बिजू नेगी
जून 2024 लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद, आमजन ने राहत की जो सांस ली, अब छः महीने बाद लगता है कि कुछ जल्दी ही और भोलेपन में की गई प्रतिक्रिया थी। क्या विपक्ष और लोगों को वास्तव में विश्वास था कि मोदी, शाह, संघ सब कुछ इतनी आसानी से जाने देगा?
अब तो हो यह रहा है कि सरकार, सत्ता व अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद का पूरी विद्रूपता व जल्दबाजी के साथ इस्तेमाल कर रही है। विपक्ष और लोगों का कुछ भी प्रयास काम करता नहीं दिख रहा है, और भय, शक व हार का माहौल गहराता जा रहा है।
ऐसे क्षण में, गांधी व आजादी के आंदोलन का पुनः स्मरण करना, अंधेरे में उजाले की तरह, शायद कुछ रास्ता दिखा सके। नमक सत्याग्रह को ही लें।
1922 को हुए काफी समय हो गया था जब जनता द्वारा चौरी-चौरा में किये हिंसा के चलते, वहां थाने को आग लगा दी गई थी जिसमें उसमें मौजूद सभी लगभग दो दर्जन पुलिसकर्मी जल कर राख हो गए थे-और गांधी ने एकाएक असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था।
राजनीतिक और आंदोलनकारी हलकों में गांधी के इस निर्णय की निंदा की गई कि उसने देश में आजादी के संघर्ष के प्रति बढ़ता माहौल पटरी से उतार दिया। चौरी-चौरा में हिंसा को लेकर गांधी का मानना था कि लोग आजादी के लिए अभी तैयार नहीं हुए हैं और आजादी के सही मायने उन्हें अभी ठीक से समझना है।
दिसम्बर 1928 में, भगतसिंह व राजगुरु (और चन्द्रशेखर आजाद) द्वारा, लाला लाजपत राय की मृत्यु के बदले में अंग्रेज अधिकारी जॉन सॉन्डर्स की-गलती से ही सही-हत्या ने, लोगों के मन में एक चिंगारी फूंक दी थी। और कांग्रेस कोई व्यापक लोक-कार्यक्रम करने का दबाव महसूस कर रही थी।
ऐसे में कांग्रेस के भीतर से इसके लिए अलग-अलग सुझाव आए। सरदार पटेल चाह रहे थे कि दिल्ली पर ही चढ़ाई किया जाए; जवाहरलाल नेहरू एक वैकल्पिक सरकार स्थापित करना चाहते थे; किसी अन्य का सुझाव था कि न्यायालयों का बहिष्कार किया जाए, आदि। कुछ तय न हो पाने से, जैसा कि अक्सर होता था, मुद्दा बापू तक उनके सुझाव के लिए ले जाया गया और उन्होने सुझाव दिया-नमक सत्याग्रह, अर्थात् ‘‘नमक कानून को तोड़ना’’।
बापू के इस सुझाव ने कांग्रसियों को कमोबेश निराश ही किया। मोतीलाल नेहरू ने उन्हे एक लंबा पत्र डाल कर टिप्पणी की, ‘‘बापू, आंदोलन के लिए यह भी कोई विचार है क्या!’’ किसान नेता व बापू के निकट सहयोगी इंदुलाल याज्ञनिक ने कहा, यह महज एक स्टंट होगा और ज्यादा से ज्यादा कुछ ही समय के लिए अंग्रेज सरकार का ध्यान भंग करेगा।
किसी और की प्रतिक्रिया थी कि यह सुझाव एक मक्खी को मारने के लिए हथौड़े के इस्तेमाल करने के समान था। सभी अखबारों में बापू के सुझाव का खासा माखौल उड़ाया गया।
मगर गांधी नमक कानून के मुद्दे पर बहुत समय से गंभीरता से विचार करते आए थे और पहले भी नमक कानून को भंग किए जाने की बात कह चुके थे। उनका कहना था कि हवा और पानी के बाद नमक ही प्रकृति में सर्वाधिक मौजूद है और लोगों को मुफ्त उपलबध होना चाहिए। वे नमक पर कानून द्वारा लगाए गए कर को सर्वाधिक अमानवीय कर मानते थे।
तो नमक कानून या नमक-कर था क्या?
भारत की लंबी समुद्री तटरेखा रही है जहां आदिकाल से ही बेहतरीन गुणवत्ता का नमक बनाया जाता रहा था। मगर 1835 में, अंग्रेज सरकार ने स्थानीय नमक पर विशेष कर लगा दिया, ताकि इंग्लैण्ड के लिवरपूल के नमक का आयात व विक्रय सुलभ किया जा सके और जो वास्तव में स्थानीय नमक की तुलना में गुणवत्ता में बहुत कम था।
इस कर की वजह से लिवरपूल के नमक का आयात 1851 में 2.5 मीट्रिक टन तक हो गया और 1858 तक तो सरकार की आय का 10 प्रतिशत तक हिस्सा नमक की बिक्री से ही आ रहा था।
नमक व्यापार के इतने मुनाफे का सौदा होने के मद्देनजर अंतः सरकार द्वारा ‘‘भारत नमक कानून 1882’’ पारित किया गया जिसके तहत नमक का उत्पादन व विक्रय सरकारी डिपों का एकाधिकार बना दिया गया और किसी भी अन्य जरिए नमक उत्पादन व विक्रय, यहां तक कि उसको रखने तक को, दण्डनीय अपराध करार दिया गया। उसके आगे, नमक की तस्करी रोकने व कर उगाही बढ़ाने के लिए, कठोर कदम उठाए गए।
इनका एक उदाहरण था, ‘‘सीमा-शुल्क रेखा’’ का निर्माण। यह एक ‘‘आदमी या जानवर द्वारा कतई अलंघनीय’’ कंटीली बाड़ थी जिसकी शुरुआत 1840 के दशक में बंगाल से हुई और जो 1869 तक उत्तर में सिंधु नदी से लेकर दक्षिण में महानदी तक, 2300 मील लंबी कर दी गई थी, और जिसकी निगरानी में करीब 12,000 लोग तैनात थे।
इसकी निंदा करते हुए स्वयं एक वरिष्ठ अंग्रेज नौकरशाह, सर जॉन स्ट्राचेयी ने यहां तक कहा, ‘‘नमक पर लगाए कर को सुनिश्चित करने के लिए धीरे-धीरे एक राक्षसी तंत्र विकसित हुआ, जिसका किसी भी सुसंस्कृत देश में सामानांतर उदाहरण पाना असंभव होगा।’’
इन सब के बावजूद, नमक-कर ने स्वतंत्रता के आंदोलनकारियों को कभी विशेष चिंतित नहीं किया क्योंकि सरकार की लोक समुदायों में असमानता फैलाने व उन्हें सुख-सुविधाओं से वंचित करने/रखने की अन्य व अधिक कठोर नीतियों व कार्य-प्रणालियों की तुलना में वह जाहिरा तौर पर नगण्य सा लगता था। मगर गांधीजी नमक-कर को पूर्णतः अनैतिक व अन्यायी अंग्रेज शासन का प्रतीक मानते थे।
बापू द्वारा प्रस्तावित नमक-सत्याग्रह की योजना के तहत, नमक कानून को तोड़ने के लिए अहमदाबाद से दांडी-कूच से कुछ ही दिन पहले, 2 मार्च 1930 को, गांधीजी ने वाइसरॉय लार्ड इर्विन को पत्र में लिखा-
‘‘मैं ब्रिटिश शासन को अभिशाप क्यों मानता हूं?इसलिए कि उसने नित-बढ़ते शोषण तंत्र तथा एक अत्याधिक महंगे सैनिक व सिविल प्रशासन ने, जिसे वहन करने की क्षमता देश की कभी नहीं हो सकती थी, करोड़ों मूक लोगों को दरिद्र बना डाला है और राजनीतिक तौर पर हमें दासता में जकड़ लिया है”।
“यह दिन के उजाले के समान स्पष्ट दीखता है कि जिम्मेदार ब्रिटिश राजनेतागण किसी भी ऐसी ब्रिटिश नीति में परिवर्तन करने का सोच भी नहीं रहे हैं जो ब्रिटेन का भारत से व्यापार दुष्प्रभावित कर सकता है”।
“यहां तक कि नमक तक पर, जिसका उपभोग इंसान जिंदा रहने के लिए करता है, उस पर इस तरह का कर लगाया गया है जिसका, चाहे वह उसके होने के संयोग की बेरहम निष्पक्षता की वजह से ही क्यों न हो, सर्वाधिक बोझ गरीबों पर ही पड़ता है”।
“ऐसा इसलिए कि, हम ध्यान करें कि नमक ही ऐसी वस्तु है जिसका कि गरीब इंसान, व्यक्तिगत या सामूहिक स्तर पर, अमीरों से अधिक उपभोग करता है। यह अन्याय, एक विदेशी प्रशासन को, जो स्पष्टतः दुनिया में सर्वाधिक खर्चीली है, उसे बनाए रखने के लिए जारी रखा जाता है”।
“अब आप अपनी ही तनख्वाह को लें। वह प्रति माह रुपये 21,000 है, अप्रत्यक्ष खर्च व जोड़ अलग। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को 5400 पौंड प्रतिवर्ष मिलते हैं, अर्थात् वर्तमान विनिमय दर के हिसाब से प्रतिमाह रु 5400 से कुछ ही अधिक”।
“आप भारत में औसत आमदानी दो आना प्रतिदिन की तुलना में रु 700 प्रतिदिन पा रहे हैं। इस तरह आप भारत में औसत आय से पांच हजार गुणा अधिक पा रहे हैं”।
“मैं जानता हूं कि आपको जो तनख्वाह मिल रही है, उसकी आपको जरूरत नहीं है। संभव है कि आपकी पूरी की पूरी तनख्वाह दान में जाती हो। मगर जो तंत्र इस तरह की व्यवस्था कायम करता है उसे तुरंत, बगैर सोचे खत्म कर देना चाहिए”।
जो बात वॉयसरायी तनख्वाह के लिए है, वह पूरे प्रशासन पर भी साधारणतः लागू होती है।’’
“ब्रिटेन का एक भी महान राजनीतिक दल भारत की इस लूट को छोड़ना चाहता है जिसमें वह रोज़-ब-रोज़ शामिल है।’’
मगर अंग्रेज सरकार ने गांधीजी की नमक सत्याग्रह योजना को गंभीरता से नहीं लिया। वह तो अति आत्मविश्वास में यही मानती रही कि साबरमती आश्रम से दांडी तक की योजना जो महज 80 ‘गुमनाम’ स्वयंसेवकों के साथ शुरू होगी वह, एक प्रतीकात्मक यात्रा ही बनकर रह जाएगी।
निसंदेह, जब ब्रिटेन की सरकार ने पदयात्रा को लेकर यहां वायसरॉय से पूछा भी कि उससे निबटने की क्या योजना वे बना रहे हैं, तो कुछ घमंड व उदासीन स्वर में यहां से जवाब गया कि ‘‘उसको लेकर हम अपनी रातों की नींद खराब नहीं कर रहे हैं!’’
पर दांडी कूच जो बेशक 12 मार्च 1930 को महज 80 स्वयंसेवकों के साथ शुरू हुआ, वह 24 दिन व 240 मील बाद, 5 अप्रैल को जब दांडी पहुंचा तो उसका काफिला 2-3 मील लंबा हो चुका था। और तड़के 6 अप्रैल को जब दांडी समुद्रतट से एक मुट्ठी समुद्री रेत उठाते हुए गांधीजी ने कहा, ‘‘इससे, मैं ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिला रहा हूं’’, तो उनकी आवाज दुनिया भर में फैली।
अति-आत्मविश्वास में अंग्रेज सरकार आखिर तक दांडी कूच को ठीक से नहीं आंक पाए जिससे यात्रा लगभग बगैर किसी खास सरकारी कार्यवाही या हस्तक्षेप के पूरी हुई और जब तक प्रशासन ने आंदोलनकारियों पर हिंसात्मक कार्यवाही की तथा गांधी व अब्बास तैयबजी को हिरासत में लिया तो देर हो चुकी थी।
तो नमक सत्याग्रह ने क्या हासिल किया और हम रणनीति के तौर पर उसे किस तरह आंकते हैं?
सत्याग्रह के फलस्वरूप, नमक कानून खत्म नहीं किया गया और न ही, नमक के उत्पादन व विक्रय पर सरकारी एकाधिकार हटा। पर इतना जरूर हुआ कि वायसरॉय, जिन्होंने गांधीजी के पत्र का दो वाक्यों में जवाब देकर उस मुद्दे पर सोचना भी जरूरी नहीं समझा था, वे अब वार्तालाप के लिए तैयार हुए, तथा नमक कानून के पालन को लेकर जो कठोर उपाय किए गए थे, उनमें कमी की गयी और तटीय समुदायों को समुद्र से नमक बनाने की इज़ाजत दी गयी।
जवाहरलाल नेहरु जिन्हे गांधी की नमक सत्याग्रह विचार को लेकर शुरू में संशय व अविश्वास था, उन्होंने अब कहा, ‘‘हम उलझन में थे और साधारण नमक को राष्ट्रीय संघर्ष से जोड़ कर नहीं देख पा रहे थे।’’ अमरीका के महान अश्वेत मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने बाद में कहा कि सविनय अवज्ञा के उनके दर्शन पर नमक सत्याग्रह का निर्णायक प्रभाव पड़ा।
विंस्टन चर्चिल, जिन्होने गांधी को ‘‘नंगा फकीर’’ कह कर उनको नीचा दिखाना चाहा था, उन्होंने बाद में स्वीकार किया कि उस सत्याग्रह व उसके बाद जो हुआ, उसने ‘‘ऐसा अपमान व अवज्ञा, चुनौती थोपी जैसी ब्रिटेन ने भारत में कदम रखने के बाद नहीं झेली थी।’’
और सबसे बड़ी बात, 1922 में असहयोग आंदोलन वापस लेने के बाद जो नैराश्य का भाव पैदा हुआ था, व्यापक देशवासियों की रगों में, नमक सत्याग्रह के बाद, आजादी की लहर एक बार पुनः संचारित होने लगी। और जैसा नेहरु ने कहा भी कि नमक सत्याग्रह ने ‘‘लोगों में स्वतंत्रता का आग्रह व आत्मविश्वास पुनः जगा दिया।’’
इससे भी बढ़कर या उसके फलस्वरूप,, सत्याग्रह ने औरतों को पहली बार व्यापक स्तर पर घर की चहारदीवारी से निकाल कर, संघर्ष में मर्दों के कंधों से कंधा मिलाते हुए, सड़कों पर उतार दिया था।
महिलाओं को दांडी कूच के पहले पैदल सहयात्रियों में न लेने के लिए गांधीजी ने पूरे हठ के साथ मना कर दिया था मगर ऐसा नहीं था कि औरतें उनकी सोच के हाशिए पर थीं। बल्कि इस सत्याग्रह में बापू ने तो उनके लिए एक स्पष्ट भूमिका तय की थी- जिसका मुद्दा था ‘नशा विरोध’।
बापू ने महिलाओं को इस बात का पूरे जोर से पालन करने को कहा और यहां तक भी कि ‘‘पुरुषों को उस योजना व कार्यवाही से पूरी तरह दूर रखा जाए। अन्यथा वह असफल हो जाएगा।’’
दांडी पहुंचने पर उन्होंने औरतों के लिए नशा विषय पर एक विस्तृत कार्यशाला का भी आयोजिन किया। अतः जब देशभर में नमक कानून तोड़ा जा रहा था तो औरतों ने उसमें सम्मिलित होने के अलावा शराब की दुकानों को घेर जमकर व्यापक धरना दिया।
और बापू? एक ऐसा मुद्दा जो प्रत्येक व्यक्ति से तो जुड़ा और उसे प्रभावित करता ही था, पर किसी भी तरह की सार्वजनिक चर्चा, चिंतन या चिंता से बाहर था, उसे उठाकर उन्होंने न सिर्फ सरकार को अनेपक्षित और ‘सोते हुए’ पकड़ा बल्कि साथ ही, उस मुद्दे के जरिए सरकार के मर्म-स्थल उसकी आर्थिकी पर निशाना साध कर उन्होंने जन-जन के लिए ब्रिटिश उपनिवेशता की कठोर व अनैतिक अंतर्धारा तथा आजादी के अहम मायनों को रेखांकित किया।
(बिजू नेगी हिन्द स्वराज मंच, उत्तराखण्ड से जुड़े हैं)
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