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इसलिए मुश्किल है कोरोना का भविष्य बताना

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गगनदीप कांग

हफ्ता भर पहले आए सीरो सर्वे से पता चलता है कि देश की 68 फीसदी आबादी कोविड के संपर्क में आ चुकी है। दूसरी लहर के पहले हुए सर्वे के जो आंकड़े आए थे, उससे बहुत ज्यादा है यह संख्या। उस सर्वे से जानकारी मिली थी कि कुछ शहरी इलाकों में आधी आबादी, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या का पांचवां हिस्सा वायरस से संक्रमित हो चुका है। नया सर्वे इस बात का भी संकेत है कि दूसरी लहर कितनी भयावह थी। लेकिन जरूरी नहीं कि तीसरी लहर की आशंका के बीच सर्वे की खबर अच्छी ही हो।

हां, यह जरूर है कि एक बड़ी आबादी वायरस के हमले को झेल चुकी है। ऐसे में जब तक कि कोई नया वैरिएंट नहीं आता, तब तक इस बात की आशंका नहीं है कि तीसरी लहर दूसरी जैसी होगी। लेकिन फिर भी चिंता की बात तो है। एक तिहाई लोगों को अब भी संक्रमण नहीं हुआ या उन्हें टीका नहीं लगा है। यह संख्या बहुत बड़ी है। इसके साथ देश में अब भी ऐसी परिस्थितियां बन सकती हैं, जिससे नए वैरिएंट्स उभरें।

विशेषज्ञता की जरूरत

कहा जा रहा है कि भारत में अगस्त से दिसंबर के बीच तीसरी लहर आ सकती है। पिछली दो लहरों को देखते हुए ऐसी बातें करना आकर्षक लग सकता है, लेकिन याद रखना चाहिए कि संक्रामक रोगों पर काम करने के लिए एक विशेषज्ञता की जरूरत होती है। ऐसे लोगों को वायरस, उससे प्रभावित लोगों और जगह के डेटा का बारीकी से विश्लेषण करना होता है। जो लोग ऐसा कर रहे हैं, केवल वही महामारी के विभिन्न पहलुओं और उसे रोकने के उपायों के बारे में बता सकते हैं।

देश में कोविड-19 को लेकर जो अधिकतर मॉडल हैं, उनके लिए या तो जानकारी उपलब्ध ही नहीं है या जो जानकारी है, उस तक पहुंच सिर्फ सरकार और चुनिंदा लोगों की है। वायरस और उसके वैरिएंट्स, संक्रमित लोगों, इम्यूनिटी, महामारी के प्रति अतिसंवेदनशीलता और जिस वातावरण में वायरस पनपता है, उसके आधार पर हम एक मोटा अनुमान ही लगा सकते हैं। सटीक तौर पर भविष्यवाणी करने की राह में कई मुश्किलें हैं।

आज कोरोना को आए दो साल से अधिक समय गुजर चुका है। चीन के वुहान में मिला मूल वायरस D614G म्यूटेशन से गुजरा था। इसके बाद फरवरी 2020 से यह पूरी दुनिया में तेजी से फैला। फिर दिसंबर 2020 तक हमने कोई बड़ा बदलाव नहीं देखा। साल के अंत में अल्फा और बीटा वैरिएंट्स की पहचान हुई। इन वैरिएंट्स ने ब्रिटेन और दक्षिण अफ्रीका में लोगों को तेजी से बीमार किया।

वैरिएंट्स के बीच इतना लंबा गैप क्यों था? फिर ऐसा क्यों हुआ कि दिसंबर 2020 के बाद नए वैरिएंट्स इतनी तेजी से आए? इंफ्लुएंजा के आधार पर इस बारे में एक थिअरी है। इसके मुताबिक, वायरस के रूप बदलने के लिए जरूरी है कि एक निश्चित अनुपात में आबादी इससे संक्रमित हो। इससे वायरस पर इम्यून प्रेशर पड़ता है। चूंकि आरएनए वायरस हमेशा म्यूटेट होता रहता है, तो जब कुछ लोग संक्रमित होते हैं, तो म्यूटेशन मायने रखता है।

ऐसा वायरस अधिक लोगों को संक्रमित कर सकता है, जो हमारे इम्यून सिस्टम को गच्चा दे सके, उसे अपने रिसेप्टर पर स्पाइक प्रोटीन बांधने से रोक सके। लोगों को बीमार करने के लिए यह वायरस ज्यादा मुफीद होगा। क्या हम इस जानकारी का इस्तेमाल यह अनुमान लगाने में कर सकते हैं कि नए वैरिएंट्स किस तेजी से और कहां आएंगे? दुर्भाग्य से कोविड के मामले में विज्ञान अभी इतनी तरक्की नहीं कर पाया है, लेकिन हम इतना जरूर जानते हैं कि वायरस जितना अधिक रेप्लिकेट होगा, उसके नए रूप आने की आशंका उतनी ही अधिक होगी।

वैरिएंट्स को लेकर यह मुश्किल इस बात से भी बढ़ जाती है कि अलग-अलग टीकों का असर अलग-अलग हो रहा है। कौन-सी वैक्सीन इन्फेक्शन और बीमारी को रोकती है और कौन-सी वैक्सीन मुख्य तौर पर इन्फेक्शन रोकती है, इस बारे में हमारी सीमित जानकारी से भी जटिलता बढ़ती है। डेटा बताते हैं कि एमआरएनए वैक्सीन संक्रमण और बीमारी, दोनों को रोकने में असरदार है। वेक्टर वैक्सीन भी बीमारी को रोकने के लिए अच्छी हैं। हालांकि कुछ वैरिएंट्स के चलते इन्फेक्शन को रोकने में ये वैक्सीन उतनी असरदार नहीं है। इसका मतलब हुआ कि टीका लगवाने वाले लोग भी वायरस फैला सकते हैं, लेकिन जिन लोगों ने टीका नहीं लगवाया है उनसे कम। इनएक्टिव वायरस और प्रोटीन वैक्सीन को लेकर हमारे पास क्लिनिकल ट्रायल के डेटा हैं। इससे पता चलता है कि ये टीके गंभीर बीमारी को रोकने में सक्षम हैं। हालांकि विभिन्न वैरिएंट्स के कारण संक्रमण को रोकने की उनकी क्षमता पर बहुत कम डेटा उपलब्ध है।

डेल्टा वैरिएंट जिस आसानी से फैलता है, उससे लगता है कि वायरस को रोकने के लिए हमें और बड़ी आबादी का टीकाकरण करना होगा। चूंकि अभी वैक्सिनेशन जारी है, इसलिए टीकों से बेहतर परिणाम कैसे हासिल कर सकते हैं, इसके लिए नजर रखनी जरूरी है। सभी देश जितनी तेजी से हो सके, वैक्सिनेशन कर रहे हैं। हालांकि मध्यम और कम आय वाले देशों को टीके की कमी का सामना करना पड़ रहा है। वहीं, भारत में प्रतिदिन करीब 40 लाख लोगों को वैक्सीन लग रही है, लेकिन 21 जून को हमने दिखाया था कि हममें इससे दोगुने लोगों के टीकाकरण की क्षमता है।

लंबा है सफर

दुख की बात है कि अभी केवल एक चौथाई भारतीयों को ही वैक्सीन की एक या दो डोज लगी है। टीके से सुरक्षा के मामले में लंबा रास्ता तय करना है हमें। और जहां तक सीरो सर्वे की बात है, तो यह बात पहले ही हो चुकी कि एक बड़ी आबादी अब भी असुरक्षित है। लोगों के स्वास्थ्य के नजरिए से देखें तो यह वायरस और इम्यून सिस्टम के बीच एक रेस है। अगर वैक्सिनेशन 70 फीसदी होने तक हम खुद को मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग के जरिए बचा सकें, तो निश्चित तौर पर तीसरी लहर को टाल सकते हैं।

(लेखिका क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज, वेल्लोर में प्रफेसर हैं)

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