मुनेश त्यागी
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण मामले में अवधारित किया है कि अदालत सरकार का माउथपीस या पोस्ट ऑफिस नहीं है। अदालत ने एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा है कि अदालत राज्य सरकार या जिलाधीश के निर्णय को वैसा का वैसा ही नहीं मान सकती। अदालत की नीहित शक्ति है कि वह अपने विवेक का इस्तेमाल करें, कानून के आवश्यक प्रावधानों का पालन करे और न्याय की हिफाजत करें और किसी भी जिलाधीश या राज्य सरकार के निर्णय को वैसे वैसा का वैसा ही स्वीकार ना करें।
अदालत ने कहा है कि अगर किसी सरकारी विभाग या जिलाधीश ने कानून के प्रावधानों का पालन नहीं किया है, कानून के हिसाब से न्याय नहीं किया है और कानून के जरूरी प्रावधानों को न मानकर, मनमानी का इस्तेमाल किया है तो ऐसे में अदालत ऐसे निर्णयों को स्वीकार करने को बाध्य नहीं है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच एक मामले की सुनवाई कर रही थी जिसमें जिलाधीश ने कानून के जरूरी प्रावधानों का पालन नहीं किया था, कानून द्वारा निर्धारित मार्ग का पालन नहीं किया था और उसने अभियुक्त के साथ अन्याय किया था और कानून का ग़लत इस्तेमाल और कानून की मनमानी व्याख्या की थी। अदालत ने जिलाधीश के इस फैसले को पलट दिया और अवधारित किया कि अदालत सरकार के किसी भी फैसले को वैसा का वैसा ही स्वीकार नहीं कर सकती।
अदालत ने अपने आदेश में कहा कि वह कानून का और अपने विवेक का इस्तेमाल करेगी और कानून द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करेगी। अगर प्रॉसीक्यूशन अभियुक्त के खिलाफ सही और पुख्ता सबूत पेश नहीं कर पाया है तो ऐसे मामले में अदालत प्रॉसीक्यूशन की कोई मदद नहीं कर सकती। अदालत ने यह भी निर्धारित किया कि अगर कोई इंक्वायरी या जांच कार्रवाई कानून के हिसाब से नहीं की गई है और इसमें खामियां छोड़ दी गई है तो ऐसी कार्रवाई को गैरकानूनी और मनमानी समझा जाएगा।
अदालत ने कहा है कि अदालत सरकार के फैसलों को एक मशीन की तरह नहीं ले सकती, वह मशीनवत कार्य नहीं कर सकती। वह किसी भी निर्णय को जायज ठहराने के लिए अपने विवेक का इस्तेमाल करेगी और कानूनी प्रावधानों का इस्तेमाल करेगी। वह राज्य सरकार या सरकारी विभाग द्वारा लिए गए फैसले की हां में हां नहीं मिला सकती।
हम बहुत समय से देखते आ रहे हैं कि कई सारी अदालतें अपने को राज्य सरकार का मातहत समझती हैं, वे अपने को राज्य सरकार या विभाग का एक अंग समझती है और उसी के हिसाब से काम करती हैं। ऐसी ही कार्यप्रणाली और मानसिकता से अन्याय कर रहे मामलों में न्याय नहीं किया जाता ऑर वादकारी के साथ अन्याय किया जाता है।
ऐसे ही हमने बहुत सारे सरकारी वकीलों को देखा है कि वे अदालतों में स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं करते, बल्कि जैसा कि सरकार चाहती है वे वैसा ही व्यवहार करते हैं और जिस कारण वे सरकार के वकील न रहकर, स्वतंत्र न्यायिक अधिकारी न रहकर, राज्य सरकार के पैरोकार बन गए हैं।
ऐसे कई मामलों में भारत के उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार स्पष्ट किया है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सरकार के तीन स्वतंत्र अंग हैं। इन्हें अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र कार्रवाई करने का अधिकार है और ये एक दूसरे के कार्य क्षेत्रों में दखलंदाजी नहीं कर सकते। माननीय न्यायालय ने यह भी कहा है की अदालतें राज्य सरकार नहीं हैं। सरकार अलग है और न्यायपालिका अलग है। न्यायपालिका अपने को राज्य कर्मचारी समझ कर या राज्य सरकार का नौकर या पैरोकार समझकर या राज्य सरकार के अधिकारी समझकर कार्य नहीं कर सकती। उन्हें हर एक मामले में अपने स्वतंत्र विवेक का इस्तेमाल करना होगा, कानून के हिसाब से कार्य करना होगा और मामले में दूध का दूध और पानी का पानी करना होगा। उन्हें किसी भी कीमत पर सरकार का पैरोकार होने की इजाजत नहीं दी जा सकती।
भारत के संविधान और कानून को देखकर यह बात बिल्कुल सही है कि अदालतें सरकार के माउथपीस या पोस्ट ऑफिस नहीं हैं। जैसे की पोस्ट ऑफिस में कोई सामान आया और उसको उठाकर संबंधित व्यक्ति को दे दिया। अदालतें ऐसा नहीं कर सकतीं। किसी भी अदालत को किसी भी मामले में कार्यवाही करते हुए, अपने विवेक का इस्तेमाल करना होगा, लॉजिक का इस्तेमाल करना होगा और न्याय के आवश्यक प्रावधानों के हिसाब से कार्यवाही करनी होगी, न्याय देना होगा।
तभी जाकर अदालतों की स्वतंत्रता कायम रह सकेगी और सरकार के अनावश्यक हस्तक्षेप से बचा जा सकेगा। अदालतें किसी भी दशा में राज्य सरकार या सरकारी विभाग के माउथपीस बनकर या पोस्ट ऑफिस बनकर कार्य नहीं कर सकती। उन्हें किसी भी दशा में पुख्ता सबूतों, तथ्यों और कानून के प्रावधानों के हिसाब से अपने कार्य को अंजाम देना होगा। तभी जाकर समाज में न्याय का शासन कायम हो सकता है और केवल तभी अदालतें सरकार के अनावश्यक हस्तक्षेप से बच पाऊंगी।