नई दिल्ली। हमारे देश में नेताओं को अपनी ब्रांडिंग में कई दशक लग जाते हैं, लेकिन महुआ मोइत्रा को अपनी पहचान स्थापित करने के लिए संसद के भीतर सिर्फ एक भाषण लगा। मौजूदा लोकसभा में उन्हें जैसी लोकप्रियता हासिल हुई, शायद ही किसी और को वह नसीब हुई हो। आरजेडी सांसद मनोज झा जरूर अन्य सासदों की तुलना में एक नई ताजगी लेकर आते हैं, और हिंदी-उर्दू साहित्य में पगे मिठास लिए उनके शब्द सत्ता को भी धीरे-धीरे मारते हैं, लेकिन महुआ मोइत्रा की बारी आने पर तो ट्रेजरी बेंच को मानो सांप सूंघ जाता था।
मुझे याद है कि लोकसभा में मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष की ओर से लाये गये अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए अपने भाषण में उन्हें लगभग 8 मिनट का वक्त दिया गया था। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि संसद में हर पार्टी को उनकी संख्या के आधार पर समय अलॉट किया जाता है। टीएमसी से महुआ के अलावा भी पार्टी के वरिष्ठ सांसद सौगत रॉय ने पहले ही अपना वक्तव्य रखा था।
इस 8 मिनट के भाषण में महुआ मोइत्रा ने अन्य राजनीतिज्ञों की तुलना में तीन गुना रफ्तार के साथ अपनी बात रखी थी। उनके भाषण की स्पीड, सटीकता और चुनिंदा कोट्स इतने शानदार और मारक थे कि एक-एक शब्द को ध्यान से अगर नहीं सुना तो बात पल्ले नहीं पड़ेगी।
कई बार तो ऐसा लगता था कि ट्रेजरी बेंच के अधिकांश सदस्य अगर उनके भाषण का मर्म सदन में समझ पाते तो हंगामा खड़ा कर देते। उनके पूर्व के भाषणों में अक्सर ऐसा होते देखा भी गया है, तब अक्सर महुआ के द्वारा सभापति को सीधे कठघरे में खड़ा करते और उन्हें अचकचाकर ट्रेजरी बेंच को शांत रहने की अपील करते पाया है।
लेकिन अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए महुआ मोइत्रा बिना रुके धाराप्रवाह बोलती रहीं, और तभी रुकीं जब वह अपनी बात को पूरा कह पाईं। पूरे भाषण को सुनने पर लगा कि इसके लिए उन्होंने काफी तैयारी की थी। बेहद सीमित समय में अपने भाषण में हर पहलू को समेट लेने के लिए लिखित तैयारी में ही काफी कांट-छांट की होगी, जो बताता है कि महुआ के लिए सदन और संसदीय कार्रवाई कितनी अहमियत रखती है।
लेकिन कल देश ने अपने सबसे बहुमूल्य युवा सांसद को खो दिया। महुआ ने इसे कंगारू कोर्ट की संज्ञा दी, जबकि कांग्रेस सांसद ने मनीष तिवारी ने अपने वक्तव्य में संसद को कोर्ट रूम कार्रवाई करार दिया था। सभापति ओम बिड़ला को इस पर घोर आपत्ति थी, क्योंकि उनका मानना था कि संसद तो लोकतंत्र का मंदिर है।
लेकिन मनीष तिवारी का कहना था कि कोर्ट के जज को तो कोई व्हिप जारी कर एकतरफा फैसला सुनाने का निर्देश नहीं होता, जबकि संसद में सत्तारूढ़ दल ने अपने पार्टी सांसदों को हुक्मनामे के रूप में पहले ही व्हिप जारी कर दिया है। इस लिहाज से कहें तो महुआ मोइत्रा का कंगारू कोर्ट वाला बयान सटीक बैठता है।
सांसद महुआ मोइत्रा के खिलाफ संसद में पैसा लेकर सवाल पूछने के आरोप को संसद की एथिक्स कमेटी ने सही पाया। बदले में उनके खिलाफ पांच सौ पेज से भी अधिक पेज के आरोप पत्र को दो घंटे के भोजनावकाश के बीच पढ़ना और उस पर 30 मिनट की बहस का मौका देना भी समझ से परे था।
महुआ मोइत्रा के खिलाफ तैयार किये गये अभियोग पत्र को पढ़ने और समीक्षा के लिए विपक्षी सांसदों ने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला से अपील भी की, लेकिन ऐसा लगता था कि सब कुछ पूर्व योजना के तहत नियत था। संसद की कार्यवाही तो महज एक औपचारिकता थी। लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी ने इसके लिए 3-4 दिन का समय मांगा, जो व्यर्थ साबित हुआ।
टीएमसी के एक सांसद ने भी अपील की कि महुआ मोइत्रा को सदन में अपनी बात कहने का मौका दिया जाये। हमारे देश की अदालत में भी बड़े से बड़े अभियुक्त को सजा सुनाने से पहले अपनी सफाई में बोलने का मौका दिया जाता है। फांसी से पहले आखिरी इच्छा पूरी की जाती है। लेकिन लोकतंत्र का मंदिर कहे जाने वाले संसद के भीतर कल इसके लिए कोई गुंजाइश नहीं थी।
ऐसा क्या जघन्य अपराध कर दिया है, कल तक एक माननीय सांसद ने जो उसके खिलाफ ऐसा दंडात्मक रुख अपनाया गया? इसे समझने के लिए हमें न सिर्फ इसके पीछे अडानी विवाद को उछालने को देखना होगा, बल्कि उस आहत पित्रसत्तात्मक सत्ता के घिनौने चेहरे की भी पड़ताल करनी होगी, जिसे महुआ मोइत्रा एक बार फिर स्त्री के चीरहरण से जोड़कर देखती हैं।
लोकसभा से निष्काषित गुस्से में फुफकारती महुआ मोइत्रा के साथ समूचा विपक्ष सदन का बहिष्कार कर उनके साथ बाहर निकल आया। संसद की सीढ़ियों पर पत्रकारों के सामने महुआ का गुस्सा फूटा, और उसमें उन्होंने कुछ ऐसी बातें कहीं हैं, जिन्हें देश को याद रखना चाहिए।
महुआ मोइत्रा ने कहा, “मैं अपनी पार्टी के साथ-साथ इंडिया गठबंधन के सभी विपक्षी सहयोगी दलों का धन्यवाद करती हूं, जो मेरे साथ खड़े रहे। 17वीं लोकसभा ऐतिहासिक रही, जिसमें महिला आरक्षण बिल पारित हुआ। इस लोकसभा में 78 महिला सासदों में उन्हें निशाना बनाया गया, जो नवोदित महिला सांसद थीं, जिसकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी, और जो देश के सबसे दूर-दराज की लोकसभा से आई थीं, जिसकी सीमा बांग्लादेश से लगती है।”
उन्होंने आगे कहा, “इस लोकसभा में संसदीय समिति को भी सरकार द्वारा अपना हथियार बनाया गया। एथिक्स कमेटी का काम सांसदों के लिए नैतिक रूप से जिम्मेदार बनाने तक सीमित होना चाहिए था, लेकिन इसे विपक्ष को धराशायी करने के काम में लिया गया। कमेटी ने मुझे उस बात के लिए सजा देने का मन बनाया, जो सदन के भीतर आमतौर पर अधिकांश सदस्यों के बीच स्वीकार्य है।”
महुआ ने कहा, “मुझे जिन बातों के लिए आरोपित किया गया, वे दो व्यक्तिगत व्यक्तियों के द्वारा मेरे खिलाफ दिए गये बयानों पर आधारित है, और दोनों के बयान एक दूसरे के विपरीत हैं। इनमें से किसी भी व्यक्ति से मुझे सवाल पूछने का मौका नहीं दिया गया। इसमें से एक व्यक्ति मेरा पराया हो गया पार्टनर था, जिसने मेरे खिलाफ झूठे आरोप लगाये थे। दोनों के आरोपों में 36 का संबंध हैं।”
उन्होंने आगे कहा कि “उक्त व्यक्ति का आरोप है कि बिजनेसमैन ने अपने व्यावसायिक फायदे के लिए मेरे लॉग इन आईडी से सवाल डाले, जबकि उक्त व्यवसायी ने अपने शपथपत्र में कहा है कि मैंने अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए उस पर दबाव बनाकर प्रश्न तैयार करने के लिए बाध्य किया। दोनों की बातें पूरी तरह से विरोधाभासी हैं, लेकिन एथिक्स कमेटी ने मुझे सजा देने का तय कर रखा था। पैसे या गिफ्ट के बारे में मेरे खिलाफ एक भी सबूत नहीं है।”
उन्होंने आगे कहा, “मेरे खिलाफ जो अभियोग लगाया गया है, उसमें आरोप है कि मैंने अपनी लॉग इन आईडी और पासवर्ड दूसरों से साझा की है, जबकि हम सभी सासंदों को जनता से जुड़े मुद्दों को संसद में उठाने के लिए ऐसा करना पड़ता है, और यह आम बात है।”
महुआ ने कहा कि “यह मोदी सरकार अगर यह सोचती है कि मुझे सजा देकर वह इस अडानी मुद्दे से पार पा लेगी तो मेरा कहना है कि सरकार ने कंगारू कोर्ट बिठाकर देश को बता दिया है कि उसके लिए अडानी कितना मायने रखता है, और उसके लिए वह एक महिला की आवाज को बंद करने के लिए किस हद तक जा सकती है।”
महुआ मोइत्रा ने सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि, “कल मेरे घर पर सीबीआई को भेजा जा सकता है, और वह अगले 6 महीने तक मुझे प्रताड़ित करे तो इसमें कोई हैरानी की बात नहीं होगी। लेकिन मेरा सवाल बना रहेगा कि उस 13,000 करोड़ रूपये वाले कोयला घोटाले के बारे में सीबीआई ने आजतक कोई कार्रवाई क्यों नहीं की?”
उन्होंने कहा कि “आप मुझसे एक पोर्टल के लॉग इन को लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा पर सवाल करने आ गये, लेकिन अडानी ने तो देश के सभी बन्दरगाह और हवाई-अड्डे एक-एक कर अपने नाम कर लिए। संसद के भीतर रमेश बिधूड़ी ने दानिश अली के खिलाफ जिस प्रकार के घृणास्पद एवं सांप्रदायिक जहर उगला, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई। यह सरकार अल्पसंख्यकों से नफरत करती है, महिला शक्ति से नफरत करती है, और महिला शक्ति को बर्दाश्त नहीं कर सकती है।”
महुआ ने भाजपा सरकार को खुली चुनौती देते हुए कहा, “मेरी उम्र अभी 49 वर्ष है। मैं अगले 30 वर्षों तक संसद के भीतर, और संसद के बाहर से लेकर गटर और सड़क पर भाजपा के अंत के लिए लड़ती रहने वाली हूं।”
रविन्द्रनाथ ठाकुर की कविता पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा, द्रविड़, उत्कल बंग को उद्धृत करते हुए, महुआ ने भाजपा सरकार को चुनौती दी कि “सिंध को यदि छोड़ दें, जोकि हमारे पास पहले से नहीं है, बाकी सभी में भाजपा के लिए स्थान नहीं है, फिर वह किस बिना पर पूर्ण बहुमत लाने के सपने देख रही है।”
उनका कहना था कि “एथिक्स कमेटी के पास किसी सांसद को निष्काषित करने का कोई अधिकार नहीं है, लेकिन संसद के भीतर अपने बहुमत के बल पर गैर-न्यायिक सत्ता चलाकर मेरे खिलाफ कदम लिया गया।” उन्होंने अपने बयान का अंत “जब नाश मनुष पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है” की प्रसिद्ध उक्ति से करते हुए, इसे भाजपा के अंत की शुरुआत बताकर की।महुआ मोइत्रा ने इस प्रकार संसद के भीतर न सही बाहर निकलकर 17वीं लोकसभा का अपना अंतिम भाषण दिया, और उनका यह भाषण भी इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया है।
महुआ मोइत्रा एक ऐसी पार्टी से आती हैं, जिसकी सर्वेसर्वा भी स्वयं एक फायर-ब्रांड नेत्री हैं। तृणमूल कांग्रेस की देश में एक हिंसक पार्टी के रूप में छवि है, लेकिन महिलाओं के प्रतिनिधित्व को लकर संसद के भीतर इसका रिकॉर्ड किसी भी पार्टी को शर्मिंदा करने के लिए काफी है।
संसद में महिलाओं को 33% आरक्षण बिल पारित किये जाने से पहले ही तृणमूल ने इस सीमा को पार कर लिया है, और उसी की बदौलत कृष्णानगर लोकसभा सीट से महुआ मोइत्रा को प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला था। लेकिन अपने पहले ही संसदीय कार्यकाल में महुआ मोइत्रा ने कई दिग्गज सांसदों की ताउम्र सांसदी को शर्मिंदा कर दिया है।
उनको यह सजा मिलनी तय मानी जा रही थी, क्योंकि उन्होंने राहुल गांधी सहित आम आदमी पार्टी नेता संजय सिंह की तरह अडानी साम्राज्य के खिलाफ पिछले एक वर्ष से अभियान छेड़ रखा था। संसद ही नहीं ट्विटर पर भी महुआ मोइत्रा के हैंडल पर पश्चिमी देशों के फाइनेंशियल अखबारों में हिंडनबर्ग-अडानी विवाद को लेकर उठने वाले सवालों को प्रमुखता से रखा जाता रहा है।
ऐसे में उनके खिलाफ मामला न बनाया जाता, यह भला कैसे संभव है। आप पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह तो आज भी जेल की सीखचों के पीछे हैं, और राहुल गांधी की सांसदी जाकर, एक बार फिर से वापिस मिल चुकी है। सेबी और सुप्रीम कोर्ट अडानी मामले की जांच की आंख-मिचौनी अभी भी जारी रखे हुए हैं।
70 के दशक में भारतीय लोकतंत्र पर धूमिल की एक कविता ‘रोटी और संसद’ बरबस याद आने लगती है-
“एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ
‘यह तीसरा आदमी कौन है?’
मेरे देश की संसद मौन है।”
इस तीसरे आदमी के बारे में कोई पुरुष सवाल करे तो भी गनीमत है, लेकिन एक महिला का संसद के सदन में पहले-पहल प्रवेश के साथ ही पहले फासिज्म के लक्षणों के बारे में पाठ पढ़ाना, ओढ़ी हुई पित्रसत्तात्मक नैतिकता को अपने ठेंगे पर रखते हुए धड़ल्ले से फर्राटेदार अंग्रेजी में भाषण झाड़ना, और ट्रेजरी बेंच से उठने वाले विरोध के स्वरों को दुगुने जवाबी हमलों से मिमियाते स्वर में बदलने को देश ने महुआ मोइत्रा की बदौलत ही अनुभव किया था।
एक अकेला, सबपे भारी की उक्ति भले ही पीएम मोदी ने brute-majority के होते हुए अपने लिए कही हो, लेकिन वास्तव में देखें तो यह उक्ति उस महिला पर सटीक बैठती है, जिसकी ताप को खुद उसकी पार्टी की सर्वेसर्वा तक भी कहीं न कहीं सहन नहीं कर पा रही थीं।
विश्वास के साथ तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन कम से कम देश के महानगरों की करोड़ों मध्यवर्गीय महिलाओं और लड़कियों को महुआ मोइत्रा से समकालीन पुरुष-सत्तावादी व्यवस्था से दो-दो हाथ करने का हौसला तो अवश्य मिला होगा।
नारी-वंदन और वास्तविक नारी-मुक्ति के बीच का यह संघर्ष अभी सही मायने में कितना परवान चढ़ा है, इसकी एक झलक 2024 के आम चुनावों में भी देखने को मिले तो कोई ताज्जुब नहीं करना चाहिए।