहुत सारी आँखों देखी और कानों सुनी बातें थीं। जो पहले राजे बने थे, अब रंक हो गये थे और ऊँचे ओहदों पर अब नीचे तबक़ों के लोग आ गये थे। चाहे जो भी हो, हर चीज़ के बारे में मुकुच की अपनी ही राय थी।

“इसमें तो कोई सवाल ही नहीं उठता,” वह मन ही मन कहता। “सब का एक-दूसरे को ‘कॉमरेड’ कहना, सुनने में अच्छा लगता है।” यह शब्द मुकुच को पसन्द था। लेकिन फिर सब उसे पहले की तरह सिर्फ़ मुकुच कहने पर क्यों श्रामादा थे? कोई भी उसे इस तरह पुकारने में तनिक भी अनुचित नहीं महसूस करता : “क्या हाल है, मुकुच?”

बेशक, इस बात से उसे कोई शिकायत न थी क्योंकि कारखाने में सबका व्यवहार उसके प्रति अच्छा था लेकिन चूँकि यही रिवाज चल पड़ा था, उसे भी “कॉमरेड” कहकर बुलाया जाना चाहिए। मुकुच के दिल को ठेस लगी थी।

फिर कारखाने का हज्जाम हमेशा उससे पिण्ड छुड़ाने की कोशिश में क्यों लगा रहता है? जब भी वह उसकी दुकान में दाढ़ी बनाने और बाल कटाने जाता, उसे बस यही सुनने को मिलता :

“तुम बाद में क्यों नहीं आते, मुकुच? इन सब के बाल काट लेने के बाद तुम्हारे लिए ज्यादा समय मिल जायेगा।”

न जाने कितनी बार वह उसकी दुकान के पास आकर रुका था और हर बार उसे यही शब्द सुनने को मिले थे। आख़िरकार पूरी तरह निराश होकर, उसने वहाँ जाना ही छोड़ दिया था। झाड़ू जैसी उसकी दाढ़ी उसके आधे चेहरे पर फैली थी।

मुकुच भली-भाँति जान चुका था, हज्जाम उसकी दाढ़ी बनाने की जहमत नहीं करना चाहता। लेकिन मुकुच अन्धा न था। वह जानता था, यह चोर हज्जाम पुराने घिसे उस्तरों को नयों से बदल रहा था। तौलियों व एप्रनों के लिए मिले नये कपड़ों को चुरा रहा था, वह भी ऐसी महँगाई के समय में। जैसे मुकुच जानता ही न हो कि उजड्ड चोर ने कारख़ाने की नाई – दुकान में जल्दी से जल्दी पैसे बनाने के लिए नौकरी की थी जिससे वह खुद अपनी दुकान खोल ले।

मुकुच यह सब जानता था लेकिन कुछ बोलता न था क्योंकि वह बुरा आदमी बनकर हज्जाम की रोटी का टुकड़ा छीन नहीं लेना चाहता था। लेकिन अगर मुकुच को उसके बारे में फ़ैसला करने का मौका दिया जाता तो वह जानता था, इस बेशर्म चोर से कैसे पेश आया जाये, जिसने उसे अपमानित किया था।

जाहिर था, मुकुच को लोगों की बातों में कोई भी अच्छाई नज़र नहीं आती थी। आती भी कैसे, अगर हज्जाम जैसे लोगों को टाँग अड़ाने का मौक़ा मिला हुआ था। मुकुच गरीब है और ग़रीब रहेगा। दुनिया में कोई तब्दीली नहीं आयी है।

लेकिन सचमुच, मुकुच के अलावा सब कुछ बदल रहा था।

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मकुच के सिर सनीचर हो चढ़ा था!

अब एक नये प्रबन्धक ने कार्यभार संभाला था। वह नाटा, दुबला-पतला, चश्माधारी और जिद्दी आदमी था। दूसरे प्रबन्धकों के विपरीत, वह हमेशा मुकुच पर ध्यान रखता और हर दिन किसी न किसी चीज़ के कोने लिए उसे फटकार बताता। वह हमेशा इधर-उधर दौड़ता फिरता, कोने में झाँकता। मुकुच उसकी नीति तनिक नहीं समझ पाता था। परेशानी के मारे उसे पता ही नहीं लग रहा था, इस आदमी की कृपादृष्टि पाये तो कैसे। पूरा एक महीना इसी तरह बीत गया और मुकुच निराश हो चला। उसने मन में तय कर लिया, बस और कोई बात नहीं, प्रबन्धक उसे निकाल बाहर करने का बहाना भर ढूँढ़ रहा है। फिर भी, सब कुछ सहन कर लेनेवाला मुकुच शायद इस परीक्षा से भी, सही-सलामत निकल आता लेकिन बदकिस्मती को क्या कहिये! एक दिन सुबह में ओसारे से एक गट्ठर चमड़े की चोरी का पता चला। मुकुच की हालत उस समय कैसी रही होगी, यह बताने की जरूरत नहीं। प्रबन्धक दिन भर उससे पूछ-ताछ करता रहा। फिर उसे पुलिस में ले जाया गया। वहाँ भी उससे खोद-खोदकर पूछा गया। हर बार प्रबन्धक यही कहता, “तुम पहरेदार हो, यानी दोष तुम्हारा है।”

सनीचर पर साढ़ेसाती। बीवी उसके पीछे पड़ गयी।

“किसी निर्दोष आदमी को इस तरह बेइज्जत करके उसके परिवार का सत्यानाश करते कभी किसी ने सुना है! क्या इस बदकिस्मती से बचानेवाला, हमारी हिफ़ाज़त करनेवाला कोई भी नहीं! क्या उन्हें दिखाई नहीं देता, यह सब गढ़ी-गढ़ायी बात है, चालबाजी है?”

“तुम किस लिए इधर-उधर चीखे फिर रही हो? ” अपने मर्दाने ढंग से उसे सान्त्वना देते हुए मुकुच ने कहा। “जरा मेरे बारे में भी सोचो। तुम्हारे ख्याल से मुझे कैसा महसूस हो रहा होगा?”

लेकिन उसकी बीवी ने अपनी क़िस्मत का रोना जारी रखा। वह खुद पर नियंत्रण न रख सकी। रोती रही, पड़ोसनों की दुहाई दी और उसे इस हालत में देखकर बच्चे भय से जोर-शोर से क्रन्दन कर उठते।

झुटपुटा होने को था। दुख से सुकुच का दिल भी बैठा था। कारखाने के अहाते में बने सीलन भरे, खिड़की रहित ओसारे में वह घुसा। एक शिलाखण्ड पर बैठकर वह जमीन की ओर घूरने लगा।

“तो, मेरा खात्मा हुआ,” वह सोचने लगा। जरूर ही मुझे गिरफ़्तार किया जायेगा… वे लोग मुझे छोड़ने को नहीं… और फिर मेरा बचाव भी कौन करेगा? ठीक है, मान लो वे मुझे गिरफ्तार कर लेते हैं। लेकिन बच्चों का क्या होगा? चमड़े को चुराया किसने? सच कहा जाये तो यह काम बस वही हरामजादा हज्जाम कर सकता। क़िस्मत की ही बात है! कैसी स्थिति आ गयी है : उस जैसे झूठे इनसान की बात सुनने को प्रबन्धक तक तैयार है, मैं जानता हूँ, उसी ने प्रबन्धक से कहा होगा, चोरी पहरेदार ने की है।”

दिन रात में बदल रहा था और मुकुच के हृदय में भी अंधेरा छाता जा रहा था।

सहसा उसे अपने पीछे से एक आवाज सुनाई दी:

“तुम कहाँ हो, मुकुच?”

मुकुच उठ खड़ा हुआ और रास्ता टटोलता बाहर निकल आया।

यह मार्गार था, मज़दूरों में एक।

“तुम कहाँ थे, मुकुच? मैं घंटे भर से तुम्हें ढूँढ़ रहा हूँ। चले आओ”

मुकुच ख़ामोशी से उसके पीछे चल पड़ा।

        6

“अब शायद कुछ और भी गढ़ लिया है,” मुकुच ने सोचा। तिस पर क़िस्मत की मार, मार्गार ने उसे अगली क़तार में बैठा दिया था। जाहिरी तौर पर मार्गार पहले से ही ऐसी व्यवस्था कर डालना चाहता था जिससे सब उसे देखें, अपमानित करें।

कितने सारे लोग थे वहाँ! और सब के सब क्रुद्ध थे। इन सब की हँसी का पात्र बनने से तो अच्छा होता कि वह मर जाता या जमीन फट पड़ती और वह उसमें समा जाता।

लाल मेजपोशवाली मेज मंच पर रख दी गयी थी। मेज़ के साथ छह लोग बैठे थे। वह उन सब को जानता था लेकिन इस समय वे सब उसे अजनबी लग रहे थे। काश, उनसे कोई यह कहनेवाला तो होता, “मुकुच ने आपका क्या बिगाड़ा है जो उसे इतनी नफ़रत भरी नजरों से देख रहे हैं?”

वह डरा था और शर्मिन्दा भी हुआ। मुकुच खुद को जहन्नुम में महसूस कर रहा था। बाहर खुशगवार वसन्त की शाम थी लेकिन उसकी हड्डी तक ठिठुर गयी थी।

बग़ल में बैठे मज़दूरों ने उससे बातें कीं, उन्होंने उस को ढाढ़स देने की कोशिश की लेकिन उसे उनके शब्द ही नहीं सुनाई दे रहे थे। उसके ख्यालात कोसों दूर भटक रहे थे।

यही बात थी… उसका खात्मा… इतने लोगों से खुद को बचाने के लिए वह क्या कर सकता था और फिर, इनमें से हरेक कितनी आसानी से, कितनी विद्वता से बोल सकता था। स्वाभाविक रूप से वे प्रबन्धक के पक्ष में बोलेंगे। आखि़र वह ऊँचे ओहदेवाला था, मुकुच की तरह कोई मामूली आदमी नहीं। ज़रा देखो तो उसकी ओर, वहाँ बैठा है, चश्मे के नीचे नाक-भौंह चढ़ाये।

और मुकुच क्या कह सकता था? जैसे, “मैं एक ग़रीब आदमी और मैं क्या जानूँ, किसने चोरी की? मैं कुछ भी नहीं जानता। मैं क़सम खाकर कहता हूँ, मुझे इस सम्बन्ध में कुछ भी नहीं मालूम।”

मुकुच की आँखें दीवार पर टंगी लेनिन की एक बड़ी-सी तस्वीर पर टिक गयीं।

“लोग उसे भला आदमी बताते हैं। काश, वह यहाँ होता तो मैं कभी ऐसे गड़बड़झाला में न पड़ता।”

बैठक की शुरुआत के लिए एक घंटी बजी। लोग उठ उठकर बोलने को जा रहे थे लेकिन मुकुच उनकी बातें नहीं समझ पाया। वह उस समय चौंका जब साप्राक नामक एक मजदूर बोलने आया। साप्राक की आवाज़ ऊँची थी और उसके शब्द समझने में आसान थे। आज वह कितने गुस्से में था। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह आग उगल रहा हो। जरूर ही मुकुच से क्रुद्ध था… फिर भी यह बात कितनी अजीब थी : साप्राक भी अभी बोला था, ” कॉमरेड मुकुच। ” अगर वह उस पर क्रुद्ध था तो फिर उसे “कॉमरेड मुकुच” कहकर क्यों सम्बोधित कर रहा था? यह तो एक आदरणीय शब्द था।

एक बात और, साप्राक जब तक बोलता रहा, प्रबन्धक को जैसे बिच्छू काटते रहे थे। वह बार-बार उठ खड़ा होता, जवाब देने के लिए अपने हाथ ऊपर उठाता और जब उससे नहीं रहा गया, तमतमाये चेहरे से वह अपने आप से बड़बड़ाता, बाहर चला गया। हालाँकि अभी साम्राक ने अपना भाषण ख़त्म भी नहीं किया था।

सब कोई उसे जाते देखते रहे। मुकुच की ठीक बग़ल में बैठे मजदूर सेर्गों ने उस के कानों में कहा,

“देखा मुकुच, कैसे प्रबन्धक की सिट्टी-पिट्टी गुम कर दी है?” उलझन के मारे मुकुच को कोई जवाब ही नहीं सूझा।

हालात अप्रत्याशित मोड़ ले रहे थे… अब फिर किसी ने उसे कॉमरेड मुकुच के नाम से पुकारा था। हाँ, वे लोग उसकी प्रशंसा कर रहे थे। “भूख और ठंड के बावजूद, मुकुच अपने काम पर हमेशा डटा रहा, मोर्चे के सैनिक की तरह… अगर प्रबन्धक तनिक भी भला आदमी होता तो कम से कम मुकुच के ठौर-ठिकाने के बारे में उससे कभी कुछ पूछता तो…”

नहीं, सन्देह की कोई गुंजाइश न थी। वे सब उसकी मदद कर रहे थे, वे सब उसकी रक्षा कर रहे थे! दिल से पत्थर हट गया। इमारत के अन्दर आते समय वह अपनी बेबसी पर जड़ीभूत हो रहा था लेकिन अब उत्साह से भर उठा था।

साँस रोककर वह हर वक्ता की बातें सुनता, उत्तेजित-सा इधर-उधर देख रहा था। बड़ी अजीब बात थी, अब हर कही बात उसे समझ में आ रही थी। वह अपनी जगह से उठकर दिल में दबी हर चीज़ उंडेल डालना चाहता था।

अचानक मार्गार ने उसकी आस्तीन खींची।

“अगला वक्ता, कॉमरेड मुकुच हैं,” अध्यक्ष ने दुहराया।

“जो दिल में है उन्हें सब कुछ बता डालो,” मार्गार फुसफुसाया। उलझन में पड़ा मुकुच उठ खड़ा हुआ। हिम्मत बटोरता, वह कुछ पलों तक ख़ामोश रहा, फिर हल्के से मोटी आवाज़ में बोलना शुरू किया। सब चुप थे। वे उसकी बातें ध्यान से सुन रहे थे।

“कॉमरेडो, हालाँकि मैं ग़रीब आदमी हूँ, मैं कभी अपनी इज्ज़त नहीं बेचूँगा। मुझे इस चोरी के बारे में कुछ भी नहीं मालूम… मैं बस इतना ही कह सकता हूँ, मुझे फँसाया गया है। मैं आपसे, आपके ज़मीर से मदद का अनुरोध करता हूँ।”

बोलते समय वह भारी-भारी साँसें ले रहा था। अध्यक्ष ने कुछ और शब्द कहे, फिर दो-तीन अन्य व्यक्तियों ने संक्षेप में भाषण दिया। इसके बाद बैठक ख़त्म कर दी गयी।

मज़दूरों ने उसे घेर लिया।

“चिन्ता न करो, कॉमरेड मुकुच, हम तुम्हें शर्मिन्दा नहीं होने देंगे!”

वे उसकी पीठ थपथपाते, उससे बातें कर रहे थे। हर कोई उसे “कॉमरेड” कहकर सम्बोधित कर रहा था…

मुकुच बाहर सड़क पर आ गया। भावावेश के मारे उसे पता ही नहीं लग रहा था, वह आ रहा है या जा रहा है। दौड़ता हुआ घर चल पड़े या कारखाने में ही रह जाये, वह निर्णय नहीं कर पा रहा था। कितने सारे लोग उसके पक्ष में उठ खड़े हुए थे! और ऐसा भी हो सकता है,

कभी वह महसूस कैसे नहीं कर पाया था? ऐसा प्रतीत हुआ था जैसे हजारों आवाजें एक होकर बोल रही थीं, सब कह रही थीं, “कॉमरेड मुकुच…” मुकुच का दिल इस तरह भर उठा कि हमेशा बना रहनेवाला रोटी का ख्याल भी जाता रहा। अब अगर उसे जिन्दगी भी देनी पड़ी तो वह खुशी-खुशी दे देगा।

         7

तीन साल बाद मैं अपने शहर लौटा।

एक दिन शाम को मजदूरों की एक बैठक में शामिल हुआ। मैं वक्ताओं को सुन रहा था और मेरी आँखें चुस्त क़तारों पर भटक रही थीं। अनचाहे मैं इन सब की तुलना निकट अतीत से कर रहा था। कितना परिवर्तन हो चुका था!

तीसरे वक्ता के बैठने के बाद मैंने अध्यक्ष साचाक की आवाज़ सुनी,

“अब कॉमरेड मुकुच भाषण देंगे।”

सुथरे ढंग से बाल कटाये, सफाचट दाढ़ीवाला एक मज़दूर मंच पर आया। थोड़ा झेंपता-सा वह कुछ पलों तक चुपचाप खड़ा रहा। फिर ऐसी भावावेशपूर्ण आवाज़ में बोलना शुरू किया जो क्रान्ति के प्रेमी मज़दूरों की ख़ासियत थी।

“कॉमरेडो, हमारे दुश्मन हमें बहुत वर्षों तक घेरे रहे हैं और अब वे हमारा गला घोंट देना चाहते हैं। भुखमरी से वे हमारा दम तोड़ डालना चाहते थे लेकिन वैसा कुछ भी न हुआ, वे नाकामयाब रहे। बलपूर्वक उन्होंने ऐसा करना चाहा लेकिन उसमें भी असफल रहे… हमारे दुश्मनों ने महसूस कर लिया है, वे दिन अब लद चुके हैं। हम अपनी आस-पास की स्थिति समझने लगे हैं। हमारी आँखें खुल चुकी हैं। श्रौर अब हमें किसी भी बात का कोई डर नहीं।”

हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। वक्ता का चेहरा मुझे जा- ना-पहचाना सा लगा। बग़ल में बैठे मज़दूर से मैं पूछना ही चाहता था कि वह बोल उठा,

“तुम जानते हो, यह कौन है? यह हमारा मुकुच है।”

“नहीं! उसके ऐतिहासिक जूते और बेतरतीब दाढ़ी कहाँ हैं?” मार्गार हँस पड़ा।

“पुराने शासन के कपड़े वह उतार चुका है। उसके जूतों और रोटी के बोरे को हम संग्रहालय रवाना कर चुके हैं। और जैसा कि तुम देख ही रहे हो, उसकी दाढ़ी उस्तरे का शिकार बन गयी है। अगर बीवी न मना करती, वह अपनी मूंछें भी सफ़ाचट करा चुका होता।”

” चोरी गये चमड़े के मामले का क्या बना?

“भला हम लोग अपने मुकुच को किसी के जाल में फँसने छोड़ देते?” सफाचट दाढ़ी और नये जूतों व कपड़ों में मुकुच को देखकर मेरे आश्चर्य का कोई ठिकाना न था। लेकिन सबसे ज्यादा आश्चर्य उसे मंच से बोलते देखकर हुआ! मुझे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा।

विचारों में खोया मैं घर लौट रहा था। मैं अतीत की याद में लगा था। मैं सोच रहा था, हमारे मशहूर मुकुच का, जीवित स्मारक का, हमारे शहर की जीती-जागती प्रतिमा का क्या से क्या हो गया था। मैं चलते-चलते अतीत के बारे में सोच रहा था और साप्राक की आवाज़ मेरे कानों में लगातार गूँज रही थी : “अब कॉमरेड मुकुच बोलेंगे।

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