अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

ये सब मुफ्त लीजिए, बदले में वोट दीजिए

Share

उमेश चतुर्वेदी

साल 1952 में हुए पहले चुनाव से लेकर अब तक के तमाम चुनावों में एक बात कॉमन है। हर चुनाव में राजनीतिक दल उन सहूलियतों के वायदे पर ही वोटरों को लुभाने की कोशिश करते रहे हैं, जिन्हें संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में शामिल किया गया है। भारत जैसे देश में जहां आर्थिक और सामाजिक असमानताएं आज भी हैं, चुनावी वायदों को लोककल्याणकारी राज्य के तकाजों के अनुरूप माना जाता रहा है। लेकिन हाल के वर्षों में लोककल्याण के नाम पर हो रही मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने वाले चुनावी वायदों का ट्रेंड तेजी से बढ़ा है। हालांकि इस ट्रेंड पर सवाल भी उठने लगे हैं। पूछा जा रहा है कि आखिर कब तक पार्टियां मुफ्तखोरी बढ़ाते वायदों के सहारे चुनावी वैतरणी पार करती रहेंगी। यह अलग बात है कि इन सवालों के बावजूद फिलहाल इस ट्रेंड के थमने के कोई लक्षण नहीं दिख रहे।

सौगात की सियासत

पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों पर ही नजर डालें तो तमाम दल गुजारा भत्ता देने से लेकर बिजली-पानी का बिल माफ कराने तक भांति-भांति के वादे कर रहे हैं। हाल के वर्षों में ऐसे वायदे बहुत कारगर भी रहे हैं। दक्षिण में साड़ी, एक रुपये किलो चावल और बेटी की शादी में बीस हजार रुपये से शुरू हुए ये एलान देखते ही देखते दिल्ली में मुफ्त बिजली और पानी तक पहुंच गए। आगामी चुनावों की बात करें तो गोवा, पंजाब और उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी मुफ्त बिजली-पानी के साथ ही महिलाओं को मासिक भत्ता भी देने की बात कर रही है। कांग्रेस और अन्य दल भी इसमें पीछे नहीं हैं।

मुफ्तिया वायदे का यह सवाल जन प्रतिनिधित्व कानून पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के सामने भी उठा था। इस पर जुलाई 2013 में कोर्ट ने कहा था कि चुनावी घोषणापत्र में किए गए वायदों को जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 के हिसाब से भ्रष्टाचार या गलत कार्य नहीं कहा जा सकता। लेकिन साल 2018 में मद्रास हाईकोर्ट ने ऐसे ही एक मामले पर सुनवाई करते हुए कहा था, ‘मुफ्तखोरी से लोग आलसी होते जा रहे हैं।’

मुफ्तखोरी वाली घोषणाओं पर पहली बार सवाल नब्बे के दशक में उठे थे, जब हरियाणा विधानसभा चुनाव के बाद ओमप्रकाश चौटाला ने राज्य में किसानों के बिजली बिल माफ कर दिए थे। हरियाणा बिजली बोर्ड की माली हालत पहले से ही खराब थी, इस फैसले के बाद वह और बदहाल हो गया। हालांकि सभी राज्यों के बिजली निगमों की हालत कमोबेश ऐसी ही है। इसकी मुख्य वजह भी बिजली बिल माफ करने के वादों का चलन ही है।

दिल्ली में परिवहन निगम का घाटा भी किसी से छुपा नहीं है। दिल्ली विधानसभा के आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) का कामकाज घाटा 1750.37 करोड़ रुपये तक पहुंच गया था। उत्तराखंड का बिजली निगम भी अरबों के घाटे में है। पंजाब की भी हालत कुछ अच्छी नहीं है। इसके बावजूद लगातार हर राजनीतिक दल अपनी तरफ से भत्ते, बिजली, पानी, लैपटॉप, मुआवजा, आदि तरह-तरह की सौगातें देने के वायदे कर रहा है।

मुफ्तखोरी की यह व्यवस्था राजकोष को जबर्दस्त चोट पहुंचाती है। यही वजह है कि रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर सी रंगराजन ने साल 2019 में कहा था कि कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए मुफ्त में सामान बांटना या कर्ज माफ करना देश के आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न कर सकता है। दुर्भाग्यवश इस तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है।

सत्ता को साध्य मानने वाले इस दौर में राजनीतिक चलन ऐसा हो गया है कि मुफ्तखोरी के वायदे का झोल समझने वाले दल भी इसी बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं। उन्हें भी लगता है कि अगर उन्होंने वायदे नहीं किए तो उनके हाथ से सत्ता निकल जाएगी। मतदाताओं का बड़ा वर्ग भी इस चलन को समझने लगा है। लेकिन उसका रवैया भी लगे हाथों फायदा उठा लेने का है। बिजली-पानी के बिल या सस्ते कर्ज का भुगतान हैसियत होते हुए भी वह इस उम्मीद में टालता रहता है कि चुनावों के ठीक पहले उसे माफी मिल ही जाएगी।

इसमें शक नहीं कि लोककल्याण का भाव समाज के हर तबके के कल्याण में निहित होता है। ऐसे में जो पिछड़े रह गए हैं, जो इलाके विकास से वंचित हैं, उन्हें सहयोग तो मिलना ही चाहिए। इस पर संजीदा लोगों को शायद ही एतराज हो। लेकिन समाज में मुफ्तखोरी की आदत बढ़ाने से यह मकसद पूरा नहीं होता।

मुफ्तखोरी का चलन राज्यों के कोष पर दबाव बढ़ा रहा है। यह दबाव बाद में केंद्र और राज्यों के बीच नए झगड़ों की वजह भी बनता है। मुफ्तखोरी के वायदे के चलते जब राज्यों की अपनी अर्थव्यवस्था हांफने लगती है तो वे केंद्र से अतिरिक्त मदद की आक्रामक मांग पर उतर आते हैं। चाहे किसी भी पार्टी की सरकार हो, केंद्र की भी ऐसी मांगों के संदर्भ में अपनी सीमाएं होती हैं। राज्यों की हर मांग को पूरा करना उनके लिए संभव नहीं होता। फिर इसे लेकर राजनीतिक खींचतान शुरू होती है।

आयोग करे पहल

अब वक्त आ गया है कि मुफ्तखोरी और लोककल्याण के भाव के बीच की महीन लकीर को स्पष्ट किया जाए। इसे स्पष्ट करने का दायित्व चुनाव आयोग और न्यायपालिका को ही निभाना होगा। कार्यपालिका वोट बैंक के चक्कर में इस तरफ ध्यान देने से रही। अगर राजनीतिक दलों में एकराय हो तो बात बन भी सकती है, हालांकि ऐसी पहल करने का उनके लिए खतरा भी है। जो दल इस लकीर को स्पष्ट करने की कोशिश करेगा, उसे जनविरोधी होने का आरोप भी झेलना पड़ सकता है। इसलिए उम्मीद चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट से ही की जा सकती है। आखिर हाल के दिनों में जितने भी चुनाव सुधार हुए हैं, सब इन्हीं दोनों संस्थाओं की ही पहल का परिणाम हैं।

Recent posts

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें