बादल सरोज
सीधी के पेशाब-काण्ड पर अनेक प्रतिक्रियाएं आ चुकी हैं। शब्दों में, भावनाओं में, प्रदर्शनों में, आलोचनाओं में, निंदाओं में, भर्त्सनाओं में, कुछ ने खूब तिलमिलाहट से, तो कुछ ने किंचित शांत भाव से भाजपा विधायक के प्रतिनिधि के इस जघन्य और घिनौने, पाशविक व अमानुषिक कृत्य को अस्वीकारा है। घटना इतनी बड़ी थी कि सोशल मीडिया पर सिर्फ देश ही नहीं, दुनिया भर में वायरल हुई। पाताल की गहराइयों तक जा गिरे भारत के मीडिया को भी यह खबर मजबूरन चलानी पड़ी। जैसा कि इन दिनों हो रहा है, सुकुलजी रातों रात सेलिब्रिटी बन गए। इठलाते और इतराते हुए पुलिस थाने में एकदम फ़िल्मी अंदाज में एंट्री करके उन्होंने बता दिया कि इस अचानक हासिल नायकत्व का उन्हें भी अहसास है, इसीलिए लज्जा और ग्लानि के मारे झुके-झुके नहीं, गौरव के साथ फूले-फूले फिर रहे हैं। मध्यप्रदेश के सीएम हाउस में इस पर एक पाखण्ड लीला हो चुकी है, इस सब पर काफी लिखा जा चुका है, यहाँ बात उससे आगे की है। वह यह कि क्या इतने जबरदस्त और व्यापक, देश व दुनियाव्यापी विक्षोभ के बाद कुछ रुका, कुछ ठिठका, कुछ बदला? नहीं!!
अगले ही दिन मध्यप्रदेश के ही शिवपुरी जिले में एक दलित को मैला (विष्ठा) खिलाने की घटना हो गई। खबर है कि इससे आहत उस युवा ने आत्महत्या कर ली है।
एक और वीडियो सामने आया है, जिसमें जूते में पानी पिलाया जा रहा है और उसी जूते से उसकी पिटाई भी की जा रही है।
एक और वीडियो, वह भी मध्यप्रदेश का ही, सामने आया है, जिसमें ऐसे ही एक दलित को कार में बंद कर पीटते हुए उसे पीटने वाले का तलवा चाटने के लिए विवश किया जा रहा है।
एक वीडियो भाजपा के वर्तमान विधायक का सामने आया है, जिसमे वे मोटा डंडा लेकर दलित और आदिवासियों को मारने के लिए दौड़ रहे हैं और उन्हें धमकाते हुए अश्लीलतम गालियों सहित जातिसूचक गालियाँ भी दे रहे हैं।
एक घटना एक पत्रकार की है, जिसे अपहरण कर दो दिन तक मारा पीटा गया, फिर उसके पाँव में गोली मार दी गयी।
यह वे खबरें हैं, जो पेशाब काण्ड के बाद मतलब पिछले पांचेक दिनों में सामने आयी हैं। कहने का मतलब यह है कि इतना तुमार खड़ा होने के बाद भी बदला कुछ नहीं। बदलना तो खैर बहुत आगे की बात है, कुछ दिन का विराम तक नहीं आया।
सीधी तो सिर्फ झांकी है – अभी पूरी मनु स्मृति, गौतम स्मृति और नारद संहिता बाकी है। एक घटना को बहाना बनाकर पढ़ने और नौकरी करने वाली महिलाओं के खिलाफ बघनखे तैयार किये जा रहे हैं। सोचने, समझने, न्याय और इंसाफ की बात करने वाले पहले ही राष्ट्रद्रोही घोषित किये जा चुके थे। अब दलितों, महिलाओं और आदिवासियों के खिलाफ आम नफरत पनपाई जा रही है। उन्माद को उग्रता देने के लिए और असली निशानों को बनाकर की जाने वाली हरकतों को छुपाने के लिए कॉमन सिविल कोड को रणभेरी की तरह फूंका जा रहा है।
इसकी वजह साफ़ है। जो दबंग यह सब कर रहे हैं, वे न केवल अपनी सलामती के प्रति पूरी तरह आश्वस्त है, उन्हें पक्का भरोसा है कि जब सैंया भये कोतवाल तो उनका क्या बिगड़ेगा, बल्कि इससे आगे उन्हें पूरा यकीन है कि वे इस तरह के कारनामों के बाद नायक बन कर ही निकलने वाले हैं, अपने कुनबे में उनका ‘भविष्य’ उज्ज्वल है ।
उनका यह भरोसा, विश्वास, यकीन निराधार नहीं है। सुकुल जी के पेशाब कांड के प्रकरण से जुडी दो खबरें देख कर इसकी ताईद भी हो जाती है। पहली खबर तो अपराधी प्रवेश शुक्ला के घर पर कथित रूप से चले बुलडोजर की है। यहाँ यह साफ़ कर देना जरूरी है कि बुलडोजर इस तरह के या किसी भी तरह के अपराधियों के घर पर नहीं चलने चाहिये। दोषी पाने, सजा देने, न देने का काम न्याय प्रणाली पर ही छोड़ना चाहिये। मगर इस काण्ड के आरोपी के घर पर चला बुलडोजर सिर्फ टीनशेड, बाउन्ड्री वॉल और एक पेड़ पर चलकर लौट गया। आज से पहले कोई बुलडोजर इतना सेलेक्टिव कभी नहीं हुआ। जाहिर है, इसमें उदारता और दयालुता और उसके लाइव दिखाए जाने में एक सन्देश निहित है।
इससे आगे की दूसरी खबर यह है कि ब्राह्मण सभा ने इस ‘पीड़ित’ ब्राह्मण परिवार के लिए पैसा इकट्ठा करने, उसका घर और ज्यादा अच्छा बनवाने और उसका मुकदमा लड़ने का बीड़ा उठा लिया है। अपने इस इरादे का सार्वजनिक एलान भी कर दिया है – मुहिम शुरू भी कर दी गयी है। यह कथित ब्राह्मण सभा किनकी है, किनसे जुडी है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। जिनसे जुडी है, उनमें से किसी ने भी इन सरासर बेहूदा इरादों और उनकी घोषणा की निंदा न करके, इनके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही शुरू न करवाके जो सन्देश दिया है, वह भी स्पष्ट है। इन दोनों संदेशों की रामबाणी अचूकता से प्रवेश शुक्ला जैसे लोग वाकिफ हैं, क्योंकि यह इस कुनबे की आजमाई हुई विधा है। ओड़िशा के हत्यारे दारासिंह, राजस्थान के कातिल शम्भूदयाल रैगर, पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह के हत्यारों से लेकर हेमंत करकरे की हत्या पर जश्न मनाने वालों से होते हुए बिल्किस बानो प्रकरण के मुजरिमों की रिहाई का उत्सव मनाने वालों जैसे ढेरों मामले हैं – सीधी के सुकुल और शिवपुरी के दबंगों सहित बाकी सब ऐसे-वैसों के हौसले इन्ही को देखकर बुलंद हैं। जिन्हें लगता था कि ये सिर्फ गोडसे तक रुक जाएंगे, जिन्हें यह भरम था कि गोडसे भर इनकी राजनीतिक वैचारिकी का हिस्सा है, उन्हें समझ आ गया होगा कि इस कुनबे में पॉलिटिकल और क्रिमिनल में कोई फर्क नहीं किया जाता, सही कहें, तो क्रिमिनल ही पॉलीटिकल है।
सुकुल जैसे अपराधी मंचित पाखण्ड और नेपथ्य की असली व्यवस्था से परिचित हैं – वे बोले जाते रहे संवादों और पटकथा के फर्क और अंतर्संबंधों से वाकिफ हैं। इसलिए वे जानते हैं कि उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। मुख्यमंत्री निवास में की गयी पाखण्ड लीला में जो हुआ, वहाँ के सन्देश की ख़बरों की पंक्तियों के बीच लिखे को वे भी पढ़ चुके हैं, इसलिए पूरी तरह निश्चिन्त हैं। सीधी में जो हुआ, वह जघन्य और घृणित अपराध शुकुल का था। अपराधी भाजपा संगठन का नेता और विधायक शुकुल का प्रतिनिधि था।
चूंकि चुनाव सिर पर है। क़ानून व्यवस्था गृहमंत्री का जिम्मा है, इसलिए डैमेज कण्ट्रोल के लिए पीड़ित आदिवासी दशमत के पाँव धोने न तो भाजपा के अध्यक्ष पण्डित वी डी शर्मा आये, ना ही गृहमंत्री पण्डित नरोत्तम मिश्रा पधारे, ना ही उस विधायक पण्डित केदार शुकुल को ही पकड़कर बुलवाया गया, जिसका वह प्रतिनिधि है। पाखण्ड के ओवरटाइम की इस ड्यूटी पर उन शिवराज सिंह को लगाया गया, जिन्हें मनु-सम्मत वर्णाश्रम शूद्र के सिवा कुछ नहीं मानता! नेपथ्य में बैठे पाखण्ड की पटकथा के लेखक पूरी तरह चौकस और सजग हैं। भले चुनाव के लिए कितना ही जरूरी हो, मगर तब भी किसी आदिवासी या दलित के पाँव पखारने, उससे माफी मांगने कोई शर्मा, मिश्रा या कोई शुकुल नहीं भेजा गया। भेजा भी कैसे जा सकता है! संस्कारी पार्टी के लिए संस्कार सबसे पहले हैं। जिस तरह का राज लाना है, वह विचार पहले है।
यह ट्रेजी-हॉरर; डरावनी त्रासदी की पटकथा है। यह अनायास नहीं है, यह अपवाद नहीं है। इसे बहुत धीरज के साथ लिखा और उतनी ही योजना के साथ मंचित किया जा रहा है। ध्रुवीकरण के लिए, ध्रुवीकरण की, ध्रुवीकरण द्वारा बनी इस सरकार और उसके विचार-गिरोह को पता है कि पीड़ित और पीड़क दोनों को एक साथ कैसे साधा जा सकता है। लिहाजा जुगुप्सा, क्षोभ, रोष, बेचैनी, हतभाव, ग्लानि और शर्म से ज्यादा यह गंभीर चिंता और फ़िक्र की बात है। इसलिए कि सीधी तो सिर्फ झांकी है – अभी पूरी मनु स्मृति, गौतम स्मृति और नारद संहिता बाकी है। एक घटना को बहाना बनाकर पढ़ने और नौकरी करने वाली महिलाओं के खिलाफ बघनखे तैयार किये जा रहे हैं। सोचने, समझने, न्याय और इंसाफ की बात करने वाले पहले ही राष्ट्रद्रोही घोषित किये जा चुके थे। अब दलितों, महिलाओं और आदिवासियों के खिलाफ आम नफरत पनपाई जा रही है। उन्माद को उग्रता देने के लिए और असली निशानों को बनाकर की जाने वाली हरकतों को छुपाने के लिए कॉमन सिविल कोड को रणभेरी की तरह फूंका जा रहा है। उसकी आड़ में असली एजेंडा आगे बढाया जा रहा है ।
इसलिए फिर एक बार दोहराने में हर्ज नहीं कि सवाल सीधी के किसी शुकुल के पेशाब काण्ड भर का नहीं है… सवाल उससे आगे का है।
लेखक पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।