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*आसान नहीं है डगर संघ-भाजपा राज के तीसरे टर्म की*

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*राजेंद्र शर्मा*

संभवत: इसी बीच हासिल हुई प्रभावी जीतों से बढ़े हुए आत्मविश्वास के चलते, संघ-भाजपा राज ने आरएसएस के शताब्दी वर्ष में उसके पक्के एजेंडे को आगे बढ़ाने के जरिए अपनी वफादारी दिखाने के लिए, इस विधेयक को ठंडे बस्ते से बाहर निकाल लिया है। अब इस विधेयक को दोबारा लोकसभा में आगे बढ़ाए जाने का प्रस्ताव है। लेकिन, इसी बीच सामने आए घटनाक्रम ने, इस विधेयक के भविष्य पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।

बेशक, लोकसभा चुनाव में लगे धक्के से, जिसमें चार सौ पार के नारों से भाजपा, साधारण बहुमत से काफी नीचे, सिर्फ दो सौ चालीस सीटों पर आ टिकी थी, उसके बाद हुए विधानसभाई चुनावों में जीत जुगाड़ने के जरिए, भाजपा कम से कम मानसिक रूप से काफी हद तक उबरने में कामयाब रही है। लोकसभा चुनाव के बाद से हुए प्रमुख विधानसभाई चुनावों में दिल्ली से पहले तक भाजपा, वैसे तो हरियाणा तथा महाराष्ट्र की दो विधानसभाओं में ही जीत हासिल करने में कामयाब हुई थी, जबकि झारखंड तथा जम्मू-कश्मीर में, अपनी सारी कोशिशों के बावजूद उसे हार का मुंह देखना पड़ा था। इसके बावजूद, इन दो जीतों के सहारे ही भाजपा ने, जिसे अपने मन मुताबिक आख्यान गढ़ने तथा मीडिया पर अपने नियंत्रण के जरिए उसे चलाने में खास महारत हासिल है, सफलता के साथ यह माहौल बना दिया था कि लोकसभा चुनाव तो एक विचलन था और आमतौर पर जनता फिर से भाजपा के पीछे गोलबंद हो चुकी है। इसी पृष्ठभूमि में दिल्ली के विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत के बाद से, यह छवि और भी मजबूत हुई है कि मोदी के नेतृत्व में संघ-भाजपा जोड़ी की चुनावी अजेयता फिर से लौट आई है और यहां से आगे मोदी राज की जीत ही जीत है। सिर्फ चुनावी जीत ही नहीं, आम तौर पर राजनीतिक जीत भी।

उनके इसी भरोसे की अभिव्यक्ति, मोदी राज के तेजी से ऐसे कदमों के रास्ते पर बढ़ने में होती है, जो सबसे बढ़कर आरएसएस के बहुसंख्यकों के अपने पक्ष में सुदृढ़ीकरण और बढ़ते हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के एजेंडे की ओर ले जाते हैं। बेशक, यह किन्हीं खास कदमों का या आरएसएस द्वारा उठायी गयी खास मांगों तक ही सीमित सवाल नहीं है। मोदी राज के तीसरे कार्यकाल के करीब ग्यारह महीनों में, खासतौर पर भाजपायी राज्य सरकारों के सहारे, हर साधारण से साधारण मुद्दे का सांप्रदायिक गोलबंदी के हथियार में तब्दील किया जाना, इस देश ने देखा है। इसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश में संभल को, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए एक और अयोध्या में तब्दील किया जाना भी शामिल है। इसमें महाकुंभ का ही नहीं, होली-ईद आदि सब का खुल्लमखुल्ला सांप्रदायीकरण भी शामिल है और भाजपा-शासित राज्यों में खासतौर पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ खुल्लमखुल्ला भेदभाव भी। जाहिर है कि आरएसएस के पुराने एजेंडे के अनुरूप, समान नागरिक संहिता का उत्तराखंड से शुरू कर, आगे बढ़ाया जाना भी इसमें शामिल है।

इसी के हिस्से के तौर पर, संघ-भाजपा ने वक्फ संशोधन विधेयक का खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक हथियार गढ़ा और आगे कर दिया। बहरहाल, तभी इस मुद्दे पर वर्तमान मोदी सरकार के समर्थन की सीमाएं सामने आ गईं। जहां लोकसभा में इस विधेयक के पेश किए जाने के बाद, उसे न सिर्फ धर्मनिरपेक्ष विपक्षी पार्टियों के मुखर विरोध का सामना करना पड़ा, वहीं खुद सत्ताधारी एनडीए में शामिल तेलुगू देशम तथा जनता दल-यूनाइटेड जैसी पार्टियों के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष विरोध का भी सामना करना पड़ा ; ये पार्टियां संघ-भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडे का ज्यों का त्यों अनुमोदन करने में असुविधा महसूस कर रही थीं। इसी का नतीजा था कि एक दुर्लभ पैंतरा अपनाते हुए, मोदी राज को इस विधेयक का संयुक्त संसदीय समिति को सौंपा जाना स्वीकार करना पड़ा, ताकि इस पर विभिन्न पक्षों की और विस्तार से राय ली जा सके। यह एक प्रकार से इस विधेयक के ठंडे बस्ते में डाले जाने का ही पैंतरा था और उसे आम तौर पर उसी रूप में देखा जा रहा था।

लेकिन, संभवत: इसी बीच हासिल हुई प्रभावी जीतों से बढ़े हुए आत्मविश्वास के चलते, संघ-भाजपा राज ने आरएसएस के शताब्दी वर्ष में उसके पक्के एजेंडे को आगे बढ़ाने के जरिए अपनी वफादारी दिखाने के लिए, इस विधेयक को ठंडे बस्ते से बाहर निकाल लिया है। अब इस विधेयक को दोबारा लोकसभा के जरिए आगे बढ़ा दिया गया है। लेकिन, इसी बीच सामने आए घटनाक्रम ने, गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। वक्फ संशोधन विधेयक के पुनर्जीवित किए जाने की सुगबुगाहट होने के बाद से, धर्मनिरपेक्ष विपक्षी पार्टियों ने और भी दृढ़ता तथा स्पष्टता के साथ इसके खिलाफ आवाज तो उठायी ही है, इसके खिलाफ खुद मुस्लिम समुदाय भी एक स्वर से विरोध करने के लिए उठ खड़ा हुआ है। यहां तक कि इस बार रमजान-ईद के मौके पर, करोड़ों मुसलमानों ने काली पट्टियां बांधकर, इसके खिलाफ शांतिपूर्ण किंतु विराट सार्वजनिक प्रदर्शन किए हैं।

इस सब का नतीजा यह हुआ कि एनडीए में भाजपा के, खुद को धर्मनिरपेक्ष दिखाने वाले सहयोगियों को संघ-भाजपा को परोक्ष रूप से यह संदेश देना पड़ा है कि इस मामले में उनके समर्थन को जेब में मानकर नहीं चला जाना चाहिए। जहां बिहार में, एक प्रमुख मुस्लिम मंच ने, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की इफ्तार पार्टी के बहिष्कार की घोषणा कर, उस राज्य में नीतीश कुमार पर दबाव बढ़ा दिया, जहां अगले छ: महीने के अंदर-अंदर चुनाव होने जा रहे हैं। इस दबाव से निपटने के लिए नीतीश कुमार ने किस तरह, संबंधित मुस्लिम मंच के खिलाफ दमनकारी कार्रवाई और मुसलमानों के प्रति अपनी वफादारी के आम प्रदर्शन के दुहरे हथियार आजमाए हैं, इसकी चर्चा हम किसी और मौके पर करेंगे। यहां इतना कहना ही काफी है कि इस पूरे घटनाक्रम ने नीतीश कुमार को मुसलमानों के बीच अपनी छवि को, संघ-भाजपा से अलगाने के प्रति सचेत कर दिया है।

उधर चंद्रबाबू नायडू ने विजयवाड़ा में आयोजित एक इफ्तारी के मंच का उपयोग, मुसलमानों को इसका भरोसा दिलाने के लिए किया कि, उनकी सरकार मुसलमानों के हितों की रक्षा करने की अपनी वचनबद्घता पर कायम है और रहेगी। वक्फ विधेयक विवाद की पृष्ठभूमि में उन्होंने खासतौर पर जोर देकर कहा कि मुसलमानों की जमीनों, परिसंपत्तियों पर किसी को भी बुरी नजर डालने इजाजत नहीं दी जाएगी। नायडू ने इसकी गारंटी भी दी। इसी दौरान राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी ने भी मेरठ तथा संभल आदि में ईद के मौके पर नमाज पर लगायी गयी पाबंदियों पर विरोध जताते हुए, इसका संबंध राज्य या शासन के ज्यादा से ज्यादा ऑर्वेलियनीय बनते जाने के साथ जोड़ा और कहा कि यह उन्हें हर्गिज मंजूर नहीं है। उधर बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान ने सांप्रदायिक निहितार्थ वाले मुद्दों के उठाए जाने पर विरोध जताया और ऐसे मुद्दे उठाने के लिए अपने सहयोगियों तक को नहीं बख्शा।

इस तमाम हलचल से, जिसके केंद्र में मुस्लिम अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाकर छोड़ दिए जाने की मोदी राज की मुहिम का विरोध या नकार है, खुद मोदी राज को लेकर भी वास्तविक सवाल खड़े हो गए हैं। बेशक, यह कहने का अर्थ यह कतई नहीं है कि इस मुद्दे को लेकर चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार, वर्तमान मोदी सरकार को हिला देने वाले हैं। ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। लेकिन, इतना जरूर है कि नायडू-नीतीश आदि की ओर से मोदी राज को इसकी चेतावनी मिल सकती है कि वह आरएसएस के प्रति अपनी वफादारी के प्रदर्शन में, उन्हें जबर्दस्ती नहीं घसीट सकता है।

यह आरएसएस का शताब्दी वर्ष है। इसी सिलसिले में प्रधानमंत्री मोदी ने खुद नागपुर जाकर, आरएसएस के मुख्यालय में मत्था ही नहीं टेका है, सार्वजनिक रूप से आरएसएस की महानता का बखान भी किया है। यह आरएसएस के विभाजनकारी सांप्रदायिक चरित्र को परंपरा तथा संस्कृति की चादर से ढांपने की ही कोशिश थी, जिसके बाद उसे शासन-तंत्र में और गहराई तक रोपा जाएगा। मोदी निजाम इसी रास्ते पर बढ़ता चाहता है और उसका अब तक का रिकार्ड यही दिखाता है कि वह इसी रास्ते पर चलने जा रहा है। लेकिन, उसके चंद्रबाबू नायडू तथा नीतीश कुमार जैसे क्षेत्रीय तथा खुद को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले सहयोगियों को, उसके साथ बंधे-बंधे अपना इस रास्ते पर घसीटा जाना मंजूर नहीं है। संघ-भाजपा की स्वाभाविक सांप्रदायिक प्रेरणा और उनके राज के अल्पमत का ही राज होने की सच्चाई के बीच का अंतर्विरोध, आसानी से हल या शांत होने वाला नहीं है। यह अंतर्विरोध मोदी राज की नैया डावांडोल नहीं भी करे, तब भी उसे हिलाता तो रहेगा ही और यह तीसरे कार्यकाल में मोदी की राह मुश्किल बनाने जा रहा है।

*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*

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