नवनीश कुमार
“भाकपा माले के सुदामा प्रसाद ने 20 रुपये के ‘जनता इलेक्टोरल बॉन्ड’ के माध्यम से न सिर्फ केंद्रीय मंत्री आरके सिंह को हराया, बल्कि लगातार महंगे होते चुनावों को भी चुनौती दी और उसमें क़ामयाब हुए। सुदामा प्रसाद की जीत भले बाहरी दुनिया के लिए चौंकाने वाली हो। लेकिन आरा लोकसभा के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले सीमांत किसान, फुटपाथी दुकानदार, निर्माण मजदूर, रिक्शा चालक, टेंपो चलाने वालों को ये जीत चौंकाती नहीं है। इन समूहों ने तकरीबन 45 लाख का चंदा जुटाकर सुदामा प्रसाद के चुनाव का ख़र्च उठाया है।
बिहार की आरा लोकसभा सीट से भाकपा माले के प्रत्याशी सुदामा प्रसाद ने सबको चौंकाते हुए केंद्रीय ऊर्जा मंत्री रहे आरके सिंह को 59,808 वोटों से हरा दिया। सुदामा प्रसाद की ये जीत भले बाहरी दुनिया के लिए चौंकाने वाली है। लेकिन आरा लोकसभा के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले सीमान्त किसान, फुटपाथी दुकानदार, निर्माण मजदूर, रिक्शा चालक, टेंपो चलाने वालों को ये जीत चौंकाती नहीं है। इन समूहों ने तकरीबन 45 लाख का चंदा जुटाकर सुदामा प्रसाद के चुनाव का ख़र्च उठाया है। यही नहीं, सुदामा प्रसाद और भाकपा माले ने कूपन और सांस्कृतिक टोलियों के ज़रिए लगातार महंगे होते चुनावों को चुनौती दी और उसमें क़ामयाब हुए।
बीबीसी ने आरा क्षेत्र के लोगों से बात की जिसके अनुसार, बरतना देवी कड़ी धूप में अपनी झोपड़ी की छांव में बैठी हैं, शर्माते हुए बताती हैं, “सुदामा आम जनता के नेता हैं, हमने उनको 100 रुपये चंदा दिया है।” रजवार जाति से आने वाली बरतना देवी के पति बीघा राम निर्माण मजदूर हैं, सोन नहर के किनारे रहने वाले बीघा राम को कभी कभार ही मज़दूरी मिल पाती है। 300 रुपये की कमाई पर 100 रुपये चंदे के सवाल पर बरतना देवी कहती हैं, “पार्टी ने हमें झोंपड़ी बनाने के लिए ज़मीन दिलवाई है तो हम वोट और चंदा भी उसी पार्टी को देंगे।” दरअसल बरतना, चारू ग्राम में रहती हैं, चारू ग्राम, भाकपा माले के संस्थापक चारू मजूमदार के नाम पर बसा एक टोला है जिसमें पासी, रजवार, कानू, मल्लाह, चंद्रवंशी आदि जातियों से आने वाले 78 परिवार बसे हैं। ये सभी वो परिवार हैं जो 24 नवंबर 1989 को भोजपुर के तरारी ब्लॉक के बिहटा गांव में हुए नरसंहार के बाद बेघर हो गए थे।
खास है कि लोकतंत्र, जनता के द्वारा, जनता के लिए और जनता का शासन कहा जाता है। हमने अपने देश में सार्वजनिक मताधिकार लागू करके सभी नागरिकों के लिए एक बार में ही राजनीतिक समानता ला दी। हालांकि आर्थिक और सामाजिक समानता के लिए संघर्ष जारी है। राजनीतिक समानता एक बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू है क्योंकि कितने ही देशों में यह अधिकार सभी नागरिकों को एक साथ नहीं मिला था। हम लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं और इसमें जनता केवल चुनती नहीं है बल्कि हर नागरिक को चुने जाने का अधिकार भी दिया गया है। चुने जाने का अधिकार होना बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन चुने जाने के लिए सामर्थ्य होना भी बहुत जरुरी है। अधिकार तो सबको है चुने जाने का लेकिन क्या देश के वर्तमान राजनितिक वातावरण में सभी उम्मीदवारों को चुने जाने के समान अवसर मिलते हैं। क्या सभी चुनाव लड़ भी सकते हैं। हमारे देश में आम लोगों के लिए चुनाव लड़ना और निर्वाचित होना दिन-ब-दिन कठिन होता जा रहा है। जब चुनाव लड़ ही नहीं पाएंगे और आम इंसान की जीत संभव ही नहीं तो किसका लोकतंत्र?
जी हां, पिछले कुछ दशकों में चुनावी खर्चों में बेहताशा बढ़ोत्तरी हुई है। चुनाव आयोग भी ऐसे ही नियम कायदे बनाता है जो अमीरो के पक्ष में ही हैं। मसलन गांव, खेड़ों और मोहल्लों में नुक्कड़ सभा में कोई ज्यादा खर्च नहीं होता है। ज़मीन से जुड़ी पार्टियों और उनके नेताओं के लिए यह सबसे बड़ा प्रचार का साधन था जिसमें जनता के छोटे छोटे समूहों के सामने वह अपनी बात रखते थे, उनसे चर्चा करते थे लेकिन अब हर छोटी सभा के लिए आयोग से अनुमति लेनी होती है। रसूखदार पार्टियां और उनके उम्मीदवार तो बड़ी बड़ी जनसभाएं करते हैं जिनका खर्च लाखों में आता है और एक माहौल बन जाता है। किसी से छुपा नहीं है कि इन सभाओं में भीड़ किराये की भी होती है। दीवार लेखन तो जनता की आवाज ही मानी जाती थी लेकिन यह लगभग बंद ही है। पोस्टर लगाने के लिए तमाम तरह की बंदिशें है लेकिन बड़े बड़े हॉर्डिंग और फ्लेक्स के लिए कोई बंदिश नहीं है। आकार के हिसाब से पैसे दीजिये और जितने मर्जी होर्डिंग लगाइये।
चुनाव आयोग ने भी आधिकारिक तौर पर लोकसभा चुनाव लड़ने वाले अभ्यर्थी के लिए चुनावी खर्च की अधिकतम सीमा 95 लाख रुपए निर्धारिक की है। कितने ही भारतीयों के पास लाखों रुपये हैं, जो चुनाव में सरमायेदारों की राजनितिक पार्टियों के धनी उम्मीदवारों के धन और बल का सामना कर पाएं। और यह तो है आधिकारिक सीमा। हम सब जानते हैं प्रत्येक चुनाव में करोड़ों रुपये खर्च किये जाते हैं। चुनाव प्रचार में काले धन का भी खुल कर प्रयोग होता है। यह एक नंगा सच है जो चुनाव आयोग और चुनाव से सम्बंधित अन्य संस्थाओं को नहीं दिखता या फिर वह देखना ही नहीं चाहती। जनता तो सब जानती है। वो बात अलग है कि सब जानने के बावजूद भी धनबल से पैदा किये गए वातावरण से प्रभावित होकर उन्हीं उम्मीदवारों को चुनती है।
भाजपा सरकार ने चुनावी बांड की व्यवस्था करके संसद लगभग अमीरों और उनकी पार्टियों के लिए आरक्षित ही कर लिया था। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक करार दिया और ख़रीदे गए सभी बांड का हिसाब जनता के सामने रखने का फैसला दिया। कोशिश तो पूरी की गई कि भ्रष्टाचार का यह दलदल जनता से छुपा रहे जिसका दीमक लोकतंत्र को भीतर से खा जाता लेकिन अदालत ने कॉर्पोरेट और भजपा के नापाक गठजोड़ के मंसूबो पर पानी फेर दिया। गौरतलब है कि यह मज़दूर, किसानों, खेत मज़दूरों और आम जनता के संघर्षो का प्रतिनिधित्व करने वाली वामपंथी पार्टियों में विशेषतौर पर CPIM थी जो इस मुद्दे पर अन्य लोगों के साथ अदालत में न केवल याचिकर्ता बनी बल्कि लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए चुनावी बांड के जरिये एक रूपया भी चंदे में नहीं लिया।
चुनाव प्रक्रिया की सीमाओं और भारत के चुनाव आयोग द्वारा आचार संहिता के अनुसार चुनाव कराने में विफलता के बावजूद, आम लोग अभी भी मानते हैं कि वे अपने बीच से अपने प्रतिनिधियों का चुनाव कर रहे हैं। उन्हें आशा होती है कि चुनाव के बाद उनमें से चुने हुए प्रतिनिधि उनके दर्द और समस्या को समझेंगे और उनके हित में काम करेंगे लेकिन प्रत्येक चुनाव के बाद आम जन बौना होता नज़र आता है। लेकिन भाकपा माले और सुदामा प्रसाद ने इन उम्मीदों को एक बार फिर से जगाया है।
*1989 के लोस चुनाव में हुए नरसंहार के बाद चर्चा में आए सुदामा प्रसाद*
1989 में लोकसभा चुनाव के वक्त वोट डालने को लेकर बिहटा में दलितों और ऊंची जातियों के बीच में सुबह सात बजे झगड़ा हुआ जिसमें पांच ऊंची जाति के लोगों की हत्या हुई, बाद में शाम को 22 दलितों की हत्याएं हुईं। चारू ग्राम में रहने वाले ददन पासवान कहते हैं, “इसके बाद 1994 में पार्टी (भाकपा माले) के नेतृत्व में 17 दिन का धरना हुआ, उस धरना में सुदामा प्रसाद भी थे, इस धरने के बाद हम सभी 78 परिवारों को ज़मीन का पर्चा मिला और हमने बिहटा से अलग अपना घर बनाया।” “हम लोगों ने इसका नाम चारू ग्राम रखा, यहां से 30,000 रुपये इकठ्ठा करके पार्टी को दिए हैं, यहां रहने वाले लोग मज़दूरी करके पालन पोषण करते हैं,ग़रीबों की पार्टी है तो उसे तो मदद करनी ही होगी।”
दरअसल भोजपुर का इलाका ‘बिहार के नक्सलबाड़ी’ आंदोलन के गढ़ के रूप में जाना जाता है। इस इलाके में भाकपा माले का प्रभाव 70 के दशक से ही रहा है। भाकपा माले के राज्य सचिव कुणाल कहते हैं, “हमने लगातार ग़रीबों की लड़ाई लड़ी। उनके वोट देने के अधिकार से लेकर उनकी खेती किसानी, मज़दूरी के सवालों पर हम लड़ते रहे और यहां से विधानसभा चुनाव जीतते रहे। इससे पहले 1989 में आरा लोकसभा सीट से हमारी पार्टी के रामेश्वर प्रसाद ने जीत हासिल की थी। बीच वक्त में अति पिछड़ों और छोटे व्यवसायियों का समर्थन हमें नहीं था। अति पिछड़े नीतीश के साथ थे लेकिन इस बार वो हमारे साथ आए।”
*लोगों के सहयोग से ही लड़ते हैं वामपंथी!*
वामपंथी पार्टियों के चुनाव लड़ने का पैटर्न देखें तो ये आम तौर पर लोगों के सहयोग से चुनाव लड़ते हैं। भाकपा माले ने इस सिस्टम को अबकी बार ज़्यादा सुनियोजित तरीक़े से किया और बाकायदा 20, 50 और 100 रुपये के कूपन छपवाए। राज्य सचिव कुणाल कहते हैं, “ हमारी पार्टी हर बार इसी तरीक़े से चुनाव लड़ती है। लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव से पहले जब इलेक्टोरल बांड चर्चा में आया तो हमने उसी तर्ज़ पर अपने खास कूपन निकाले।” लेकिन क्या दो बार विधायक रहे व्यक्ति को आम लोग आसानी से चंदा दे देते हैं? इस सवाल का जवाब भाकपा माले के तरारी ब्लॉक स्थित दफ्तर में मिलता है। यहां ब्लॉक कमिटी के सदस्य राम दयाल पंडित टीन की छत और एक झूलते हुए पंखे के नीचे बैठे हैं। इस भीषण गर्मी में उनकी आंखों के नीचे बार बार पसीने की बूंदें जम जा रही है। राम दयाल बीबीसी से कहते हैं, “यहां 19 पंचायत हैं। हम लोग जाते थे तो लोगों का सवाल रहता था कि इतने दिन विधायक रहे तो चंदा काहे ले रहे। तो हमें लोगों को समझाना पड़ता था कि हम जनता के सहयोग से ही चुनाव लड़ते हैं ताकि जनता का अधिकार हम पर बना रहे। हम लोगों को हर पंचायत से 50,000 रुपये जुटाने का लक्ष्य मिला था जिसमें हम कहीं सफल हुए और कहीं असफल।”
सुदामा प्रसाद, अगिआंव विधानसभा के पवना गांव के हैं। गांव की 70 साल की शांति देवी खेत मज़दूरी करती थीं। 20 रुपये का कूपन दिखाते हुए वो कहती हैं, “पहले इधर उधर जाते थे तो सामंती ताकत वाले लोग कुछ भी बोल देते थे, लेकिन अब उनका इतना पॉवर नहीं रह गया। पार्टी मज़बूत रहेगी तभी ना हम लोग ज़िंदगी जियेंगे।” पवना गांव की ही मुन्नी देवी ने भी 20 रुपये का कूपन ख़रीदा है। अपने छोटे बच्चे को गोद में उठाए मुन्नी कहती हैं, “बरियारी (जोर ज़बरदस्ती) से पैसे नहीं दिए हैं। तीन तारा (भाकपा माले का चुनाव चिन्ह) पर वोट डाला है कि सुदामा जी खेत मज़दूरों के लिए कुछ करेंगे।” इस गांव में कूपन काटने की ज़िम्मेदारी विष्णु मोहन पर थी। वो बताते हैं, “पवना में यादव, कुशवाहा, राजपूत सहित कई जाति के लोग रहते हैं। हम लोग सभी का वोटिंग पैटर्न जानते हैं। उसी के हिसाब से हम कूपन काटने गए और लोगों ने खुशी खुशी हमें चंदा दिया। यहां 10,000 रुपये का चंदा इकट्ठा हुआ।” पवना गांव के ही सुदेश कुमार चंद्रवंशी बाज़ार में मुर्गा बेचते हैं। वो कहते हैं, “हम भी नेताजी को 20 रुपये चंदा दिए हैं। उम्मीद करते हैं कि वो शिक्षा और रोज़गार के मसले पर काम करेंगे। शिक्षा का बिहार में बहुत बुरा हाल है”
दरअसल आरा के अरवल सड़क स्थित पवना बाज़ार सुदामा प्रसाद के जीवन का टर्निंग प्वाइंट है। इसी बाज़ार में उनकी छोटी सी मिठाई की दुकान है। 1980 के आसपास उसी दुकान पर एक स्थानीय दरोगा से चाय के दाम को लेकर तक़रार हुई थी। सुदामा प्रसाद याद करते हैं, “उस वक्त महेन्द्र सिंह नाम के दरोगा आए और आठ स्पेशल चाय के लिए बोले। उनसे चाय के चार रुपये मांगे गए तो वो नाराज हो गए कि इतनी महंगी चाय कहीं नहीं मिलती। उन्होंने पैसे तो दे दिए लेकिन साथ में धमकी भी दे गए। बाद में हमारी दुकान के सामने एक हत्या हुई जिसमें उन्होंने पिताजी, चाचाजी और मुझको जेल में डाल दिया। 81 दिन हम लोगों को जेल में रखने के बाद छोड़ दिया गया।” इस घटना के बाद सुदामा प्रसाद ने खुद को सामाजिक जीवन में झोंक दिया। उन्होंने यूपी, बंगाल, अविभाजित बिहार में जगह-जगह मंचित होने वाले नाटकों में अभिनय किया तो सोन नहर के पक्कीकरण, आरा-सासाराम बड़ी रेल लाइन, फुटपाथ के दुकानदार, भोजपुर में विश्वविद्यालय की स्थापना के सवाल पर 1984 से ‘भोजपुर जगाओ, भोजपुर बचाओ’ अभियान चलाया। इस दौरान वो कई बार जेल गए। 1990 में उन्होंने जेल में रहते हुए आरा विधानसभा से अपना पहला चुनाव लड़ा, जिसमें वो अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी वशिष्ठ नारायण सिंह से 4,000 वोटों से हार गए। इसके बाद भी वो कई बार चुनाव लड़े लेकिन सफलता मिली 2015 बिहार विधानसभा चुनाव में। उन्होंने आरा तरारी विधानसभा चुनाव मात्र 272 वोट से जीता, लेकिन साल 2020 के विधानसभा चुनाव में जीत का मार्जिन बढ़कर 12,000 हो गया।
कूपन के अलावा आरा लोकसभा क्षेत्र में भोजपुरी भाषी गीतों के जरिए भी भाकपा माले ने प्रचार किया। यानी पार्टी ने कल्चरल कैंपेनिंग भी बहुत आक्रामक तरीके से की। इस कैंपेनिंग का ज़िम्मा समता, राजू रंजन और कृष्ण कुमार निर्मोही ने उठाया जो बीते कई दशकों से पार्टी का सांस्कृतिक संगठन संभालते रहे हैं। कृष्ण कुमार निर्मोही गीत लिखते और गाते हैं। वो बताते हैं, “हम सालभर लोगों के बीच ही रहते हैं, इसलिए हमें लोगों की समस्या मालूम होती है। चुनाव से पहले इन्हीं समस्याओं पर गीत लिखे गए। हम कहीं भी गीत गाना शुरू कर देते थे जहां दस बीस लोग बैठे हों। गीत गाने के साथ-साथ कूपन भी कटवाते जाते थे।” पार्टी से जुड़े कलाकारों के गाने भी रिकॉर्ड कराए गए ताकि खर्च कम हो। सोशल मीडिया पर उपस्थिति बढ़ाने का भी सहारा लिया गया।
दरअसल जवाबदेही सुदामा प्रसाद की यूएसपी रही है। 2015 में विधायक बनने के बाद वो अपने विधानसभा क्षेत्र में विधायक निधि से मिली राशि और इलाके में हुए ख़र्च के ब्यौरे का रिकॉर्ड जारी करते थे। इसके अलावा उन्होंने पुस्तकालय समिति का अध्यक्ष रहते हुए बिहार विधानसभा के 100 वर्ष के इतिहास में पहली बार पुस्तकालयों पर रिपोर्ट पेश की।
बतौर कृषि उद्योग विकास समिति के अध्यक्ष उन्होनें बटाईदार किसानों को पहचान पत्र देने की मांग की। 63 साल के सुदामा प्रसाद के इन छोटे-छोटे क़दमों से उनके पक्ष में मजबूत गोलबंदी हुई। सहार प्रखंड के मथुरापुर के राणा प्रताप सिंह कहते हैं, “2016 तक हम अपना धान 1000 रुपये प्रति क्विंटल व्यापारी को बेच देते थे। क्योंकि बटाईदार से पैक्स धान नहीं ख़रीदता था। लेकिन विधानसभा में सुदामा के सवाल उठाने के बाद हमारा धान अब पैक्स ख़रीदता है। जनवरी 2024 में हम अपना अनाज 2,183 रुपये प्रति क्विंटल पर पैक्स को बेचा है।”
सुदामा प्रसाद ने शोभा मंडल से अंतरजातीय विवाह किया है। शोभा मंडल महिला संगठन ऐपवा (ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वीमेन्स एसोसिएशन) से जुड़ी हुई हैं। इनके दो बेटे हैं जिसमें से एक पटना हाईकोर्ट में असिस्टेंट सेक्शन ऑफिसर हैं। आरा लोकसभा के लिए ब्लूप्रिंट के सवाल पर सुदामा कहते हैं, “मेरी प्राथमिकता है कि खेती को लाभदायक बनाया जाए, कृषि आधारित कल कारखाना आरा में लगवाना, नोटबंदी के चलते व्यवसायी वर्ग बहुत परेशान है तो उसके लिए व्यवसायी आयोग का गठन और शहरी –ग्रामीण ग़रीबों का जीवन गरिमामय बनाना, ये कोशिश होगी।”
*बढ़ते धनकुबेरों के बीच, जनता का यह कैसा शासन?*
लोकतंत्र, जनता के द्वारा, जनता के लिए और जनता का शासन कहा जाता है। लेकिन बढ़ते धनकुबेरों के बीच, जनता का यह कैसा शासन है?
देखा जाए तो, इस बार के आम चुनाव में निर्वाचित सांसदों की घोषित संपत्ति पर नज़र डालने से यही पता चलता है कि यह जनता का शासन नहीं है। चुनावी अधिकार संगठन, एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) के एक विश्लेषण के अनुसार, 2024 लोकसभा चुनावों में जीतने वाले 93 प्रतिशत उम्मीदवार करोड़पति हैं, जो 2019 में 88 प्रतिशत थे। 93% का मतलब कुल 543 विजयी उम्मीदवारों में से 504 करोड़पति हैं। अगर पार्टीवार इसका आंकलन करें तो भाजपा के 240 विजयी उम्मीदवारों में से 227 (95 प्रतिशत) और कांग्रेस के 99 में से 92 (93 प्रतिशत) उम्मीदवारों ने 1 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति घोषित की है।
इसी तरह डीएमके के 22 में से 21 (95%), टीएमसी के 29 में से 27 (93%), समाजवादी पार्टी के 37 में से 34 (92%) उम्मीदवारों ने 1 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति घोषित की है। तीन सबसे धनी सांसद आंध्र प्रदेश के गुंटूर निर्वाचन क्षेत्र से टीडीपी के चंद्रशेखर पेम्मासानी हैं जिनकी संपत्ति 5,705 करोड़ रुपये है, तेलंगाना के चेवेल्ला से बीजेपी के कोंडा विश्वेश्वर रेड्डी जिनकी कुल संपत्ति 4,568 करोड़ रुपये है, और हरियाणा के कुरुक्षेत्र से बीजेपी के नवीन जिंदल जिनकी संपत्ति 1,241 करोड़ रुपये है। अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन के उप सचिव डॉ. विक्रम सिंह के अनुसार, विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि सरमायेदारों की सभी राजनीतिक पार्टियां करोड़पतियों से ही भरी पड़ी है। गजब तो यह है कि आम आदमी पार्टी जो अपने को अलग और आम लोगो की राजनीती की वाहक बताती है के सभी (3) विजयी उम्मीदवार करोड़पति हैं, इसके साथ जेडीयू (12) और टीडीपी (16) के भी सभी विजयी सांसद करोड़पति हैं। विडम्बना यह है कि केवल लगभग 1% विजयी सांसदों के पास 20 लाख रुपये से कम की संपत्ति है। 99% सांसदों के पास 20 लाख रुपये से ज्यादा की संपत्ति है तो समझा कि यह सांसद आम जन में से चुन कर नहीं आये हैं।
यही हालात राज्यसभा सांसदों के भी हैं। राज्यसभा में तो राजनैतिक पार्टियों की प्राथमिकता ज्यादा साफ़ नज़र आती है क्योंकि यहाँ उम्मीदवारों का चुनाव करते हुए जनता में जितने का दबाव नहीं होता। मोटे तौर पर विधान सभाओं में पार्टियों की ताकत के अनुसार सीटें मिलती हैं। मार्च 2024 में राजसभा सांसदों की औसत संपत्ति 87.12 करोड़ रुपये है। इसमें भी भाजपा जो कि अब खुले तौर पर अमीरो की पार्टी है और कॉर्पोरेट के लिए नीतियां बनाती है, के सांसदों (कुल 80 सांसद) की औसत सम्पति 37. 34 करोड़ है। यही नहीं, पिछले कुछ वर्षो में पूंजीपतियों ने अपनी क्षेत्रीय पार्टियां बनाई हैं। तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के चुनावो में जितने बड़े स्तर पर धन का प्रयोग होता है उसका एक प्रतिविम्ब वहां से आने वाले राज्य सभा सांसदों की सम्पति से चलता है। YSRCP के सांसदों की औसत सम्पति 357.68 करोड़ रुपये और TRS के सांसदों की औसत सम्पति 1383.74 करोड़ रुपये है। आम आदमी पार्टी के सांसदों की औसत सम्पति भी 114. 81 करोड़ रुपये है। राज्य सभा के कुल सांसदों में से 14% तो खरबपति हैं जिनकी सम्पति 100 करोड़ रुपये से ज्यादा है।
एक जायज चिंता जो इस चुनाव बाद उभर कर आई है वह है अल्पसंख्यकों विशेष तौर पर मुस्लिम समुदाय की संसद में घटती हिस्सेदारी। इस लिहाज से अठारहवीं लोकसभा में छह दशकों में मुस्लिम सांसदों की हिस्सेदारी सबसे कम है। वर्तमान में इसके 5% से भी कम सदस्य मुस्लिम हैं । कुल मिलाकर, वर्तमान में लोकसभा में 24 मुस्लिम सांसद (4.4%) हैं। 2024 में तथाकथित सबसे अधिक सदस्यों वाली पार्टी, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में फिलहाल मुस्लिम समुदाय से कोई प्रतिनिधि नहीं है। यह कोई संयोग नहीं है कि भाजपा की देश में बढ़ती ताकत और संसद में इसके सांसदों की बढ़ती संख्या के साथ 1990 के दशक से ही लोकसभा में मुस्लिम सांसदों की हिस्सेदारी में गिरावट हुई।
दूसरा चिंता का विषय मोदी सरकार द्वारा संसद के लिए महिला आरक्षण का पूरा श्रेय और चुनाव में इसका लाभ भुनाने के बावजूद वर्तमान लोकसभा में केवल 13.6% महिलाएं हैं। अठारहवीं लोकसभा में केवल 74 महिला सांसद चुन कर आई हैं। इसके बारे में चर्चा हो रही है। असल में सामाजिक न्याय के लिए चिंता करने वालो से लेकर उत्तराधुनिकतावाद के पुरोधा इस पर गहरी चिंता जताते हैं लेकिन जब बात आती है करोड़पति जमात द्वारा संसद को हथियाने की तो कोई सवाल नहीं पूछता। यह बड़ा ही मजेदार विकासचक्र है जहां करोडों आम नागरिकों का प्रतिनिधित्व करोड़पति करेंगे। जिनके पास संसाधन है, जिनमें से एक छोटा हिस्सा पूरे देश की सम्पति पर कब्ज़ा करके बैठा है, जो देश के प्राकृतिक और मानव (श्रम) संसाधनों का शोषण कर अथाह मुनाफा कमा रहे हैं, वही जीत कर संसद में पहुँच रहे हैं। देश के मज़दूर, किसान और दूसरी मेहनतकश जनता, जिनके श्रम का शोषण करके ही इन करोड़पतियों ने मुनाफे अर्जित किये हैं, वह अपनी चुनी संसद से क्या आश लगाएं। जब शोषक ही अपने धन बल से नीतियां बना रहा है तो फिर श्रम कानूनों को खत्म कर श्रम सहिंता का झुनझुना ही मज़दूरों को मिलेगा और संसद का काम है इसे जायज ठहरना।
यही कारण है कि संसद देश की जनता का रक्षक नहीं बल्कि मुट्ठीभर अमीर वर्ग के हित साधने का साधन बन गया है। इसका यह मतलब नहीं है कि हमारा जनता की ताकत में विश्वाश नहीं है। लोकतंत्र की इन तमाम कमजोरियों के बावजूद जनता में अथाह ताकत है। उसी ताकत का नतीजा है कि इन करोड़पति सांसदों से भरी संसद को जनता के पक्ष में निर्णय लेने पड़ते हैं। जब संसद सही निर्णय नहीं लेता तो जनता सड़क के संघर्ष के जरिये उसे बदलती भी है और अपने अनुभवों के आधार पर चुनावों में जनता विरोधी नेताओं को सबक भी सिखाती है। यही लोकतंत्र की ताकत है। लेकिन करोड़ों रुपये खर्च करके चुनाव प्रबंधन एजेंसियां और उनके आका चुनाव के पूरे नतीजों को प्रभावित करने का दम भरते हैं। यही नहीं, बड़े ही कमीनेपन के साथ जातीय और धार्मिक पहचान का राजनीतिक प्रयोग करके जनता के मतों को प्रभावित करते हैं। देखा जाये तो चुनाव प्रबंधन एजेंसियां लोकतंत्र की मूल अवधारणा के खिलाफ हैं। उन्हें कोई हक़ नहीं है कि पैसे, पहचान की राजनीती और सोशल मीडिया (तकनीक और अब कृत्रिम बुद्धिमत्ता, के जरिये जनता के चुनाव को प्रभावित करने का। वह तस्वीर बनाते हैं जहाँ जनता अपने अनुभवों, दुःख- तकलीफो और जीवन के जुड़े मुद्दों के आधार पर उम्मीदवार चुनती है लेकिन असल में यह विकल्प भी उसी वर्ग में से होता है। चुनने के बाद केवल चेहरे बदलते हैं न कि उनका वर्गीय चरित्र और नीतियां भी फिर अपने वर्ग के लिए ही बनती है।
चुनाव के लिए सरकारी फंडिंग हो सकता है एक कारगर तरीका
लोकतंत्र को पैसे की ताकत से बचाने का रास्ता क्या है? इसके लिए हमारे देश में तत्काल चुनाव सुधार करने होंगे। राजनीतिक पार्टियों के लिए कॉर्पोरेट चंदे पर रोक लगनी चाहिए और चुनाव के लिए सरकारी फंडिंग होनी चाहिए। यह एक जरिया है सबके लिए बराबर का मैदान तैयार करने का। दूसरा, इस कुचक्र से निकलने और लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए जनता की राजनैतिक चेतना का विकास बहुत जरुरी है। शिक्षा और प्रचार के साथ जनता के अपने संगठनों में संघर्षो से अर्जित अनुभव बहुत जरुरी है। अपने वर्ग के साथ अपने मुद्दों पर संघर्ष करते हुए जो वर्गीय चेतना पैदा होती है वही सामना कर पाती है चुनावों में धनबल द्वारा सृजित किये गए सम्मोहित करने वाले वातावरण का जिसमें लोग अपने सही प्रतिनिधि का चयन करते हैं। जो आरा की जनता ने कर दिखाया है।
साभार : सबरंग