डॉ. प्रिया
_सोने के रंग की गेहूँ की बालियाँ इस मौसम में पककर तैयार हो जाती हैं।जब से गेहूँ काटने का काम मशीनों से ज़्यादा लिया जाने लगा तब से इस कटिया के अवसर पर मज़दूरों द्वारा गाए जाने वाले गीत भी सुनाई नहीं देते।गेहूँ की कटाई से मशीनों से होने की वजह से भूसा तो ख़त्म हुआ ही,साथ ही साथ मज़दूरों को काम मिलना बंद हुआ,हल और बैल भी ख़त्म हो गए।_.
अब तो बोझा बँधाई की मशीन भी आ गई है जो गेहूँ के बोझ को बांध देती है।जब भूसा ही नहीं निकलेगा तो बैल क्या खाएंगे,बाज़ार में जो रोज़ बढ़ता हुआ भूसे का दाम है उसे बैल को खिलाकर बैल पालना तो आम किसान के लिए हाथी पालने के बराबर ही माना जाएगा।
_ग्रामीण खेतिहर संस्कृति में इन बैलों पर भी गीत थे,जब बैल ही नहीं रहे तो बैलों के ऊपर गाए जाने गीत भी बीते दौर की बात हो गए।_.
गीत तो गए ही,बैलों की घंटियों की रूनझुन-रूनझुन करती आवाज़ भी अब सुनाई नहीं देती।जब गेहूँ की कटाई-दँवाई-ओसाई पुराने पारंपरिक तरीके से होती थी तो उस समय गेहूँ जब कटता वो धन माना जाता।गेहूँ रूपी इस धन के ब्याज के रूप में भूसा किसान के हाथ होता,पशुओं की सार की कोठली पर भरा होता,जब किसान को वक़्त-बेवक़्त अचानक नकद पैसों की ज़रूरत होती और गेहूँ बेचकर मिला पैसा चुक गया होता तो किसान अब ब्याज रूपी भूसे पर नज़र डालता और भूसा बेचकर चंद पैसे हासिल करता जो आमतौर पर बच्चों को मेले-ठेले का शौक़ पूरा करने के लिए दिए जाते या किसी घरेलू ज़रूरत की पूर्ति के लिए इस्तेमाल होते।
बीते दशकों तक खेतिहर मज़दूर खेती के मेहनत वाले कामों को करने के दौरान खेतों में गीत गाया करते,ऐसे में उत्सव का माहौल रहता।
खुले आसमान में चैत की धूप से लेकर धान की रोपनी के दौरान पड़ने वाली फुहारों तक के कष्ट को वो इन गीतों के ज़रिए हर लेते।चैत की भोर से गेहूँ कटाई का काम शुरू होता और सूरज जब अपनी तपिश के शबाब पर होता तब भी चलता रहता।गीत गाकर मज़दूर इस कष्ट से ध्यान हटाते।
खेत में खरमिटाव करते मतलब एक प्रकार का सुबह का नाश्ता करते और फिर हँसते हुए गीत शुरू कर काम पर लग जाते।हर अवसर के अलग गीत थे।रोपनी और सोहनी का गीत अलग था,निरवाही का गीत अलग और कटिया का अलग होता था।
इसी के साथ-साथ खेतिहर मज़दूूरों द्वारा अन्न की दँवाई से लेकर अन्न अपने ज़मींदार की बखरी में पहुंचाने तक गीत गाया जाता था।जब काम पूरा हो जाता तो उस अन्न में से बतौर मज़दूरी जो अपना हक़ मज़दूर मांगते वो भी गीतों के ज़रिए ही ज़मींदार से मांगते।
गेहूँ की कटिया के दौरान मज़दूर महिलाओं और पुरूषों द्वारा गाये जाने वाले एक पारंपरिक भोजपुरी गीत की चंद पंक्तियाँ याद आ रही हैं :
‘खेतवा में होवत कटियवा हो रामा,सूरदेव कपरा तपावैं
कंगना से कंगन लड़ैं बजत बा संगीत हो
तूँ आय के तनी बोझा बनावा,ऊ माथे पहुंचावैं
भरि जाई कोठिला कोठली,भरि जाई बखरिया
अबकी लगन बलम ब्याह दीहैं ननदिया
दुअरा प मोरे बाजी झांझ खंझरिया
हालीं बोझा प बोझा बँधावा त ऊ हाली ओसावैं
खेतवा में होवत कटियवा हो रामा,सूरदेव कपरा तपावैं’
खेतों में काम करने वाले ये खेतिहर मज़दूर हिंदू-मुस्लिम समाज की कथित निम्न जातियों से हुआ करते।उनकी महिलाएं भी खेतों में काम करतीं।ख़ुदकाश्त किसान भी इन जातियों में से कुछ होते जो दूसरों के यहाँ मजूरी नहीं करते,लेकिन अधिकतर छोटी जोत के ख़ुदकाश्त होते जो अपनी छोटी जोत के खेतों में खेती करने के साथ-साथ बड़े किसानों के खेतों में मजूरी भी करते।
जातियों के अनुसार ही इनके लोकगीत थे।जैसे अहीर मज़दूर बिरहा गाते तो लोहार और बढ़ई गोपी ठाकुर की याद में तान छेड़ते।पासी मज़दूरों का लोकगीत पसियऊटा था,कहार पुरूष और महिलाओं का कहरऊआ-कहरवा था और मुसहर-चर्मकार दीना-भद्री के लोकगीत खेतों में गाते हुए काम पर जुटे रहते।
इसी तरह से अन्य भी कई जातियों के अपने अलग लोकगीत होते और हर अवसर के लिए भिन्न होते।जचगी से लेकर ओसाई और मड़वे का अलग लोकगीत था।कटिया-रोपनी के समय गाए जाने वाले इन लोकगीतों में प्रेम वैराग्य दर्द उल्लास समेत हर मानव भावना का समावेश होता और हर जाति के मज़दूरों के गीत कर्णप्रिय होते।समाज की कथित निम्न जातियों की महिलाएं ही खेतों में काम करतीं जबकि हिंदू-मुस्लिम वर्ग की कथित उच्च जातियों की ज़मींदार वर्ग की महिलाएं ड्योढ़ी-दहलीज लांघ खेतों में काम करने नहीं जातीं ना खेत में काम कर रहे मज़दूरों की निगरानी के लिए जाया करतीं।उनमें पर्दा प्रथा थी।
खेतों की निगरानी का ये काम पुरूष ज़मींदार किया करते और वही खेतों की मेड़ पर खड़े होकर मज़दूरों को हाथ बढ़ाकर काम करने का बढ़ावा देते रहते,ताकि काम जल्दी निपट जाए।जब अन्न खेत के स्वामी के दरवाज़े या ठीहे लग जाता तो मज़दूरों को उनका हिस्सा बाँटा जाता।
दऊरी में भर-भर अनाज मज़दूरों के सामने कारिंदे रखते जाते।हमें याद है कि हमारे दरवाज़े जब हमारे खेतों से आए अनाज का ढेर लगता तो कारिंदों के बाद मेरे दादा मतलब पिता के पिता मज़दूरों को अपने हाथ से कुछ दऊरी अनाज देते और उस अनाज को घलुआ कहा जाता।
उस समय वो बरकत-बरकत बोलते जाते,मतलब कि खेतों के अनाज में हमेशा बरकत रहे।घलुआ अनाज देना खेत के मालिक की मर्ज़ी पर होता।घलुआ मतलब बँधी मजूरी से एक्स्ट्रा अनाज पाने पर मज़दूर दुआएं देते और कहते हैं कि उन्हीं दुआओं की बरकत से खेतों से बहुत ज़्यादा अनाज उपजता।
बहरहाल,अब भूसे की ज़रूरत छोड़ बाकी के खेतों में हमारे यहाँ भी मशीनों से ही कटिया हो रही है।कटिया के लिए मशीनों का आना अचानक नहीं हुआ।वक़्त बदला तो कटिया के समय मज़दूर अपनी मर्ज़ी से अनाज या नकद रूपये मांगने लगे,हर बरस यह रकम बढ़ती ही जाती।
फिर पंजाब से सिख अपनी कटिया की मशीनें लेकर आए और बड़े किसानों के खेतों पर गेहूँ की कटाई करने लगे।स्थानीय लोगों को ये सौदा फ़ायदे का लगा।कम समय में और कम पैसे में काम हुआ,मज़दूरों पर निर्भरता घटी।अब बैलों से खेती ना होने और पशुओं को कम पाले जाने के कारण भूसे की भी बहुत ज़रूरत बड़े किसानों को नहीं रह गई थी।
एक यह भी वजह थी कि बड़े किसान मज़दूरों की जगह मशीनों से काम लेने लगे और फिर स्थानीय स्तर पर भी कटिया करने की मशीनें आ गईं,मशीनीकरण के युग की शुरूआत हो चुकी है।खेतों में कटिया के दौरान लोकगीत कम सुनाई पड़ते हैं,खेतिहर मज़दूरों को गेहूँ-धान के समय अच्छी मात्रा में अन्न और पैसा स्थानीय बड़े किसानों के खेतों में मेहनत कर ही मिल जाता,अब ये ज़रिया कम हुआ तो खेतिहर मज़दूरों ने भी कमाने के लिए बड़े शहरों का रूख़ किया और वहाँ जाकर मज़दूरी करने लगे हैं।
(चेतना विकास मिशन)