शशिकांत गुप्ते
त्रेता और द्वापर युग के खलनायक,रावण और कौरव का दुष्चरित्र पौराणिक कथाओं पढ़ा है।
यहां रावण भी बहुवचन में ही लिखा है कौरव तो स्वयं ही बहुवचन है।
त्रेता युग में रावण की शारीरिक बनावट कैसी होगी,यह सिर्फ और सिर्फ कल्पना पर ही निर्भर है।
कलयुग में दशहरे के दिन रावण के पुतले के दहन करने का सिलसिला कब से शुरू हुआ यह इतिहासविद ही बता सकते हैं?
दशहरे के दिन पूरे देश में हर नगर,शहर और महानगरों में अनेक जगह रावण के पुतले का दहन किया जाता है।
रावण के पुतलों का दहन बुराई के प्रतीक के रूप में किया जाता है।
हर जगह जहां भी जिस किसी कॉलोनी, मोहल्ले और क्षेत्र में रावण का दहन होता है, वहां रावण के पुतले की ऊंचाई पुराने नाप foot फूट से ही नापी जाती है। प्रत्येक जगह के रावण के पुतले की ऊंचाई के समाचार पढ़,सुन कर यह समझमें नहीं आता है, हर जगह के रावण के पुतलों का दहन करने वाले कार्यक्रम के आयोजक अपने अपने क्षेत्र की बुराई की प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं?
रावण की ऊंचाई को Meter मीटर से नहीं नापा जाता है?
इसका एक व्यावहारिक कारण यह हो सकता है। रावण के पुतले की निर्मिती के लिए जो मानधन लगता है,जिसे चंदा कहते हैं। इस चंदे की वसूली का मीटर अनवरत डाउन ही रहता है।
सवाल यह है कि, त्रेता युग के रावण को किसी ने भी नहीं देखा है?
फिल्मों भारी भरकम शरीर के व्यक्ति से रावण का अभिनय करवाया जाता है।
रावण के पुतलों की निर्मिति सिर्फ कल्पना के आधार पर की जाती है।
इतना लिखा पढ़ने बाद मेरे मित्र सीतारामजी ने मुझे कलयुग में रावण को कोई व्यक्ति मानना ही गलत है। रावण असुरी प्रवृत्ति है।
कलयुग में असुरी प्रवृत्ति लोग स्त्रियों के फैशन पर व्यंग्य भी त्रेतायुग की असुरी भाषा में करते है। शूर्पणखा रावण की बहन थी। इतना लिखना ही पर्याप्त है।
असुरी प्रवृत्ति के लोगों के लिए संत तुलसीबाबा ने लिखा है।
कहूं महिष मानुष धेनु खर अज निसाचर भच्छही
अर्थात भैंसों,मनुष्यों गधों बकरों को निशाचर खा जातें है।
इसीलिए कलयुग में रावण सशरीर दिखाई नहीं देंगे?
असुरी प्रवृत्ति किसी भी मानव में विद्यमान हो सकती है।
असुरी प्रवृत्ति के लोग कलयुग में पैसों को ही खातें हैं। इस कृत्य को भ्रष्ट आचरण कहते हैं।
भ्रष्ट आचरण को पहचानने के लिए संकीर्ण विचारों को त्यागना चाहिए।
लखनऊ के शायर संजय मिश्रा शौक़ का यह शेर उक्त मुद्दे पर एकदम माेजू है।
वो खुद अपनी शान से बाहर नहीं आते
जो नकली फूल हैं गुलदान से बाहर नहीं आते
शशिकांत गुप्ते इंदौर