[मेरे साधनाकालीन जीवन के घटनाक़म पर आधारित यथार्थपरक कहानी]
*~ डॉ. विकास मानव*
(ध्यान प्रशिक्षक़, निदेशक : चेतना विकास मिशन)
पूर्व~ कथन : _आप हवा नहीं देखते तो क्या वह नहीं है? स्वास मत लें, आपको आपकी औकात पता चल जाएगी. अगर आप सत्य नहीं देख पाते तो यह आपका अंधापन है. अगर आप अपेक्षित को अर्जित नहीं कर पाते तो यह आपकी काहिलताजनित विकलांगता है._
*मेरा स्पस्ट और चुनौतीपूर्ण उद्घोष है : बिल से बाहर निकलें, समय दें : सब देखें, सब अर्जित करें.*
आप अदृश्य को और उसकी शक्तियों को अविश्वसनीय मान बैठे हैं, क्योंकि इनके नाम पर तथाकथित/पथभ्रष्ट तांत्रिकों, कथित गुरुओं की लूट और भोगवृत्ति रही है। इन दुष्टों द्वारा अज्ञानी, निर्दोष लोगों को सैकड़ों वर्षों से आज तक छला जाता रहा है। परिणामतः प्राच्य विद्या से लोगों का विश्वास समाप्तप्राय हो गया है।
_*तंत्र ‘सत्कर्म’- ‘योग’ और ‘ध्यान ‘ की ही तरह डायनामिक रिजल्ट देने वाली प्राच्य विद्या है. इस के प्रणेता शिव हैं और प्रथम साधिका उनकी पत्नी शिवा. जो इंसान योग, ध्यान, तंत्र के नाम पऱ किसी से किसी भी रूप में कुछ भी लेता हो : वह अयोग्य और भ्रष्ट है. यही परख की कसौटी है.*_
तंत्र के नियम और सिद्धान्त अपनी जगह अटल, अकाट्य और सत्य हैं। इन पर कोई विश्वास करे, न करे लेकिन इनके यथार्थ पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है। जिनको साक्ष्य या निःशुल्क समाधान चाहिए वे व्हाट्सप्प 9997741245 पर संपर्क कर सकते हैं.
_सूक्ष्मलोक, प्रेतलोक, अदृश्य शक्तियां, मायावी शक्तियां आदि सभी होती हैं. प्रेतयोनि और देवयोनि को निगेटिव और पॉजिटिव एनर्ज़ी के रूप में विज्ञान स्वीकार कर चुका है._
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_दोपहर का समय था। मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से लौट रहा था। उसी समय शिवशंकर तिवारी मिल गये। लगभग दो-तीन महीने बाद भेंट हुई थी मेरी उनसे। कुशल समाचार के आदान-प्रदान के बाद स्वामीजी की भी चर्चा हुई। जब मैने उस दिन की घटना बतलायी तो तिवारीजी थोड़ा चौंके लेकिन बोले कुछ नहीं।_
स्वामीजी विद्वान तो हैं ही, साधक भी हैं वे : मैंने कहा।
हाँ, इसमें सन्देह नहीं–तिवारीजी ने उत्तर दिया, लेकिन वह थोड़ा अन्यमनस्क लगे मुझे।
मैंने यह बतलाया कि दो दिन पूर्व पांच घण्टे तक स्वामीजी से मेरी आध्यात्मिक चर्चा होती रही थी। उनकी जाने की इच्छा तो नहीं थी लेकिन रात अधिक हो गयी थी, इसलिए चले गये।
यह सुनकर तिवारीजी चौंक पड़े एकबारगी। कुछ देर स्थिर भाव से मेरी ओर देखते रहने के बाद बोले–आप क्या कह रहे हैं विकासजी ? कल सायंकाल आये थे स्वामीजी ? तिवारीजी के चेहरे पर उस समय आश्चर्य और अविश्वास का मिला-जुला भाव था।
हाँ, बन्धु ! आये थे और पूरे छः घण्टे उनसे मेरी बातें भी हुईं। आपको आश्चर्य क्यों हो रहा है ? बात क्या है ?
मेरी बात सुनकर मेरे चेहरे की ओर अपलक देखते हुए तिवारीजी ने बतलाया- मानव! स्वामीजी अपने कमरे में भीतर से दरवाजा बन्द कर पिछले बारह दिनों से बैठे हुए हैं। इस अवधि में एक मिनट के लिए भी उन्होंने न दरवाजा खोला और न तो बाहर ही निकले महाशय। कमरे के भीतर भी किसी प्रकार की आहट नहीं होती। पूरे मठ के लोग आश्चर्यचकित और स्तंभित हैं। किसी की हिम्मत नहीं हो रही है कि उन्हें पुकारे अथवा दरवाजा खोलने को कहे।
यह सब सुनकर स्तब्ध और अवाक रह गया मैं। सोचा–यदि तिवारीजी की बातें सत्य हैं तो फिर दो बार स्वामीजी मेरे यहाँ कैसे आये ? किस तरह और किस प्रकार ? पहली बार चार घण्टे थे और दूसरी बार थे पूरे छः घण्टे। यहां से फिर गये कहाँ स्वामीजी ?–मन-ही-मन सोचने लगा मैं। मायाजाल-सा लग रहा था सब कुछ अद्भुत और अविश्वसनीय !
आखिर रहा न गया मुझसे। मन नहीं माना। तिवारीजी के साथ मठ में गया। मठ में रहने वाले सभी साधू और विद्यार्थी सन्नाटे में थे। किसी अनहोनी की प्रतीक्षा कर रहे थे जैसे सब। सभी लोगों ने तिवारीजी की बातों का समर्थन किया।
मैं सीढियां चढ़कर ऊपर गया और स्वामीजी के कमरे के दरवाजे के सामने जा कर खड़ा हो गया। दरवाजे में कहां छेद है, इससे मैं भली–भाँति परिचित था। उस छेद में से आंखें गड़ाकर देखने का प्रयास करने लगा मैं। पहले तो सफलता नहीं मिली। थोड़ा अंधेरा था, बाद में सब कुछ स्पष्ट हो गया।
*वह स्त्री कौन थी ?*
एक अति सुन्दर महिला की गोद में अपना सिर रखे स्वामीजी पैर फैलाये लेटे हुए थे। महिला की घनी, काली केश-राशि स्वामीजी की पीठ पर बिखरी हुई थी। महिला के मुख पर असीम तेज था। आंखें बन्द थीं उसकी। पूरा शरीर निश्चल था।
स्वामीजी की भी आंखें बन्द थीं। उनका भी सारा शरीर पाषाणवत था। लगा–दोनों लोग गहन समाधि में लीन हों जैसे। सोचने लगा मैं–यह महिला कौन है ? क्या सन्यासिनी शोभा माँ तो नहीं हैं वह ? कभी-कदा शोभा माँ उनके संपर्क में आ जाती हैं… यदि वह यही हैं तो मठ में आईं कैसे ? मठ में तो मना है नारी-प्रवेश, भले वह सन्यासिनी ही क्यों न हो। चारों ओर फैली रहस्य की धुन्ध और भी गहरी हो गयी मेरे लिए।
धीरे-धीरे एक मास का समय व्यतीत हो गया। बाद में पता चला–शायद तिवारीजी ने ही बतलाया था मुझे कि पूरे एक सप्ताह बाद सन्यासी ने खोला था अपने कमरे का दरवाजा। उस समय उनकी आंखें उनींदी-सी भी थीं। चेहरा लाल हो रहा था और अपने आप में थकावट का अनुभव कर रहे थे वह। कमरे से बाहर निकलकर एक बार चारों ओर देखा उन्होंने और फिर बिना किसी से कुछ बोले धीरे-धीरे चलकर मठ के फाटक तक गये और फिर कहाँ चले गए–किसी को मालूम नहीं।
मैं सोचने लगा–कहाँ गये वह रहस्यमय सन्यासी ? क्या उनसे अब भेंट न होगी मेरी ? दिन बीतने लगे धीरे-धीरे। पूरा एक साल का समय निकल गया। इस बीच मैंने अपना स्थान बदल लिया था। शिवकुमार विद्यालय में रहने लगा था मैं अब। वहां अधिक शान्ति थी और एकान्त भी था।
_मेरा स्थूल शरीर से अलग होने का अभ्यास चल रहा था। अब मैं शून्य मार्ग से 200 किलोमीटर की दूरी तक की यात्रा सूक्ष्म शरीर के द्वारा कर सकता था। रोज की तरह उस दिन भी मैं अपनी सूक्ष्म यात्रा पर था, सीमा से बाहर जाने पर मन घबड़ाने लगता था। लेकिन उस दिन न जाने कैसे सीमा से बाहर काफी दूर तक निकल गया था। इसलिए वापस लौटने में मुझे थोड़ी देर हो गयी थी।_
लौटने पर देखा–मेरे बन्द कमरे के सामने दिव्यकैवल्य बैठे हुए थे। बहुत दिनों के बाद आये थे नहाशय। पहले शरीर में प्रवेश किया फिर भीतर से बन्द दरवाजा खोला। दिव्यकैवल्य मुझे देखकर मुस्कराए। मेरे आंतरिक स्वरूप से परिचित थे वह।
इतने समय तक कहाँ थे ?
मेरे इस प्रश्न के उत्तर में _दिव्यकैवल्य बोले–आसाम में एक गुप्त साधना-पीठ है। वहां एक उच्चकोटि के साधक रहते हैं। नाम है उनका कालीमण्डल। उन्हीं के सत्संग में था। वह आपसे भी मिलना चाहते हैं। सूक्ष्म शरीर द्वारा यात्रा करने में सिद्धहस्त हैं महाशय। दीपावली के अवसर पर संभवतः काशी आएंगे वह।_
कालीमण्डल के सम्बन्ध में कभी किसी से कुछ सुना था मैने। नर-बलि देकर उच्चकोटि की कोई तमोगुणी सिद्धि प्राप्त की थी उन्होंने। एक महातन्त्र-साधक से भेंट होगी और वह भी तांत्रिक एवं दीपावली के समय–यह जानकर काफी प्रसन्नता हुई मुझे।
बातचीत के प्रसंग में अखिलेश्वरानंद की सारी कथा सुना दी मैंने दिव्यकैवल्य को और अन्त में शोभा माँ की भी चर्चा की मैंने।
सब कुछ सुन लेने के बाद जब दिव्यकैवल्य ने यह कहा कि वह अखिलेश्वरानंद और शोभा माँ से भली-भांति परिचित हैं तो यह सुनकर एकबारगी आश्चर्यचकित हो उठा मैं।
थोड़ा रुककर दिव्यकैवल्य आगे बोले–भले ही कहीं अखिलेश्वरानंद यह कहें कि उन्होंने कोई साधना-उपासना नहीं की है। लेकिन सत्य यह है कि वह सन्यासी उच्चकोटि के योगी और तंत्र-साधक हैं–इसमें सन्देह नहीं।
_शोभा माँ को आप क्या समझते हैं ? उनकी आयु बहुत है। दो सौ वर्ष पूर्व एक आकाशगामी योगी से उन्होंने योग-तंत्र की दीक्षा ली थी और काफी समय तक हिमालय की किसी गुफा में रहकर साधना की थी उन्होंने। निश्चय ही उनके पास कोई ऐसी सिद्ध विद्या है जिसके प्रभाव से सदैव चिर यौवन-सम्पन्न रहती हैं वह।_
मैं यह भी जानता हूँ कि काशी के समीप किसी गुप्त स्थान में प्रच्छन्न भाव से निवास करने वाले एक परम दिव्य महात्मा से भैरवी दीक्षा भी ली थी उन्होंने।
वह दिव्य महात्मा कौन हैं ?–यह तो मैं नहीं जानता लेकिन इस बात से भली–भांति परिचित हूँ कि वह अभी भी हैं और शोभा माँ बराबर मिलती-जुलती हैं उनसे। उस दिन बन्द कमरे में जो कुछ देखा–वह परम समाधि की अवस्था का दृश्य था और वह महिला और कोई नहीं शोभा माँ ही थीं।
थोड़ा ठहरकर दिव्यकैवल्य आगे बोले–शोभा माँ योगसिद्ध और उच्चकोटि की तन्त्र-साधिका हैं। तन्त्र में एक ‘शृंखलिनी विद्या’ है। यह तन्त्र की महाविद्या है। इस गुह्य विद्या का साधक विरला ही कोई होता है। आपको यह सुनकर आश्चर्य होगा कि शोभा माँ को यह दुर्लभ विद्या सिद्ध है जिसके प्रभाव से वह अपने- आपको अदृश्य भी कर लेती हैं।
_वह सबको देखती हैं लेकिन उनको कोई नहीं देखता। यही कारण है कि मठ के लोगों ने शोभा माँ को आते-जाते नहीं देखा।_
यह सब सुनकर एकबारगी स्तब्ध और अवाक रह गया मैं। योग और तन्त्र के मायाजाल में उलझती जा रही थी मेरी आत्मा। अखिलेश्वरानंद और शोभा माँ के प्रति मेरा कौतूहल तथा जिज्ञासा और बढ़ गयी थी मेरी और उसी के वशीभूत होकर मैं पूछ बैठा–आप एक बात बतलायेंगे ?
क्या ?
स्वामी अखिलेश्वरानंद को अपने पिछले जन्मों की सारी बातें अक्षरसः कैसे ज्ञात हैँ ? जिन महापुरुषों से उनका सत्संग हुआ था और जिन विषयों पर चर्चा हुई थी, वे सब-के-सब कैसे कंठस्थ हैं उन्हें ? वह तो इस तरह बतलाते हैं कि जैसे उनके इसी जन्म की सारी घटनाएं हों।
मेरी बात सुनकर दिव्यकैवल्य हंसते हुए बोले–अखिलेशरानंद उच्चकोटि के योग-साधक अवश्य हैं, लेकिन साधना की उस सीमा पर नहीं पहुंचे जहां पिछले जन्मों की स्मृतियाँ बराबर कंठस्थ रहें अथवा जागृत रहें। तब यह कैसे संभव हुआ ?
शोभा माँ के द्वारा।
ऐं ! क्या कहा आपने ? शोभा माँ द्वारा…?
_हाँ, शोभा माँ ऐसी शक्ति है जो किसी के मस्तिष्क की सुप्त स्मृति-कोशिकाओं को जागृत कर सकती हैं।_
थोड़ा रुककर कुछ सोचते हुए दिव्यकैवल्य बोले–
_एक बात बतलाना तो भूल ही गया था मैं। शोभा माँ से बहुत पहले से परिचित हूँ मैं। स्वामी अखिलेश्वरानंद से उन्होंने ही मेरा परिचय कराया था।_
उसके बाद अखिलेश्वरानंद का मरणोपरांत जन्म कहाँ हुआ था ? –यह नहीं जानता। जन्म ग्रहण करने के बाद यथासमय पूर्व संस्कारवश उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ और वह काशी चले आये और काशी के एक प्रसिद्ध विद्वान साधक सन्यासी से उन्होंने सन्यास दीक्षा तो ली और गुरु के मठ में ही रहने लगे वह। जब उन पर मेरी नज़र पड़ी तो मैं तुरन्त पहचान गया उन्हें लेकिन वह मुझे नहीं पहचान सके। पहचानता भी तो कैसे ? पिछले जन्म की स्मृति कहाँ थी उनको ?
गुरु प्रदत्त नाम था स्वामी अखिलेश्वरानंद। पच्चीस वर्षीय सुन्दर और आकर्षक व्यक्तित्व के सन्यासी अखिलेश्वरानंद को देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा था। उनसे बातें करने की इच्छा होती थी लेकिन न जाने क्या सोचकर रुक जाता था मैं। लेकिन कभी-कदा सामना होने पर मुस्कराते अवश्य थे हम दोनों।
यह कब की बात है ?–उत्सुक होकर पूछा मैंने।
यही लगभग 20-25 साल पहले की। फिर थोड़ा रुककर दिव्यकैवल्य आगे कहने लगे–एक दिन सायंकाल के समय नित्य की भांति बैठे थे सन्यासी महोदय अहिल्याबाई घाट की सीढ़ियों पर मौन, शान्त और निर्विकार।
तभी एक युवा सन्यासिनी की दृष्टि उन पर पड़ी। वह सन्यासिनी और कोई नहीं शोभा माँ ही थीं। उनका तेजोमय मुखमण्डल एकाएक प्रदीप्त हो उठा। जिसकी उन्हें खोज थी, वह प्राप्त हो गया था और वह इस प्रकार अचानक प्राप्त हो जाएगा–शायद इसकी कल्पना उन्होंने कभी नहीं की थी।
फिर क्या हुआ ?–मैंने पूछा।
हुआ वही जो होना था। शोभा माँ आकर अखिलेश्वरानंद के बगल में बैठ गयीं। सन्यासी की एकाग्रता अचानक भंग हो गयी। सिर घुमाकर शोभा माँ की ओर देखा सकपका कर–एक सुन्दर कमनीय गौरवर्णा युवा सन्यासिनी को अपने बगल में बैठा देखकर उनका आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक ही था।
उन्हें भला क्या मालूम था कि वह वही शोभा माँ हैं जिनके साथ पिछले जन्म में सत्संग कर चुके हैं वह।
उस समय शोभा माँ मन्द-मन्द मुस्करा रही थीं। सन्यासिनी की ओर देखते हुए अखिलेश्वरानंद कुछ सोचें-समझें कि उसके पहले ही उनके आज्ञाचक्र पर अपनी तर्जनी उंगली रख दी शोभा माँ ने।
फिर क्या हुआ ?
फिर क्या था, अखिलेश्वरानंद के पिछले जन्मों की स्मृतियाँ एक साथ जागृत हो उठीं मानस-पटल पर और फिर वह गिर पड़े शोभा माँ के चरणों पर। पिछले जन्मों का सारा ज्ञान, सारी साधनाएं और उनके सारे अनुभवों से भर उठी थी उनकी आत्मा।
अखिलेश्वरानंद को फिर ले गयीं अपने गुप्त स्थान पर शोभा माँ और अपने साथ ही रखा बहुत समय तक शोभा माँ ने उन्हें। फिर मठ में रहने के लिए कब और कैसे आये वह ?–मैं नहीं जानता–अन्त में बोले दिव्यकैवल्य। थोड़ी देर तक शान्ति छाई रही वातावरण में। हम दोनों मौन रहे अपने-अपने विचारों में डूबे हुए।
उस दिन पूरी रात नींद नहीं आयी। अखिलेश्वरानंद के रहस्यमय व्यक्तित्व और शोभा माँ के सम्बन्ध में सोचते-विचारते समाप्त हो गयी पूरी रात। शोभा माँ गायब हो सकती हैं, हवा में उड़ सकती हैं, आकाश में स्वच्छंद विचरण कर सकती हैं और न जाने क्या-क्या कर सकती हैं।
उनके पास योग-तन्त्र की अद्भुत और विलक्षण सिद्धियां हैं। उनके लिए कुछ भी असम्भव नहीं–दिव्यकैवल्य के ये सारे शब्द बराबर मेरे कानों में गूंजते रहे पूरी रात मेरे मस्तिष्क में।
_न जाने क्यों व्याकुल हो उठी मेरी आत्मा शोभा माँ से निलने के लिए और साथ ही उनकी साधना-स्थली जानने के लिए ? आखिर काशी में रहती कहाँ पर हैं वह रहस्यमयी योगिनी ?_
*शोभा की गुप्त साधना-स्थली :*
मेरी व्याकुलता अब चरम सीमा पर पहुंच चुकी थी। मैं शोभा माँ की गुप्त साधना-स्थली का पता लगाने के लिये हो चुका था पूर्णतया कटिबद्ध। यह अच्छी तरह जानता था कि शोभा माँ के सम्बन्ध में और कुछ बतला सकते हैं स्वामी अखिलेश्वरानंद लेकिन उनकी साधना-स्थली नहीं।
_इसलिए इस दिशा में स्वयं प्रयास करने लगा मैं। इसे संयोग ही कहा जायेगा कि एक दिन अचानक मेरी भेंट हो गयी दुर्गा माँ से। दुर्गा माँ का शरीर बंगदेशीय था और तन्त्र-साधना में उनकी गति बहुत अच्छी थी। कभी-कदा डॉ. गोपीनाथ जी कविराज का दर्शन करने के लिए आया करती थी वह।_
कहने की आवश्यकता नहीं–कविराजजी के निवास पर ही मेरा परिचय हुआ था दुर्गा माँ से। यह बात लगभग बीस वर्ष पहले की है। उस समय दुर्गा माँ की अवस्था चालीस वर्ष से कम नहीं थी लेकिन आज भी वह पार्थिव काया में है और साधनारत है। उनकी साधना-स्थली विंध्याचल के एक पर्वतीय स्थान में है जिसके समीप एक महाशक्ति पीठ भी है।
साधना में विघ्न न हो, इसलिए किसी से मिलती-जुलती नहीं और न तो किसी से कोई व्यवहार ही रखती हैं। उनका वास्तविक नाम क्या है ?–यहां बतलाने की आवश्यकता नहीं।
दुर्गा माँ बहुत समय बाद दिखलायी दी थीँ, लेकिन देखते ही हम दोनों एक दूसरे को तुरन्त पहचान गए। अति विह्वल होकर मेरा हाथ थाम लिया दुर्गा माँ ने।
ठीक हो विकास?–मेरी ओर देखकर बोली दुर्गा माँ।
माँ ! आपके आशीर्वाद से सब कुछ ठीक-ठाक है।
दुर्गा माँ को अपने घर ले आया। मेरी माँ को देखकर अति प्रसन्न हुई दुर्गा माँ। दोनों हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया–सौभाग्यवती भव।
दो-तीन दिन रहीं दुर्गा माँ मेरे घर। न जाने कैसे और किस प्रेरणा के वशीभूत होकर प्रसंगवश शोभा माँ की चर्चा कर बैठा मैं।
_शोभा माँ का नाम सुनते ही आश्चर्य के भाव से मेरी ओर देखा सिर घुमाकर दुर्गा माँ ने। उनकी बड़ी-बड़ी आंखों में कुछ अजीब-सा भाव था उस समय। सहम गया मैं एकबारगी। दुर्गा माँ निश्चित रूप से परिचित हैं शोभा माँ से–यह समझते देर न लगी मुझे।_
विंध्याचल का क्षेत्र काफी विस्तृत है जो दुर्गम पहाड़ों और घनघोर जंगलों से भरा पड़ा है। कई शक्तिपीठ हैं उस रहस्यमय विंध्यक्षेत्र में जिनमें भगवती विंध्याचल माँ का शक्तिपीठ अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
_*कापालिकों और वामपंथी शाक्त साधकों की साधना-भूमि रहा है विंध्यक्षेत्र। आज भी उन दुर्गम पहाड़ों और घने जंगलों से भरे क्षेत्र में प्रच्छन्न भाव से निवास करते हुए साधक/साधिकाएं साधनारत हैं, जिनसे मैं मिला करता हूँ । कहीं-कहीं जंगल इतने घने हैं कि उनके भीतर कोई चला जाय तो उसका बाहर निकलना कठिन ही है।*_
_इसी प्रकार कुछ ऐसे भी स्थान हैं जो चतुर्थ आयामी हैं और जो एक बार उसकी सीमा में प्रवेश कर गया तो समझिए फिर कभी भी इस तृतीय आयामी जगत में लौटना असम्भव ही है।_
इसके अतिरिक्त प्राकृतिक छटाओं से भरपूर सुन्दर, मनोरम और रमणीक स्थान हैं जो पर्वतीय झीलों और झरनों के कारण स्वर्ग जैसे प्रतीत होते हैं। उन्हीं आकर्षक स्थानों में एक स्थान है- सिद्धनाथ की दरी भी।
_चारों ओर से पहाड़ों और जंगलों से घिरी हुई सिद्धनाथ की दरी अपने आप में रहस्यमयी है जिसके निकट ही एक भयंकर जल-प्रपात है। उस प्रपात में पानी कहाँ से आता है और पहाड़ों के बीच से बहता हुआ कहाँ चला जाता है–यह भी अपने आप में एक रहस्य ही है।_
उसी स्थान के आगे पहाड़ों के भीतर कई गुफाएं हैं। उन्हीं गुफाओं में से किसी एक गुफा में रहती हैं शोभा माँ।
दुर्गा माँ से इतनी जानकारी बहुत थी मेरे लिए। तीसरे दिन दुर्गा माँ को विदा कर चल पड़ा मैं शोभा माँ की खोज में।
*सिद्धनाथ की दरी की ओर :’*
लोकमत के अनुसार चालीस-पचास वर्ष पहले सिद्धनाथ की दरी जाना नाना प्रकार की विपत्तियों को निमंत्रण देना था और जीवन को खतरों में डालना था। सिद्धनाथ का नाम लेते ही बनैले हिंसक जानवरों, विषैले और भयंकर सर्पों और अजगरों के साथ-साथ घने जंगलों में भटकने का भय तुरन्त मानस-पटल पर उभर आता था लोगो को।
बहुत ही कम लोग उधर की यात्रा करने का साहस कर पाते थे। साहस करने वालों में प्रायः शिकारी ही होते थे। वे सकुशल वापस लौटेंगे–इसकी आशा कम ही होती थी।
_प्रायः लोग घने और भयानक जंगलों में भटक जाया करते थे और महीनों उनका कोई अता-पता नहीं चल पाता था।_
अब तो रेलवे लाइन भी निकल गयी है। सत्येशगढ़ और सरसों–ये दो रेलवे स्टेशन भी बन गए हैं जहां से सिद्धनाथ की दरी सुगमतापूर्वक जाया जा सकता है।
बीच में नौगढ़ बाजार भी है जहाँ सस्ते मूल्य पर सभी आवश्यक सामान सुलभ हैं।
_जिस समय की मैं चर्चा कर रहा हूँ, उस समय उधर की यात्रा अत्यधिक कठिन और भयप्रद थी। चुनार और डगमगपुर से सप्ताह में एक आध ही सारी जाती थी, लेकिन वह भी बड़गाँवा गांव तक और फिर वहीं से वापस लौट आती थी।_
योग और तन्त्र में निहित सत्य की खोज में नाना प्रकार के खतरों का सामना करना पड़ा है और सामना करना पड़ा है बराबर विकट समस्याओं से भी मुझे।
_लेकिन मैं अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और अपने संकल्पबल से बराबर सफल होता रहा और प्राप्त करता रहा विजय अपनी खोज-यात्रा में। इस बार भी ऐसा ही हुआ। आधी रात में ही निकल पड़ा मैं अनजानी और अनदेखी यात्रा पर। लगभग छः बजे मैं पहुँच गया चुनार। चुनार से दस मील दूर है बाबा सिद्धनाथ की दरी।_
वहां मुझे फिर एक परिचित मिल गए। नाम था गौरीशंकर मिश्रा। मिश्राजी चुनार में अध्यापक थे और निवासी थे तेंदुआ गांव के जहां से बाबा सिद्धनाथ की दरी समीप है। मिश्राजी और मैं एक दूसरे को देखकर अति प्रसन्न हुए। वह मेरी खोजी वृत्ति से भली-भाँति परिचित थे।
पूछने पर मैंने केवल इतना ही बतलाया कि बाबा सिद्धनाथ का दर्शन करना है लेकिन इसके अतिरिक्त मुझे वहां की आसपास की रहस्यनयी गुफाओं के विषय में भी बहुत कुछ जानना-समझना है।
मेरा उद्देश्य जानकर मिश्राजी बोले–
_भाई विकासजी ! उधर आसपास कई गांव मुसहरों (चूहे पकड़ने वालों ) के हैं। एक प्रकार से वे वहां के मूल आदिवासी हैं, इसलिए वहां के प्राकृतिक वातावरण, वहां की भौगोलिक स्थिति और वहां के इतिहास की अच्छी जानकारी रखते हैं। मुझे विश्वास है कि उन मुसहरों से आपको काफी सहयोग मिलेगा। मेरा एक परिचित मुसहर है। नाम है–हरखू। हरखू अपने गांव का चौधरी है।_
लगभग 50-55 की उम्र होगी हरखू की। लेकिन उम्र का प्रभाव नहीं उसके शरीर पर अभी तक। काला रंग, कसा हुआ गठीला शरीर, आंखें छोटी लेकिन काफी तेज, सिर पर मटमैली पगड़ी, कई जगह से फटी गंजी और कमर में मैली-कुचैली धोती व पैरों में चमरौधा।
मिश्राजी ने बोलना शुरू किया–
सिद्धनाथ एक गरीब ब्राह्मण परिवार के थे। उनके पिता ने विद्याध्ययन के लिए गुरु के पास भेजा। उनका तब तक यज्ञोपवीत संस्कार नहीं हुआ था। गुरु ने यथासमय उनका यज्ञोपवीत संस्कार करके विद्याध्ययन कराना चाहा। नियम के अनुसार यज्ञोपवीत संस्कार के बाद सिद्धनाथ पांच घरों से भिक्षा मांगने निकले लेकिन दुर्भाग्यवश किसी एक घर में भी भिक्षा नहीं मिली सिद्धनाथ को।
ग्लानि से भर उठा उनका बाल्य मन। वह ग्लानि इतनी अधिक थी कि वह न घर वापस लौटे और न गुरु के आश्रम ही। उन्होंने जंगल का मार्ग पकड़ा और काफी दूर जाने के बाद एक घने और भयानक जंगल में पहुँचे। वहां एक झरना पहाड़ों के ऊपर से नीचे झर रहा था। लंगूर, बन्दर, शेर-चीतों से भरा था वह जंगल।
_सायंकाल शेर की दहाड़ सुनकर सिद्धनाथ एक गुफा में घुस गए और एक भारी पत्थर से गुफा का मुख बन्द कर दिया। सवेरा हुआ तो बाहर निकले। सामने एक मुसहर दिखलायी दिया। उसने बालक सिद्धनाथ को वहां से चले जाने को कहा पर उनको इतनी ज्यादा ग्लानि थी कि जब भिक्षा ही नहीं मिली तो गुरु के पास खाली हाथ कैसे जाएं ? इसी सोच में कई दिन उस स्थान में रह गए सिद्धनाथ। वही गुफा उनकी निवास-स्थली बन गयी।_
सवेरा होता, झरने में स्नान करते और वहीं किसी पत्थर पर बैठकर भगवान शंकर का ध्यान और जप करते वह। एक दिन सिद्धनाथ को खोजते हुए उनके गुरु और माता-पिता या गए। घर वापस लौटने का आग्रह करने लगे लेकिन सिद्धनाथ ने यह कहकर मना कर दिया–,मेरे भाग्य में विद्या नहीं है।
अगर मुझे विद्वान होना होता तो पांच घरों में से किसी एक घर से तो भिक्षा मिलती। अब मैं यहीं रहकर भजन करूँगा। आप सब लोग जाइये और भविष्य में भी कभी मत आइयेगा यहां।
लोगों ने बहुत समझाया, जंगली जानवरों का भी भय दिखलाया, लेकिन सिद्धनाथ अपने निर्णय पर अडिग रहे। विवश होकर हर रविवार को उनके गुरु स्वयं आते और उनको कुछ पढा-लिखा कर चले जाते।
कुछ ही वर्षों में सिद्धनाथ बहुत बड़े विद्वान हो गए। न जाने कैसे उन्हें कई प्रकार की योग सिद्धियां उपलब्ध हो गयीं और फिर प्रसिद्ध होने में देर नहीं हुई।
गुफा के बाहर शेर, चीते, बाघ और अन्य हिंसक जानवर आकर बैठे रहते कुत्ते-बिल्ली की तरह। हिंसा का नाम नहीं। उनके दर्शन करने के लिए लोग दूर-दूर से आते थे। लेकिन रात में वह किसी को नहीं ठहरने देते। जनश्रुति है कि बाबा सिद्धनाथ ने 110 वर्ष की आयु में शरीर त्याग किया था।
उस समय दिल्ली में जहांगीर का शासन था। शेरशाह से युद्ध में पराजित होकर जहांगीर ने मनौती मानी थी–यदि मैं फिर दिल्ली की गद्दी पर बैठूंगा तो बैठने के बाद बाबा सिद्धनाथ के दर्शन अवश्य करूँगा।
जहांगीर बाबा को पहुंचा हुआ औलिया फकीर मानता था। जब वह बाबा के दर्शन करने आया तो बाबा ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा–जाओ, दिल्ली के तख्त पर बैठो लेकिन क्षत्रियों को परेशान मत करना। यदि ऐसा किया तो समझ लो कि मेरा आशीर्वाद काम नहीं आएगा।
_जहांगीर बोला–बाबा, ऐसा ही होगा। आपका आशीर्वाद कभी बेकार नहीं जाने दूंगा।_
बाबा की समाधि पर सूखे पत्ते बिखरे हुए थे और धूल भी जमी हुई थी। हाथ से साफ किया सब। बाद में पानी से धोकर अगरबत्ती जलाई और वहीं एक पत्थर पर बैठ गया मौन साधे। नीरव निस्तब्ध वातावरण ! एक अबूझ-सी शान्ति बिखरी हुई थी। नीले आसमान में सफेद और भूरे बादलों के छोटे-बड़े टुकड़े हवा के लय पर तैर रहे थे। पेड़ों से टकराकर हवा की सरसराहट कभी-कभी उस परम शान्ति को भंग कर देती थी।
_धीरे-धीरे अंतर्मुखी होने लगा मैं। विचित्र अवस्था (अंतर्बोध की अवस्था ) थी वह और उसी विचित्र अपरिचित अवस्था में लगा–कोई युवा सन्यासी खड़ा है मेरे सामने वेदी पर। उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में न जाने कैसा भाव था निर्लिप्त और निर्विकार। लगता था–जैसे कोई भाव ही नहीं हो। वह एकटक देख रहा था मेरी ओर। अपनी आंखों की भाषा में क्या कहना चाहता था वह अपरिचित युवा सन्यासी–बतला नहीं सकता मैं।_
लगा–जैसे सांस बन्द हो गयी है मेरी। साँसरहित जीवन का अद्भुत आनन्द। क्या उस अपरिचित युवा सन्यासी की अलौकिक उपस्थिति से उस परम आनन्द की अनुभूति हो रही थी उस क्षण मुझे ?–बतला नहीं सकता मैं।
हॉ, इतना अवश्य बतला सकता हूँ कि काफी देर तक उस परम आनन्द के अगाध सागर में डूबता-उतराता रहा मैं और कब मैं अपनी जागतिक स्थिति में आ गया, उसका पता नहीं चला मुझे।
आंखें खुल गयीं अब। मेरे सामने पत्थर का चबूतरा था और उस पर जल रही थी अगरबत्ती। भला कौन जानता है कि उस पत्थर के चबूतरे के नीचे जिस व्यक्ति की अस्थिकाया कभी किसी समय रखी गयी होगी और जो अब मिट्टी में घुल-मिलकर स्वयं मिट्टी बन गयी होगी–वह कौन था ?
_किस उद्देश्य को साकार करने के लिए आई होगी इस धरती पर उसकी दिव्य आत्मा ? निश्चय ही कोई सिद्ध आत्मा ही अवतरित हुई होगी सिद्धनाथ के रूप में–इसमें सन्देह नहीं। पत्थर के चबूतरे के रूप में बनी एक सिद्ध महापुरुष की चिरसमाधि !_
*चौरासी सिद्ध और चौरासी लाख योनियाँ :*
सिद्धों की परम्परा में चौरासी सिद्ध हुए हैं। वास्तव में वे चौरासी सिद्ध चौरासी लाख योनियों के प्रतीक हैं। प्रतीक का अर्थ है–प्रत्येक योनि मोक्ष की अधिकारिणी है। उन्हीं चौरासी लाख योनियों में एक योनि ‘पत्थर’ की भी है।
_कभी-न-कभी पत्थर भी होगा मुक्त। केवल अन्तर है समय का। पत्थर को मुक्त होने के लिए लम्बी यात्रा करनी पड़ेगी। पत्थर और मनुष्य में अस्तित्वगत भेद नहीं है। भेद है तो केवल मात्र चैतन्यता का। ज्ञात होना चाहिए कि पृथ्वी पर सबसे पहले भगवान की प्रतिमा पत्थर की ही बनी। उसके पहले पत्थर की मूर्ति का प्रचलन नहीं था।_
पत्थर की प्रतिमा इसलिए बनाई जाती है कि इस जगत में पत्थर सबसे सोई हुई वस्तु है, इसके ठीक विपरीत है जगत में मनुष्य। द्वापर युग के अन्त होते-होते महाभारत काल में ज्ञान, विज्ञान, शक्ति, सामर्थ्य, शस्त्र, शास्त्र, सभ्यता, संस्कृति–सब कुछ विनाश को प्राप्त हो चुका था। हम जहां के तहाँ पहुँच गए। जो कहीं कुछ बचा भी था, वह कलिकाल के आगमन में विधर्मी आक्रांताओं की कुदृष्टि और क्रूरता की भेंट चढ़ गया।
_हम फिर से पूरा पाषाण युग के आरंभिक काल में पहुंच गए। कलियुग के आगमन के बाद भगवान महावीर, भगवान बुद्ध जैसे अवतारी महापुरुष इस जगत के विस्तार में सबसे अधिक जागृत और चैतन्य हुए।_
कहाँ सबसे अधिक सुप्त पदार्थ’ प्रस्तर’ और कहां चैतन्यतम बोधयुक्त बुद्ध भगवान और महावीर ? दोनों के बीच सम्बन्ध स्थापित किया बौद्धधर्म और बौद्धसंस्कृति ने।
_वास्तव में पाषाणकाल में पत्थर से लेकर बुद्धयुग तक की यात्रा में उस एक ही तत्व का विस्तार है। पत्थर में भी वही तत्व निहित है जो बुद्ध में प्रकट हुआ। पत्थर की प्रतिमा का यही तात्पर्य है। महाभारत कालीन युग में हमारी उन्नत और विकसित संस्कृति और सभ्यता विनाश की भेंट चढ़ गई।_
सब कुछ उस समय के अस्त्र-शस्त्र (ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र पाशुपतास्त्र जैसे दिव्यास्त्रों की अग्नि में स्वाहा हो गया। हम वहीं आ गए जहां से आरम्भ हुए थे।
फिर जगत की सृष्टि, जगत की सभ्यता, संस्कृति, जगत की उन्नति विनाश की भेंट चढ़ गई और विलुप्त हो गयी। सारा ज्ञान, विज्ञान, सारी संस्कृति और सारी सभ्यता अहंकार की बारूद की भेंट चढ़ गई, ठीक उसी तरह जैसे अभी महाविनाश का ताण्डव चल रहा है। लगता है मानवता सामूहिक आत्महत्या करने को कटिबद्ध है।
_चौरासी सिद्धों की संख्या का यही तात्पर्य है कि प्रत्येक योनि के प्राणी को अधिकार है सिद्धावस्था को उपलब्ध होने का। ऐसा कोई प्राणी इस संसार में नहीं है जो एक समय परम सिद्ध होने से वंचित रह सके। अस्तित्व का निम्न-से-निम्न स्तर (पत्थर) भी एक दिन विकास के उच्च शिखर पर पहुंचता ही है–इसमें सन्देह नहीं।_
दूसरे ही दिन आ गया हरखू मुझे साथ ले जाने के लिए। मिश्राजी ने रात को ही सहेज दिया था उसे। अपने साथ एक लम्बा-सा बरछा और काफी धारदार कुल्हाड़ी ले आया था हरखू।
_चारों ओर घनघोर जंगल और उस भयानक जंगल के बीच अजगर-सी बलखाती हुई संकरी पगडण्डी, घोर सन्नाटा, ऊँचे-ऊँचे घने पेड़ और उन पेड़ों से टकराकर सरसराती पर्वतीय हवा और उसमें बसी हुई जंगली जड़ी-बूटियों की अनजानी गन्ध और एक अजीब-सी दहशत। पूरी दो घण्टों की मौन यात्रा मैं पहुंचा हरखू के साथ सत्येशगढ़।_
चार-पांच छोटी-छोटी दूकानों का छोटा-सा बाजार, कच्ची सड़क, आपस मे झगड़ते हुए तीन-चार मरियल कुत्ते और सड़क के किनारे किसी आशा में बैठे हुए कुछ दीन-हीन-से काले-कलूटे मुसहर एक गोरे-लम्बे और आकर्षक व्यक्ति को देखकर उन सबकी आंखें एक साथ मेरी ओर उठ गयीं।
थोड़ा सहम गया मैं। सड़क बाजार के आगे जाकर बायीं ओर मुड़ गयी थी और जाकर सत्येशगढ़ के किले के पास समाप्त हो गयी थी। हरखू ने बतलाया–सत्येशगढ़ के आगे नौगढ़ है। उसके बाद है–सरसों गांव। वहां से बाबा की समाधि बहुत ही निकट है।
_दोपहरी हो चुकी थी। उस दिन बाबा की समाधि का दर्शन कठिन था। वहां पहुंचते-पहुंचते शाम हो जाएगी। हरखू ने सुझाव दिया–आज की रात नौगढ़ में बिता कर कल बिल्कुल सवेरे निकल जाना ठीक रहेगा। हरखू का सुझाव अच्छा लगा मुझे।_
पहले ही जैसे जंगली रास्ते से गुजर कर लगभग चार घण्टे बाद नौगढ़ पहुंचा था। नौगढ़ में भी बाजार था। लगभग सभी वस्तुओं की दूकानें थीं–राशन की, परचून की, बीड़ी-तम्बाखू की, दर्जी की, पूड़ी-मिठाई की और दारू की भी। महुआ का ठर्रा भी सस्ते दामों में मिलता था।
_देखा–दो-तीन मुसहर ठर्रा पी रहे थे पुरवे में और जो पी चुके थे, वे वहीं पटरी पर नशे में धुत्त लुढके पड़े थे।_
बाजार से निकलते ही हमें नौगढ़ का किला दिख गया–ध्वंस परिवेश में अतीत की यादगार के रूप में। आगे का हिस्सा खण्डहर में बदल गया था, लेकिन पिछला भाग धूल-धूसरित होकर भी बांकी भंगिमा से सिर ऊँचा किये खड़ा था। चारों ओर ‘सांय-सांय’ हो रही थी। एक विचित्र-सी उदासी, एक अबूझ-सी खिन्नता परिव्याप्त थी किले के उस भाग में।
किले की अटी टूटी-फूटी सीढियां चढ़ते समय लगा–जैसे काफी वर्षों से कोई आया न हो वहां। टूटी-फूटी बारादरी में प्रवेश करते ही दहशत से पर फड़फड़ाते कबूतर कानों को छूते हुए निकल गए। लगा–कोई मांसखोर पक्षी चीखा हो वहीं कहीं।
_विस्फारित नेत्रों से चारों ओर की टोह लेते हुये एक-एक पग आगे बढ़ते रहने पर भी कोई अपनी हथेलियों से आंखें बंद कर लेता। कुछ वैसी ही अनुभूति हुई उस म्लान निस्तब्ध किले में भी मुझे। धूल से भरे बारादरियों के बड़े-बड़े पत्थर, उखड़े हुए लम्बे-लम्बे खंबे, टूटी-फूटी कुर्सियां, काई जमी हुई चुने की सुर्खी मटमैली बदरंग दीवारें।_
हर क्षण यही लगता कि रुंधी हुई हवा की उस अवशता के बीच किमखाब की खूब कीमती पोशाक पहने, कानो में मणिकुंडल लुटकाये, गुलाबी पगड़ी बांधे, पैरों में जरी की जूतियां, लकदक परिवेश में कौई धीमे-धीमे चलता हुआ अतीत, जीर्ण-शीर्ण काले परदे को उघार देगा और सहज में भी उस डरावने अंधियारे वातावरण में मेरे मन-प्राणों को स्तंभित कर देगा एकबारगी।
_मगर कोई आया नहीं। सतर्कता से एक-एक कर कमरे को देखते हुए बारादरी, बरामदे, आंगन से टहल कर नीचे आया। उस समय सायंकाल के सात बज चुके थे। सारा आकाश काले बादलों से भर गया था और उद्दाम हवा की लय पर जंगली पेड़ झूम-झूम रहे थे।_
मैंने कहा–अब ?
मेरी ओर देखकर हरखू बोला–चिन्ता न करो सरकार। यहां जरूरी इंतजाम हो जाएगा। इस किले के नीचे पहाड़ों की तराई कई घर मेरी जात के रहते हैं। मेरी भी झोपड़ी वहीं है। मैंने अपने लड़के को बोल दिया है। वह रोटी, दही, और गुड़ लेकर आता ही होगा।
_थोड़ा निश्चिन्त हुआ। सिर उठाकर आसमान की ओर देखा। धूनी हुई रुई जैसे काले अंधकार से भर गया आसमान। चारों ओर एक अजीब-सा सन्नाटा, एक अबूझ-सी निविडता छा गयी थी। खण्डहर जैसा किला गहन अन्धकार में पुराने इतिहास पर सिर धुनता-सा प्रतीत हो रहा था।_
थोड़ी ही देर बाद हाथ में एक बड़ी पोटली और लालटेन लिए झिंगरू आ गया। हरखू का बेटा था झिंगरू। बीस-पच्चीस वर्ष का वह कद्दावर युवक अच्छा लगा मुझे।
बहुत तेज भूख लगी थी। मक्की की मोटी रोटी और दही, गुड़ खाने में स्वादिष्ट लगा। पिता-पुत्र ने भी खाया मेरे साथ दालान में कम्बल बिछा कर।
_बुरी तरह बादल गरजने लगे और उसी के साथ-साथ झम-झम कर बरसने लगे मेघ भी। किले के अनजाने परिवेश में नींद नहीं आयी मुझे।_
हा-हाकार करती हुई बह रही थी पुरवा हवा और उसी समय मुझे सुनायी दिया “ॐ-ॐ” का स्वर। आश्चर्य हुआ। इस बनैले प्रदेश में इस समय कौन कर रहा है ‘ॐ’ का जप। बारादरी के बाहर निकल आया मैं। गहन अन्धकार तो था ही। अब पानी भी बरसने लगा।
_हरखू चौंक कर उठ बैठा। हाथ से लम्बा बरछा लिए तन कर खड़ा हो गया और पूछा– क्या बात है सरकार ! शीतल अन्धकार के अन्तहीन इस समुद्र में कौन बोल रहा है ? हरखू, तुम्हारी समझ मे आया कुछ ?_
हरखू गला साफ करते हुए बोला–यह तो साधू बाबा की आवाज है।
कौन साधू बाबा ? कौतूहल हुआ मुझे। किले की दूसरी ओर छोटी-छोटी तीन-चार कोठारिया हैं। उन्ही में से एक कोठरी में न जाने कब से एक साधु बाबा रहते हैं।
_मेरे जन्म क्या, मेरे पिताजी के भी जन्म से पहले से ही यह साधु बाबा मौजूद हैं। कब से रह रहे हैं ? कब बाहर निकलते हैं ? कब क्या करते हैं ? क्या खाते-पीते हैं ? यह कोई नहीं जानता सरकार !_
थोड़ा रुककर बादलों की ओर देखते हुए हरखू आगे बोला- कभी-कदा कोई कुछ दे जाता है तो “ना” नहीं करते। कोई दर्शन करने आता तो भी मना नहीं करते.
हरखू की बात सुनकर आश्चर्य, कौतूहल और जिज्ञासा के मिले-जुले भावों से भर गया मेरा मन। साधू बाबा से मिलने की लालसा जागृत हो उठी मेरे भीतर। हरखू ! क्या मैं साधु बाबा से मिल सकता हूँ ?
हाँ..हाँ सरकार मिल सकते हैं। मैं रहूँगा न आपके साथ।
नहीं हरखू ! मैं अकेले जाकर मिलूँगा और वह भी अभी। हाँ हरखू ! अभी।
_चार सेल वाली अपनी टॉर्च हाथ में ले ली और उसकी तेज रोशनी में बारादरी की टूटी-फूटी सीढियां उतर कर आगे बढ़ चला मैं। बादल बुरी तरह गरज रहे थे। हल्की-हल्की बारिश भी हो रही थी लेकिन थोड़ी देर बाद बारिश का शोर और बढ़ गया। अन्धेरे की छाती पर जुगनुओं के जलते-बुझते रहने का खेल चल रहा था। अपने तुमुल रव से धरती को कँपाती हुई बिजली फिर चमकी।_
पानी में भीगते हुए गिरते-पड़ते आगे बढ़ता ही गया मैं उस अराजकता भरी रात में। थोड़ा और आगे बढ़ने पर नजर उठाकर देखा सामने अन्धकार का धुंधलका-सा परदा और उसके पार एक खण्डहर जैसी बड़ी-सी कोठरी की झलक। मैं उसके सामने जाकर चुपचाप खड़ा हो गया।
तभी कोठरी के भीतर से गम्भीर और खनकती-सी आवाज़ आयी–कौन है ?
_राशि-राशि बिखरे अन्धकार में धुंधले उजाले का दायरा कसमसाया और सिमट कर फैलता गया.. फैलता गया। लगा–कोई आ रहा है। आंखों में विस्मय भरा मैं सामने देखता रहा।_
काठ का जर्जर किवाड़ हटाये जाने की आहट हुई। म्लान उजियारा..लालटेन की पीली मद्धिम रोशनी में समय के थपेड़ों की चोट खाई हुई कोठरी दिखने लगी। एक हाथ बाहर निकला, उसके पीछे अस्पष्ट-सा चेहरा..! गौर से देखने पर शरीर की उभरी रेखाएं स्पष्ट हो गईं।
_दुबला-पतला जीर्ण-शीर्ण-सा शरीर, तीखी नाक, विस्फारित भावहीन-सी आंखें जिसके नीचे स्याह धब्बे पड़ गए थे, विवर्ण रक्तहीन-सा मुख, न जाने कैसी नजर से देख रहा था वह साधु कि डर लगने लगा मुझे।_
मैं आपके दर्शन करने आया हूँ। मेरे स्वर में भय का कम्पन था।
जैसे दुविधा हो रही हो–ऐसी निगाह से देखता रहा वह साधु मेरी ओर फिर क्षीण हँसी हँसकर बोला–आइए मानव! भीतर आइए।
इन्हे मेरा नाम भी पता है…! मद्धिम रोशनी का दायरा फिर कसमसाया और फिर आगे की ओर सरका। उसी के पीछे-पीछे मैं चलने लगा। बाहर की दुनियाँ से वह अनजाना लोक परे-सा प्रतीत हो रहा था। घुन और दीमक से खोखले हुए दो जर्जर खम्बों पर टिका बरामदा, सुर्खी चूने की जगह-जगह टूटी हुई दीवारें, कच्चे-पक्के आँगन में उगे जंगली पौधे, एक किनारे डरावना-सा आंवले का पेड़, ऑंगन के सामने पत्थर के टुकड़ों से बनी खण्डहर जैसी कोठरी। उस सारे धूसर परिवेश में न जाने कैसी ध्वंस की गन्ध.. काठ का पुराना किवाड़ों का जर्जर दरवाजा जिसमें कई जगह दीमक लगी हुई थी।
_सिर झुका कर भीतर घुसा, धुआं उगलती लालटेन की पीली मद्धिम-सी रोशनी ने भीतर की वस्तुओं को स्पष्ट कर दिया। टूटे-फूटे फर्श पर न जाने कब से बिछी हुई मटमैली-सी चटाई, एक ओर पुराना तख्त और तख्त पर बिछा हुआ काला कम्बल जिसके नीचे रखी थी पानी से भरी एक गगरी और एक पीतल का पुराना गिलास। सामने एक छोटी-सी लोहे की खिड़की जो जंगल की ओर खुलती थी।_
देखने से साधु की उम्र 80 से अधिक प्रतीत नहीं हो रही थी, लेकिन शरीर पर उम्र का प्रभाव अधिक नहीं पड़ा था। साधना-उपासना का कोई लक्षण नहीं दिखाई दिया मुझे वहां।
कन्धे पर पड़ी चादर को भली–भांति अपनी जर्जर काया पर लपेटते हुए साधु बोला–अब कहिये ?
आपके विषय में सुना था तो दर्शन करने की लालसा दबा न सका मैं। मेरे स्वर में थोड़ी घबड़ाहट थी। साधु कुछ नहीं बोला। तनकर बैठा रहा आंखें बंद किये। छाती के भीतर कुछ खाली-खाली-सा प्रतीत हुआ।
उसी मुद्रा में साधु धीरे से बोला–शोभा माँ की खोज में काशी से आये हो न ?
_सुनकर चौंक पड़ा मैं। साधु को कैसे मालूम हुआ ? मैंने भीत दृष्टि से साधु की ओर देखा–अब उसकी मुद्रा बदल चुकी थी। सिर घुमा कर एकटक बिना पलक झपकाए वह मेरी ओर ही देख रहा था।_
जीर्ण क्लांत चेहरा, राख जैसा रँग, अजीब-सी सम्मोहन भरी वह निगाह ! क्या था उस दृष्टि में ? कह नहीं सकता।
_मैं हूँ रत्नेश्वर सिंह। कभी किसी समय नौगढ़ में ओहदेदार था लेकिन अब रत्नेश्वरनाथ हूँ, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। लगा–जैसे ऑंगन के आंवले के पेड़ पर चोंच रगड़ता हुआ कोई मांसखोर पक्षी कर्कश स्वर में चीख पड़ा हो और उसी के साथ कई चमगादड़ों के एक साथ पर फड़फड़ाने की आवाज़ भी सुनाई दी।_
समझते देर न लगी मुझे–पहुँचे हुए सिद्ध महात्मा थे रत्नेश्वरनाथ- इसमें सन्देह नहीं। मेरी अन्तर्दृष्टि से छिपी न रह सकी उनकी वास्तविक स्थिति। दस महाविद्या के परमसाधक थे वह।
बारिश का एकरस शोर। तड़तड़ाती हुई बिजली चमकी और हवा का एक झोंका भीतर आया। लालटेन की रोशनी एक बार कांपी और फिर ‘भक्क’ की आवाज के साथ बुझ गयी। अंधेरे में डूब गई कोठरी। अब क्या होगा ?
_तुम दस महाविद्या के सम्बन्ध में जानना चाहते हो ? क्यों न जानना चाहोगे, तन्त्र पर जो खोज कर रहे हो–अंधेरे में तैरती हुई रत्नेश्वरनाथ की गम्भीर आवाज सुनायी दी। फिर स्तब्ध होना पड़ा वह भी कैसे ? जान गए महाशय।_
*एक अविश्वसनीय चमत्कार :*
अचानक शुभ्र प्रकाश से भर उठी पूरी कोठरी। लगा–जैसे हज़ार-हज़ार वॉट के कई बल्ब जल गए हों एक साथ। जिस परिवेश को लालटेन की पीली रोशनी में देखा था, वह परिवेश अब नहीं था। उस जीर्ण-शीर्ण पुरानी कोठरी के स्थान पर सफेद मार्बल पत्थर का बना एक छोटा-सा हॉल था जिसकी छत और दीवारों से रँगविरंगी रश्मियां प्रस्फुटित हो रही थीं उस समय। आश्चर्य एवं भय के मिले-जुले भाव से भर गया मैं।
_क्या है यह सब ? कौन-सा कौतुक है यह ? कौन-सी लीला है यह ? क्या कोई तन्त्र का चमत्कार घटित हुआ है मेरे सामने ? सिर घुमाकर चारों ओर देखने लगा मुंह बाए। मेरी दृष्टि जहां स्थिर हुई, वहां एक ऊंची वेदी पर दस महाविद्याओं में श्रेष्ठ *छिन्नमस्ता* की मूर्ति खड़ी थी। चमकते हुए लाल पत्थर की थी छिन्नमस्ता की वह विशाल मूर्ति।_
नीचे लाल पत्थर का ही खिला हुआ कमल-दल था जिसके भीतर त्रिकोण मण्डल बना हुआ था जिसमें नर-नारी रूप में कामदेव और रति विपरीत मिथुन-मुद्रा में अवस्थित थे। उनके ऊपर प्रत्यारूढ़ मुद्रा में खड़ी थी महाशक्ति छिन्नमस्ता।
_सुन्दर कोमल रक्ताभ और नागमणी मंडित वायां चरण आगे और दाहिना चरण पीछे। गले में मुंड-माला, एक हाथ में रत्नजड़ित खड्ग और दूसरे हाथ में खण्डित स्व मस्तिक। उत्तुंग पयोधरा दिगम्बरा रक्तवर्णा, एक ओर डाकिनी शक्ति खड़ी थी प्रत्यारूढ़ मुद्रा में और दूसरी ओर खड़ी थी वर्णिनी शक्ति।_
दोनों शक्तियां प्रत्यारूढ़ मुद्रा में थीं और उनके एक हाथ में रक्तरंजित खड्ग और दूसरे हाथ में रक्तालिप्त नरपशु-मुण्ड था।
महाविद्या छिन्नमस्ता की कटी हुई गर्दन से रक्त की तीन धाराएं निकल रही थीं। पहली धारा तो छिन्नमस्ता के मुख में और शेष दो धाराएं डाकिनी और वर्णिनी के खुले मुख में गिर रही थीं। जो धारा कटे हुए छिन्नमस्ता के मुख में गिर रही थी, उसका बहुत-सा अंश देवी पर से होता हुआ फर्श पर फैल रहा था।
_हे भगवान ! तन्त्र का कौन-सा चमत्कार है यह ? सिर उठाकर देखा–तीनों रक्तधारायें माँ महामाया महाविद्या कीे कटी हुई गर्दन से अनवरत निकल रही थीं वक्राकार होकर। भय और आतंक से बार-बार रोमांचित हो रहा था मेरा शरीर।_
विस्फारित नेत्रों से देखा–महाविद्या की पाषाण प्रतिमा अत्यन्त सजीव लगी मुझे उस समय। न जाने कब और कैसे सिर घूम गया तख्त की ओर। तख्त पर बिछे हुए रत्नजड़ित कीमती कालीन पर पद्मासन की मुद्रा में ध्यानस्थ बैठे हुए थे रत्नेश्वरनाथ।
_जिस रत्नेश्वरनाथ को कुछ समय पहले देखा था, वह रत्नेश्वरनाथ नहीं थे वह। वह थे–महातंत्रयोगी रत्नेश्वरनाथ।_
निश्चय ही काल की सीमा लांघकर महाकाल में प्रवेश कर गयी थी मेरी आत्मा उस समय जहाँ न भूत है और न तो है भविष्य ही, केवल है तो वह वर्तमान। सचमुच में महाकाल के चतुर्थ आयामी जगत में मैं सांस ले रहा था। अतीत मेरे सामने आ गया था वर्तमान के रूप में। महाकाल की तो यही विशेषता है। भूत और भविष्य को वर्तमान में ला देता है वह।
धीरे-धीरे कोई अपरिचित-सी सुगन्ध तैरने लगी कोठरी के शान्त और निस्तब्ध वातावरण में। अविभूत-सा हो रहा था मैं उस दिव्य सुगन्ध के प्रभाव से। कैसी थी वह स्वर्गीय सुगन्ध ?–बतला नहीं सकता।
_मैं कभी माँ की ओर देखता तो कभी देखता समाधिस्थ रत्नेश्वरनाथ की ओर। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं ? कहाँ जाऊँ ? कैसे जाऊँ ? संशय, विस्मय और किंचित भय के मिले-जुले भाव से भर उठा था मेरा मन उस समय।_
अपनी खोज की दिशा में पहली बार ऐसा भयप्रद रोमांचकारी और अविश्वसनीय अनुभव हुआ था मुझे। सच तो यह है उस वातावरण का ठीक-ठीक वर्णन कर पाने में असमर्थता का अनुभव कर रहा हूँ मैं।
*दस_महा_विद्या :*
तभी रत्नेश्वरनाथ का स्वर तैरने लगा उस सुगन्धित वातावरण में। वे कह रहे थे–दस महाविद्याओं में काली, तारा, षोडशी और भुवनेश्वरी के बाद ‘छिन्नमस्ता’ का नाम आता है।
कामाख्या के अधिष्ठाता महामुद्रापीठ कामरूप के दस दिशाओं में क्रम से दस महाविद्याओं की स्थिति है। योनिपीठ कामाख्या त्रिगुणातीत और रक्तपाषाण रूपिणी है। योनिपीठ होने के कारण तांत्रिक साधना की दृष्टि से इसका भारी महत्व और महात्म्य है। छिन्नमस्ता का पर्याय नाम ‘प्रचण्ड चण्डिका’ और ‘वज्रवैरोचनी’ भी है।
_छिन्नमस्ता का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए उनका षोडशाक्षर बीजमंत्र है- श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्रवैरोचनीये हूँ हूँ फट स्वाहा। महायोनिपीठ का निर्माण कर उपर्युक्त मन्त्र का स्फटिक माला पर एक हज़ार नित्य जप करने से अभीष्ट लाभ होता है।_
महत्वपूर्ण बात तो यह है कि कि जिस प्रकार बौद्ध वज्रयान तन्त्र-साधना का महत्वपूर्ण केंद्र महाचीन यानी तिब्बत वाममार्गीय साधना पद्धति में चीनतारा का महत्व है, वैसे ही छिन्नमस्ता का वज्रयान तांत्रिक प्रतिरूप वज्रयोगिनी का महत्च है।
_बौद्ध वज्रयान तन्त्र में जिन पांच ध्यानी बौद्धों की चर्चा की गई है, उनमें से एक नाम वैरोचन भी है। बौद्ध तन्त्र में ‘वज्र’ शब्द का अर्थ बहुआयामी है। तन्त्र के आचार्यों का कहना है कि वज्र वैरोचनी के रूप में छिन्नमस्ता का विकास बौद्ध वज्रयान तन्त्र-साधना के परिवेश में हुआ है–इसमें सन्देह नहीं। पांच ध्यानी बौद्ध पांच स्कन्धों–रूप, विज्ञान, वेदना, संज्ञा और संस्कार के अधिष्ठाता हैं।_
इसी प्रकार उन्हीं के स्थूल रूप पंचतत्व हैं–आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी की अधिष्ठात्रीयां–लोचना, मामकी, पाण्डरवासिनी, तारा और वज्रधात्रीश्वरी हैं। इन्ही पांच अधिष्ठात्रीयों को शाक्त तन्त्र में वज्रा, गौरी, चौरी, वज्रयोगिनी और नैरात्ययोगिनी कहा गया है।
_यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो महाविद्या नौ ही हैं और उन नौ में मूल तीन ही हैं–काली, तारा और षोडशी। इन्हीं तीनों से योनि की उद्भावना है। त्रिधा योनि-चक्र श्रीविद्या का मूल है। सृष्टि, स्थिति और विनाश का कारक है। तन्त्र का यह मूल तत्व है।_
यह तत्व अति गम्भीर और रहस्यात्मक है। नौ महाविद्याओं से सम्बंधित नौ चक्र हैं। त्रिधा योनि-चक्र को ‘त्रिकूट’ भी कहा गया है।
रामायण काल का दिव्य औषधियों से परिपूर्ण ‘त्रिकूट पर्वत’ त्रिधा ‘योनि-चक्र त्रिकूट’ है। जो काली, तारा और षोडशी–इन तीन महाविद्याओं का साधना-केंद्र है। इन तीनों महाविद्याओं के बीजाक्षर क्रमशः ऐं ह्रीं और क्लीं हैं।
_तीनों महाविद्याएं सृष्टि-भूमि में त्रिगुणात्मिका प्रकृति हैं–सत्व, रज और तम–ये तीनों प्रकृति के गुण हैं और जिनका परिणाम है–सृष्टि, स्थिति और प्रलय। अर्थात इन तीनों चक्रों के संघात से नौ चक्रों की संरचना हुई है जिनके नाम हैं–सर्वानंदमय, सर्वसिद्धिकर, सर्वरोगहर, सर्वरक्षाकर, सर्वार्थसाधक, सर्वसौभाग्यदायक, सर्वसंक्षोमय, सर्वशाप परिपूरक और त्रैलोक्यमोहन।_.
इनमें प्रथम तीन चक्रों को ‘वाग्भवकूट’, दूसरे तीन चक्रों को “कामराजकूट’ और अन्तिम तीन चक्रों को ‘शक्तिकूट’ कहते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं–इन नौ चक्रों की अपनी-अपनी अधिष्ठातृ देवियां भी हैं जिनके नाम क्रमशः हैं–महात्रिपुरसुन्दरी, त्रिपुरसिद्धा, त्रिपुरमालिनी, त्रिपुराश्री, त्रिपुरवासिनी, त्रिपुरसुन्दरी, त्रिपुरेशी और त्रिपुरा।
_साधक- दृष्टि से इनकी साधना के तीन मत यानी तीन मार्ग हैं–‘कादि’, ‘हादि’ और ‘कहादि’। तीनों मार्गों की उपासिका-शक्ति क्रमशः काली, तारा और षोडशी हैं। काली की उपासना करने वाले कादि मत के साधक कहलाते हैं, तारा की उपासना करने वाले हादि मत के साधक और इसी प्रकार षोडशी की उपासना करने वाले कहलाते हैं-_
कहादि मत के–
काद्यं हाद्यं महेशानि
काद्य कालीमतम भवेत्त्।
हाद्यम श्रीत्रिपराख़्यम्च
कहादिरण्यम् तारिणीम् मतम्।।
वाममार्गीय साधक ‘कहादि मत’ को ‘वारिणी मत’ कहते हैं। दोनों में थोड़ी-सी भिन्नता है। तारिणी मत के अनुसार तारा महाविद्या के अन्तर्गत काली और षोडशी भी आ जाती है लेकिन मूल एक ही शक्ति है और वह है ‘त्रिकूट’। मूल से तीन और तीन से नौ। नौ चक्रात्मक यन्त्र ही ‘श्रीयन्त्र’ है जिसे तन्त्र ने ‘यन्त्रराज’ की संज्ञा दी है।
_यन्त्रराज श्रीयन्त्र के मूल में श्रीविद्या ही है। जैसा कि कहा गया है–‘मूल तंत्रात्मिका मूल कूटत्रय कलेवरा।’_
‘श्रीविद्या’ पद में ‘श्री’ महात्रिपुरसुन्दरी की द्योतक है और विद्याबोधक है विद्याराज्ञी काली का। इसका रहस्य अत्यन्त गूढ है। श्रीयन्त्र के रूप में श्रीसुन्दरी का मुख वाग्भव कूट है। कण्ठ से कटि पर्यन्त कामराज कूट है। इसी प्रकार कटि प्रदेश से पाद पर्यन्त भाग शक्तिकूट है।
_यहां यह बतला देना आवश्यक है कि मूल एक है। उस एक मूल से तीन हैं फिर उनसे नौ महाविद्याएं तन्त्र में निष्पन्न हैं। एक पूरक विद्या के योग से दस महाविद्या की परिकल्पना बाद में की गई है।_
*पिण्ड और ब्रह्माण्ड :*
भावनोपनिषद के अनुसार सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड श्रीचक्र मण्डल है। श्रीचक्र मण्डल के अन्तर्गत ध्रुव मण्डल है और ध्रुव मण्डल के अन्तर्गत तीन मण्डल हैं–खण्डकाल मण्डल, कालमण्डल और महाकाल मण्डल।
_जो ब्रह्माण्ड में है वही मानव पिण्ड में है। इस दृष्टि से श्रीचक्र मण्डल यानी श्रीचक्र मानव शरीर में भी है। ध्रुव मण्डल मानव शरीर में ‘ब्रह्मरन्ध्र’ है। खण्डकाल मण्डल ‘कपाल प्रदेश’ है। भूत, भविष्य और वर्तमान–ये तीनों खण्डकाल मण्डल हैं। मस्तक में भस्म का त्रिपण्ड लगाने की दृष्टि इसी दिशा में संकेत करती है।_
काल-मण्डल ‘हृदय-प्रदेश’ है। इसी प्रकार महाकाल-मण्डल ‘नाभि-प्रदेश’ है। पिण्डस्थ श्रीचक्र (यन्त्र) की साधना अन्तर्याग के अन्तर्गत है और ब्रह्मण्डस्थ श्रीचक्र (यन्त्र) की साधना बहिर्याग के अन्तर्गत है।
*तीन पथ और नौ गुरु :*
प्रत्येक पथ के तीन-तीन गुरु हैं। शरीर के नौ रन्ध्र (छिद्र) के रूप में प्रतिष्ठित हैं–“तेन नव रन्ध्र रूपो देह:।” श्रीविद्या तन्त्र के अनुसार ‘दिव्यौघ पथ’ के तीन गुरु हैं–प्रकाशानंद, विमर्शानंद और अनंदानंद। शरीर में इन तीनों का रूप दोनों कान और मुख –ये तीन रन्ध्र हैं।
_सिद्धौघ पथ के तीन गुरु हैं–ज्ञानानन्द, सत्यानन्द और पूर्णानन्द। शरीर में इनका रूप है–दोनों नेत्र और उपस्थ–ये तीन रन्ध्र हैं।_
मनौघ पथ के भी तीन गुरु हैं–सोमायानंद, प्रतिमानंद और सुभगानंद। शरीर में इनका रूप है–दोनों नासापुट और वायु। दिव्यौघ पथ का सम्बन्ध ‘शिवलोक’ से है, मनौघ पथ का सम्बन्ध ‘विष्णुलोक’ से है तथा सिद्धौघ पथ का सम्बन्ध ‘ब्रह्मलोक’ से समझना चाहिए।
_श्रीसाधना के अन्तर्गत इन तीनों के नाम हैं–वाग्भव कूट, कामराज कूट और शक्ति कूट। शरीर में मुख वाग्भव कूट है, हृदय कामराज कूट है और नाभि शक्तिकूट है। महाशक्ति का केंद्र नाभि है। शरीर में स्थित ये तीनों स्थान शिवशक्तिरूपा, श्रीविद्या, ललिताम्बिका का धाम है जिन्हें ‘नवरत्न द्वीप’ कहते हैं–“देहो नवरत्न द्वीप:।”_
मोती, माणिक, वैदूर्य, गोमेद, वज्र (हीरा) विद्रुम, पराग, मरकत और नीलमणि–ये नौ रत्न हैं।
_प्रथम तीन रत्नों का सम्बन्ध मुख प्रदेश से, दूसरे तीन रत्नों का सम्बन्ध हृदय प्रदेश से और अन्तिम तीन रत्नों का सम्बन्ध नाभि प्रदेश से समझना चाहिए।_
निश्चय ही बाहर अनवरत बारिश हो रही थी। बारिश का शोर, उद्दाम हवा का हा-हाकार और फिर एकाएक बादल बुरी तरह गरज उठे, साथ ही कड़कती हुई बिजली चमकी। खुली खिड़की से हवा का एक तेज झोंका आया और उसी के साथ आई पानी की बौछार भी।
_घुप अंधेरा छा गया कोठरी में। काजल जैसा काला अन्धकार और उस अन्धकार की गोद में सब कुछ समा गया। तभी कड़कड़ा कर बिजली चमकी और उसके क्षणिक प्रकाश में सूझ गया मुझे उस रहस्यमयी कोठरी से बाहर निकलने का रास्ता। सवेरा होने ही वाला था, लेकिन आसमान में हल्के-फुल्के बादल छाये हुए थे।_
बारिश रिम-झिम, रिम-झिम हो रही थी। बाहर निकलते ही देखा–सामने खड़ा था तनकर हरखू हाथ में बरछा लिए।
अरे ! हरखू तुम…?
_हाँ सरकार ! पूरी रात जागता रहा मैं आपके इंतजार में। जब रहा नहीं गया तो चला आया यहां आपको खोजते हुए। साधु बाबा से भेंट हुई ?–व्यग्र होकर पूछा हरखू ने।_
हाँ हरखू !
इसके आगे कुछ नहीं बतलाया मैंने हरखू को। वह भी चुप रह गया।
नौगढ़ किले से थोड़ा आगे पहाड़ी ढलान थी और उसके बाद पलाश (ढाक) के जंगलों से घिरा हुआ एक छोटा मैदान था जहां मुसहरों की बस्ती थी। कई छोटी-बड़ी झोपड़ियां, घास चरती हुई भेड़-बकरियाँ, धूल से भरे नंगे बदन खेलते कई लड़के।
_थोड़ी दूर पर एक कच्चा कुआं था जहां तीन-चार युवतियां घड़ों में पानी भर रही थीं। हरखू उसी बस्ती का रहने वाला था। उसकी अपनी दो झोपड़ियां थीं।_
मकई की रोटी और दही-गुड़ खाकर थोड़ा आराम किया मैंने। काफी थका था, पूरी रात का जागा हुआ भी था। झपकी लग गयी और जब जागा तो उस समय सुबह के दस बज रहे थे। बारिश तो बन्द हो चुकी थी लेकिन बादल अभी भी छाये हुए थे आसमान में।
*सिद्धनाथ की दरी का दर :*
चल पड़ा हरखू के साथ बाबा सिद्धनाथ की दरी की ओर। लगभग दो घण्टे का जंगली रास्ता और वह भी आड़ी-तिरछी पगडंडियों का। दोनों ओर आकाश को छूते हुए घने पेड़, मटमैले पहाड़ों का अटूट सिलसिला, कई भयानक स्थान, शेरों की मांद, जंगल में विचरते हुए जंगली सुअर, पेड़ों की शाखाओं पर उछलते-कूदते हुए लंगूर, दहशत से भरा वातावरण, पग-पग पर डरावने प्राकृतिक दृश्य, शेर के पंजों के जमीन में धंसे निशान।
_जब मैं बाबा की समाधि (दरी) पर पहुँचा तो उस समय दोपहर हो चुकी थी। चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और घना जंगल और उसके बीच में बाबा की समाधि। पहले जिस जल-प्रपात की चर्चा दुर्गा माँ ने की थी, वह थोड़ी ही दूर पर था। देखा–काफी ऊंचाई से सीढ़ीनुमा पहाड़ों से टकराता हुआ बड़े वेग से पानी नीचे गिर रहा था अनवरत।_
झरने के नीचे एक प्राकृतिक कुण्ड था जो चारों ओर से जंगली पेड़ों से घिरा हुआ था। बहुत नीचे था वह कुण्ड। पता नहीं, उसे देखकर थोड़ा भय लगा मुझे लेकिन हरखू के साथ नीचे उतर ही गया मैं। मेरे सामने से एक काफी मोटा काला सर्प सरसराता हुआ निकल गया।
_काफी बड़ा था वह डरावना सर्प। भय और आतंक से सिहर उठा मैं एकबारगी। कुण्ड का पानी मटमैला था।_
हरखू ने बताया–बहुत गहरा है यह कुण्ड। जब अंग्रेजों का राज था, उस समय मीरजापुर के कलेक्टर थे–विंडम साहब। विंडम साहब को लगाव था इस स्थान से। बाबा के प्रति भी उनके मन में काफी श्रद्धा थी। वे कभी-कदा शिकार खेलने के लिए भी इधर आते थे। उन्होंने एक बार कुण्ड की गहराई जाननी चाही।
_इसके लिए न जाने कितनी लम्बी लोहे की सिकड़ी डाली गई लेकिन कुण्ड की गहराई की थाह न लग सकी। कुण्ड में न जाने कब से एक मगरमच्छ भी रह रहा है। काफी पुराना है वह मगरमच्छ। उसकी आयु कितनी है कोई नहीं जानता।_
किसी दूसरे मगरमच्छ को वह कुण्ड में रहने नहीं देता। कभी किसी जानवर या स्त्री-पुरुष को हानि नहीं पहुंचाई उसने।
थोड़ा इधर-उधर घूम कर बाबा की समाधि पर आ गया मैं। न जाने कब की बनी सफेद चिकने पत्थर की थी थोड़ी ऊँची समाधि। बगल में हनुमानजी का अति प्राचीन मन्दिर था और उसी के सामने शेर की थी एक मांद।
_पहले यह मांद नहीं थी, एक लम्बी सकरी गुफा थी। हरखू ने बतलाया–उसी गुफा में रहते थे बाबा सिद्धनाथ।_
*सुख और महासुख :*
मेरे अंतराल में उस समय कोई कह रहा था–अपने चित्त को कोरा कागज बना लो। लिखे हुए कागज पर नहीं लिखा जा सकता। कोरे कागज पर ही वेद, उपनिषद, पुराण, शास्त्र अवतरित होते हैं। चित्त को कोरा कागज बना लेना ही सत्य की खोज की दिशा में उठाया गया पहला कदम है।
_हम पहला कदम ही सही से नहीं उठा पाते या उठाना नहीं जानते। कोरे कागज का अर्थ है–विचारों से छुटकारा पाना, निर्विचार अवस्था की ओर बढ़ना। चित्त में किसी भी प्रकार का विचार उत्पन्न ही न हो तभी सत्य अवतरित हो पाता है। विचार सदैव पराया होता है और सत्य पराया नहीं हो सकता।_
सत्य तो स्वयं का ही होता है, सत्य स्वानुभूत है। अनुभव अपना भी होता है और दूसरे का भी। क्योंकि अनुभव मन और इन्द्रियों का विषय है। मन और इन्द्रियों के विषय सिर्फ विचार होते हैं, अनुभव होते हैं। विचार हमें सिर्फ भटकाते हैं, भ्रमित करते हैं।
_विचारशून्य होने पर ही हृदय और आत्मा में सत्य प्रकट हो सकता है और सत्य अनुभव का नहीं अनुभूति का विषय है। चित्त में किसी भी प्रकार का विचार न हो तभी सत्य अवतरित होता हैं।_
*सुख क्या है* ?
कभी समझने का प्रयास किया है ? नहीं न ? कुछ क्षण के लिए अहंकार का अभाव हो जाना ही *सुख* है। जहाँ अहंकार है, वहां सुख नहीं। जब तक अहंकार है, तब तक सुख आ ही नहीं सकता।
_जब कभी सुख का अनुभव करते हो, तभी करते हो जब तुम्हारे भीतर किसी भी प्रकार का अहंकार नहीं रह जाता।_
*महासुख* क्या है ?
कभी समझने का प्रयास किया ? नहीं न ? इसे भी जानना चाहोगे तुम ? *महासुख का अर्थ है : सदैव के लिए अहंकाररहित हो जाना*। पूर्णरूप से चित्त के अहंकाररहित हो जाने पर ही आत्मा को महासुख की अनुभूति होती है।
_महासुख ही परमसुख है। निर्विचार की अवस्था में चित्त केवल शून्य ही रहता है। उसी शून्य की अनुभूति सुख है। यदि वह शून्य स्थायी हो गया, चिरन्तन हो गया तो वही महासुख में परिवर्तित हो जाता है।_
शून्य में प्राप्त होता है सुख और अहंकार में मिलता है दुःख। इसे ठीक से समझना होगा। सुख की अनुभूति तभी होती है जब तुम ‘तुम’ नहीं रहते, मैं ‘मैं’ नहीं रहता, हम ‘हम’ नहीं रहते। मेरा, तुम्हारा, हम सबका “मैं” पन खो जाता है सुख के क्षण।
_जहां “मैं” होता है, वहां सुख नहीं रहता और जहां सुख रहता है, वहां “मैं” नही। “मैं” के हटते ही सुख की झलक मिलने लगती है। मैं ही दुःख है, मैं ही अज्ञान है, मैं ही अन्धकार है। सुख का प्रकाश स्थायी महासुख है और स्थायी महासुख ही ‘परम आनन्द’ कहलाता है।_
तुम जब कहते हो–मैं सुखी हूँ–यह वाक्य भाषा की दृष्टि से तो सही है लेकिन अनुभव की दृष्टि से नहीं।
आश्चर्य की बात थी जो कुछ मैं उस समय अपने अन्तराल में सोचता, उसका तत्काल भीतर से उत्तर मिल जाता था। कौन देता था उत्तर ?–यह रहस्य बाद में मेरी समझ में आया। आध्यात्मिक व्यक्ति यही सोचेगा कि मेरी आत्मा का सम्वन्ध निश्चय ही उस महान आत्मा से जुड़ गया होगा। मुझे भी उस समय ऐसा लगा।
सन्यासी का मतलब घर से, जिम्मेदारियों से भागकर भिखारी बनाना नहीं. सन्यास यानी सत्य मे स्थित होना.
सन्यास एक बहुत बड़ी उपलब्धि है जीवन की। सन्यास का अर्थ है : _जिसने परम्परा का त्याग कर दिया, जिसने समाज के सारे नियमों को तोड़ दिया। जिसने सत्य को तो हृदय में धारण कर लिया या जिसने अपने अस्तित्व को ‘सत’ से संयुक्त कर लिया, वह चलेगा अपनी मौज से, अपनी इच्छा से, परम्परा को खोजेगा अपने ढंग से और अपनी शैली से। वह चले-चलाये मार्ग पर नही चलेगा। वह अपना मार्ग स्वयं बनाएगा। वह किसी समाज का, किसी परिवार का, किसी धर्म का अंग नहीं है। वह, परिवार, समाज, संसार , धर्म, नियम–सब से स्वतन्त्र है। सत्य का साक्षात्कार उसी पुण्यवान व्यक्ति को होता है जिस पर महामाया की कृपा होती है। यहां पुण्यवान का अर्थ पुण्य करने वाला नही है, बल्कि वह है जो पुण्य-पाप की भावना का अतिक्रमण कर चुका हो, पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ, अच्छे-बुरे–सब युग्मों से परे हो गया हो। पुण्यवान का मतलब है–सहज हो जाना। इसी को ‘सहजयोग’ कहते हैं।_
*सहजयोग :*
सहजयोग मन को कोरा कागज बना देता है। चित्त को स्वच्छ दर्पण की तरह बना देता है। इसीसे तुझे सिद्धि प्राप्त होगी और मोक्ष भी।
_सहज का अर्थ क्या होता है ? जानते हो ? सहज का अर्थ होता है–बनावटीपन, कृत्रिम आवरण को और कृत्रिम आचरण को स्वीकार मत करो। झूठे दम्भ और पाखंड में मत पड़ो। भीतर जैसे हो, वैसे ही बाहर रहो। मुखौटा मत लगाओ। जीवन की जो सच्चाई है, जो वास्तविकता है, उसे स्वीकार करो और मौज और आनन्द के भाव से जीवन को जीयो।_
ईश्वर ने तुमको जैसा बनाया है–रूपवान या कुरूप, अपंग या स्वस्थ, दीन-हीन या समृद्ध, उसे सहज स्वीकार कर उसी में जीओ। अपनी निजता से मत भागो। अपने स्वरूप से मत घबराओ। जो तुम नहीं हो, वह बन नहीं सकते। जो हो, वह बदल नहीं सकते।
_यदि तुमको ईश्वर ने सुन्दर, स्वस्थ आकर्षक बनाया है तो उसे सहज भाव से स्वीकार करो और उसी में जिओ। न तो ग्लानि हो और न तो हो अहंकार ही। दोनों से ऊपर उठकर सहज हो जाओ._
जीवन बहुत मूल्यवान है। वह शीघ्र उपलब्ध नहीं होता। उसे पाने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है, समझे न ? जीवन को नाटक का रंगमंच मत बनने दो। नाटक “नाटक” होता है, सत्य नहीं।
मनुष्य क्यों दुःखी है ? उसके दुःख का कारण क्या है ? कारण है–जैसा वह भीतर है, वैसा बाहर नहीं दिखना चाहता। जैसा बाहर है, वैसा भीतर नही है वह।
_दोनों में अन्तर है और यही अन्तर उसके दुःख का मूल कारण है। मनुष्य अपनी सच्चाई को दूसरे से तो छुपा भी ले, लेकिन अपनी आत्मा से कैसे छिपा सकता है ? अपने को धोखा देने का प्रयास ही दुःख का कारण है। यह कारण यदि समाप्त हो जाये तो सुख-ही-सुख है, आनन्द-ही-आनन्द है।_
जीवन को सहजता में जिओ। निष्कपट होकर चलो। जैसे भी हो, वैसे ही रहो, जिसके हो, उसीके होकर रहो। जैसे भी हो, उस पर महामाया का हस्ताक्षर है और उसी की मुहर है। अपने अस्तित्व को उसी को समर्पित कर दो।
_अपराध होगा तो उसी का होगा, तुम्हारा नहीं। तुम व्यर्थ अपने को दोषी मान बैठे हो, तुम्हारी सारी विपरीत चेष्टाएँ ही अज्ञान है, अहंकार है। तुम्हारे भीतर कौन है वह जो तुमसे कहता है कि श्रेष्ठ बनो, साधु बनो, सन्त बनो, साधक बनो। तुम ऐसे बनो कि सारा जगत तुम्हारी पूजा करे, प्रकृति तुम्हारे समक्ष झुके, तुम्हारी जय-जयकार करे।_
हर व्यक्ति तुम्हारी चरण-रज लेने में अपना जीवन धन्य समझे। कितना अच्छा है अपने बारे में ऐसा सुनना ? मगर यह मात्र भ्रम है, यह मात्र माया है।
जानते हो–वह कौन है ? वह है तुम्हारा भ्रम, तुम्हारा अहंकार, और कोई नहीं। साधु-सन्यासियों को देखो, हठयोगियों को देखो, कांटो पर लेटे हुए साधक को देखो, गर्म रेत पर नग्न पसरे हुए साधक को देखो, शरीर को, मन को कष्ट देने वाले साधक को देखो। क्या है यह सब ?
_यह होना, यह बनना सहज नही है कुछ। सब आरोपित है, सब जिद है, सब नियति के विरुद्ध है, यह नाटक है, दिखावा है और जीवन मात्र दिखावा नहीं है, नाटक नहीं है। जीवन सत्य के अस्तित्व का अभ्यास मात्र है।_
*सहज होने का अर्थ :*
सहज का अर्थ है : अपने स्वभाव को जानो, परखो और फिर उसी के अनुसार चलो। किसी सिद्धान्त के अनुयायी या आदर्श के अनुयायी मत बनो और न तो उसे स्वीकार ही करो। इसी प्रकार न किसी आदर्श का निर्माण करो और न तो किसी सिद्धांत का ही।
_जानते हो ?–आदर्श ही मनुष्य को बनावटी बनाता है, पाखण्डी बनाता है। जितना बड़ा आदर्श, उतना ही बड़ा पाखण्ड, क्योंकि जो आदर्श है, वह दूसरे का है, दूसरों के लिए है, वह वस्तसिक मनुष्य की विशेषता से अलग है। उसे अपनाना असम्भव है।_
उसे अपनाने में मनुष्य को अपनी निजता का हनन करना पड़ेगा। जैसे एक साधारण निम्नकोटि का मनुष्य राजा की वेशभूषा धारण कर ले और अपने आपको ‘राजा’ समझने लगे तो क्या वह राजा हो गया ? नहीं, राजा तो अपने स्थान पर राजा है लेकिन उसकी नकल कर अपने को राजा दिखलाना पाखण्ड है।
_आज के समय में पाखंडियों की भरमार है, एक ढूंढो, हज़ार मिल जाएंगे। योगी का पाखण्ड, तांत्रिक का पाखण्ड, साधक का पाखण्ड, सन्त का पाखण्ड, सिद्ध का पाखण्ड।_
पाखण्डी उसे कहते हैं जो वह स्वयं नहीं है, लेकिन वह उसका अनुकरण करता है।
मैं नहीं कहता हूँ कि तुम किसी नियम का, किसी आदर्श का अथवा बने-बनाये आचरण का पालन करो। मैं तो एक बोध देता हूँ कि महामाया ने तुमको जैसा बनाया है, जिस तरह का बनाकर भेजा है, वैसे ही अपनी समग्रता में जीना है।
_जानते हो ? पूर्णता का कोई लक्ष्य नहीं होता। मैं तो तुम्हें समग्रता की ओर जाने का मन्त्र दे रहा हूँ। पूर्णता और समग्रता में भेद है।_
*पूर्णता और समग्रता :*
पूर्णता का अर्थ बहुत गूढ है। बहुत दूर .बहुत ऊपर.. मनुष्य को ऐसा होना चाहिए। समग्रता का अर्थ है–जैसा मनुष्य है, उसमें ही पूरा लीन हो जाना। कोई मनुष्य अपने आप में पूर्ण नहीं है। पूर्ण तो केवल परमात्मा है। मनुष्य तो जो है, बस वही है।
_हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि तुम जैसे हो, आवश्यक नहीं कि दूसरे तुमको वैसा ही स्वीकार करें। इसलिए सबसे बड़ा प्रश्न है साधक के लिए, वह यही है कि जब दूसरे स्वीकार न करें तो क्या करें ? क्योंकि हमारी आकांक्षा तो यही होती है कि प्रत्येक हमें स्वीकार करे।_
इसी आकांक्षा के कारण तो हम झूठ हो जाते हैं क्योंकि लोग जिसको स्वीकार करते हैं, हम वैसा ही अपने को दिखलाने की चेष्टा करने लगते हैं क्योंकि हमारे मन में बड़ी गहरी आकांक्षा है कि लोग हमें सम्मान दें, प्रशंसा करें।
सन्यासी वास्तव में वही है जो कहता है–न उसे सम्मान, सत्कार चाहिए, न उसे प्रशंसा की आकांक्षा हैऔर न उसे उपेक्षा और अपमान की चिन्ता। वह तो जैसा है, वैसा ही रहता है, वैसा ही जीता है। लोग उसे सम्मान दें तो ठीक, अपमान करें तो भी ठीक।
हमारे मान-अपमान की प्रशंसा और उपेक्षा की उसे परवाह नहीं।
_यह सब क़िस अदृश्य सत्ता ने मुझे बताया : मैं स्पस्ट रूप से कुछ नहीं जान सका._
एकाएक छन्न से टूट गया सब कुछ। आंखें खोल कर देखा चारों ओर। कुछ दूर पर पेड़ के नीचे बैठा हरखू तम्बाखू पी रहा था। सूरज पश्चिम की ओर झुक गया था। अब चलना चाहिए।
सोचा–आज रात हरखू की झोपड़ी में बिता कर सवेरे गुफाओं की खोज में निकलूंगा। खाट पर कभी सोया नहीं था, उस रात सोना पड़ा। पूरी रात नींद नहीं आयी। सवेरे थोड़ी-सी झपकी लगी और तभी हरखू की आवाज़ सुनाई दी–सरकार ! कोई साधु बाबा मिलने के लिए आये हैं आपसे।
_चौंक पड़ा मैं–यहां कौन साधु बाबा आये हैं मुझसे मिलने के लिए। झोपड़ी के बाहर निकला तो देखा–सामने एक सन्यासी खड़ा था निर्विकार भाव से। पैंतीस-चालीस की आयु, गौरवर्ण, लम्बा कद, नंगे पांव, शरीर पर गैरिक वस्त्र, मुण्डित सिर, चेहरे पर तेज, बड़ी-बड़ी निश्छल आंखें।_
सन्यासी कुछ जाना-पहचाना-सा लगा मुझे। धीरे-से पूछा–महाराज ! कौन हैं आप ?
मेरा प्रश्न सुनकर सन्यासी धीरे-से मुस्कराया और फिर मेरा चरण स्पर्श करते हुए बोला–प्रभु ! आपने मुझे पहचाना नहीं।
_मैं बोला नहीं। अवाक-सा देखने लगा सन्यासी की ओर। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कुछ और तभी मुस्कराते हुए बोल पड़ा सन्यासी- श्रद्धेयवर ! मैं रत्नकल्प हूँ।_
अरे ! रत्नकल्प तुम ..! तुम यहाँ कैसे ? पहचानने में देर न लगी मुझे। गले लगा लिया मैंने रत्नकल्प को। लगभग सात वर्ष बाद देख रहा था मैं रत्नकल्प को।
माताजी कैसी हैं ?
यह सुनकर चेहरा उदास हो गया रत्नकल्प का और उसके गालों पर आंसू ढुलक पड़े। भर्राए स्वर में बोला–माताजी ने हिम समाधि ले ली बाबा !
_मैं स्तब्ध रह गया एकबारगी। कुछ पूछना चाहा पर पूछ न सका। लगभग 40-45 वर्ष की पूरी स्मृति एकाएक जागृत हो उठी मेरे मानस-पटल पर। योग-तन्त्र सिद्ध स्वर्णा (श्मशान की सिद्ध भैरवी) का तेजोमय मुख-मण्डल घूम गया मेरे सामने। योग-तन्त्र से सम्बंधित जो ज्ञान उस युवा साधिका से प्राप्त हुआ था मुझे, वह भी स्मृति के रूप में उद्भासित हो उठा मस्तिष्क में।_
माताजी की मृत्यु के बाद मेरा मन उचाट हो गया–धीरे-धीरे रुंधे कण्ठ से कहना शुरू किया रत्नकल्प ने– हरिद्वार आकर कुछ समय वहां रहा। न जाने क्यों मन विषण्ण हो गया।
_उदास मन लिए आपकी खोज में बनारस चला गया। जब आपके निवास पर पहुँचा तो माताजी के दर्शन हुए। उनका स्नेह देखकर विगलित हो उठी मेरी आत्मा। साक्षात अन्नपूर्णा थीं वे। अपने हाथ से भोजन बनाकर खिलाया उन्होंने मुझे। बड़ा ही स्वादिष्ट था भोजन।_
भोजन के समय माताजी से मालूम हुआ कि आप कलकत्ता गए हुए हैं। अधिकतर आप कलकत्ता में ही रहते हैं। यह जानकर उदास मन और उदास हो उठा।
माताजी को कलकत्ता का पता मालूम न था, नहीं तो अवश्य ही वहां आकर आपके दर्शन करता। चलते समय माताजी ने एक कम्बल और कुछ रुपये देने चाहे लेकिन मैंने नहीं लिए। चरण-स्पर्श करते हुए कहा मैंने–गैरिक रंग अग्नि का प्रतीक है माँ ! उसमें मेरा सब कुछ भस्म हो चुका है–राग, द्वेष, ईर्ष्या, मोह-माया और लोभ सब कुछ और जीवन को जीने का आधार भी। बचा ही क्या है माँ।
_मेरी बात सुनकर बड़ी माँ की आंखें सजल हो उठीं। धीरे-से आशीर्वाद देते हुए बोलीं–सन्यासी ! तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो, उसमें पूर्णत्व लाभ करो। बस मेरी एकमात्र यही कामना है।_
फिर क्या हुआ ?–थोड़ा व्यग्र हो उठा मैं।
होगा क्या बाबा ! काशी में एक महात्मा मिले, उनके साथ यहां चला आया मैं। महात्मा तो अब नहीं रहे लेकिन उनकी गुफा है और उसी गुफा में पिछले कुछ सालों से रह रहा हूँ मैं।
यह सब सुनकर आश्चर्य हुआ मुझे और साथ ही अपना उद्देश्य भी साकार होता हुआ दिखाई पड़ा मुझे।
एक ओर पहाड़ों की लम्बी स्याह श्रृंखला थी और दूसरी ओर था घनघोर जंगलों का अटूट सिलसिला। निर्जन इलाका था वह उजाड़ मरघट जैसा बीहड़। निस्तब्धता थी चारों ओर। गहन निःश्वास जैसी हवा हा-हाकार करती हुई झाड़ियों और झुरमुटों को कंपाये दे रही थी।
_काले-भूरे बादलों से अटकर काला हो गया था आसमान। थोड़ी देर पूर्व झींगुरों की ‘झीं-झीं’ भी सुनायी दे रही थी, किन्तु अब घने अंधियारे ने जैसे उस अनवरत क्रन्दन का भी गला घोंट दिया था।_
लगता है पानी बरसेगा–रत्नकल्प ने आकाश की ओर देखते हुए कहा–लेकिन गुरुश्री आप चिन्ता न करें। वह देखिए सामने ही है मेरी गुफा।
काफी बड़ा था गुफा का द्वार। सामने मैदान में रंग-विरंगे सुगन्धित पुष्पों की क्यारियां थीं।
वातावरण में शान्ति थी लेकिन एक विचित्र-सा सन्नाटा पसरा हुआ था चारों ओर। पहाड़ों और जंगलों की गोद में कोई ऐसा भी स्थान हो सकता है–इसकी कल्पना भी नहीं की थी कभी मैंने।
*योग-सिद्धियों का चमत्कार :*
_गुफा काफी लम्बी-चौड़ी थी। प्रवेश करते ही लगा–जैसे संसार से अलग हो गया है मेरा अस्तित्व और मैं किसी अनजाने अपरिचित स्थान में आ गया हूँ। सोचा–गुफा के भीतर अन्धकार होगा, लेकिन अन्धकार नहीं था। हल्का-हल्का शुभ्र प्रकाश फैला हुआ था चारों ओर गुफा में। वह प्रकाश कहाँ से आ रहा था ?– समझ में नहीं आया।_
गुफा की दीवारों में छोटे-छोटे छेद थे जिनमें से ताजी बरसाती हवा भीतर आ रही थी। कच्ची भूमि पर खजूर की चटाइयां बिछी हुई थीं और उनके ऊपर कम्बल। एक ओर मिट्टी के बर्तन थे और एक गगरी थी जिसमें पानी भरा हुआ था।
_इनके अलावा और कुछ नहीं। बैठ गया मैं कम्बल पर। बड़ा सुख मिला। रत्नकल्प बोला– आप भूखे–प्यासे होंगे। काफी थके हुए भी होंगे। कहिये क्या करें आपके लिए पूज्यवर ?
_यह सुनकर मन-ही-मन सोचने लगा–मेरे लिए इस बीहड़ निर्जन प्रान्त में क्या करेगा बेचारा यह सन्यासी ? शायद मेरे मन की बात समझ गया रत्नकल्प। मेरी ओर देखकर एक बार मुस्कराया और उसकी रहस्यमयी मुस्कराहट के साथ ही घुप्प अँधेरा छा गया एकबारगी गुफा में।_
हे भगवान ! यह क्या ? कुछ बोलने वाला ही था कि तभी पहले जैसे शुभ्र प्रकाश से भर उठी पूरी गुफा।
_मैंने सिर घुमाकर चारों ओर देखा। गुफा का वातावरण बदल चुका था। भूमि पर सुन्दर कालीन, शानदार पलँग, चमचमाते बर्तन, आवश्यक वस्त्र, दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुएं, थालियों में सजे ताजे फल और गरम-गरम भोजन।_
स्तब्ध और अवाक रह गया मैं यह सब कुछ देखकर। सिर घुमाकर रत्नकल्प की ओर देखा।
वह खड़ा-खड़ा मुस्करा रहा था उस समय। दुर्लभ योग-सिद्धियों का चमत्कार था सब–समझते देर न लगी मुझको।
_जन्म-जन्मान्तर के आध्यात्मिक संस्कार और विकट साधनाओं के परिणामस्वरूप प्राप्त सिद्धियों का इस प्रकार का अपव्यय नहीं करना चाहिए तुम्हें रत्नकल्प !_
मेरी बात सुनकर थोड़ा गम्भीर हो गया रत्नकल्प। अवरुद्ध कण्ठ से बोला–
_गुरुदेव ! इन तमाम सिद्धियों को प्राप्त कर मैं क्या करूँगा। किस काम की हैं ये सिद्धियां मेरे लिए ? मेरे साधना-मार्ग में विघ्न उपस्थित करने वाली हैं ये सब। इनके द्वारा मुझे संसार से मान-सम्मान और प्रशंसा तो प्राप्त करना नहीं है। क्या करूं ? आप ही बताइए !_
मैं जानता हूँ कि सत्य की खोज में आपने कितना कष्ट उठाया है, कितना दुःख झेला है, कितनी वेदना सही है, कितना अपमान हुआ है आपका और कितनी चोटें खायी हैं आपके निश्छल हृदय ने, कितने आघात सहे हैं आपकी निश्छल निष्कपट आत्मा ने। आप मेरे अपने हैं। मेरे पिता तुल्य हैं। मेरे गुरु भी आप ही हैं।
_यदि आपके लिए थोड़ी-सी अपनी पूंजी खर्च दी तो क्या हुआ ? इससे मेरे मन को कितनी शान्ति मिली है और मिला है मेरी आत्मा को आनन्द भला कौन जान-समझ सकता है उसे ?_
भोजन करने के बाद लेट गया मैं पलंग पर। योग्य पुत्र की तरह और योग्य शिष्य की तरह भूमि पर बैठ कर मेरे पैर दबाने लगा रत्नकल्प। थका तो था ही, न जाने कब नींद आ गयी मुझे पता ही नहीं चला।
_भोर के समय आंख खुली तो देखा–पैर दबाते-दबाते सो गया था रत्नकल्प जमीन पर ही। मन में काफी दुःख हुआ उसे देखकर।_
कब और कैसे पन्द्रह दिन का समय बीत गया, पता ही नहीं चला। एक दिन चलने की तैयारी करने लगा तो सामने आकर खड़ा हो गया रत्नकल्प।
_निरीह दृष्टि से मेरी ओर देखते हुए कहा कातर स्वर में- प्रभु ! अभी नहीं कुछ दिन और रहना होगा। आपका भविष्य में कब सान्निध्य प्राप्त होगा–निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता ! करुण रस में डूबा हुआ रत्नकल्प का अनुरोध टाला न गया मुझसे। उस दिन रुकना ही पड़ा।_
सोते समय पैर दबाते समय रत्नकल्प बोला–एक बात पूछना चाहता हूँ, ! आप अन्यथा तो नहीं लेंगे ?
नहीं मित्र! बोलो, क्या पूछना चाहते हो?
उसे चुप देखकर मैं दोबारा बोला : पूछो रत्नकल्प, क्या पूछना चाहते हो ?
आपका इस अरण्य प्रान्त में कैसे आना हुआ ?
_यह सुनकर मैं सोचने लगा–क्या अपने उद्देश्य को बतलाना उचित है ? यदि नहीं बतलाता हूँ तो यह योगी है, अपने योगबल से सब जान जाएगा। बतला ही देना चाहिए।_
मैंने बतला ही दी सारी कथा रत्नकल्प को और अन्त में बतलाया कि शोभा माँ की साधना-स्थली की खोज में आया हूँ मैं इस अरण्य प्रान्त में।
_सब कुछ सुन लेने के बाद गम्भीर स्वर में रत्नकल्प बोला–मैं दोनों को जानता हूँ–शोभा माँ को और स्वामी अखिलेश्वरानंद को भी।_
यह सुनते ही अवाक और स्तब्ध रह गया मैं। कभी सोचा तक न था कि रत्नकल्प जानता होगा दोनों को।
थोड़ी ही दूर पर थी शोभा माँ की रहस्यमयी साधना-स्थली। सवेरे उठकर चलने की तैयारी करने लगा मैं। रत्नकल्प ने भी मेरे साथ चलना चाहा लेकिन पुनः वापस लौटकर आने की सांत्वना देकर चल पड़ा मैं।
पहाड़ लांघ कर एक छोटे-से मैदान में आ गया मैं। महुए की गंध से सारा वातावरण बोझिल हो रहा था। महुए के पेड़ों को अपने आप में समेटते हुए पहाड़ों की श्रृंखला आगे बढ़ गयी थी। एक स्थान पर खड़े होकर चारों ओर देखने लगा मैं और तभी मेरी दृष्टि थम गई एकाएक। ठीक मेरे सामने ही थी गुफा।
_शोभा माँ की गुफा का प्रवेश-मार्ग काफी छोटा था। थोड़ा झुककर जाना पड़ा मुझे भीतर। गुफा थोड़ी दूर तक संकरी थी। टोर्च जला ली थी मैंने। आगे बढ़ने पर नीचे जाने के लिए सीढियां मिलीं। करीब दस-बारह सीढ़ियां उतरने के बाद एक ऑंगन मिला जिसके बायीं ओर से एक संकरा रास्ता भीतर की ओर गया था। सब कुछ इंद्रजाल-सा लगा मुझे।_
वह रहस्यमय रास्ता थोड़ा लम्बा था और जहां समाप्त होता था, वहां भी एक ऑंगन था लेकिन था कुछ अधिक लम्बा-चौड़ा। वहां प्रकाश था, ताजी हवा भी न जाने कहाँ और किधर से आ रही थी। देखा–आँगन में एक बड़ा-सा कमरा था।
_कमरे में भी प्रकाश हो रहा था। थोड़ा भय लगा और घबड़ाया भी लेकिन संभाल लिया अपने आप को मैंने और कमरे में भीतर झांक कर देखने लगा। कमरे का राजसी ठाट-बाट देखकर एकबारगी दंग रह गया मैं।_
हे भगवान ! कैसी विचित्र और अविश्वसनीय लीला थी वह योग की !
कमरा काफी बड़ा था और रुपहले प्रकाश से भरा हुआ था। भूमि पर कीमती ईरानी कालीन बिछी हुई थी। एक काफी बड़ा और कीमती पलँग था जिस पर मोटा गद्दा और पीले रंग का रेशमी चादर बिछा हुआ था।
_कमरे में दूसरी ओर दीवार से लगकर एक ऊंची वेदी पर चतुर्भुजा काली की पाषाण प्रतिमा खड़ी थी। प्रतिमा आदमकद थी जो बिल्कुल सजीव लगी मुझे।_
बगल में सोने के गजाधर पर घी का दीप जल रहा था जिसका मन्द प्रकाश प्रतिमा के मुख पर पड़ रहा था। प्रतिमा के ठीक सामने एक नर-मुण्ड रखा था सोने की थाली में जिसको सिन्दूर का गोल टीका लगा था और जवापुष्प की माला पहनायी गयी थी। पूरे कमरे में कोई अनिर्वचनीय दिव्य गन्ध फैल रही थी जो मन-प्राण को सम्मोहित किये दे रही थी।
_कमरे का वातावरण अति रहस्यमय लगा मुझे लेकिन जिसकी खोज में आया था उसके दर्शन नहीं हुए मुझे–इसका थोड़ा दुःख था मुझे। न जाने क्यों उसी समय मेरा सिर घूम गया पलँग की ओर। घोर आश्चर्य हुआ। अभी तक तो पलँग पर कोई नहीं था, अभी-अभी कौन किधर से आकर बैठ गया पलँग पर ?_
गैरिक वस्त्र से ढका हुआ था पूरा शरीर उस रहस्यमय व्यक्ति का, केवल थोड़ा मुंह खुला था।
समीप चला गया, देखा–हे भगवान ! यह तो शोभा माँ हैं। पूर्णरूप से समाधिष्ठ थीं शोभा माँ। लेकिन इसके पहले वह कहां थीं ? और यहीं थीं तो दिखी क्यों नहीं ? स्वामी अखिलेश्वरानंद भी कहीं नहीं दिखलायी दिए।
_अधिक देर वहां रुकना ठीक नहीं था। मैं महामाया को प्रणाम कर वापस निकल आया गुफा से। मेरा उद्देश्य पूरा हो चुका था। लौटकर रत्नकल्प से मिला। सारी बातें बतलायी मैंने।_
वह कुछ बोला नहीं। दूसरे दिन बनारस के लिए रवाना हो गया मैं। चलते समय रत्नकल्प की आंखें सजल थीं। अवरुद्ध कण्ठ से बोला-
_भगवन !आप तो अब इधर नहीं आएंगे लेकिन मैं अवश्य आऊंगा आपके दर्शन करने के लिए।_
कब ? मेरा भी गला भर आया था।
_कभी भी. लेकिन कभी भी नहीं आ पाया तो जिस समय आप शरीर त्यागने वाले होंगे, उस समय जरूर आऊंगा मेरे कान्हा। मेरी प्रतीक्षा कीजियेगा। मैं आऊंगा अवश्य।_
*(चेतना विकास मिशन)*