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उस दिन मुझे अज़ीम अख़्तर की दूसरी शख्सियत से मिलने का मौक़ा मिला! 

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प्रोफेसर राजकुमार जैन*                                                                                                                                                                                                                             

              *(भाग-2)

 *मै उर्दू लिपि से वाकिफ़ नहीं हूं, लेकिन मैं अज़ीम अख़्तर का उस मायनो में शुक्रगुजार हूं के इन्होंने हिंदी लिपी में अपनी लिखी किताब “उर्दू तो बे-ज़ुबान है किससे करें सवाल” मुझे पढ़ने को दी  जिसके कारण मुझे उर्दू दुनियां और उर्दू अदब, मुशायरों, सेमिनारों, तंज़ीमों और सरकारी मदद से चलने वाली उर्दू की संस्थाओं के बारे में भरपूर जानकारी हासिल हुई!* 

बे-ख़ौफ़, बे-लॉस और अपने इल्मी ज्ञान पर आत्मविश्वाश रखने वाले अज़ीम अख़्तर ने उर्दू दुनियां में उर्दू ज़बान के नाम पर पर्दे के पीछे हो रही सियासत, छल-फरेब की जिस अंदाज़ से बखिया उधेड़ी है, वो इंक़लाबी मिज़ाज का इंसान ही कर सकता है। इन्होंने अपनी इस किताब की भूमिका में  लिखा है के: “दिल्ली में गंगा जमुनी तहज़ीब की अमीन इस ज़बान को तहफ़्फ़ुज़ व फ़रोग़ देने के बुनयादी मक़सद से उर्दू अकादमी का जन्म हुआ और ज़च्चा घरों में ( नो-मौलाद) बच्चे को हाथों-हाथ लेने वाली नर्सों की तरहां यहां भी दानिशगाहों के शोबे (हय) उर्दू के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर और नक़्क़दों ने ( नोमवललूद ) उर्दू अकादमी को अपने हाथों में लेकर इसके प्लेटफार्म से उर्दू को अवामी सतह पर फ़रोग़ देने के लिए बुनयादी और ठोस कदम उठाए जाने की बजाए उर्दू दुनियां में अपनी हैसियत तस्लीम करने या दूसरे लफ़्ज़ों में अपना लोहा मनवाने के लिए अपने दोस्तों और हवालियों-मवालियों को अकादमी से हर-किस्म का फायदा पहुंचाने के साथ, सालाना अवार्ड्स व इनामात का सिलसिला शुरू करके, अपनी सरपरस्ती की क़ीमत वसूल करनी शुरू की, तो हमें पहली बार इस्तेहसाल की मानवियत का एहसास हुआ! दिल्ली उर्दू अकादमी ही क्या! उर्दू की तरक्की के  फ़रोग़-ओ-तहफ़्फ़ुज़ के नाम पर  हर नीम-सरकारी इदारे की सरगर्मियां उर्दू के तबक़े-अशराफिया के इस्तेहसाल से आज़ाद नहीं हैं! *’अज़ीम अख़्तर को मुसलमानों की पहचान केवल उर्दू और शायरी तक महदूद रखने तक पर सख़्त ऐतराज़ है! “आला समाजी हलक़ों की हाईफाई पार्टियों में उर्दू पढ़े-लिखे मुसलमान पहुंचे तो बड़ी बे-तकल्लुफी से शेर सुनने सुनाने की फरमाइश शुरू हो जाती है! गोया उर्दू शायरी मुसलमानों तक ही महदूद हैं!* “इसी-तरहां एक और संदर्भ में  अज़ीम बड़े तल्ख़ अंदाज़ में लिखते हैं: उर्दू के नाम पर खाने-कमाने शोहरत और अवार्ड्स वगैराह हासिल करने की एक मैराथन रेस जारी है! जिसमें एक आम उर्दू लिखने-पढ़ने और बोलने वाला एक ख़ामोश तमाशाई की तरहां खड़ा हुआ रेस के नज़र ना आने वाले विनिंग-पॉइंट की उर्दू के नामी विद्वान मोतबर व मुस्तनद समझे और कहे जाने वाले शायरों, अदीबों, नक़्क़दों को (बे-मुहाबा)दौड़ते हुए देख रहा है! 

 *आज के मुशायरों के गिरते हुए स्तर और नोटंकी की झलक पेश करने वाले शायरों पर बेबाकी से कलम चलाते हुए अज़ीम अख़्तर लिखते हैं :* मुशायरों के हवाले से उर्दू को फ़रोग़ देने और इसकी ख़िदमत का पुर-फरेब तास्सुर क़ायम करने या दूसरे लफ़्ज़ों में झांसा देने वाले मुशायरा-बाज़ शायरों और स(नाम-निहाद) शाएरात ने मुशायरों से ज़्यादा पैसा कमाने के लिए इसकी  हरिवायतों को जिस तरहां मस्ख  किया है! हल्की-फुल्की और गैर-मयारी शायरी को तरन्नुम के पर्दे में गायकी और तहत के नाम पर  पट्टेबाज़ों की तरहां हवा में हाथों को लहराने और नोटंकी के अदाकारों की तरहां चीख़-चीख कर शेर सुनाने की जिन बिद्दतों को जन्म दिया है,  इसे पचास-साठ साल पहले तक सोचा भी नहीं जा सकता था। 

लेखक अज़ीम अख़्तर के इस व्याकरण, सिद्धान्त और शैली  में बंधी परम्परागत सोच का असल कारण इनकी घुट्टी में मिली हुई तालीम और संस्कृति है, जो इनको अपने वालिद से मिली है!

 *इनकी शख्सियत का,एक और* *रुप भी कम आकर्षक नहीं है!* किसी भी इंसान का एक विद्वान  होना एक बड़ी बात है! लेकिन, ख़ालिस विद्वान होने की वजह से वो आईडियल नहीं बन सकता! जबतक उसके किरदार में ईमानदारी और दूसरों के लिए जज़्बा ना हो, तब तक वो किताबी इल्म तक ही महदूद रह जाता है! अज़ीम अख़्तर केवल *अच्छे लेखक और उर्दू ज़बान-व-अदब के आलिम ही नहीं, इसके साथ-साथ दिल्ली ब्यूरो-क्रेसी के एक ज़िम्मेदार और आला ओहदे-दार भी रहे हैं! वो एडिशनल डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट के ओहदे से रिटायर्ड हुए हैं! मैं उस दिन दंग रह गया जब ओखला के ज़ाकिर नगर मैं इनके घर गया! जाने से पहले मेरा ख्याल था के दिल्ली सरकार के आला ओहदे पर रहने वाले शक़्स का घर खूबसूरत बड़े आकार वाला  होगा! लेकिन, जब इनके घर की सीढ़ियों पर चढ़ने लगा, तो मुझे यक़ीन ही नहीं हुआ कि मैं एक भूतपूर्व ए.डी.एम के घर जा रहा हूं! मुझे लगा की मैं गलत नंबर पर आ गया हू कई मंज़िल अति-साधारण सी बिल्डिंग के एक छोटे से फ्लैट की जब मैंने घंटी बजाई, तो हमेशा की तरहां पान खाए हुए अफ़सरान अंदाज़ से शर्ट-पैंट पहने हुए अज़ीम अख़्तर ने मुस्कुराते हुए मेरा इस्तक़बाल किया!* 

बामुश्किल पांच छ: लोगों की बैठने की बैठक में तीन चार हज़रात पहले से ही मौजूद थे! जो उर्दू में छपी एक किताब अज़ीम अख़्तर को थमाकर यह कहकर  रुखसत  हो गए के इनको पढ़कर अपनी राय ज़रूर नवाज़ दें। थोड़ी ही देर बाद दो अजनबी हज़रात पधारे, जो इनको किसी सैमिनार में  शिरकत करने के लिए दावत नामा देने आए थे मैं मुस्कुराकर चुप हो गया! क्योंकि,

 अज़ीम अख़्तर सैमिनार और कोंफ्रेंस के आदमी नहीं हैं! इनका ख़्याल है कि इस तरहां के सैमिनार और कोंफ्रेंस में सिर्फ़ जमा ख़र्च होता है और भाषण देने वाले भाषण दे कर ख़ुश हो जाते हैं! 

अज़ीम अख़्तर की शख्सियत की तरहां इनके घर का माहौल भी सादगी से भरा हुआ है! इनके दोनों पोतों और दोनों बेटों का मुस्कराते हुए आदर के साथ इस्तक़बाल करने से अंदाज़ा हो गया के *गंगा-जमनी तहज़ीब की परम्पराएं अभी भी इनके घर का हिस्सा बनी हुई हैं! पर्दानशीन बहुओं की तैयार की गई चाय मामूली कप में मिली तो एहसास हुआ के ईमानदार अफ़सर की यही पहचान है।* 

 *हालांकि, मैं उर्दू के हवाले से अज़ीम अख़्तर की कट्टरता और उनके ख्यालात से सहमत नहीं हूं! भाषा के मामले में इनका रूख संस्कृतनिष्ठ हिंदी-भाषी कट्टरपंथियों जैसा है, जबकि, गांधी जी की भाषा हिंदुस्तानी, हिंदी और उर्दू अवाम की भाषा बन सकती है और आम-फ़हम बोलचाल वाली हिंदुस्तानी उर्दू को ज़िंदा रख सकती है! मुझे फख्र है अपने दोस्त पर जो ना सिर्फ़ आला दर्जे का लेखक है बल्कि, ईमानदारी, सादगी, शराफ़त और संबंधों की गर्माहट को निभाने वाला इंसान भी है !!*

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